साम्यवादी सोच का सच : आशुतोष मिश्र

साम्यवादी सोच का सच ( दैनिक जागरण )

Editor, Sampadkiya February 22, 2016

लेखक - आशुतोष मिश्र, लखनऊ विश्व विद्यालय राजनीती शास्त्र के विभागाध्यक्ष  

जेएनयू से भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने के ऐलान को सुनकर सारा देश सदमे में है। इस जंग को जीतने के लिए हर घर से अफजल निकलने और अफजल के हत्यारों को जिंदा न छोड़ने का संकल्प सार्वजनिक हो गया है। जेएनयू का चालीस साल पुराना छात्र होने के नाते मेरे लिए इसमें कुछ नया नहीं है। कम्युनिस्ट क्रांतिकारिता और इस्लामी कट्टरवादिता की दुस्साहसी दुरभिसंधि की कहानी उससे भी तीस साल पुरानी है जब अधिकारी थीसिस के आधार पर मार्क्‍सवादियों ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर पाकिस्तान बनाने का आंदोलन चलाया था। इसका औपचारिक आरंभ तो उससे भी पच्चीस साल पहले अगस्त 1920 में हुआ जब एमएन रॉय ने डीकॉलोनाइजेशन थीसिस के जरिये भारत के साम्यवादियों को आजादी के आंदोलन से अलग रखने की कोशिश की। आजादी के बाद दोबारा देश के कम्युनिस्ट नेताओं को मॉस्को बुलाकर स्टालिन ने फटकारा। इस वजह से मजबूरी में हमारे कम्युनिस्ट नेताओं ने माना कि भारत देश थोड़ा आजाद हुआ है और यहां थोड़ा जनतंत्र है।

जेएनयू कांड भारतीय मार्क्‍सवादियों की उसी मानसिकता की एक मिसाल मात्र है जिसमें भारत को कभी राष्ट्र ही नहीं माना गया। सौ साल से उन्होंने भारत को अधिक से अधिक राष्ट्रीयताओं का एक संघ ही माना है। इनकी पार्टियों को भारतीय होने में शर्म लगती थी इसलिए वे अपने को भारतीय नहीं, बल्कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी कहती थीं। साम्यवादियों के मन में भारत के लिए हिकारत का यह भाव बहुत आसानी से हिन्दू धर्म के लिए घृणा के भाव में दिखाई दिया। भारतीय राष्ट्र और हिन्दू धर्म को शोषक शक्ति मानने की इसी साम्यवादी सैद्धांतिक समझ ने कम्युनिस्टों की निगाह में हर भारत-विरोधी, हंिदूू-विरोधी भावना को प्रगतिशील बना दिया। जेएनयू का साबरमती ढाबा साम्यवादियों की इस सौ साल की यात्र का एक पड़ाव भर है। 1पिछले चालीस सालों में जेएनयू में केवल इतना बदलाव आया है कि पहले कम्युनिस्ट क्रांतिकारिता सीनियर सहयोगी थी, अब मुस्लिम कट्टरपंथ ने उसको अपने अधीन कर लिया है। इस धार्मिक आतंकवाद को साम्यवादियों से एक मार्क्‍सवादी मुखौटा और जेएनयू जैसी वीआइपी जगहों पर जमने का मौका मिल जाता है। साम्यवादियों के कई गुटों को मुस्लिम अलगाववाद से समस्या है, लेकिन कई वजहों से उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया है।

शायद इन साम्यवादियों को अंदाज नहीं था कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस जमाने में साबरमती ढाबे जैसे आयोजन छिपाए नहीं जा सकते। भारत के किसी भी साम्यवादी दल को मुस्लिम लीग जैसे सांप्रदायिक संगठनों से समस्या नहीं है, जो भले ही मुस्लिम कट्टरपंथ की राजनीति करते हों लेकिन फिर भी कुछ पर्दादारी करते हों। आखिर साम्यवादियों के शीर्षस्थ नेता नंबूदरीपाद ने ही मुस्लिम लीग से गठबंधन की नींव रखी थी। इसके बावजूद सीपीआइ और सीपीएम को भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने के ऐलान से परेशानी होगी। साफ है कि वे अपने ही बनाए जाल में फंस गए हैं। कन्हैया कुमार का पितृ संगठन सीपीआइ इसकी एक मिसाल है। कम से कम इस साम्यवादी संगठन ने भारतीय राष्ट्रीय बुर्जुवा के कुछ प्रगतिशील पक्षों को स्वीकार किया था। उसे भारतीय होने में असुविधा नहीं थी। सीपीएम और माओवादियों की बात अलग है। सीपीआइ और उसके आनुषंगिकों द्वारा धार्मिक अलगाववाद की स्वीकृति बताती है कि साम्यवादियों का सारा संसार ही देश से अलग हो चुका है।



इस पतन की पराकाष्ठा की एक मिसाल और है। जेएनयू में इस संगठन के एक पुराने छात्र नेता और अब शिक्षक नेता को पाकिस्तानी आइएसआइ के आतिथ्य में अमेरिका जाने में भी कोई संकोच नहीं हुआ। अमेरिका में आइएसआइ एजेंट गुलाम नबी फई की गिरफ्तारी से इसका पर्दाफाश हुआ। 1जेएनयू कांड से सबसे बड़ा सवाल यह सामने आया है कि आखिर किन वजहों से हंिदूुस्तान के लगभग सभी कम्युनिस्ट संगठन मुस्लिम अलगाववाद के ही नहीं, बल्कि आतंकवाद तक के इतने सक्रिय समर्थक बन गए। इसकी पहली वजह यह है कि 1980 के दशक में चीन के पूंजीवादी बनने और 1990 में सोवियत साम्यवाद के समापन के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों के संसाधन और शक्ति का संप्रभु स्नोत सूख गया। आधी दुनिया से साम्यवाद साफ हो गया। इसी सहारे से अब तक कम्युनिस्ट पार्टियों का भारतीय राजनीति पर असर बना हुआ था। एक समय में सीपीआइ और सीपीएम को क्रमश: कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंदिरा और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ मोरारजी कहा जाता था।

कुमारमंगलम थीसिस लेकर कांग्रेस में घुसे कम्युनिस्ट पहले से ही वैभव-विलासिता के आदी हो चुके थे। सीपीआइ को सरकारी ट्रेड यूनियन से थोड़ी ऑक्सीजन मिली। इन संगठनों को सबसे बड़ा लाभ उन भीमकाय शासकीय शैक्षिक-बौद्धिक-सांस्कृतिक संगठनों से मिला जिन्हें इंदिरा गांधी के समय से ही इन साम्यवादियों को सौंप दिया गया था। इंदिरा गांधी ने इसी पैकेज में जेएनयू को साम्यवादियों को गिफ्ट किया था। जेएनयू के एक विशेष प्रावधान का दुरुपयोग कर के भारी संख्या में अर्हता न रखने वाले कामरेडों की नियुक्ति कर दी गई। इस गिफ्ट के बदले उपकृत हुए ज्यादातर साम्यवादी बुद्धिजीवी सरकारी दरबारी बन गए। इस सरकारी सुविधावादिता की वजह से दोनों बड़े साम्यवादी दल समाप्त होते गए। 1यह संयोग था कि साम्यवादियों के पराभव के समय ही पश्चिमी साम्राज्यवादी देश एनजीओ का तंत्र खड़ा कर रहे थे। नाटो देशों ने इस एनजीओ तंत्र के सहारे तीसरी दुनिया पर नकेल कसने की योजना बना रखी थी। भारत में एनजीओ के इस खतरनाक खेल को सबसे पहले सीपीएम ने समझा। इसके बावजूद सुख-सुविधा को सुरक्षित करने के लिए कम्युनिस्टों की एक बड़ी फौज इस एनजीओ तंत्र में शामिल हो गई।

कम्युनिस्टों का अमेरिकी साम्राज्यवाद से रिश्ता पक्का हो गया। एक शीर्ष कम्युनिस्ट नेता ने अमेरिका से मोदी को वीजा न देने का निवेदन किया। कम्युनिस्टों और पश्चिमी साम्राज्यवादी एनजीओ के इस महामिलन से माओवाद का जन्म हुआ। पश्चिमी साम्राज्यवादी संरक्षण की वजह से माओवादी युवा संगठनों ने जेएनयू कांड में भाग ही नहीं लिया, बल्कि इसका पूरा नेतृत्व किया। माओवादियों ने स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या करके बता दिया है कि उन्हें ईसाई मिशनरियों के लिए स्वामी की हत्या करने और जेएनयू में मुस्लिम आतंकवाद के लिए भारत तेरे टुकड़े होंगे का रणघोष करने में कोई परेशानी नहीं है। इस मामले में तिरुपति से पशुपति का माओवादी संकल्प बहुत कल्पनिक नहीं लगता है। आखिर नेपाल में भी माओवादियों ने ईसाई धर्मातरण तथा मुस्लिम उग्रवाद को पूरा प्रोत्साहन दिया है। यह भी संयोग नहीं है कि नेपाल के शीर्ष माओवादी नेता और दो भारतीय मध्यस्थ जेएनयू के ही हैं। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि तमाम विखंडनवादी विध्वंसक गतिविधियों के सूत्र जेएनयू से जुड़े हुए दिखते हैं।

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