नक्सली हिंसा को राष्ट्रीय संकट माना जाए

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नक्सली हिंसा को राष्ट्रीय संकट माना जाए
- रमेश नैय्यर
लेख - दैनिक भास्कर २ ८ मई २ ० १ ३  
वाम चरमपंथ भारतीय राजनीति, रणनीति, आर्थिकी और सामाजिक विमर्श का एक बड़ा विषय बना हुआ है। उसे चर्चा के केन्द्र में रखे रहने में अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजे गए कुछ लेखकों-पत्रकारों की सक्रियता विस्मित करती है। उनके हितैषी महिमामंडित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और योजना आयोग में भी स्थापित हैं। अनेक राजनीतिज्ञ भी वक्त पडऩे पर उनके पक्ष में मुखर होते पाए जाते हैं। वे योजनाबद्ध ढंग से नृशंस हत्याएं करते हैं। 'जन-अदालतें' लगाकर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों, सरकारी कर्मचारियों और आम आदिवासियों के सरेआम गले रेत देते हैं। इधर उन्होंने विद्यार्थियों और पत्रकारों को भी पुलिस मुखबिर करार देकर मारना शुरू कर दिया है। साधारण वेतन पर अपने परिजनों से बहुत दूर बीहड़ इलाकों में पदस्थ सुरक्षाकर्मियों की हत्याएं तो वे अपना फर्ज मानते हैं।

इस दहकते यथार्थ से वाकिफ तो रसीली भाषा-शैली में अंग्रेजी लेखन करने वाले कई साहित्यकार भी हैं, परंतु इस सच को वे बयान नहीं करते। बल्कि इन माओवादियों को 'बंदूकधारी गांधी' 'गरीब और मजलूम के मसीहा' और 'पूंजीवाद से अभिशप्त भारत के मुक्तिदाता' के रूप में अलंकृत करते हैं। इसके बरक्स पुलिस और तमाम सरकारों का प्रचारतंत्र बेदम और बोसीदा रहता है। वह इसलिए कि पुलिस को तो प्रचार के लिए धन दिया नहीं जाता और सरकारों के जनसंपर्क विभाग कमोबेश काहिली, कल्पनाशून्यता और कमीशनखोरी के शिकार हैं। इसके विपरीत वामचरमपंथी प्रचार-प्रसार पर विपुल धन राशि खर्च करते हैं। पुलिस के नक्सली इंटैलिजेंस में शीर्ष पद पर रहे एक अधिकारी ने निजी बातचीत में बताया ''माओवादी छोटे-बड़े अनेक लेखकों की खूब आवभगत करते हैं। उन्हें हवाई यात्राओं से बुलाकर घने जंगल का रूमान दिखाकर चमत्कृत करते हैं। उनके वित्तीय संसाधन हमारी पुलिस से कहीं ज्यादा हैं। पत्रकारिता और राजनीति में सक्रिय अपने जासूसों को माओवादी अच्छा मानदेय देते हैं।''

25 मई को माओवादियों की 'राष्ट्रीय राजधानी' बस्तर में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए नक्सली हमले के तत्काल जो संकेत मिले हैं वे भी यही इंगित करते हैं कि यात्री-दल में उनका कोई भेदिया था। माओवादियों के इस औचक हमले में छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और प्रखर नेता महेंद्र कर्मा सहित 28 लोग मारे गए। महेंद्र कर्मा के जाने से माओवादी मन की बुनावटों को समझने-बूझने वाला और बस्तर के कोने-कोने से वाकिफ एक बड़ा रणनीतिकार चला गया। वयोवृद्ध नेता विद्याचरण शुक्ल को चार गोलियां लगी हैं। दक्षिण बस्तर में कांग्रेस के इस यात्री दल में वे लोग भी थे जिन्होंने पिछले हफ्ते निकटस्थ अडसमेटा में पुलिस गोलीबारी में हताहत लोगों को लेकर सरकार विरोधी प्रदर्शन किया था। उसे पुलिसिया नरसंहार करार देते हुए पुलिस तथा राज्य सरकार की खुली निंदा की थी।

दक्षिण बस्तर के सुकमा क्षेत्र में किए गए अमानुषिक नरसंहार के पीछे यात्री दल में माओवादियों के किसी जासूस के होने की आशंका के कुछ ठोस आधार हैं। मसलन 22 वाहनों में उन्हीं तीन वाहनों को विस्फोट और गोलीबारी की जद में क्यों लाया गया, जिनमें कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सवार थे। यात्रा के पूर्व निर्धारित अपेक्षाकृत सुरक्षित रूट को एकाएक दरभा की खतरनाक घाटी की ओर किसके कहने पर मोड़ा गया? सबसे बड़ा सवाल यह है कि मनुष्यों के उस आखेट क्षेत्र में मात्र दस-बारह सुरक्षाकर्मियों के बूते यात्रा निकालने का फैसला किसने किया? क्षेत्र में राज्य की पुलिस के अलावा केन्द्र के अर्धसैनिक बल भी बड़ी संख्या में तैनात रहते हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी को सारे संहार की जांच सौंप दी गई है। इसलिए कोई कयास लगाने का औचित्य नहीं दिखता। कांग्रेस नेताओं को यात्रा पर निकलने से पहले सोचना चाहिए था कि माओवादी कांग्रेस-नीत केन्द्र सरकार से भी इसलिए खिन्न हैं कि उस अबूझमाड़ में केन्द्रीय बलों ने धमक दे दी है, जहां उनके आयुध यूनिट हैं। वहां का कुछ इलाका केन्द्रीय बलों ने माओवादियों से छीन भी लिया है।

पिछले कुछ महीनों से चौतरफा दबाव झेल रहे माओवादियों के कैडर में कुछ हताशा दिखी है। वे पुलिस के सामने समर्पण भी करने लगे हैं। इस हताशा को दूर करने के लिए माओवादी गत दो-ढाई हफ्तों से ताबड़तोड़ हमले करके जता रहे हैं कि उनका दमखम बरकरार है। एनएमडीसी के प्रहरियों और जगदलपुर के दूरदर्शन कर्मियों की हत्या का कोई औचित्य नहीं दिखता। माओवादी हिंसा का 'नर्व सेंटर' बन चुकेअबूझमाड़ और दक्षिण बस्तर में उनकी 'जनताना सरकार' का ही दबदबा है। संवैधानिक सरकार तो महज एक समानांतर व्यवस्था खड़ी करने को जूझ रही है। जब तक वाम चरमपंथियों के इस गढ़ को नहीं तोड़ा जाएगा, उनका शमन किया नहीं जा सकता। यह छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड सरकारों के बूते की बात नहीं है। बस्तर से जुड़े इन राज्यों के अलावा महाराष्ट्र का वह गढ़चिरौली भी बस्तर की बांहों में है जहां माओवादी सक्रिय हैं। इन सभी राज्य सरकारों की रजामंदी से केन्द्र को एक समन्वित सशस्त्र अभियान की ठोस और निर्णायक पहल करनी चाहिए। कुछ समय के लिए सशस्त्र सेनाओं का मार्गदर्शन भी उस समन्वित अभियान को दिया जाना चाहिए। आने वाले तीन-चार महीने किसी समन्वित अभियान के लिए कठिन होंगे, क्योंकि मानसून के कारण भीतरी इलाकों के पहुंच मार्ग बंद हो जाएंगे। फिर भी माओवादियों को भीतरी इलाकों तक बांधकर रख देने में इस वक्त का उपयोग किया जा सकता है।

नवंबर में संभावित अनेक विधानसभाओं के चुनावों को देखते हुए चुनावी राजनीति जो करतब दिखाना शुरू करेगी, उनमें सरकारों के माओवादी संकट से भटक जाने की पूरी आशंका है। यद्यपि प्रधानमंत्री ने ताजा रायपुर प्रवास के दौरान माओवादी संकट को गंभीरता से लेने की बात कही है, फिर भी चुनावी लालसा कई बार राष्ट्रीय प्राथमिकता बदल देती है। सारी पार्टियों को इस गंभीर राष्ट्रीय संकट पर आम सहमति बनाने के लिए एक मंच पर आना चाहिए। जिस प्रकार अकेले बस्तर में ही आए दिन माओवादियों द्वारा मनुष्यों का शिकार किया जा रहा है, उसके प्रति सभी सरकारों को संवेदनशील होना चाहिए। आखिर कब तक लोग लाशों को गिनते रहेंगे?
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