समान नागरिक आचार संहिता : आज की जरूरत
क्या समान नागरिक संहिता जरूरी है?
संजय कुमार , Sep 15, 2014
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केंद्र में सत्ता हासिल करने के कुछ ही महीने बाद सत्तारूढ़ दल के गोरखपुर से सासंद योगी आदित्यनाथ ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने पर अपनी सरकार से रुख स्पष्ट करने की मांग की। सांसद के दृष्टिकोण से उनकी मांग सही हो सकती है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के अपने चुनाव घोषणा-पत्र में वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह समान नागरिक संहिता को लागू करेगी। केंद्रीय कानून मंत्री रवीशंकर प्रसाद ने तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए यह सही कहा कि नागरिक संहिता की दिशा में ऐसी किसी पहल पर व्यापक विचार-विमर्श जरूरी है।
अब इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि इस मुद्दे पर व्यापक विचार-विमर्श होना चाहिए, खासतौर पर उनमें, जिनका इस फैसले पर बहुत कुछ दांव पर लगा है। हालांकि, सवाल यह है कि कुछ समुदाय के पर्सनल कानून को हटाने के इस फैसले का कई तबकों की ओर से कड़ा विरोध हो सकता है, जिसका सामाजिक सौहार्द पर असर पड़ सकता है। क्या सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ने की कोई पहल करनी भी चाहिए? क्या यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वतंत्रता दिवस पर दिए भाषण से संगत होगा, जिसमें सामाजिक सौहार्द पर अत्यधिक जोर दिया गया था?
मुझे वाकई इस बारे में संदेह है कि सरकार मुस्लिम महिलाओं के हित और उनके कल्याण को ध्यान में रखकर समान नागरिक संहिता के लिए पहल करना चाहती है। किसी तबके के कल्याण की चिंता की बजाय इसमें राजनीतिक दृष्टिकोण नजर आता है। अामतौर पर यह समझा जाता है कि ऐसी किसी पहल का हिंदू समर्थन करेंगे, जिससे सत्तारूढ़ दल को अपने पक्ष में बहुसंख्यक समुदाय के वोट लामबंद करने में मदद मिलेगी। दीर्घावधि में इससे उसे चुनावी फायदा मिलेगा।
भाजपा ने हाल में लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल की है और इसमें हिंदू मतों की लामबंदी प्रमुख कारक था। ऐसे में क्या पार्टी को यह मुद्दा उठाने की जरूरत है? फिर ऐसा सोचना गलत होगा कि समान नागरिक संहिता लाने के प्रयासों से िहंदू मतों का ध्रुवीकरण होगा, क्योंकि सारे हिंदू इस विचार का समर्थन नहीं करते। हिंदुओं में ऐसे तबके हैं, जो विवाह और संपत्ति के मामले में अल्पसंख्यक समुदाय को स्वतंत्रता देने के विचार का समर्थन करते हैं। समान नागरिक संहिता को संविधान के अनुच्छेद 44 के अंतर्गत रखने में कोई बात तो होगी, जिसके तहत ऐसी किसी नीति को लागू करना सरकार के लिए आवश्यक नहीं है और इसे केवल सरकार का कर्तव्य माना गया है। यहां यह ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि जवाहरलाल नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तब लंबी बहस के बाद यह तय हुआ था। इस मुद्दे पर तो बहस इससे भी बहुत पुरानी है। उपनिवेशकालीन भारत में 1840 की लेक्स लोसाय रिपोर्ट ने जोर देकर कहा था कि अपराध, सबूत और अनुबंध को लेकर कानूनों में समान संहिता आवश्यक है, लेकिन इसके बावजूद इस समिति ने हिंदू और मुस्लिमों के निजी कानूनों को ऐसी किसी संहिता से दूर ही रखने की सिफारिश की थी।
समान नागरिक संहिता 1980 के दशक में जन-चर्चा का बड़ा विषय बन गई थी, जब शाह बानो नामक मुस्लिम महिला को 73 साल की उम्र और विवाह के 40 वर्षों के बाद पति मोहम्मद अहमद खान ने सिर्फ तीन बार ‘तलाक’ कहकर त्याग दिया था। निचली अदालत ने तलाक देने वाले पति को शाहबानो को भरण-पोषण का खर्च देने का निर्देश दिया। अहमद खान ने 1981 में इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सर्वोच्च न्यायालय ने 1985 में ‘पत्नियों, बच्चों और पालकों के भरण-पोषण’ के तहत (अखिल भारतीय आपराधिक नागरिक संहिता का अनुच्छेद 125), जो सारे नागरिकों पर समान रूप से लागू होता है, शाहबानो का दावा मंजूर किया।
अभी हाल में दिल्ली हाईकोर्ट ने मूलचंद कुचेरिया की जनहित याचिका की सुनवाई से इनकार कर दिया था, जिसमें देशभर में निश्चित समय-सीमा के भीतर समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग की गई थी। इसका आधार 1995 के सरला मुद्गल बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बनाया गया था। हालांकि, सामान नागरिक संहिता होनी चाहिए या नहीं, यह लंबे समय से बहस का विषय रहा है। ज्यादातर पूर्ववर्ती सरकारों ने समान नागरिक संहिता लागू करने में शायद ही कोई रुचि दिखाई है। यहां तक कि 1998-2004 के बीच केंद्र की सत्ता में रही एनडीए सरकार ने इस दिशा में शायद ही कोई प्रयास किया। अब भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में आई है और इसकी स्थिरता सहयोगी दलों पर निर्भर नहीं है। ऐसे में भाजपा को अपना रुख स्पष्ट करने की जरूरत है कि क्या वह इस दिशा में आगे की ओर कदम बढ़ाना चाहती है अथवा नहीं, क्योंकि अब वह अपने बल पर कोई भी फैसला लेने में सक्षम है।
यदि महिलाओं के कल्याण की गंभीर चिंता से समान नागरिक संहिता को लागू किया जा रहा हो तो इस विचार का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन यदि सिर्फ वोट बैंक राजनीति के नजरिये से, हिंदू मतों की लामबंदी के लिए ऐसा किया जा रहा हो तो पार्टी बहुत गंभीर गलती करेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि सारे हिंदू समान नागरिक संहिता के विचार से सहमत नहीं हैं।
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) ने इस मुद्दे पर सर्वे कराया था। सर्वे में 57 फीसदी लोग विवाह, तलाक, संपत्ति, गोद लेने और भरण-पोषण जैसे मामलों में समुदायों को पृथक कानून की इजाजत के पक्ष में थे। सिर्फ 23 फीसदी लोगों ने समान नागरिक संहिता के पक्ष में राय जाहिर की। 20 फीसदी लोगों ने तो इस मुद्दे पर कोई राय ही जाहिर नहीं की। संपत्ति और विवाह के मामले में समुदायों के अपने कानून रहने देने के पक्ष में 55 फीसदी हिंदुओं ने राय जाहिर की तो ऐसे मुुस्लिम 65 फीसदी थे। अन्य अल्पसंख्यक समुदायों (ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन) ने सर्वे में इससे मिलती-जुलती या इससे थोड़ी ज्यादा संख्या में इसे समर्थन दिया। यानी अल्पसंख्यक समुदाय मौजूदा व्यवस्था कायम रखने के पक्ष में हैं।
इस मामले में शिक्षित लोगों ने ज्यादा राय व्यक्त की जबकि अल्पशिक्षित तबका उतना मुखर नहीं था। शिक्षित तबके में भी समान नागरिक संहिता के पक्ष और विपक्ष में जोरदार दलीलें दी गईं, लेकिन कुल-मिलाकर तराजु का पलड़ा इस ओर ही झुकता पाया गया कि विभिन्न समुदायों के व्यक्तगत मामले अपने-अपने कानूनों से ही संचालित होने साहिए। यानी शिक्षित वर्ग में भी समान नागरिक संहिताल से असहमति रखने वालों का बहुमत है। अब जिस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है, वह यह है कि क्या वाकई देश में समान नागरिक संहिता की गंभीर आवश्यता है?
संजय कुमार
डायरेक्टर, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज
sanjay@csds.in
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समान नागरिक आचार संहिता : आज की जरूरत
लेखिका – डॉ. शुचि चौहान
http://vskbharat.com
Posted by: admin Posted date: September 27, 2016
समान नागरिक आचार संहिता का मुद्दा आज एक बार फिर चर्चा का विषय बना हुआ है. वर्तमान केन्द्र सरकार ने कानून आयोग को इस संहिता को लागू करने के लिए आवश्यक सभी पहलुओं पर विचार करने को कहा है. दरअसल यह मुद्दा आज का नहीं है. यह अंग्रेजों के जमाने से चला आ रहा है.
भारत विविधताओं से भरा देश है. यहाँ विभिन्न पंथों व पूजा पद्धतियों को मानने वाले लोग रहते हैं. इन सबके शादी करने, बच्चा गोद लेने, जायदाद का बंटवारा करने, तलाक देने व तलाक उपरांत तलाकशुदा महिला के जीवन यापन हेतु गुजारा भत्ता देने आदि के लिए अपने-अपने धर्मानुसार नियम, कायदे व कानून हैं. इन्हीं नियमों, कायदे व कानूनों को पर्सनल लॉ कहते हैं.
अंग्रेज जब भारत आए और उन्होंने यह विविधता देखी, तो उस समय उन्हें लगा पूरे देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए एक समान नागरिक आचार संहिता बनानी आवश्यक है. जब उन्होंने ऐसा करने की कोशिश की तो हर धर्मों के लोगों ने इसका विरोध किया. ऐसे में उन्होंने लम्बे समय तक यहाँ अपने पांव जमाये रखने के लिए किसी से उलझना ठीक नहीं समझा. इन परिस्थितियों में 1860 में उन्होंने Indian penal code तो लागू किया पर Indian civil code नहीं. यानि एक देश – एक दंड संहिता तो लागू की, लेकिन एक देश एक नागरिक संहिता नहीं.
सन् 1947 में देश आजाद हो गया. कानून बनाने व सामाजिक कुरीतियां दूर करने की जिम्मेदारी हमारे नेताओं पर आ गई. पर्सनल लॉ के अनुसार हिन्दुओं में बहुविवाह व बालविवाह अब भी चलन में थे. महिलाओं की पिता व पति की सम्पत्ति में कोई हिस्सेदारी नहीं थी. अकेली महिला बच्चा गोद नहीं ले सकती थी. मुसलमानों में भी बहुविवाह को मान्यता प्राप्त थी. पुरूष एक साथ चार शादियां कर सकता था. बिना कोई कारण बताए तीन बार तलाक बोलने मात्र से पत्नी को तलाक दे सकता था. उस समय फिर से समान नागरिक आचार संहिता की आवश्यकता को महसूस किया गया. कमेटियां बनीं, बहस चली, एक बार फिर सभी धर्मों से विरोध के स्वर मुखर हुए. हिन्दू बहुसंख्यक थे. उनके लिए पं. नेहरू व तत्कालीन कानून मंत्री डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू सिविल कोड बनाने का प्रयास किया, परन्तु असफल रहे. पं. नेहरू ने इस बिल को पारित कराने में विशेष रूचि दिखाई. क्योंकि उनका कोई बेटा नहीं था. वे अपनी सारी संपत्ति व किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी अपनी इकलौती संतान इंदिरा को कानूनन उत्तराधिकार में देना चाहते थे. इसलिए वे हिन्दू सिविल कोड बिल लाने के लिए प्रयासरत थे.
सन् 1952 में पहली सरकार गठित होने के बाद दोबारा इस बिल को लाने की दिशा में कार्य आरम्भ हुआ. इस बार इसको हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, हिन्दू दत्तक ग्रहण व पोषण अधिनियम एवं हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षता अधिनियम में विभाजित कर दिया गया एवं 1955-56 में संसद में पारित करा लिया गया. हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत तलाक को कानूनी दर्जा मिला. अर्न्तजातीय विवाह को कानूनी मान्यता मिली. बहुविवाह को गैर-कानूनी घोषित किया गया. ये सभी कानून महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा देने के लिए लाए गये थे. इसके अन्तर्गत महिलाओं को पहली बार संपत्ति में अधिकार दिया गया. लड़कियों को गोद लेने पर जोर दिया गया. इस तरह तमाम विरोधों के बावजूद हिन्दू समाज के पुनर्निर्माण की नींव पड़ी.
कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों ने जब यूनीफॉर्म सिविल कोड का विरोध किया तो हमारे नेताओं ने भी अंग्रेजों की तरह तुष्टीकरण की नीति अपनायी. उन्होंने उनसे टकराव न लेते हुए यूनीफॉर्म सिविल कोड लागू करने के बजाय उसे संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 44 के रूप में नीति निर्देशक तत्वों में शामिल कर दिया. अर्थात बाद के लिए टाल दिया. नीति निर्देशक तत्व सरकार को कानून बनाने के लिए दिशा निर्देश देते हैं. वे कानून द्वारा सुलभ (enforceable) नहीं है. इस तरह मुसलमान मुख्य धारा में जुड़ने से रह गये. प्रचार यह किया गया कि वे मुस्लिम समुदाय के रहनुमा हैं, परन्तु आज आजादी के 68 वर्षों के बाद भी मुस्लिम महिलाओं की स्थिति दयनीय है. वे आजादी के बाद भी उन्हीं कुरीतियों की शिकार हैं.
आज हमारा संविधान देश के हर नागरिक को चाहे वह स्त्री है या पुरूष, बराबर का दर्जा देता है. जब भी समान नागरिक आचार संहिता लागू करने की बात आती है, मुस्लिम कट्टरपंथी शरिया कानून की बात करने लगते हैं. उन्हें लगता है समान नागरिक आचार संहिता लागू होने से देश में मुस्लिम संस्कृति ध्वस्त हो जायेगी. इसके लिए कई बार वे संविधान के भाग 3 में उल्लेखित अनुच्छेद 25 का सहारा लेते हैं. अनुच्छेद 25 किसी भी नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देता है. इस समय वे यह भूल जाते हैं कि हर नागरिक के कुछ दूसरे मौलिक अधिकार भी हैं. जैसे अनुच्छेद 14 स्त्री-पुरूष को बराबरी का अधिकार देता है. मुस्लिम पुरूष एक बार में 4 शादियां कर सकता है, परन्तु स्त्री नहीं. तो यह स़्त्री के बराबरी के मौलिक अधिकार का हनन है. पुरूष 4 शादियां करता है और सभी पत्नियों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं करता है, उन्हें मानसिक कष्ट में रखता है तो यह उनके जीने के अधिकार अनुच्छेद 21 का हनन है.
कानून की 1860 IPC की धारा 494 के अनुसार कोई भी स्त्री या पुरूष एक विवाह के रहते दूसरा विवाह नहीं कर सकता. दूसरी ओर मुस्लिम पुरूष 4 शादियां कर सकता है. CRPC 1973 की धारा 125 के अनुसार तलाकशुदा पत्नी-पति से आजन्म गुजारा भत्ता लेने की हकदार है. मुस्लिम महिलाओं के लिए ऐसा नहीं है. शाहबानो केस इसका उदाहरण है. इसी तरह बाल विवाह निषेध अधिनियम 1929 के अनुसार बाल विवाह अपराध है, परन्तु मुस्लिम समाज के लिए यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता है. ईसाई विवाह अधिनियम 1872, ईसाई तलाक अधिनियम 1869 भी पुराने हैं व हिन्दू विवाह अधिनियम से अलग हैं. ये विषमताएं देश की धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्नचिन्ह हैं.
गोवा का अपना सिविल कोड है. यह पुर्तगाली सिविल कोड 1867 पर आधारित है. इसे गोवा में 1870 में लागू किया गया था. बाद में कुछ परिवर्तन भी किये गये. गोवा सिविल कोड में हर धर्म के लोगों के लिए विशेष प्रावधान है. यह हिन्दू सिविल कोड से अलग है. सन् 1961 में गोवा के भारत में विलय के बाद भी इसे उसी स्वरूप में रहने दिया गया. सन् 1981 में भारत सरकार ने इस कोड को हटाने व सबके अपने-अपने कानून (Non_Uniform law) लागू करने की संभावनायें तलाशने के लिए एक पर्सनल लॉ कमेटी बनाई. गोवा मुस्लिम शरिया ऑर्गेनाइजेशन ने इसका समर्थन किया, परन्तु मुस्लिम युवा वेलफेयर एसोसिएशन एवं महिला संगठनों ने इसका पुरजोर विरोध किया.
आज समय है, जब मुस्लिम महिलाओं व युवाओं को संगठित होकर सरकार से समान नागरिक आचार संहिता लागू करने की मांग करनी चाहिए. हिन्दू समाज ने भी हिन्दू सिविल कोड का विरोध किया था. लेकिन आज हिन्दू महिलाएं अच्छा जीवन जी रही हैं. मुस्लिम समाज में भी समान नागरिक आचार संहिता लागू होने पर कुछ विरोध होंगे. सरकार को उनकी अनदेखी करनी चाहिए. यूं भी समान नागरिक आचार संहिता के अन्तर्गत शादी, तलाक, गोद लेने व उत्तराधिकार जैसे धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के मुद्दे आते हैं. इनसे किसी के भी धार्मिक अधिकारों की स्वतंत्रता का हनन नहीं होता है. हां, समान नागरिक आचार संहिता लागू होने से कुछ फायदे अवश्य होंगे. मुस्लिमों में बहुविवाह पर रोक लगने से जनसंख्या वृद्धि रूकेगी. कम बच्चे होने से उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी. एक तरफा तलाक पर रोक लगने से मुस्लिम महिलाओं के शोषण में कमी आयेगी. जब धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं होगा तो देश सही मायने में धर्मनिरपेक्ष बनेगा. विभिन्न समुदायों के बीच एकता की भावना पैदा होगी. एक ही विषय पर कम कानून होने से न्यायतंत्र को भी फैसले देने में आसानी होगी. कई मुस्लिम देशों जैसे टर्की व ट्यूनिशिया आदि ने भी शरीयत से हटकर नागरिक कानून बनाये हैं. अन्य धर्मों में भी समय-समय पर व्यक्तिगत कानूनों में परिवर्तन हुए हैं. मुस्लिम समाज को मुख्य धारा में आने व अपने सामाजिक उत्थान के लिए सरकार पर समान नागरिक आचार संहिता लागू करने के लिए दबाव बनाना चाहिए. सरकार को भी मुस्लिम समाज को केवल वोट बैंक ना मानते हुए तुष्टीकरण की नीतियों से ऊपर उठ कर सामाजिक समरसता व हर वर्ग के उत्थान के लिए काम करना चाहिए.
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समान नागरिक संहिता।
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नागरिक संहिता तथा आचार संहिता बिल्कुल अलग-अलग अर्थ और प्रभाव रखते हैं। नागरिक संहिता नागरिक की होती है, राजनैतिक व्यवस्था से जुड़ी होती है, सामूहिक होती है जबकि आचार संहिता व्यकित की होती है, व्यकितगत होती है, समाज या राज्य के दबाव से मुक्त होती है। नागरिक संहिता को हर हाल में समान होना ही चाहिये दूसरी ओर आचार संहिता को समान करने का प्रयत्न घातक होता है।
विवाह, खानपान, भाषा, पूजा-पद्धति, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि आचार संहिता से जुड़े विषय हैं। कोर्इ सरकार इस संबंध में कोर्इ कानून नहीं बना सकती। सुरक्षा, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि में सरकारी सहायता व्यकितगत न होकर नागरिकता से जुड़े हैं। इस संबंध में सरकार कोर्इ कानून बना सकती है।
स्वतंत्रता के समय से ही आचार संहिता और नागरिक संहिता का अन्तर नहीं समझा गया और न आज तक समझा जा रहा है। आचार संहिता तथा नागरिक संहिता को एक करने के कारण समाज में अनेक समस्याएं बढ़ती गर्इं समाज टूटता गया तथा राजनेता मजबूत होते चले गये। राजनेता तो लगातार चाहता है कि समाज, धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता, उम्र, लिंग, गरीब-अमीर, किसान, मजदूर के रूप में वर्ग विद्वेष वर्ग संघर्ष की दिशा में बढ़ता रहे तथा राजनेता बिलिलयों के बीच बन्दर बनकर सुरक्षित रहें।
भारत की राजनैतिक व्यवस्था को व्यकित, परिवार, गांव, जिला, प्रदेश, देश और विश्व के क्रम में एक दूसरे के साथ जुड़ना चाहिये था, किन्तु उसे जोड़ा गया व्यकित, जाति, वर्ण, धर्म, समाज के क्रम में। स्वाभाविक था कि उपर वाला क्रम एक दूसरे का पूरक होता तथा नीचे वाला क्रम एक दूसरे के विरूद्ध। स्वतंत्रता के तत्काल बाद अम्बेडकर जी, नेहरू जी आदि ने तो सब समझ ते हुए भी यह राह पकड़ी जिससे समाज कभी एक जुट न हो जावे किन्तु अन्य अनेक लोग नासमझी में आचार संहिता और नागरिक संहिता को एक मानने लगे। आज भी संघ परिवार के लोग समान नागरिक संहिता के नाम पर आचार संहिता के प्रश्न उठाते रहते हैं। विवाह एक हो या चार यह नागरिक संहिता का विषय न होकर आचार संहिता से संबंधित है जिसे बहुत चालाकी से नागरिक संहिता में घुसाया गया है।
आज भारत में जो भी सामाजिक समस्याएं दिख रही हैं उनका सबसे अच्छा समाधान है समान नागरिक संहिता। भारत एक सौ इक्कीस करोड़ व्यकितयों का देश होगा, न कि धर्म, जाति, भाषाओं का संघ। भारत के प्रत्येक नागरिक को समान स्वतंत्रता होगी। संविधान के प्रीएम्बुल में समता शब्द को हटाकर स्वतंत्रता कर दिया जायेगा। प्रत्येक नागरिक के अधिकार समान होंगे। न्यायालय भी कर्इ बार समान नागरिक संहिता के पक्ष में आवाज उठा चुका है। अब समाज को मिलकर इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिये।
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समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code): देश एक, संविधान एक फिर कानून अलग-अलग
वैसे तो यूनिफॉर्म सिविल कोड की बहस देश में बहुत पुरानी है, लेकिन अब केन्द्र सरकार ने देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की दिशा में एक बड़ा कदम आगे बढ़ाया है। सरकार ने लॉ कमीशन से इसके बारे में राय मांगी है। सबसे पहले हम आपको ये बताते हैं कि इस मुद्दे पर क्या हुआ, उसके बाद हम यूनिफॉर्म सिविल कोड को डिकोड करेंगे और आसान शब्दों में आपको इस पूरे मुद्दे के हर पहलू की जानकारी देंगे।
-केन्द्र सरकार ने लॉ कमीशन को यूनिफॉर्म सिविल कोड के सभी पहलुओं की जांच करने को कहा है।
-कानून मंत्रालय ने कमीशन को इस मामले से जुड़ी रिपोर्ट भी पेश करने को कहा है।
-इसके अलावा सरकार अलग-अलग पर्सनल लॉ बोर्ड्स से भी इस मुद्दे पर एकराय बनाने के लिए बात करेगी।
-देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट भी कह चुकी है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड पर समाज में और अदालत में बड़ी बहस होनी चाहिए।
लॉ कमीशन कानूनों पर सरकार को सिर्फ़ सलाह देता है और कमीशन की रिपोर्ट को मानने के लिए सरकार किसी भी रूप में बाध्य नहीं है।
समान नागरिक संहिता का मुद्दा क्या है और इसे लेकर क्या विवाद है
-यूनिफॉर्म सिविल कोड का अर्थ है भारत के सभी नागरिकों के लिए समान यानी एक जैसे नागरिक कानून।
-शादी, तलाक और जमीन जायदाद के बंटवारे में सभी धर्मों के लिए एक ही कानून लागू होगा। फिलहाल हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ के तहत करते हैं।
-समान नागरिक संहिता एक पंथनिरपेक्ष कानून होता है जो सभी धर्मों के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है।
-ये किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है।
-संविधान में समान नागरिक संहिता को लागू करना अनुच्छेद 44 के तहत राज्य की जिम्मेदारी बताया गया है, लेकिन ये आज तक देश में लागू नहीं हो पाया।
-लेकिन यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू नहीं होने से हम वर्षों से संविधान की मूल भावना का अपमान कर रहे हैं।
अब सवाल ये उठता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर कहां पर दिक्कतें आ रही हैं। कई लोगों का ये मानना है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हो जाने से देश में हिन्दू कानून लागू हो जाएगा जबकि सच्चाई ये है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड एक ऐसा क़ानून होगा जो हर धर्म के लोगों के लिए बराबर होगा और उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं होगा।
-फिलहाल मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का पर्सनल लॉ है जबकि हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।
-अगर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हो जाए तो सभी धर्मों के लिए एक जैसा कानून होगा।
-यानी शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा फिर चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों ना हो।
-फिलहाल हर धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी क़ानूनों के तहत करते हैं।
-मुस्लिम धर्म के लोगों के लिए इस देश में अलग कानून चलता है जो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के ज़रिए लागू होता है।
-मुसलमानों में ट्रिपल तलाक के मुद्दे पर इन दिनों देश में खूब बहस चल रही है और इसे हटाने की मांग की जा रही है। मुसलमानों में तलाक मुस्लिम पर्सनल लॉ यानी शरिया के ज़रिए होता है।
-वैसे निजी कानूनों का ये विवाद अंग्रेज़ों के ज़माने से चला आ रहा है।
-उस दौर में अंग्रेज मुस्लिम समुदाय के निजी कानूनों में बदलाव करके उनसे दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे।
-आज़ादी के बाद वर्ष 1950 के दशक में हिन्दू क़ानून में तब्दीली की गई लेकिन दूसरे धर्मों के निजी क़ानूनों में कोई बदलाव नहीं हुआ।
-यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने में सबसे बड़ी समस्या ये है कि इसके लिए क़ानूनों में ढेर सारी तब्दीलियां करनी पड़ेंगी।
दूसरी समस्या ये है कि तमाम राजनीतिक पार्टियां अलग-अलग वजहों से इस मुद्दे पर बहस नहीं करना चाहतीं क्योंकि ये उनके एजेंडे को सूट नहीं करता और इससे उनके वोट बैंक को नुकसान हो सकता है जिसका नतीजा ये है कि देश आज भी अलग-अलग क़ानूनों की जंज़ीरों में जकड़ा हुआ है।
दुख इस बात का है कि जो बहस आज से 50-60 साल पहले ख़त्म हो जानी चाहिए थी, हम आज तक उसे ठीक से शुरू भी नहीं कर पाए हैं। अगर हम धार्मिक आधार पर बनाए गए पुराने कानूनों से मुक्ति पा लेते तो देश अब तक ना जाने कितना आगे बढ़ चुका होता, ये सिर्फ कानून का नहीं बल्कि सोच का विषय है।
फ्रांस में कॉमन सिविल कोड लागू है जो वहां के हर नागरिक पर लागू होता है। यूनाइटेड किंगडम के इंग्लिश कॉमन लॉ की तर्ज पर अमेरिका में फेडरल लेवल पर कॉमन लॉ सिस्टम लागू है। ऑस्ट्रेलिया में भी इंग्लिश कॉमन लॉ की तर्ज पर कॉमन लॉ सिस्टम लागू है। जर्मनी और उज़बेकिस्तान जैसे देशों में भी सिविल लॉ सिस्टम लागू हैं।
धर्म पर आधारित कानूनों की ज़ंजीरों से आज़ादी का एकमात्र रास्ता ये है कि सबके लिए समान क़ानून बनाए जाएं। लोगों को इस बात पर यकीन होना चाहिए कि उनके साथ राजनीति नहीं होगी बल्कि न्याय होगा। इसलिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करके कानून को धार्मिक जंज़ीरों से मुक्त करना ज़रूरी है। ये देश को विकास के रास्ते पर बढ़ाने वाला कदम साबित हो सकता है।
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