सामाजिक समरसता व्यवहार की बात : डॉ. सुवर्णा रावल
सामाजिक समरसता व्यवहार की बात
January 20, 2016
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डॉ. सुवर्णा रावल
अध्यक्षा, भटके विमुक्त विकास परिषद, मुंबई
हम सब जानते हैं सामाजिक व्यवस्था में ‘समता’ यह एक श्रेष्ठ तत्व है. भारत के संविधान में इसे प्राथमिकता दी गयी है. समानतायुक्त समाज रचना, विषमता निर्मूलन इन विषयों पर काफी लिखा जाता है, चर्चा होती है और इसी का आधार लेकर समाज में भेद भी निर्माण किये जाते हैं. समता तत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द जी के चिंतन में, भगवान बुद्ध के उपदेश का आधार मिलता है. वे कहते हैं ‘‘आजकल जनतंत्र और सभी मनुष्यों में समानता इन विषयों के संबंध में कुछ सुना जाता है, परंतु हम सब समान हैं, यह किसी को कैसे पता चले ? उसके लिए तीव्र बुद्धि तथा मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं से मुक्त इस प्रकार का भेदी मन होना चाहिये. मन के ऊपर परतें जमाने वाली भ्रमपूर्ण कल्पनाओं का भेद कर अंतःस्थ शुद्ध तत्व तक उसे पहुंच जाना चाहिये. तब उसे पता चलेगा कि सभी प्रकार की पूर्ण रूप से परिपूर्ण शक्तियां ये पहले से ही उसमें हैं. दूसरे किसी से उसे वे मिलने वाली नहीं. उसे जब इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त होगी, तब उसी क्षण वह मुक्त होगा तथा वह समत्व प्राप्त करेगा. उसे इसकी भी अनुभूति मिलेगी कि दूसरा हर व्यक्ति ही उसी समान पूर्ण है तथा उसे अपने बंधुओं के ऊपर शारीरिक, मानसिक अथवा नैतिक किसी भी प्रकार का शासन चलाने की आवश्यकता नहीं. खुद से निचले स्तर का और कोई मनुष्य है, इस कल्पना को तब वह त्याग देता है, तब ही वह समानता की भाषा का उच्चारण कर सकता है, तब तक नहीं.’’ (भगवान बुद्ध तथा उनका उपदेश स्वामी विवेकानन्द, पृष्ठ ‘28)
निसर्ग के इस महान तत्व का विस्मरण जब व्यवहारिक स्तर के मनुष्य जीवन में आता है, तब समाज जीवन में भेदभाव युक्त समाज रचना अपनी जड़ पकड़ लेती है. समय रहते ही इस स्थिति का इलाज नहीं किया गया तो यही रूढ़ी के रूप में प्रतिस्थापित होती है. भारतीय समाज के साथ यही हुआ है. समता का यह सर्वश्रेष्ठ, सर्वमान्य तत्व हमने स्वीकार तो कर लिया, विचार बुद्धि के स्तर पर हमने मान्यता तो दे दी परंतु इसे व्यवहार में परिवर्तित करने में असफल रहे. ‘समता’ इस तत्व को सिद्ध और साध्य करने हेतु ‘समरसता’ यह व्यवहारिक तत्व प्रचलित करना जरूरी है. समरसता यह भावात्मक तत्व है और इसमें ‘बंधुभाव’ के तत्व को असाधारण महत्ता दी जाती है. डॉ. बाबासाहब तो कहा करते थे, ‘‘बंधुता यही स्वतन्त्रता तथा समता का आश्वासन है. स्वतंत्रता तथा समता की रक्षा कानून से नहीं होती.’’
समरसतापूर्वक व्यवहार से स्वातंत्र, समता और बंधुता इन तीन तत्वों के साध्य तक हम पहुंच सकते हैं. दुर्भाग्य से इन तीन तत्वों के आधार पर हिन्दू समाज की रचना नहीं हुई है. जिस समाज रचना में उच्च तत्व व्यवहार्य हो सकते हैं, वही समाज रचना सब में श्रेष्ठ है. जिस समाज रचना में वे व्यवहार्य नहीं हो सकते, उस समाज रचना को भंग कर उसके स्थान पर शीघ्र नयी रचना बनायी जाये, ऐसा स्वामी विवेकानन्द का मत था.
भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक राष्ट्र पुरुषों ने जन्म लिया है. उन्होंने अपने जीवन-काल का सम्पूर्ण समय समाज की स्थिति को सुधारने में लगाया. राजा राममोहन रॉय से डॉ. बाबासाहब आंबेडकर तक सभी राष्ट्र पुरुषों का यही प्रयास रहा है. अधोगति के आखिरी पायदान पर पहुंची हुई सामाजिक स्थिति को सुधारने में अपना सारा जीवन व्यतीत किया. सामाजिक मंथन, अपनी श्रेष्ठ इतिहास-परंपरा जागृति हेतु राष्ट्र पुरुषों के जीवन कार्य का सत्य वर्णन समाज में लाना यह समरसता भाव जगाने हेतु उपयुक्त है. रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, महात्मा ज्योतिराव फुले, राजर्षि शाहू महाराज, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, नारायण गुरु आदि इनका योगदान अपार है. भारतवर्ष में संतों की भी लम्बी परंपरा रही है. सारे संतों ने भी समरसता भाव और व्यवहार हेतु अपार योगदान दिया है. इनके विचार समय-समय पर लोगों के सामने लाना यह एक समरसता प्रस्थापित करने हेतु उपयुक्त है.
आज अपने देश में समाज व्यवस्था का दृश्य क्या है ? अभिजन वर्ग बहुजन वर्ग – वंचित वर्ग, पिछड़ा वर्ग, घुमंतु समाज, वनवासी, महिला समाज, इन बहुजन वर्ग के अनेक अंगों पर विशेष ध्यान देना जरूरी है. सुदृढ़ समाज व्यवस्था की अपेक्षा करते समय इन दुर्बल कड़ियों पर ज्यादा ध्यान देना जरूरी है. बहुजन समाज की उन्नति उपर्युक्त समता-बंधुता-स्वातंत्रता, समरसता इन तत्वों के आधार पर हो सकती है. स्वामी विवेकानंद जी ने बहुजन समाज की उन्नति के लिए दो बातों की आवश्यकता प्रतिपादित की है. उनमें से पहली शिक्षा की और दूसरी सेवा की. ‘‘राष्ट्र में साधारण जनता में बुद्धि का विकास जितना अधिक, उतना राष्ट्र का उत्कर्ष अधिक. हिन्दुस्थान देश विनाश के इतने निकट पहुंचा, इसका कारण यही है कि विद्या तथा बुद्धि का विकास दीर्घ अवधि तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में ही रहा. यह मानो अपने अकेले के हक की बात है. ऐसी जिद लेकर इन मुट्ठीभर लोगों ने समूची विद्या को अपनी कोठी में कैद कर रखा. उन्हें इसमें राजाओं का समर्थन भी प्राप्त हुआ और उसी के फलस्वरूप साधारण जनता निरी गंवार रहकर हिन्दुस्थान विनाश के रास्ते पर बढ़ा. इस स्थिति में से हमें अगर फिर से ऊपर उठना है तो शिक्षा का प्रसार साधारण जनता में करने को छोड़कर दूसरा कोई उपाय नहीं.
भारत के गरीब, भूखे-कंगाल, पिछड़े, घुमंतु समाज के लोगों को शिक्षा कैसे दी जाए? गरीब लोग अगर शिक्षा के निकट पहुंच न पा रहे हों तो शिक्षा उनके तक पहुंचना चाहिए. दुर्बलों की सेवा यही नारायण की सेवा है. दरिद्र नारायण की सेवा, शिव भावे जीव सेवा यह रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा दिखाया हुआ मार्ग है. लोक शिक्षण तथा लोकसेवा के लिए अच्छे कार्यकर्ता होना जरूरी हैं. कार्यकर्ता में सम्पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, सर्वस्पर्शी बुद्धि तथा सर्व विजयी इच्छा शक्ति इस सभी की आवश्यकता है. इन गुणों के बल पर मुट्ठीभर लोग भी यदि काम करने में जुट गये, तो सारी दुनिया में क्रांति हो जायेगी.
समरसता स्थापित करने हेतु ‘सामाजिक न्याय’ का तत्व भी उतना ही जरूरी है. आज की भाषा में ‘आरक्षण’ यह सामाजिक न्याय का एक साधन है साध्य नहीं. यह ध्यान रखना जरूरी है.
डॉ. आंबेडकर धर्म पर गहरा विश्वास रखने वाले थे. धर्म के कारण ही स्वातंत्र्य, समता, बंधुता और न्याय की प्रतिस्थापना होगी, यह उनकी मान्यता थी. धर्म ही व्यक्ति तथा समाज को नैतिक शिक्षा दे सकता है. धर्म को राजनीतिक हथियार के रूप में उन्होंने कभी इस्तेमाल नहीं किया. बौद्ध धर्म ग्रहण कर उन्होंने स्वातंत्र-समता-बंधुता-न्याय समाज में प्रतिस्थापित करने का एक मार्ग प्रस्तुत किया. इस पृष्ठभूमि पर ‘समरसता’ यह तत्व आज के जमाने का प्रमुख धर्म है और उसका उदघोषण है ‘बंधुभाव यही धर्म है’.
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