जम्मू-कश्मीर : नए सिरे से अशांति को आमन्त्रण  

-  अरविन्द सिसोदिया
कश्मीर मुद्दे के राजनीतिक समाधान के उद्देश्य से वार्ताकारों वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, शिक्षाविद् राधा कुमार एवं पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी द्वारा केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंपी गई रिपोर्ट ने ” जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से अलग करने वाली धारा 370 को स्थायी करने और राज्य में लागू केंद्रीय कानूनों की समीक्षा करने की बात कह कर राष्ट्रवादी सोच को गंभीर ठेस पहुंचाई है।“ केंद्रीय कानूनों की समीक्षा में सुप्रीम कोर्ट, भारतीय निर्वाचन आयोग एवं भारतीय महालेखाकार तक का दायरा सीमित करने, नियंत्रण रेखा के आर-पार व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कश्मीर में दोहरी मुद्रा को मान्यता देने की मांग फिर से उठ सकती है। जो कि राष्ट्र की एकता और अखण्डता को नुकसान पहुचाने का एक नया कुप्रयास होगा। केन्द्र सरकार को अविलम्ब इस रिपोर्ट को अस्विकार करना चाहिये।


जम्मू-कश्मीर से जुड़े कानूनों की समीक्षा की सिफारिश
नई दिल्ली .
जम्मू-कश्मीर पर केंद्र सरकार के वार्ताकारों ने राज्य में लागू सभी केंद्रीय कानूनों की समीक्षा करने की सिफारिश की है। इसके लिए संवैधानिक समिति गठित करने को कहा गया है।
गुरुवार को सार्वजनिक हुई 176 पेज की रिपोर्ट में कहा गया है कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) का फिर से आकलन की जरूरत है। साथ ही केंद्र और हुर्रियत कांफ्रेंस के बीच बातचीत जल्द शुरू करने को कहा गया है।
रिपोर्ट की खास बातें...
संवैधानिक समिति के बारे में
> जम्मू-कश्मीर में 1953 से पहले की स्थिति वापस लाना मुश्किल है।
> इसके बजाय 1952 के बाद राज्य में लागू सभी केंद्रीय कानूनों और संविधान के अनुच्छेदों की समीक्षा होनी चाहिए। इस काम जिम्मा संवैधानिक समिति को सौंपा जाए।
समिति छह माह में रिपोर्ट दे। उसकी सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रपति अनुच्छेद 370 के तहत आदेश जारी करें।
अनुच्छेद 370 और 356 के बारे में
अनुच्छेद 370 पर राज्य में आम सहमति है। इसे बरकरार रखा जाए।
अनुच्छेद 356 में भी बदलाव न हो। राज्य सरकार बर्खास्त होने पर चुनाव तीन महीने के भीतर हों।
कुछ और सिफारिशें
अशांत क्षेत्र कानून की समीक्षा हो। राष्ट्रपति के आदेश से कोई भी नया केंद्रीय कानून या संविधान का अनुच्छेद राज्य पर लागू नहीं हो।
संसद भी राज्य पर लागू होने वाला कानून नहीं बनाए। बशर्ते मुद्दा देश की सुरक्षा या आर्थिक हितों से जुड़ा न हो।
जम्मू कश्मीर विधानसभा राज्यपाल के पद के लिए राष्ट्रपति के पास तीन नाम भेजे।
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भाजपा ने खारिज की जम्मू-कश्मीर पर रपट
 Thu, 24 May 2012
नई दिल्ली [जागरण न्यूज नेटवर्क]। जम्मू कश्मीर पर सरकारी वार्ताकार की रपट को भाजपा ने सिरे से खारिज कर दिया है। पार्टी का मानना है कि रपट में कई अहम बिंदु पर चर्चा तक नहीं की गई है। मुंबई कार्यकारिणी में तय मुद्दों से हटते हुए जम्मू कश्मीर पर अलग से एक प्रस्ताव लाकर एकमत से पारित किया गया जिसमें उसे भारत का अभिन्न अंग करार दिया गया। वहीं, जम्मू-कश्मीर में हुर्रियत कांफ्रेंस ने भी रपट को ठुकरा दिया है। राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ताजा ट्वीट में कहा है कि वार्ताकारों की रिपोर्ट सार्वजनिक हुई है। इसके अध्ययन के लिए कुछ वक्त चाहिए। वरिष्ठ साथियों से चर्चा के बाद ही वह इस पर टिप्पणी करेंगे। धारा 370 समेत कई बिंदुओं पर अपनी मान्यता दोहराती रही भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक में राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने प्रस्ताव रखा। उन्होंने सदस्यों को बिंदुवार बताया कि वार्ताकार की रपट खामियों से भरी है। प्रदेश में आतंकवाद एक बड़ा विषय है, लेकिन रपट में उसे नजरअंदाज किया गया है। इसी तरह घाटी से कश्मीरी पंडितों और सिखों के पलायन तथा उनके पुनर्वास पर कुछ भी नहीं कहा गया है। पार्टी प्रवक्ता निर्मला सीतारमन ने कहा कि भाजपा सदस्य ने सत्र के दौरान भी यह सवाल उठाया था। सरकार को चाहिए था कि इसे सत्र के दौरान पेश करती ताकि इस पर चर्चा होती।

वहीं, हुर्रियत के उदारवादी नेता मीरवाइज उमर फारूक ने कहा, हम इस रिपोर्ट को पूरी तरह खारिज करते हैं। वार्ताकारों की सिफारिशें स्वागत योग्य हैं लेकिन इससे कश्मीर मुद्दे का समाधान नहीं हो सकता। सच यह है कि जम्मू कश्मीर के ज्यादातर लोग राजनीतिक हल चाहते हैं। कश्मीर मुद्दा श्रीनगर और नई दिल्ली के बीच नहीं बल्कि श्रीनगर, नई दिल्ली, इस्लामाबाद और मुजफ्फराबाद के बीच है जो इस मुद्दे के आधार हैं। कश्मीर का हल केवल इस पर अंतरराष्ट्रीय समझौतों के माध्यम से या सभी पक्षों [भारत, पाक और कश्मीर] के बीच बातचीत से निकलेगा। कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने कहा, उन्हें रिपोर्ट पर कोई टिप्पणी नहीं करनी क्योंकि हमने कभी भी समिति का संज्ञान ही नहीं लिया।
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कश्मीर मुद्दा : कांग्रेस पर भारी पड़ेगी वार्ताकारों की रिपोर्ट
Date: 5/29/2012
जम्मू/श्रीनगर : कश्मीर मुद्दे के राजनीतिक समाधान के उद्देश्य से वार्ताकारों वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, शिक्षाविद् राधा कुमार एवं पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी द्वारा केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंपी गई रिपोर्ट केंद्र की यू.पी.ए. सरकार और कांग्रेस के लिए गले की फांस बन सकती है।

इन तीनों वार्ताकारों ने केंद्र सरकार के दूत के तौर पर जम्मू-कश्मीर के सभी 22 जिलों का भ्रमण करने के बाद तैयार की अपनी रिपोर्ट में जो सिफारिशें की हैं, उनमें राष्ट्रवादी विचारधारा पर करारी चोट करते हुए न केवल जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली भारतीय संविधान की अस्थायी धारा 370 को स्थायी रूप देने की बात कही गई है बल्कि केंद्रीय कानूनों की समीक्षा करने तक की सिफारिश कर दी गई है। कुल मिला कर वार्ताकारों की यह रिपोर्ट जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से एक कदम और दूर करने का मार्ग प्रशस्त करती है। अब इस रिपोर्ट को लागू करना केंद्र सरकार और कांग्रेस के लिए किसी बड़े जोखिम से कम नहीं होगा। वर्ष 2010 में तुफैल मट्टू नामक किशोर की मौत के बाद जिस समय कश्मीर पत्थरबाजी के दौर से गुजर रहा था, उस दौरान सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के जम्मू-श्रीनगर के दौरे के बाद केंद्र सरकार ने कश्मीर मसले का समाधान खोजने के लिए इस 3 सदस्यीय वार्ताकार दल का गठन किया था।

वार्ताकारों की नियुक्ति के पीछे केंद्र सरकार का मकसद कश्मीर मसले का स्थायी समाधान करना कम बल्कि पत्थरबाजों को शांत करके घाटी को हिंसा के दौर से बाहर निकालना ज्यादा था। हालांकि हुर्रियत कांफ्रैंस (जी.) के चेयरमैन सईद अली शाह गिलानी, हुर्रियत कांफ्रैंस (एम.) के चेयरमैन मीरवायज डा. उमर फारूक, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चेयरमैन मोहम्मद यासीन मलिक और डैमोके्रटिक फ्रीडम पार्टी के चेयरमैन शब्बीर अहमद शाह सहित तमाम अलगाववादी नेताओं ने शुरूआती दौर से इन वार्ताकारों को गंभीरता से नहीं लिया और इनसे मिलने तक से साफ इंकार कर दिया लेकिन इसके बावजूद पत्थरबाजी के दौर को समाप्त करने में वार्ताकारों की नियुक्ति का कुछ हद तक योगदान माना जा सकता है।

12 अक्तूबर 2011 को जब वार्ताकारों ने केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम को अपनी रिपोर्ट सौंपी तो उस दिन से राज्य के तमाम पक्षों में यह जिज्ञासा घर कर गई थी कि इस रिपोर्ट में क्या खास होगा। फिर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जब 8 महीने तक रिपोर्ट को अपने पास दबाए रखा तो मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला, विपक्षी पी.डी.पी. अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती सहित तमाम नेता खुल कर इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की मांग करने लगे थे। अब रिपोर्ट सार्वजनिक हो चुकी है तो उमर और महबूबा सहित घाटी का कोई बड़ा नेता इस पर टिप्पणी करने को तैयार नहीं है।

रिपोर्ट में वार्ताकारों ने राज्य में वर्ष 1953 से पूर्व की स्थिति बहाल करने, सत्तारूढ़ नैकां की मांग पर अतिरिक्त स्वायत्तता देने, मुख्य विपक्षी दल पी.डी.पी. की मांग पर सैल्फ रूल लागू करने अथवा अलगाववादी संगठनों की मांग पर आजादी देने की कवायद को तो बेशक सिरे से खारिज कर दिया है लेकिन जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से अलग करने वाली धारा 370 को स्थायी करने और राज्य में लागू केंद्रीय कानूनों की समीक्षा करने की बात कह कर राष्ट्रवादी सोच को ठेस पहुंचाई है। केंद्रीय कानूनों की समीक्षा में सुप्रीम कोर्ट, भारतीय निर्वाचन आयोग एवं भारतीय महालेखाकार तक का दायरा सीमित करने पर बात की जा सकती है। नियंत्रण रेखा के आर-पार व्यापार को बढ़ावा देने के लिए कश्मीर में दोहरी मुद्रा को मान्यता देने की मांग पहले भी उठती रही है। ऐसे में केंद्र सरकार यदि वार्ताकारों की सिफारिशें मान लेती हैं तो राष्ट्रीय हितों के साथ समझौता करने के लिए कांग्रेस पार्टी को देशभर में चौतरफा आलोचना का सामना करना पड़ेगा और यदि सिफारिशें नहीं मानी जातीं तो कश्मीर घाटी में एक बार फिर यह संदेश जाएगा कि केंद्र कश्मीर मसले को सुलझाने के प्रति गंभीर नहीं हैं।

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