भारत का आधारभूत तत्व धर्म है : स्वामी विवेकानंद
भारत का आधारभूत तत्व धर्म है :स्वामी विवेकानंद
साक्षात्कार 6 फरवरी 1897 को “द हिन्दू” में प्रकाशित
अनुवाद : सुन्दरम आनंद और जयराम विप्लव http://janokti.com
स्वामी जी , आप अमेरिका क्यों गये ?
मुझे लगता है कि संक्षेप में इसका उत्तर दे पाना कठिन है | अभी आंशिक रूप से मैं इतना ही कह सकता हूँ कि मैंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और मैं दूसरे देशों की यात्रा करना चाहता था इसीलिए मैं सुदूर पूर्व से होते हुए अमेरिका गया |
आपने जापान में क्या देखा ? क्या भारत जापान की प्रगतिशीलता की ओर बढ़ सकता है ?
नहीं , मुझे लगता है जब तक भारत के 30 करोड़ लोग समग्र राष्ट्र की तरह एकजुट ना हो जाएँ तब तक यह संभव नहीं है | विश्व में जापानियों के जैसा राष्ट्रवादी और कलात्मक नस्ल कहीं और नहीं है | जापानियों के सम्बन्ध में एक और विशिष्ट बात मैं कहना चाहूँगा , जहाँ सामान्यतः यूरोप सहित अन्य देशों में कला के साथ-साथ गंदगी देखने को मिलती है वहीँ जापान में कला का अर्थ कला और शुद्धता का सम्मिलन है | मेरे विचार से हमारे देश के हर युवा को अपने जीवन में कम से कम एक बार जापान अवश्य जाना चाहिए |
क्या आपके विचार से भारत को जापान जैसा बनना चाहिए ?
निस्संदेह नहीं ! भारत को वैसा ही होना चाहिए जैसा वह सदैव रहा है | भारत जापान या औरों की तरह कैसे हो सकता है ! जिस प्रकार संगीत में एक मुख्य राग होता है , एक केन्द्रीय भाव होता है जिसपर सारी स्वर लहरी निर्भर होती है उसी प्रकार प्रत्येक राष्ट्र का एक आधारभूत तत्व होता है जिस पर बाकी सब कुछ निर्भर करता है | भारत का आधारभूत तत्व ‘धर्म’ है | समाज सुधार और अन्य परिवर्तनकारी प्रक्रियाएं उसी पर आधारित हैं |
अतः भारत जापान नहीं हो सकता | कहा जाता है कि जब ह्रदय पर आघात होता है तो विचारों का प्रवाह होता है | भारत के ह्रदय पर निश्चित रूप से आघात होगा और परिणामस्वरूप आध्यात्मिकता का प्रवाह सामने आएगा | भारत भारत है | हम जापानियों की तरह नहीं है , हम हिन्दू हैं | भारत का वातावरण वात्सल्यमय (ममतामय) है | यहाँ निरंतर परिश्रम के बीच मुझे आराम भी मिलता रहा है | भारत में केवल आध्यात्मिक कर्मों द्वारा ही शांति पाई जा सकती है | अगर आप केवल भौतिक कर्मों में ही लिप्त रहेंगे तो परिणति केवल और केवल दुःख ही होगा |
विश्व धर्म संसद के परिणामों के बारे में आपके क्या विचार हैं ?
मुझे ऐसा लगता है कि विश्व धर्म संसद प्राचीन धर्मों के नकारात्मक स्वरुप को संसार के सामने प्रस्तुत करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया था | लेकिन अंततः वहां प्राचीन धर्मों का सकारात्मक स्वरुप ही उभर कर सामने आया |
कुल मिलाकर इसाई धर्म के दृष्टिकोण से धर्म संसद एक असफलता के रूप में सामने आया | ऐसा देखा जा रहा है कि जो रोमन कैथोलिक इस धर्म संसद के आयोजक थे वही पेरिस में प्रस्तावित अगली धर्म संसद का लगातार विरोध कर रहे हैं | किन्तु शिकागो धर्म संसद भारतीय मनीषा और भारत के लिए ऐतिहासिक रूप से सफल रहा | यहीं से वेदान्त के विचारों को वैश्विक मंच पर एक नई प्रतिष्ठा मिली | कुछ धर्मांध तत्वों को छोड़कर अन्य सभी अमेरिकी धर्म संसद के परिणामों से काफी प्रसन्न हैं |
स्वामी जी , इंग्लैण्ड में आपके मिशन के विस्तार की क्या संभावनाएं हैं ?
व्यापक संभावनाएं हैं | आने वाले थोड़े समय में ही बड़ी संख्या में अंग्रेज लोग वेदान्त का अनुसरण करने लगेंगे | इंग्लैण्ड में अमेरिका से अधिक संभावनाएं हैं | आप पायेंगे कि अमेरिकी लोग अंग्रेजों की तुलना में आत्माभिमानी होते हैं | यहाँ तक कि इसाई भी वेदान्त को समझे बिना न्यू टेस्टामेंट को नहीं समझ सकते | वेदान्त हर धर्म का मूल है | वेदान्त के बिना हर धर्म एक अंधविश्वास है और वेदान्त के सम्मिश्रण से सबकुछ धर्म बन जाता है |
भारतीय जनमानस के सम्बन्ध में आपकी क्या राय है ?
ओह ! हमारे यहाँ के लोग अत्यंत गरीब हैं और पंथनिरपेक्ष चीजों के सन्दर्भ में उनकी जानकारी कम है | हमारे यहाँ के लोग बहुत अच्छे हैं क्योंकि यहाँ गरीबी कोई अपराध नहीं है | हमारे लोग हिंसक नहीं है | अपने पहनावे के कारण मैं अमेरिका और इंग्लैण्ड में कई बार लुटते–लुटते बचा हूँ | परन्तु भारत में मैंने वेश-भूषा के कारण किसी के लुटने की घटना नहीं सुनी है | हर प्रकार से भारतीय जनमानस यूरोप के लोगों से कहीं अधिक सभ्य है |
भारतीयों की स्थिति में सुधार के लिए आपका क्या सझाव है ?
हमें पंथनिरपेक्ष शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी | शनै: शनै: मूल्यों को समाविष्ट करने की अपने पूर्वजों की परंपरा का पालन दृढ़ता से करने की आवश्यकता है | हमें उन्हें सोते से जगाना होगा और समानता की ओर प्रेरित करना होगा | धर्म के माध्यम से पंथनिरपेक्ष ज्ञान की गंगा बहानी होगी |
स्वामी जी , क्या आपको लगता है कि यह इतना आसान होगा ?
निश्चित रूप से इसके लिए सतत प्रयत्नों की आवश्यकता है | यदि मुझे आत्मबलिदानी युवाओं का साथ मिले तो उम्मीद है यह काम शीघ्र हो सकता है | यह सब उत्साह और आत्मबलिदान द्वारा ही संभव है |
स्वामी जी , अगर वर्तमान दयनीय दशा उनके पूर्व कर्मों का परिणाम है तब आप उनकी मदद कैसे करेंगे ?
कर्म मानवीय स्वतंत्रता की अमर व्याख्या है | अगर हम कर्म के कारण बुरी दशा में हैं तो निश्चित रूप से उस दशा से उबरने का सामर्थ्य भी हमारे भीतर निहित है | और हमारे लोगों की यह दयनीय दशा केवल उनके कर्मों का ही परिणाम नहीं है | इसलिए हमें उन्हें काम करने के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करना होगा |
वर्ण व्यवस्था एक अच्छी चीज है | वर्ण एक ऐसी योजना है जिसका हम पालन करना चाहते हैं | वास्तव में वर्ण क्या है , अधिकाँश लोगों को इसकी समझ नहीं है | विश्व में कोई भी ऐसा देश नहीं है जहाँ वर्ण विभेद नहीं है | भारत में हम वर्ण व्यवस्था के द्वारा वहां पहुँचते हैं जहाँ वर्णों में कोई विभेद नहीं रह जाता | वस्तुतः वर्ण व्यवस्था इसी मूलभूत सिद्धांत पर आधारित है | यह भारत में प्रत्येक व्यक्ति को ब्राहमण में परिणत करने की योजना है , वह ब्राह्मण जो मानवता का आदर्श है | अगर आप भारत के इतिहास का अध्ययन करें तो पायेंगे कि यहाँ सदैव पिछड़े वर्गों के उत्थान के प्रयास होते रहे हैं | कई ऐसे वर्ग हैं जिनका उत्थान हुआ है | और आगे भी यह प्रक्रिया चलती रहेगी | बिना किसी को नीचा किये, हमें उत्थान की यह प्रक्रिया आगे बढानी है | और अधिकांशतः ऐसा ब्राह्मणों के द्वारा स्वतः होगा |
वर्ण और रिवाजों के सम्बन्ध को लेकर आपकी क्या राय है , स्वामी जी ?
विविध रूपों में वर्ण और परम्पराएँ निरंतर परिवर्तित होती रही हैं | अगर कुछ अपरिवर्तित रहता है तो वह है “ तत्व और सिद्धांत “ | वेदों में वर्णित है कि हमें अपने धर्म का अध्ययन करना चाहिए | अपवादस्वरूप वेदों को छोड़कर अन्य सभी ग्रन्थ निश्चित रूप से बदलने चाहिए | वेदों की प्रभुसत्ता सार्वभौमिक है, जबकि अन्य ग्रंथों की एक नियत कालखंड के लिए है | उदहारणस्वरुप , एक ‘स्मृति’, एक अवधि के लिए शक्तिशाली होती है और दूसरी ‘स्मृति’, दूसरी समयावधि के लिए | महान संत हमेशा से आते रहे हैं और रास्ता दिखाने का काम करते रहे हैं | कुछ विभूतियों ने निम्न वर्गों के लिए काम किया है तो माधव जैसे संतों ने महिलाओं को वेद पढने का अधिकार दिलाया है | वर्ण व्यवस्था समाप्त नहीं होनी चाहिए | परन्तु यदा कदा पुनर्व्यवस्थित होती रहनी चाहिए | पुरानी संरचना के भीतर हजारों नए निर्माण की सम्भावना रहती है | वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन की मंशा मूर्खता मात्र है | नई पद्धति वस्तुतः पुरानी पद्धति का ही परिमार्जित विकास हुआ करती है |
व्यवहारिकता से कोई सम्बन्ध न रखने वाले आदर्शवादी सुधारों के पीछे अपनी उर्जा व्यर्थ करने के बजाय हमें समाज में व्याप्त बुराईयों के मूल तक जाना होगा और एक विधायी संस्था बनानी होगी | कहने का अर्थ है कि पहले हमें लोगों को शिक्षित करना होगा ताकि वे अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करने में सक्षम हो सकें | और जब तक ऐसा नहीं किया जाता है तब तक ये सारे आदर्शवादी सुधार केवल आदर्श ही बने रहेंगे |
क्या आपको लगता है हिन्दू समाज यूरोपीय सामाजिक नियमों को सफलतापूर्वक अपना सकता है ?
नहीं , पूर्णत: नहीं , मेरे विचार से बाह्य यूरोपीय शक्तियों द्वारा प्रस्तुत यूनानी मनीषा और हिन्दू आध्यात्मिकता का संयोग भारतीय समाज के लिए आदर्श होगा | द्रष्टव्य के रूप में यह हमारे लिए अतिआवश्यक है | निरर्थक आदर्शों के पीछे अपनी समय और उर्जा नष्ट करने के बजाय हमें अंग्रेजों से अनुशासन, आत्मविश्वास , आपसी आत्मीयता का पाठ सीखना होगा |
स्वामी जी ! धर्म में परम्पराओं का क्या स्थान है ?
परम्परा धर्म की प्राथमिक पाठशाला है | विश्व की यथा-स्थिति के लिए परम्पराएँ अतिआवश्यक हैं | हमें केवल लोगों के बीच नई और ताजा परम्पराओं का संचार करना होगा | विचारकों को निश्चित रूप से इस कर्तव्य का निर्वहन करना चाहिए | पुरानी मान्यताओं के स्थान पर नई परम्पराओं को प्रतिष्ठित करते रहना चाहिए |
तो क्या आप परम्पराओं को समाप्त करने की वकालत नहीं करते ?
नहीं , मेरा आशय विध्वंसात्मक नहीं बल्कि रचनात्मक है | तमाम प्रचलित परम्पराओं के बीच ही नई परम्पराओं का उदभव होते रहना चाहिए | मेरी मान्यता है कि हर चीज में विकास की असीम शक्तियां निहित हैं | हर कण में पूरी सृष्टि की शक्ति समाहित है | पूरे हिन्दू धर्म के इतिहास में विध्वंस के बजाय निर्माण के उद्धरण मिलते हैं | बौद्ध मत के रूप में एक संप्रदाय ने निर्माण की इस अवधारणा को खंडित करने का प्रयास किया और वे भारत में नकार दिए गए | हमारे यहाँ शंकराचार्य , रामानुज, माधव और चैतन्य जैसे धर्म – सुधारकों की एक लम्बी परंपरा रही है | ये सभी महान सुधारक थे जिन्होंने हमेशा निर्माण का रास्ता अपनाया और परिस्थितियों के अनुरूप परिष्करण का प्रयास किया | यही हमारे कार्यशैली की विशिष्टता रही है | जिन आधुनिक सुधारकों ने विध्वंसात्मक सुधारों की यूरोपीय शैली को अपनाया है उनसे न कभी किसी का भला हुआ है और न होगा |
हिन्दुओं की विकास यात्रा वेदांत के आदर्शों के साकार होने की यात्रा है | सौभाग्य और दुर्भाग्य से गुजरते हुए भारतीय जन–जीवन का पूरा इतिहास ही वेदांत के आदर्शों को साकार करने के लिए संघर्ष, का इतिहास है |
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