भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास

 


भविष्य की घटनाओं का होगा पूर्वाभास

- राजकुमार सोनी

मानव के अंदर एक ऐसा जीन छुपा रहता है, जिससे उसे भावी घटनाओं का पता चल सकता है। लेकिन व्यावहारिक रूप से वह पता नहीं कर पाता। अब वैज्ञानिकों ने यह रहस्य खोल लिया है। मानव अपने मस्तिष्क के जरिये भविष्य की घटनाओं का पता आसानी से लगा सकता है। 


आम तौर पर हमें आज और अभी या अपने आसपास की घटनाओं की ही जानकारी होती है। आने वाले या बीत गए समय की अथवा दूरदराज की घटनाओं का पता नहीं चलता, लेकिन कोई विलक्षण शक्ति है, जो व्यक्ति को समय और दूरी की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उपयोगी सूचनाएं देती है। 


हर व्यक्ति में छिपी है शक्ति

विल्हेम वॉन लिवनीज नामक वैज्ञानिक का कहना है हर व्यक्ति में यह संभावना छिपी पड़ी है कि वह कभी-कभार चमक उठने वाली इस क्षमता को विकसित कर पूर्वाभास को सामान्य बुद्धि की तरह अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना लेता है। इस तरह की क्षमता अर्जित कर सरकता है, जब चाहे दर्पण की तरह अतीत या भविष्य को देख सके। अतीन्द्रिय ज्ञान को वैज्ञानिक आधार देते हुए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में भौतिकी के विद्वान एड्रियन डॉन्स ने कहा है कि भविष्य में घटने वाली हलचलें मनुष्य के मस्तिष्क में एक प्रकार की तरंगें पैदा करती हैं। इन तरंगों को साइट्रॉनिक वेवफ्रंट कहा गया है। ये तरंगे मस्तिष्क के स्नायुकोष (न्यूरान्स) पकड़ लेते हैं। डरहम विश्वविद्यालय इंग्लैंड के गणितज्ञ एवं भौतिकीविद् डॉ. गेरहार्ट डीटरीख वांसरमैन का कहना है कि भविष्य का आभास या अतीत की घटनाओं का ज्ञान इसलिए होता रहता है, क्योंकि इनके संकेत टाइमलेस (समय-सीमा से परे) मेंटल पैटर्न (चिंतन क्षेत्र) में मौजूद रहते हैं। ब्रह्मांड का हर घटक इन घटना तरंगों से जुड़ा होता है। श्एक्सप्लोरिंग साइकिक फिनॉमिना बियांड मैटर्य नामक अपनी चर्चित पुस्तक में डी स्कॉट रोगो लिखते हैं, विचारणाएं 


तथा भावनाएं प्राणशक्ति का उत्सर्जन (डिस्चार्ज ऑफ वाइटल फोर्स) हैं। यही उत्सर्जन अंतरूकरण में यदा-कदा स्फुरण बनकर प्रकट होते हैं। उत्सर्जन दो व्यक्तियों के बीच हो तो टेलीपैथी कहा जाता है और समय-सीमा से परे हो तो पूर्वाभास।


चलचित्र की तरह दिखेंगी घटनाएं

अतीन्द्रिय ज्ञान को वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित करने वाले विद्वानों का मानना है कि यदि कोई तत्व प्रकाश की गति से भी तीव्र गति करे तो उसके लिए समय रुक जाता है। दूसरे शब्दों में, वहां बीते कल, आज और आने वाले कल में कोई अंतर न रहेगा। अपने चित्त में यह गति साध ली जाए तो अतीत और भविष्य की घटनाएं चलचित्र की तरह देखी जा सकती हैं। अधिकतर दार्शनिकों का मत है कि घटनाओं के पूर्वाभास जीवन बचाने के लिए होते

हैं और यह बात भी सच है कि यदि हम कमजोर मन इंसान से इस तरह के पूर्वाभासों का जिक्र करते है, तो वे किसी की मौत का कारण भी बन सकते हैं। अनेक बार पूर्वाभास स्पष्ट नहीं होते और न उनकी व्याख्या की जा सकती है। श्प्रिमोनीशन्य

श्एक्स्टां सॅन्सरी परसॅप्शन्स्य का वह रूप है, जिसे हम श्इन्स्टिंक्ट्य या भावी घटना का एक तीव्र आभास कह सकते हैं। ये एक तरह की श्इन्ट्यूटिव वॉर्निंग्य होती है, जो अवचेतन मन पर अंकित हो जाती है और कभी-कभी व्यक्ति को नियोजित कार्योँ को करने से मनोवैज्ञानिक तरह से रोकती हैं। इसे बहुत से चिन्तक विशिष्ट घटनाओं की

श्भविष्यवाणी्य भी कहते हैं। साइंस इसके स्टेट्स को अस्वीकार करता है। लेकिन दार्शनिकों का मानना है कि प्रिमोनीशन और प्रौफॅसी को व्यर्थ की चीज मानकर नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। क्योंकि घटनाओं के पूर्वाभास की जानकारी और

उनका सही घटना प्रमाणित करता है कि श्प्रिमोनीशन्य में तथ्य है, इसकी अर्थवत्ता है।

इस तरह से यह साइंस के लिए एक चेतावनी है, क्योंकि यह सृष्टि की गतिविधियों के

साथ मानव मन के सघन संबंध का संकेत देती है। यह आन्तरिक शक्तियों और सृष्टि में स्पन्दित अलौकिक शक्तियों व उसके चक्र के अन्तर्संबंध का विज्ञान है। कहा जाता है कि नॉस्टेंडम ने अपनी मृत्यु की श्पूर्व घोषणा्य कर दी थी। जुलाई 1, 1566 जब एक पुरोहित उनसे मिलने आया और जाने लगा तो नॉस्टेंडम ने उससे अपने बारे में कहा

कि श्वह कल सूर्योदय होने तक मर चुका होगा।

इसी तरह अब्राहम लिंकन ने अपनी मौत का सपना देखा और अपनी पत्नी व अंगरक्षक को अपने कत्ल से कुछ घंटे पहले इस बारे में बताया। मार्क ट्वेन ने पहले से यह बता दिया था कि उसकी मृत्यु के दिन दिखाई देगा जैसे कि यह वो दिन था, जिस दिन उसका जन्म हुआ था। दुर्भाग्यग्रस्त श्टाइटैनिक्य जहाज जो आइसबर्ग पर अटक जाने के कारण 


1912 में समुद्र में विलीन हो गया था, कहा जाता

है कि उसके अनेक यात्रियों को जहाज के अवरुद्ध होकर डूब जाने का पूर्वाभास काफी

समय पहले हो गया था। फिर भी अन्य लोगों ने व जहाज के सुरक्षा दल ने कुछ

यात्रियों के इस पूर्व संकेत की अवहेलना की। उसके बाद श्टाइटैनिक्य के साथ जो घटा,

वह अपने में एक आंसू भरा इतिहास था।्य

डॉ. सब्बरवाल से बातचीत करके राज को लगा कि पूर्वाभास कोई निरर्थक या हंसी

में उड़ा देने वाली जानकारी नहीं है। यह एक गहरे अध्ययन और शोध का विषय है।

राज ने डॉ. सब्बरवाल के कहे अनुसार पूर्वाभास से संबंधित किताबें पढ़ीं और उसके

सोच में एक ठहराव आया। उसने गहराई से अपने पूर्वाभासों का अध्ययन शुरू किया।

धीरे-धीरे कुछ समय बाद उसे लगा कि वह एक शान्त, निस्पन्द पथ पर बढ़ रही है।

उसके मन पर पहले की तरह तनाव, चिन्ता और अवसाद नहीं था, वरन् पूर्वाभास को

सहजता से लेने का साहस और मनोबल विकसित हो रहा था। संभवतरू यह उसके सुख

और सुकून से भरे आगामी जीवन का पूर्वाभास था, जिसे वह किसी के भी साथ बांटना

नहीं चाहती थी, अपितु उस स्वच्छ, तरल अनुभूति को सदा के लिए सहेज लेना चाहती

थी।






परामनोविज्ञान एक रहस्य

परामनोविज्ञान एक विवादास्पद विधा है, जो वैज्ञानिक विधि का उपयोग करते हुए इस बात की जांच-परख करने का प्रयत्न करती है कि मृत्यु के बाद भी मनोवैज्ञानिक क्षमताओं का अस्तित्व रहता है या नहीं। परामनोविज्ञान का संबंध मनुष्य की उन अधिसामान्य शक्तियों से है, जिनकी व्याख्या अब तक के प्रचलित सामान्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों से नहीं हो पाती। इन तथाकथित प्राकृतेतर तथा विलक्षण प्रतीत होने वाली अधिसामन्य घटनाओं या प्रक्रियाओं की व्याख्या में ज्ञात भौतिक प्रत्ययों से भी सहायता नहीं मिलती। परचित ज्ञान, विचार संक्रमण, दूरानुभूति, पूर्वाभास, अतींद्रिय ज्ञान, मनोजनित गति या साइकोकाइनेसिस आदि कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं, जो एक भिन्न कोटि की मानवीय शक्ति तथा अनुभूति की ओर संकेत करती हैं। इन घटनाओं की वैज्ञानिक स्तर पर घोर उपेक्षा की गई है और इन्हें बहुधा जादू-टोने से जोड़कर, गुह्यविद्या का नाम देकर विज्ञान से अलग समझा गया है। किंतु ये विलक्षण प्रतीत होने वाली घटनाएं घटित होती हैं। वैज्ञानिक उनकी उपेक्षा कर सकते हैं, पर घटनाओं को घटित होने से नहीं रोक सकते। 


घटनाएं वैज्ञानिक ढांचे में बैठती नहीं दीखतीं - वे 

आधुनिक विज्ञान की प्रकृति की एकरूपता या नियमितता को धारणा को भंग करने की चुनौती देती प्रतीत होती हैं इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि आज भी परामनोविज्ञान को वैज्ञानिक संदेह तथा उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। किंतु वास्तव में परामनोविज्ञान न जादू टोना है, न वह गुह्यविद्या, प्रेतविद्या या तंत्रमंत्र जैसा कोई विषय। इन तथाकथित प्राकृतेतर, पराभौतिक एवं परामानसकीय, विलक्षण प्रतीत होने वाली अधिसामान्य घटनाओं या प्रक्रियाओं का विधिवत् तथा क्रमबद्ध अध्ययन ही परामनोविज्ञान का मुख्य उद्देश्य है। इन्हें प्रयोगात्मक पद्धति की परिधि में बांधने का प्रयत्न, इसकी मुख्य समस्या है। परामानसकीय अनुसंधान या साइकिकल रिसर्च इन्हीं पराभौतिक विलक्षण घटनाओं के अध्ययन का अपेक्षाकृत प्राचीन नाम है, जिसके अंतर्गत विविध प्रकार की उपांत घटनाएं भी सम्मिलित हैं, जो और भी विलक्षण प्रतीत होती हैं तथा वैज्ञानिक धरातल से और अधिक दूर हैं - उदाहरणार्थ प्रेतात्माओं, या मृतात्माओं से संपर्क, पाल्टरजीस्ट या ध्वनिप्रेत, स्वचालित लेखन या भाषण आदि। परामनोविज्ञान अपेक्षाकृत सीमित है - यह परामानसकीय अनुसंधान का प्रयोगात्मक पक्ष है - इसका वैज्ञानिक अनुशासन और कड़ा है।


मानव का अदृश्य जगत

मानव का अदृश्य जगत से इंद्रियेतर संपर्क में विश्वास बहुत पुराना है। लोककथाएं, प्राचीन साहित्य, दर्शन तथा धर्मग्रंथ पराभौतिक घटनाओं तथा अद्भुत मानवीय शक्तियों के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। परामनोविद्या का इतिहास बहुत पुराना है - विशेष रूप से भारत में। किंतु वैज्ञानिक स्तर पर इन तथाकथित पराभौतिक विलक्षण घटनाओं का अध्ययन उन्नीसवीं शताब्दी की देन है। इससे पूर्व इन तथाकथित रहस्यमय क्रिया व्यापारों को समझने की दिशा में कोई संगठित वैज्ञानिक प्रयत्न नहीं हुआ। आधुनिक परामनोविज्ञान का प्रारंभ सन् 1882 से ही मानना चाहिए, जिस वर्ष लंदन में परामानसकीय अनुसंधान के लिए सोसाइटी फॉर साइकिकल रिसर्च (एसपीआर) की स्थापना हुई। यद्यपि इससे पहले भी कैंब्रिज में घोस्ट सोसाइटी, तथा ऑक्सफोर्ड में फैस्मेटोलाजिकल सोसाइटी जैसे संस्थान रह चुके थे, तथापि एक संगठित वैज्ञानिक प्रयत्न का आरंभ एसपीआर की स्थापना से ही हुआ, जिसकी पहली बैठक 17 जुलाई, 1882 ई. में प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरी सिजविक की अध्यक्षता में हुई। इसके संस्थापकों में हेनरी सिजविक उनकी पत्नी ईएम सिजविक, आर्थर तथा गेराल्ड बाल्फोर, लार्ड रेले, एफडब्ल्यूएच मायर्स तथा भौतिक शास्त्री सर विलियम बैरेट थे।




परामानसकीय क्रिया व्यापार

परभावानुभूति 

एफडब्ल्यूएच मायर्स का दिया हुआ शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है दूरानुभूति। ज्ञानवाहन के ज्ञात माध्यमों से स्वतंत्र एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क में किसी प्रकार का भाव या विचारसंक्रमण टेलीपैथी कहलाता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक दूसरे व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं के बारे में अतींद्रिय ज्ञान को ही दूरानुभूति की संज्ञा देते हैं।


अतींद्रिय प्रत्यक्ष 

इसका शाब्दिक अर्थ है स्पष्ट दृष्टि। इसका प्रयोग दृष्टा से दूर या परोक्ष में घटित होने वाली घटनाओं या दृश्यों को देखने की शक्ति के लिए किया जाता है, जब द्रष्टा और दृश्य के बीच कोई भौतिक या ऐंद्रिक संबंध नहीं स्थापित हो पाता। वस्तुओं या वस्तुनिष्ठ घटनाओं का अतींद्रिय प्रत्यक्ष क्लेयरवाएंस तथा मानसिक घटनाओं का अतींद्रिय प्रत्यक्ष टेलीपैथी कहलाता है।


पूर्वाभास का पूर्वज्ञान

किसी भी प्रकार के तार्किक अनुमान के अभाव में भी भविष्य में घटित होने वाली घटना की पहले से ही जानकारी प्राप्त कर लेना या उसका संकेत पा जाना पूर्वाभास कहलाता है।


मनोजनित गति 

बिना भौतिक संपर्क या किसी ज्ञात माध्यम के प्रभाव के निकट या दूर की किसी वस्तु में गति उत्पन्न करना मनोजनित गति कहलाता है। पाल्टरजीस्ट या ध्वनि प्रेतप्रभाव, किसी प्रकार के भौतिक या अन्य तथाकथित प्रेतात्मा के प्रभाव से तीव्र ध्वनि होना, घर के बर्तनों या सामानों का हिलना डुलना या टूटना, के प्रभाव भी मनोजनित गति के अंदर आते हैं। अनेक प्रयोगात्मक अध्ययनों से उपर्युक्त क्रिया व्यापारों की पुष्टि भी हो चुकी है। कुछ अन्य घटनाएं भी हैं, जिन पर उपयुक्त प्रयोगात्मक अध्ययन अभी नहीं हो पाए है, किंतु वर्णनात्मक स्तर पर उनके प्रमाण मिले हैं, जैसे स्वचालित लेखन या भाषण, किसी अनजान एवं अनुपस्थित व्यक्ति का कोई सामान देखकर उसके बारे में बतलाना, प्रेतावास आदि कहलाता है।


परामानसकीय के प्रयोगात्मक अध्ययन

प्रसिद्ध अमेरिकन परामनोवैज्ञानिक जेबी राइन ने इ


ने अजनबी एवं अनियमित प्रतीत होती घटनाओं को प्रयोगात्मक पद्धति की परिधि में बांधने का प्रयत्न किया और उन्हें काफी सीमा तक सफलता भी प्राप्त हुई। उन्होंने 1934 में ड्यूक विवि में परामनोविज्ञान की प्रयोगशाला की स्थापना की तथा अतींद्रिय ज्ञान पर अनेक प्रयोगात्मक अध्ययन किए। ईएसपी शब्द 1930 के लगभग प्रो. राइन के कारण ही सामान्य प्रचलन में आया। इसका अर्थ है सांवेदनिक या ऐंद्रिक ज्ञान के अभाव में भी किसी बाह्य घटना या प्रभाव का आभास, बोध या उसके प्रति प्रतिक्रिया। यह शब्द सभी प्रकार के अतींद्रिय ज्ञान के लिए प्रयुक्त किया जाता है। 

प्रो. राइन ने जेनर कार्ड्स का उपयोग किया जिनमें पांच ताशों का एक सेट होता है। इन ताशों में अलग-अलग संकेत बने हैं, जैसे गुणा, गोला, तारक, टेढ़ी रेखाएं तथा चतुर्भुज। प्रयोगकर्ता उसी कमरे में या दूसरे कमरे में जेनर ताश की गड्डी फेट लेता है और उसे उल्टा रखता है। प्रयोज्य कार्ड के चिह्न का अनुमान लगाता है। परिणाम निकालने में सामान्य संभावना सांख्यिकी का उपयोग किया जाता है, जिसके अनुसार अनुमानों की सफलता की संभावना यहां 1ध्5 है, अर्थात् पचीस अनुमानों में पांच। तर्क यह है कि यदि प्रयोज्य संभावित प्रत्याशी से अधिक सही अनुमान लगा लेता है तो निश्चित रूप से यह किसी अतींद्रिय प्रत्यक्ष की शक्ति की ओर संकेत करता हैं, यदि प्रयोग की दशाओं का नियंत्रण इस बात का संदेह न उत्पन्न होने दे कि प्रयोज्य को कोई ऐंद्रिक संकेत मिल गया होगा।


जानवरों को होता है पूर्वाभास 

बात लगभग एक सदी पुरानी है। अमेरिका के पश्चिमी द्वीप समूह का लगभग 5000 फुट ऊंचा माउंट पीरो नामक पर्वत ज्वालामुखी बनकर धधकने लगा और फूट पड़ा। पर्वत के टुकड़े-टुकड़े हो गए। इस प्राकृतिक विपदा ने तीस हजार मनुष्यों को लील लिया। करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हो गई। 

जो लोग जीवित रह गए उन्होंने बताया कि यहां के पशु-पक्षी रात में रुदन-सा करते थे और ऐसा कई दिनों से हो रहा था। साथ ही पक्षियों ने अपने घर कहीं और बसा लिए थे। सर्पों, कुत्तों और सियारों ने तो मानो काफी दिनों पहले ही जगह को छोड़ दिया था। 

1904 में घटी इस घटना के अतिरिक्त भी अनेकानेक घटनाओं का जिक्र करते हुए जीवविज्ञान के वैज्ञानिक डॉ. विलियम जे. लॉग ने पशुओं की इंद्रियातीत शक्ति को स्वीकारा है। उनके मुताबिक पशु-पक्षी भले ही बुद्धि-कौशल में मनुष्य की तुलना में कमतर हों, परंतु उनकी इंद्रियातीत शक्ति काफी बढ़ी-चढ़ी होती है और वे उसके आधार पर अपनी जीवनचर्या का सुविधापूर्वक संचालन करते हैं। डॉ. विलियम ने अपनी पुस्तक 


में लिखा है कि यदि पशु-पक्षियों में वाक्य शक्ति होती तो वे बेहतरीन ज्योतिषी साबित होते। प्राकृतिक आपदाओं के प्रति तो हिरणों, मछलियों, भालुओं, चूहों, सर्पों आदि सभी पशु-पक्षियों में संवेदनशीलता देखी गई है और इनका जिक्र चीन, जर्मनी, जापान, रूस और अमेरिका सहित अनेक देशों के वैज्ञानिकों ने समय-समय पर किया है। इस संदर्भ में अनेक सार्थक अनुसंधान भी हुए हैं। 

मसलन बर्फ गिरने से पहले ध्रुवीय भालुओं का भोजन एकत्रीकरण, बर्फ जमने वाली झीलों से मछलियों का पलायन, बर्फ गिरने के पहले हिरणों का सुरक्षित स्थानों पर पहुंचना, भूकंप के पहले पालतू कुत्तों का मालिक के आदेशों का पालन न करना, एक-दूसरे को काटना, चूहों-सर्पोँ का बिलों से निकलकर बेतहाशा भागना, मछलियों का तल में चले जाना, गाय आदि मवेशियों का रस्सी छुड़ाने का प्रयास करना है।

परंतु ऐसी घटनाएं भी वैज्ञानिकों ने दर्ज की हैं, जिनसे पता चलता है कि पशु-पक्षियों में बाकायदा छठी इंद्रिय होती है। एक घटना का उल्लेख प्रासंगिक होगा। घटना वियना की है। एक कुत्ता माल उठाने-उतारने की क्रेन के पास पड़ा सुस्ता रहा था। अचानक वह चौंककर उठा और उछलकर दूर जाकर बैठ गया। कुछ मिनटों के बाद अचानक क्रेन का रस्सा टूट गया और भारी लौहखंड वहीं गिरा, जहां कुत्ता पहले लेटा हुआ था। 

एक अन्य रोचक घटना से हमें पशुओं की सुविकसित अतीन्द्रिय शक्ति का पता चलता है। बर्मा में अंगरेजों और जापानियों के बीच युद्ध चल रहा था। एक दिन अंगरेजों की एक टुकड़ी पर चंद जापानियों ने हमला कर दिया। जापानियों ने सोची-समझी रणनीति के तहत पीछे हटने का नाटक खेला। वे इस तरह दूर खंदकों में जा छुपे। अंगरेजों ने उन्हें भागा हुआ समझा और देखा कि उनके ठिकाने पर एक मेज पर ताजा पकाया हुआ खाना रखा है। वे खाना खाने को तत्पर हुए कि सार्जेंट रैडी की काली बिल्ली ने खाने को तहस-नहस कर दिया और अंगरेज सैनिकों पर गुर्राने लगी। सैनिकों ने उसे धमकाने के काफी प्रयास किए, परंतु उसने उन्हें मेज के पास नहीं फटकने दिया। कुछ ही मिनटों में बारूदी सुरंग फट पड़ी और खाने की मेज और बिल्ली के टुकड़े-टुकड़े हो गए। बर्मा की कलादान घाटी में उस बिल्ली की समाधि आज भी मौजूद है और समाधि पर घटना का भी संक्षिप्त विवरण अंकित है। 


महात्मा गांधी रू मृत्यु का पूर्वाभास

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो चुका था, जिसका संकेत वह अनेक बार दे भी चुके थे। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय (मेरठ) के इतिहास विभाग की पूर्व अध्यक्ष एवं गांधी अध्ययन संस्थान की पूर्व 


निदेशक गीता श्रीवास्तव के नए शोध में ऐसे कई दृष्टंत दिए गए हैं। अब मेरठ विश्वविद्यालय में ही मानद प्राध्यापक के रूप में कार्यरत डॉ. श्रीवास्तव का कहना है कि 30 जनवरी 1948 को एक हत्यारे की गोली का निशाना बनने से एक दिन पहले सीने पर गोली खाकर पीड़ा से कराहे बगैर ही, हे राम का उच्चारण करते हुए दुनिया से विदा होने की इच्छा व्यक्त की थी।

महात्मा गांधी भी ब्रिटिश फौज में थे! 

इतना ही नहीं, गांधीजी ने अपनी मृत्यु से चंद मिनट पहले यानी अपनी अंतिम प्रार्थना सभा के दौरान काठियावाड़ (गुजरात) से उनसे मिलने दिल्ली आए दो नेताओं को कहलवाया था, यदि मैं जीवित रहा तो प्रार्थना सभा के बाद आप लोग मुझसे बात कर सकेंगे। इस प्रकार मृत्यु से चौबीस घंटे पहले उन्होंने दो बार इसके पूर्वाभास की सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्ति कर दी थी। डॉ. श्रीवास्तव ने अपने शोध और कृष्णा कृपलानी द्वारा 1968 में लिखित पुस्तक श्नेशनल बायोग्राफी गांधीरू ए लाइफ्य में लिखा है। इस पुस्तक में ऐसे कई तथ्यों को उजागर करने की कोशिश की गई है, जो अन्यत्र प्रकाश में नहीं आ सके थे। डॉ. श्रीवास्तव का कहना है कि गांधीजी उन भाग्यशाली महापुरुषों में माने जाएंगे, जो अपनी इच्छानुसार मृत्यु को प्राप्त हुए। उन्होंने कहा कि मृत्यु के समय गांधीजी की जुबान पर श्हे राम्य शब्द थे। उनके निकट सहयोगी जानते थे कि यही उनके जीवन की सबसे बड़ी इच्छा भी थी। 

गांधी की किताबें पढ़ते हैं ओबामा 
इससे पहले 20 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा से पूर्व चारों ओर लोगों से घिरे गांधीजी से चन्द गज की दूरी पर हुए बम विस्फोट ने उन्हें जरा भी विचलित नहीं किया था और उन्होंने अपना संबोधन जारी रखा था। गांधीजी ने कभी अपनी सुरक्षा को पसन्द नहीं किया। यहां तक कि अपनी मृत्यु से चालीस वर्ष पूर्व 1908 में जब उनके जीवन को जोहान्सबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) के एक गुस्सैल पठान मीर आलम से खतरा बना हुआ था, तो भी उन्होंने सहज भाव से कहा था- किसी बीमारी या किसी दूसरी तरह से मरने के नहीं हो सकता और यदि मैं ऐसी स्थिति में अपने हमारे के प्रति गुस्सा या घृणा से स्वयं को मुक्त रख सकूं, तो मैं जानता हूं कि यह मेरे शाश्वत कल्याण को बढ़ाने वाला होगा। संभवतरू गांधीजी की शहीद होने की अर्धचेतन मन की आंतरिक इच्छा थी, जो कभी मुखर होकर व्यक्त हो जाती है थी और उनकी कल्पना को ग्रसित कर लेती थी। बम विस्फोट से वह और दृढ़ हो गई थी। 20 जनवरी 1948 के बाद अपनी पौत्री मनु से उन्होंने कई बार श्हत्यारे की गोलियां्य या श्गोलियों की बौछार्य के बारे में बातें की थीं, जो बुराई की आशंका में नहीं वरना अपने सार्थक जीवन के अन्त के रूप में थी, जिसका आभास उन्हें हो चुका था।

गांधीजी को जानने आ रहे हैं विदेशी 
अपनी मृत्यु से एक दिन पहले 29 जनवरी को उन्होंने मनु से कहा था, यदि मेरी मृत्यु किसी बीमारी से, चाहे वह एक मुंहासे से ही क्यों न हो, तुम घर की छत से चिल्ला-चिल्लाकर दुनिया से कहना मैं एक झूठा महात्मा था। यहां तक कि ऐसा कहने पर लोग तुम्हें कसम खाने को कह सकते हैं। तब मेरी आत्मा को शांति मिलेगी। दूसरी तरफ यदि कोई मुझे गोली मारे, जैसा कि उस दिन किसी ने मुझ पर बम फेंकने की कोशिश की थी और मैं उस गोली को अपने खुले सीने पर बिना पीड़ा से कराहे ले लूं और मेरी जुबान पर राम का नाम हो, तभी तुम्हें कहना चाहिए कि मैं एक सच्चा महात्मा था।

भारत की जनता का कल्याण होगा
अंत में 30 जनवरी 1948 को वह घड़ी भी आ पहुंची, जब गांधीजी का पूर्वाभास सच होने वाला था। अपनी पौत्रियों मनु और आभा का सहारा लेकर वह प्रतिदिन होने वाली प्रार्थना सभा में पहुंचे। अभी उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर लोगों को अभिवादन स्वीकार ही किया था कि एक नवयुवक ने मनु को झटका देकर और गांधीजी के आगे घुटनों के बल अभिवादन के अन्दाज में झुककर तीन गोलियां दाग दीं। दो गोलियां तो सीधी तरफ से निकल गईं, लेकिन तीसरी उनके फेफड़े में जा फंसी। गांधीजी, वहीं गिर गए। पीड़ा से कराहे बगैर ही उनकी जुबान पर श्हे राम्य शब्द थे...और इस तरह गांधीजी ने अपनी इच्छानुसार मृत्यु को प्राप्त होकर एक सच्चा महात्मा होना अन्ततरू सिद्ध कर ही दिया।

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सदगुरु महिमा 
संकलन - अरविन्द सिसोदिया, कोटा 

श्री रामचरितमानस में आता है :-
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई भगवान शंकर या ब्रह्मा जी के समान ही क्यों न हो किन्तु गुरू के बिना भवसागर नहीं तर सकता। सदगुरू का अर्थ शिक्षक या आचार्य नहीं है। शिक्षक अथवा आचार्य हमें थोड़ा बहुत एहिक ज्ञान देते हैं लेकिन सदगुरू तो हमें निजस्वरूप का ज्ञान दे देते हैं। जिस ज्ञान की प्राप्ति से मोह पैदा न हो, दुःख का प्रभाव न पड़े एवं परब्रह्म की प्राप्ति हो जाय । ऐसा ज्ञान गुरूकृपा से ही मिलता है। उसे प्राप्त करने की भूख जगानी चाहिए। 

इसीलिए कहा गया है :-
गुरू गोविंद दोनों खड़े, किसको लागूँ पाय।
बलिहारी गुरू आपकी, जो गोविंद दियो मिलाय।।

गुरू और सदगुरू में भी बड़ा अंतर है। सदगुरू अर्थात् जिनके दर्शन और सान्निध्य मात्र से हमें भूले हुए शिवस्वरूप परमात्मा की याद आ जाय, जिनकी आँखों में हमें करूणा, प्रेम एवं निश्चिंतता छलकती दिखे, जिनकी वाणी हमारे हृदय में उतर जाय, जिनकी उपस्थिति में हमारा जीवत्व मिटने लगे और हमारे भीतर सोई हुई विराट संभावना जग उठे, जिनकी शरण में जाकर हम अपना अहं मिटाने को तैयार हो जायें, ऐसे सदगुरू हममें हिम्मत और साहस भर देते हैं, आत्मविश्वास जगा देते हैं और फिर मार्ग बताते हैं जिससे हम उस मार्ग पर चलने में सफल हो जायें, अंतर्मुख होकर अनंत की यात्रा करने चल पड़ें और शाश्वत शांति के, परम निर्भयता के मालिक बन जायें।

जिन सदगुरू मिल जाय, तिन भगवान मिलो न मिलो।
जिन सदगरु की पूजा कियो, तिन औरों की पूजा कियो न कियो।
जिन सदगुरू की सेवा कियो, तिन तिरथ-व्रत कियो न कियो।
जिन सदगुरू को प्यार कियो, तिन प्रभु को !! 

“ जिसके पास गुरूकृपा रूपी धन है वह सम्राटों का सम्राट है। जो गुरूदेव की छत्रछाया के नीचे आ गये हैं, उनके जीवन चमक उठते हैं। गुरूदेव ऐसे साथी हैं जो शिष्य के आत्मज्ञान के पथ पर आनेवाली तमाम बाधाओं को काट-छाँट कर उसे ऐसे पद पर पहुँचा देते हैं जहाँ पहुँचकर फिर वह विचलित नहीं होता।
गुरू ज्ञान देते हैं, प्रसन्नता देते हैं.... साहस, सुख, बल और जीवन की दिशा देते हैं। हारे हुए को हिम्मत से भर दें, हताश में आशा-उत्साह का संचार कर दें, मनमुख को मधुर मुस्कान से मुदित बना दें, उलझे हुए को सुलझा दें एवं जन्म-मरण के चक्कर में फँसे हुए मानव को मुक्ति का अनुभव करा दें वे ही सच्चे सदगुरू हैं।

सदगुरू की वाणी अमृत है। उनकी पूजा ईश्वर की पूजा है। उनके आशीर्वाद में वह ताकत होती है कि.....
जो बात दवा भी न कर सके, वह बात दुआ से होती है।

मानव तो आते वक्त भी रोता है, जाते वक्त भी रोता है। 
जब रोने का वक्त नहीं होता तब भी रोता रहता है। 
एक सदगुरू में ही वह ताकत है कि, जो जन्म-मरण के मूल अज्ञान को काटकर मनुष्य को रोने से बचा सकते हैं।

वे ही गुरू हैं जो आसूदा-ए-मंजिल कर दें।
वरना रास्ता तो हर शख्श बता देता है।।

उँगली पकड़कर, कदम-से-कदम मिलाकर, अंधकारमय गलियों से बाहर निकालकर लक्ष्य तक पहुँचाने वाले सदगुरू ही होते हैं। “

ब्रह्माजी जैसा सृष्टि सर्जन का सामर्थ्य हो, शंकरजी जैसा प्रलय करने का सामर्थ्य हो फिर भी जब तक सदगुरु तत्त्व की कृपा नहीं होती तब तक आवरण भंग नहीं होता, आत्म-साक्षात्कार नहीं होता। दिल में छुपा हुआ दिलबर करोड़ों युगों से है, अभी भी है फिर भी दिखता नहीं।

आदमी अपने को आँखवाला समझता है। वास्तव में वह आँख है ही नहीं। बाहर की आँख चर्म की आँख है। वह तुम्हारी आँख नहीं है, तुम्हारे शरीर की आँख है। तुम्हारी आँख अगर एक बार खुल जाय तो सुख ब्रह्माजी को मिलता है, जिसमें भगवान शिव रमण करते हैं, जिसमें आदि नारायण भगवान विष्णु विश्राम पाते हैं, जिसमें प्रतिष्ठित रहकर भगवान श्रीकृष्ण लीला करते हैं, जिसमें ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुष मस्त रहते हैं वह परम सुख - स्वरूप आत्मा - परमात्मा तुम्हारा अपना आपा है।
आदमी को अपने उस दिव्य स्वरूप का पता नहीं और कहता रहता हैः- “मैं सब जानता हूँ। “

अरे नादान ! चाहे सारी दुनिया की जानकारी इकट्ठी कर लो लेकिन अपने आपको नहीं जानते तो क्या खाक जानते हो ? आत्मवेत्ता महापुरुषों के पास बैठकर अपने आपको जानने के लिए तत्पर बनो। अपने ज्ञानचक्षु खुलवाओ। तब पता चलेगा कि वास्तव में तुम कौन हो। तभी तुम्हारे लिए भवनिधि तरना संभव होगा।

किसी ने सच ही कहा है :- 
ये तन ना साथ देगा, ये धन ना साथ देगा ।
सदगुरु बिन जहाँ में, कोई ना साथ देगा ।
धन माल खूब जोड़ा, ऊँचा महल बनाया ।
दिया दान ना कभी भी, ना पुण्य ही कमाया ।
ना तो कभी किसी का, दुःख दर्द ही मिटाया ।
सब छोड़ कर चला तू, कुछ भी ना काम आया ।
ये कोठे, महल और बंगले, वैभव ना साथ देगा । 

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