नक्सलवाद : सिर्फ आतंकवाद
यह लेख भास्कर समाचार पत्र का है ,
कुछ बातें समझनें में दिक्कत हो सकती हे
31 May-2013
अकसर कहा जाता है, कि जनजातियों और नक्सलियों में फर्क करना मुश्किल होता है। ये चुनौती तो रहेगी ही। कश्मीर में भी तो पता किया ही जाता है कि कौन पाकिस्तानी है और कौन हिंदुस्तानी?
अकसर कहा जाता है, कि जनजातियों और नक्सलियों में फर्क करना मुश्किल होता है।
ये चुनौती तो रहेगी ही। कश्मीर में भी तो पता किया ही जाता है कि कौन पाकिस्तानी है और कौन हिंदुस्तानी?
प्रधानमंत्री से लेकर सेना के अधिकारी तक कह चुके हैं कि नक्सली हमारे ही लोग हैं। उन पर गोलियां कैसे चला सकते हैं?
ये कैसा तर्क है। कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में सेना तैनात है। गड़बड़ी होने पर गोली भी चलाते हैं। हमारे ही लोगों पर।
कहते हैं नक्सली आदिवासी और ग्रामीणों को डराकर आतंक फैलाते हैं। इसलिए ग्रामीण सुरक्षाबलों का साथ नहीं देते।
झूठ है। सुरक्षाबलों को नक्सलियों के पूरे सफाए का आदेश नहीं हैं, तो ग्रामीण भरोसा क्यों करेंगे।
...कि वे छुपकर युद्ध करते हैं
कुछ रणनीतिकार तर्क देते हैं कि माओवादी छापामार युद्ध करते हैं। इसका फायदा उन्हें मिलता है। हास्यास्पद है ये तर्क। आखिर कोई दुश्मन सामने से हमला क्यों करेगा।
ये सिर्फ बहाना है, हमारे सुरक्षाबलों के पास सभी साधन हैं, जो उनकी हर लोकेशन और गतिविधि का पता कर सकें।
आंध्र प्रदेश से आए नक्सलियों को रातों-रात महाराष्ट्र, उड़ीसा, झारखंड और छत्तीसगढ़ के जंगलों की जानकारी कैसे हो सकती है! जबकि सुरक्षा बलों के पास तो जीपीएस जैसी आधुनिक तकनीक है।
कहते हैं कि नक्सली स्थानीय लोग हैं और उन्हें वहां की जानकारी रहती है। जबकि बाहर से आए सुरक्षाबल स्थानीय ग्रामीण और आदिवासी लोगों की जानकारी पर निर्भर हैं।
दोष मढऩा कि सुरक्षा बलों के पास ट्रेनिंग की कमी है
बड़े नक्सली हमले के बाद बहाना बनाया जाता है कि सुरक्षाबलों की ट्रेनिंग कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए होती है। लड़ाई के लिए नहीं। ये बात २०१० में ७६ सीआरपीएफ के जवानों की हत्या के बाद केंद्र की कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी की बैठकक में कही गई।
हकीकत ये है कि सीआरपीएफ के जवानों को आर्मी युनिट में ट्रेनिंग देकर ही नक्सल इलाके में भेजा जाता है। ये बात और है कि उन्हें हमले की छूट नहीं होती।
आड़ लेना, कि वे हमारे ही लोग हैं
झूठ, कि नक्सली पहचाने नहीं जाते
बहाना, कि नक्सलियों को पूरे इलाके के चप्पे-चप्पे का पता है
कहना कि नक्सलियों को है ग्रामीणों का साथ
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31 May-2013
सही फैसले, जो माओवाद के खिलाफ लिए
सही फैसले, जो माओवाद के खिलाफ लिए
टर्निंग पॉइंट, जिससे भड़की नक्सली हिंसा
जवानों की हत्या-दर-हत्या से भी फर्क न पड़ा
2008 में उड़ीसा के बलीमेला में नक्सलियों ने एंटी-नक्सल फोर्स ग्रेहाउंड्स जवानों की नाव पर हमला किया। हमले में नाव डूब गई और 38 जवानों की मौत हो गई थी।
समन्वय नहीं बना : ग्रेहाउंड्स ने आंध्र से नक्सलियों का सफाया कर दिया। दूसरे राज्यों से समन्वय न होने कारण नक्सली वहां पनपे।
पेट में बम प्लांट, इस नृशंसता पर भी खून न खौला
2013 झारखंड में नक्सलियों ने सीआरपीएफ जवान बाबुलाल पटेल को मारा और फिर उनका पेट फाड़कर उसमें 2 किलो का बम फिट किया। इसका खुलासा पोस्टमार्टम के दौरान हुआ।
हौसले पस्त करने की साजिश : नक्सली अपनी क्रूरता दिखाकर सुरक्षाबलों का मनोबल तोडऩा चाहते थे।
सलवा जुडूम से परेशान हो भड़के नक्सली
२००५ में महेन्द्र कर्मा ने बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ एक संगठन खड़ा किया। नाम था सलवा जुडूम। इसके सदस्य माओवादियों को निशाना बनाते।
पहली बार डरे: सलवा जुडूम की कार्रवाई से नक्सलियों में खौफ पैदा हुआ। २५ मई को हुआ ताजा हमला भी उसी बौखलाहट के कारण था।
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इंदिरा गांधी ने नक्सलियों के खिलाफ सेना लगाई
1968 में पश्चिम बंगाल में इंदिरा गांधी ने नक्सलियों को खत्म करने के लिए जनरल सैम मानेक शॉ को कह कर सेना तैनात की थी। मानेकशॉ के उत्तराधिकारी जनरल जेएफआर जैकब ने हाल ही इंटरव्यू में इसकी तस्दीक की है।
आंध्र में पीडब्लूजी पर बैन, लगभग खत्म हुए नक्सली
आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही एन जनार्दन रेड्डी ने 1992 में आंध्र में पीपुल्स वॉर ग्रुप पर प्रतिबंध लगाया। नक्सली युद्ध चाहते थे, तो उन्हीं की भाषा में जवाब दिया। दो साल में नक्सली खत्म।
तीन साल बाद एक बाद फिर सेना उतरी उनसे लडऩे
इसके बाद 1971 में बांग्लादेश युद्ध से ठीक पहले सेना ने नक्सलियों के खिलाफ अक्टूबर में 45 दिन का अभियान चलाया था। इसमें न सिर्फ पैदल सेना की 20वीं डिवीजन बल्कि 50 पैरा ब्रिगेड को भी लगाया गया था।
छत्तीसगढ़ में उतारे मिजो और नागा जवान, बस्तर में कुछ साल पहले नागा और मिजो बटालियन लगाई गई थीं। जंगलों और पहाड़ों में पले, बढ़े इन जवानों ने नक्सलियों की नाक में दम कर दिया। वे इतनी तेजी से चलते कि नक्सली हैरान रह जाते।
अगवा पुलिस अफसर को युद्धबंदी बताने पर भी कुछ नहीं किया
2009 में प. बंगाल के झारग्राम के थाना प्रभारी अतिंद्रनाथ दत्ता को अगवा किया। छोड़ा गया तो गले में लाल बैनर टांगकर। बैनर पर लिखा था 'युद्धबंदी'।
कैसे बढ़े हौसले : घटना के बाद नक्सलियों ने अपने आतंक को जाहिर करने के लिए कई बार अफसरों और नेताओं को अगवा किया और अपनी जन अदालतों में उनकी हत्या भी की।
जहानाबाद जेल तोड़ी फिर भी चुप रही सरकार
2005 बिहार की जहानाबाद जेल पर हमला किया। जेल के सुरक्षाकर्मी परास्त होकर भाग गए। नक्सली अपने 341 साथियों को छुड़ा ले गए। और विरोधी रणवीर सेना के जेल में बंद लोगों को अगवा कर लिया और मार डाला।
सिर्फ सांकेतिक कार्रवाई : सिर्फ जेलर को ही सस्पेंड किया गया। जेल के आसपास फेंसिंग की गई। नक्सलियों के खिलाफ किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं।
झूठे बहाने, जिनकी वजह से मुकाबला हो ही नहीं पा रहा है
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31 May-2013
माओवादी नेता कनु सान्याल को तो सीधे चीन से मदद मिलती थी। ये खुद उसी ने स्वीकार किया है। बताया कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के बाद चीन से उसे बताया गया कि कैसे वह भारत में माओवाद फैला सकता है। उसे भारत में भी कम्युनिस्ट क्रांति लाने को कहा गया। फिर क्या था, उसने देश में कम्युनिस्ट पार्टी (माले) बनाई। उसकी पहल पर कई जगह कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट क्रांति के नाम पर संगठन बने। पश्चिम बंगाल के कुछ वामपंथी मीडिया ने इसकी बातों का समर्थन करते हुए लेख भी छापे। सान्याल पूरे राष्ट्र की संपत्ति को सभी लोगों में बराबर बांटने की वकालत करता था। लेकिन उसकी बैठकों में वह आतंक फैलाने और सरकार को कमजोर करने के भाषण देता। 1972 में चारू मजूमदार की मौत के बाद नक्सली आंदोलन बिखर गया। अलग-अलग गुट हत्याएं करने में जुट गए।
माओवादी नेता कनु सान्याल को तो सीधे चीन से मदद मिलती थी। ये खुद उसी ने स्वीकार किया है। बताया कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के बाद चीन से उसे बताया गया कि कैसे वह भारत में माओवाद फैला सकता है। उसे भारत में भी कम्युनिस्ट क्रांति लाने को कहा गया। फिर क्या था, उसने देश में कम्युनिस्ट पार्टी (माले) बनाई। उसकी पहल पर कई जगह कम्युनिस्ट-सोशलिस्ट क्रांति के नाम पर संगठन बने। पश्चिम बंगाल के कुछ वामपंथी मीडिया ने इसकी बातों का समर्थन करते हुए लेख भी छापे। सान्याल पूरे राष्ट्र की संपत्ति को सभी लोगों में बराबर बांटने की वकालत करता था। लेकिन उसकी बैठकों में वह आतंक फैलाने और सरकार को कमजोर करने के भाषण देता। 1972 में चारू मजूमदार की मौत के बाद नक्सली आंदोलन बिखर गया। अलग-अलग गुट हत्याएं करने में जुट गए।
भास्कर लाया है
देश में पहली बार
वामपंथी फैशन में शहरों तक पहुंचा जहर
चीन से इशारा मिला, कनु ने फैला दिया आतंक
कारण, नक्सलवाद पैदा होने के
नक्सलबाड़ी विद्रोह को भुनाया और आतंकी टोलियां बनाईं
35 बिंदुओं में नक्सलियों का इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, सैन्य विज्ञान भाषा और गणित। सबकुछ।
नक्सली नृशंसता की सारी हदें पार कर चुके हैं। नेताओं को मार, उनकी लाशों पर नाच रहे हैं। लाश पर बंदूक और चाकू चला रहे हैं। इस घटना ने देश को झकझोर दिया है।
70 के दशक में वामपंथ को कथित बुद्धिजीवियों में बहुत लोकप्रियता मिली। इसके पक्षधर खुद को प्रगतिवादी या कामरेड कहलाना पसंद करते। कई आईआईटी और अन्य कॉलेज के ड्रॉपआउट्स इस आंदोलन से जुड़े। वे आदिवासियों और भूमिहीन मजदूरों के संघर्ष की वकालत करते। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू), नई दिल्ली तो वामपंथियों का स्थायी ठिकाना बन गया। जब नक्सली हिंसा करते तो ये न सिर्फ उसका समर्थन करते, बल्कि रैली निकालकर, प्रदर्शनी लगाकर सरकार को ही दोषी ठहराते। कुछ लेखकों और बुद्धिजीवियों के ऐसे भाषणों और लेखों को विदेशी मीडिया में जगह भी मिलती और तारीफ भी। हालांकि जैसे-जैसे नक्सलियों की क्रूर और कायराना करतूतें सामने आईं, वैसे-वैसे बुद्धिजीवियों की दिलचस्पी भी नक्सलियों में कम हुई।
२ मार्च 1967, पश्चिम बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में एक आदिवासी किसान बिमल को कोर्ट से आदेश के बावजूद जमीन का कब्जा नहीं मिला। जब वह मौके पर पहुंचा तो जमींदार ने उस पर हमला भी किया। इस घटना का विरोध पूरे गांववालों ने किया और नतीजे में जिन जमीनों पर जमींदार का कब्जा था उसे गांववालों ने अपने कब्जे में ले लिया। पुलिस मौके पर पहुंची। सिलीगुड़ी किसान सभा के प्रमुख जंगल संथाल के नेतृत्व में ग्रामीणों ने तीर कमान से एक इंस्पेक्टर को ही मार डाला। लोगों के इस आक्रोश को माओ समर्थक चारू मजूमदार ने भुनाया। वे इस संघर्ष की कहानी को गांव-गांव में ले गए। लोगों को भड़काया। आतंक फैलानेवाली टोलियां बनाईं। दो महीने में ऐसे ही संघर्ष बिहार, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु के माओवादी प्रभाव वाले इलाकों में हुए। और फिर हिंसा पसरती ही गई। जंगल संथाल जैसे लोगों ने भी मजूमदार को समर्थन दे दिया। चारू मजूमदार ने इस दौरान जो आठ लेख लिखे, उसे माओवादी आज भी अपनी विचारधारा का सर्वोच्च डॉक्यूमेंट मानते हैं।
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31 May-2013
२०००
ञ्च २००८ २३१
ञ्च २००९ ३१७
ञ्च २०१० २८५
ञ्च २०११ १४२
ञ्च २०१२ ११४
आंकड़े, जो बताते हैं नक्सली सिर्फ आतंकी
२०११
ञ्च २००८ ४९०
ञ्च २००९ ५९१
ञ्च २०१० ७२०
ञ्च २०११ ४६९
ञ्च २०१२ ३००
२०१० २००९
१४१२ १७६०
२२१३ २२५८
१५९१ 2००८
१००० १५००
२५००
२००९-२०१० में जब देश की सरकार और सुरक्षाबल विधानसभा और लोकसभा चुनाव में उलझे थे, तभी लोगों और पुलिसकर्मियों को ज्यादा खून बहा।
पुलिसकर्मियों की हत्या ये कहकर की जाती थी कि वे लोगों पर अत्याचार करते हैं। लेकिन जब १९९० के दशक में सीआरपीएफ तैनात हुई, तो उन्होंने और बड़े हमले किए।
पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ में तो दबदबा कायम रखने के लिए नक्सली जनअदालत लगाते हैं। और किसी भी व्यक्तिको सुरक्षाबलों का मुखबिर बताकर गोली मार देते हैं।
नक्सली वारदात
सुरक्षाबलों की हत्या
आम लोगों की हत्या
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31 May-2013
>१०
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छत्तीसगढ़ की दरभा घाटी में कांग्रेस नेताओं पर हुए हमले में घायल पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल।
आपबीती, नक्सली आतंक और शोषण की
बस्तर की रहने वाली माधुरी। नक्सली इलाके में मौजूद गांव में मां और दो बहनों के साथ रहती थी। दस साल की थी, जब कुछ लोग घर आए। कहा, पिता नहीं हैं, हमारे साथ चलो। पार्टी का काम करो। पैसे मिलेंगे। जंगल के भीतर बने कैंप में लाकर १२बोर की बंदूक थमा दी। माधुरी कहती है, कुछ समझ नहीं आ रहा था, लेकिन संतोष ये था कि खाने को मिल रहा था। जो घर पर दूभर था। कैंप में उसे पहला काम मिला कैम्प के लोगों को ए बी सी डी पढ़ाना। दूसरा काम, पकड़कर लाए गए पुलिसवाले को दस डंडे मारने का। लेकिन माधुरी तब सिहर उठी, जब उसी के सामने उस पुलिसवाले का गला एक नक्सली ने रेत दिया। अब उसे एम्बुश लगाना, बम चलाना, हमला करना सिखाया जाने लगा। वह बताती है आंध्र के नक्सली बस्तर के नक्सलियों को हमेशा छोटी रैंक पर रखते हैं। आंध्र के नक्सली बस्तर की लड़कियों से जबर्दस्ती शादी करते हैं। उस पर भी दबाव डाला गया। लेकिन वह बच निकली। वह कहती है नक्सली शादी करें तो लड़के की नसबंदी करवा दी जाती है। ताकि बच्चे पैदा न कर सकें। लेकिन कमांडर चार बीवियां भी रख सकता है।
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भयंकर भूल, जिन पर आज तक पछता रहे हैं हम
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चुनाव में नक्सलियों से मदद मांगना
एनटीआर के कार्यकाल में नक्सलियों ने अपना नेटवर्क खूब बढ़ाया। 1989 में कांग्रेस के एम. चेन्ना रेड्डी तो एनटीआर से एक कदम आगे निकल गए। एनटीआर को हराने के लिए उन्होंने चुनाव में खुलकर नक्सलियों से समर्थन मांगा। रेड्डी के मुख्यमंत्री बनते ही नक्सलियों ने हैदराबाद में बड़ी रैली की। राज्यभर में जनअदालतें लगाईं। और ये सिलसिला पूरे देश में फैल गया।
एनटीरआर ने नक्सलियों को सच्चा देशभक्त बताया, पुलिस को रोका
1982 में तेलुगूदेशम पार्टी नेता एनटी रामाराव ने कहा नक्सली सच्चे देशभक्त, सरकारों ने उन्हें समझने में गलती की है। मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने पुलिस को माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई से मना किया।
वे फिर एक हो रहे थे और हम तब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे
अप्रैल 1980 में कोंडापल्ली सीतारमैया ने आंध्र प्रदेश में सक्रिय पांच नक्सली गुटों में एकता स्थापित कर बनाया पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी)। चारू मजूमदार के 'वर्ग संघर्ष' के सिद्धांत से अलग उन्होंने नक्सलियों को नारा दिया - लोगों को जोड़ो।
नक्सलियों की गुटबाजी के बावजूद उन्हें नेस्तनाबूद नहीं कर पाए
१९७० के दशक में नक्सलियों में मतभेद उभरे और वे गुटों में बंटते चले गए। एक अनुमान के अनुसार 1980 के आसपास 30 नक्सली गुट और उनके 30 हजार सदस्य देशभर में सक्रिय थे। फिर भी सुरक्षाबल उन्हें खत्म करने की इजाजत नहीं दी गई।
फैसले से पहले वायुसेना प्रमुख का विरोध करना
२०१० में 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या के बाद सेना-वायुसेना को तैनात करने की बात आई। कोई फैसला होता उससे पहले ही वायुसेना प्रमुख पी.वी. नाइक ने कह दिया मैं इससे सहमत नही हूं।
७६ हत्याओं के बाद भी वार्ता की पेशकश करना
अप्रैल २०१० में नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में ७६ सीआरपीएफ जवानों की हत्या की लेकिन अगस्त में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि नक्सली हमारे अपने लोग हैं और सरकार उनके साथ बातचीत के लिए तैयार है।
गिल को लाकर काम न करने देना
पंजाब से आतंकवाद खत्म करने वाले डीजीपी केपीएस गिल को २००६ में छत्तीसगढ़ सरकार का एडवाइजर बना कर लाया गया। गिल ने बाद में बयान दिया की उन्हें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा, बैठो और सैलरी लो।
पुलिस को मॉडर्न बनाने के लिए पैसे तो आए, खर्च ही नहीं कर पाए
कैग के मुताबिक २००० से २००९ के बीच केंद्र ने राज्यों को पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए ८९०० करोड़ रुपए दिए। लेकिन राज्य सरकारें सिर्फ ६९० करोड़ रुपए ही खर्च कर पाईं। जबकि झारखंड ने १२० जवानों के लिए ११४ वाहन खरीदे और १३५ जवानों की दो बटालियन के लिए १४७० ऑटोमैटिक राइफलें खरीद डालीं।
जांच पर जांच, पर हर रिपोर्ट ठंडे बस्ते में
७६ सीआरपीएफ जवानों की हत्या की जांच में पाया गया कि उन्होंने नियमों का पालन नहीं किया थ। छोटी-छोटी टुकडिय़ों में चलने के बजाय वे एकसाथ चल रहे थे। इन रिपोर्ट से सबक किसी ने नहीं लिया। यही गलती हाल ही में कांग्रेस नेताओं पर हुए नक्सली हमले में भी नजर आई। सभी एक साथ चल रहे थे।
नक्सलबाड़ी विद्रोह को वर्गसंघर्ष मानकर छोड़ देना
18 मई 1967। कानू सान्याल ने जमींदारों के खिलाफ संघर्ष का एलान किया। 24 मई को जंगल संथाल के नेतृत्व में जमींदार पर हमला। पकडऩे आई पुलिस पार्टी को ही मार डाला। इसके बावजूद सरकार ने उन्हें यूं छोड़ दिया जैसे वे गरीबों के लिए आवाज उठाने वाले मसीहा हों।
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