अनाज का रिकार्ड उत्पादन और दूसरी ओर भूखे लोगों की तेजी से बढ़ती कतार
भूखे देश से अनाज का निर्यात
।। देविंदर शर्मा ।।
(कृषि मामलों के विशेषज्ञ)
कोई और देश यहां भूख मिटाने नहीं आयेगा. संविधान में भी कहा गया है कि लोगों की भूख मिटाना सरकार का दायित्व है. ऐसे में भूखे लोगों की उपेक्षा कर अनाज का निर्यात अपराध ही है.
देश में बंपर फसल को देखते हुए अनुमान है कि आगामी एक जून तक गेहूं और धान का भंडार करीब 7.5 करोड़ टन का हो जायेगा. दूसरी ओर देश में 32 करोड़ लोग आज भी भूखे सोने को मजबूर हैं. करीब 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
एक ओर देश में अनाज का रिकार्ड उत्पादन और दूसरी ओर भूखे लोगों की तेजी से बढ़ती कतार, यह दर्शाता है कि हम भूख से लड़ने के लिए कितने कम तैयार हैं. अफसोस की बात यह है कि जिस वक्त दुनिया के सबसे ज्यादा भूखे भारत में हैं, उस वक्त भी देश 70 लाख टन धान निर्यात करने पर विचार कर रहा है. गेहूं के निर्यात पर से भी प्रतिबंध हटाने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं.
यह स्थिति केवल गेहूं और धान तक ही सीमित नहीं है. भारत दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है. बावजूद इसके देश में प्रति व्यक्ति दूध की खपत साल दर साल घटती जा रही है. कारण यह है कि दूध का इस्तेमाल मिल्क पावडर और आइसक्रीम जैसे विभिन्न दुग्ध उत्पाद तैयार करने में ज्यादा होने लगा है.
2009 से दुग्ध उत्पादों के निर्यात पर प्रतिबंध था, लेकिन हाल में केसिन के निर्यात को मंजूरी दे दी गयी, जिसे एक किलो तैयार करने में ही 30-35 लीटर दूध की खपत होती है.
कृषि उत्पादों के निर्यात पर जोर देते वक्त कृषि मंत्री शरद पवार तर्क देते हैं कि इससे किसानों को बेहतर मूल्य मिलेंगे, जिससे वे खुशहाल होंगे. और फिर शरद पवार ही क्यों, सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, पिछले कुछ दशकों में बने सभी कृषि मंत्री निर्यात बढ़ाने के समर्थक रहे हैं.
जबकि अब तक ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं आयी है, जो बताती हो कि निर्यात बढ़ने से किसानों को ज्यादा फायदा होता है. किसानों को फायदा तब होता है, जब सरकार उसके उत्पाद का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाती है.
भारत एक कृषि प्रधान देश है. इसके बावजूद 2011 के वैश्विक भूख सूचकांक (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) में इसे 81 देशों की सूची में 67वें स्थान पर रखा गया है. ऐसे समय में देश के नीति निर्माता भूख के निवारण की बजाय निर्यात बढ़ाने पर विचार कर रहे हैं. स्पष्ट है कि उन्हें देश के आम लोगों की नहीं, सिर्फ उद्योग-व्यापार जगत की फिक्र है. यह बात इससे भी साबित होती है कि पिछले कुछ वर्षो में काफी उपजाऊ जमीन उद्योगों के हवाले कर दी गयी है.
भूमि अधिग्रहण के संबंध में जो बिल संसद में लाया गया है, उसमें भी कहा गया है कि पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) पर आधारित उपक्रमों और निजी उद्योगों के लिए जमीन मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए. हालांकि आज ही संसद की स्थायी समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि पीपीपी और निजी उद्योगों के लिए जमीन का अधिग्रहण गलत है, लेकिन मुङो नहीं लगता कि सरकार इस सिफारिश को मानेगी.
पिछले कुछ वर्षो से हम लगातार देख रहे हैं कि सरकार एकल फसल का बहाना बनाकर उपजाऊ जमीन उद्योगों को सौंप रही है. मतलब साफ है, सरकार कृषि की कीमत पर उद्योगों को बढ़ावा देना चाहती है. कारण साफ है, आज आर्थिक नजरिया बदल गया है. सोच यह है कि जितना ज्यादा उद्योग और निर्यात होगा, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) उतना ज्यादा बढ़ेगा.
फिर जीडीपी जितना बढ़ेगा, उतना रोजगार बढ़ेगा और ‘ट्रिकल डाउन’ होगा, यानी लोगों में समृद्धि आयेगी. विकास की यह ‘ट्रिकल डाउन थ्योरी’जिन अमेरिका और यूरोपीय देशों को देख कर अपनायी गयी है, उनके यहां की कुछ कड़वी हकीकत छिपा ली जाती है.
यह नहीं बताया जाता है कि आर्थिक रूप से विकसित देश होने के बावजूद अमेरिका में 4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं. यानी दस में से एक अमेरिकी भूख का शिकार है. कनाडा में आबादी काफी कम होने के बावजूद दस में से एक व्यक्ति भूखे सोता है. यूरोप के 27 देशों में 4 करोड़ लोग भूखे पेट सोने के मजबूर हैं. यानी विकसित देशों की आय जितनी बढ़ी है उसी अनुपात में वहां गरीबों की संख्या भी बढ़ी है.
भारत में एक भ्रम यह भी पैदा किया जा रहा है कि देश में जब से जीडीपी बढ़ रही है, तब से अंडे और दूध की खपत बढ़ रही है. यानी लोग समृद्ध हो रहे हैं और अनाज की बजाय अंडा, दूध और फल जैसे पौष्टिक पदार्थ ज्यादा खा रहे हैं.
लेकिन नेशनल सैंपल सव्रे आर्गेनाइजेशन की 2007 और 2010-11 की रिपोर्ट बताती है कि हकीकत इसके विपरीत है. रिपोर्ट के मुताबिक लोगों की आय बढ़ी है, लेकिन उस अनुपात में खाद्यान्न के साथ-साथ अंडा, दूध और सब्जियों पर खर्च घटा है. इससे पता चलता है कि आम परिवारों की खाद्य सुरक्षा गड़बड़ा रही है.
अभी केंद्र सरकार ही नहीं, कई राज्य सरकारें भी अपने यहां गन्ना उत्पादन बढ़ाने, चीनी मिलों को अतिरिक्त सुविधाएं देने और चीनी का निर्यात बढ़ाने पर जोर दे रही हैं. जबकि गन्ना भूमि से पानी का जितना ज्यादा दोहन करता है, कोई और फसल नहीं करती. इससे भूमि की उपजाऊ शक्ति कम होती है.
दूसरी ओर चीनी स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है. भारत मधुमेह रोगियों का देश बनता जा रहा है, जिसके इलाज में देश का काफी धन खर्च हो रहा है. ऐसे में यह आम लोगों के हित में होता कि सरकार गन्ना के उत्पादन को कम करती और लोगों को चीनी की खपत घटाने के लिए जागरूक करती.
कुल मिलाकर विकास की हमारी नीतियां भूख और गरीबी पर से ध्यान हटाकर सिर्फ उद्योग और व्यापार को बढ़ावा देने वाली हैं. जबकि होना यह चाहिए था कि सरकार भूख और गरीबी को खत्म करने पर निवेश करती और भूखे लोगों की संख्या कम होने से जीडीपी का विकास होता.
मसलन, अभी जो 7.5 करोड़ टन गेहूं व धान गोदामों में है, उसे निर्यात करने की बजाय भूखे लोगों का पेट भरने पर विचार किया जाता. यहां चीन का उदाहरण हमारे सामने है. भारत में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता रोजाना सिर्फ 450 ग्राम है, जबकि चीन में यह 3000 ग्राम है.
चीन की गरीबी घटकर 9 प्रतिशत पर पहुंच गयी है. जबकि अजरुन सेन गुप्ता कमिटी की रिपोर्ट कहती है कि भारत के 77 फीसदी लोग रोज 20 रुपये से ज्यादा खर्च करने में सक्षम नहीं हैं. सरकार ऐसे लोगों को कम कीमत पर अनाज उपलब्ध कराये, तो लोगों की भूख मिटेगी, कुपोषण कम होगा और जीडीपी के विकास में वे बेहतर योगदान दे सकेंगे.
हमें ध्यान रखना होगा कि दुनिया का कोई और देश हमारे लोगों की भूख मिटाने नहीं आयेगा. हमारे संविधान में भी कहा गया है कि यह सरकार का दायित्व है कि वह लोगों की भूख मिटाये. ऐसे में भूखे लोगों की उपेक्षा कर अनाज का निर्यात करना एक अपराध ही है.(रंजन राजन से बातचीत पर आधारित)
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