बुंदेलखंड के प्रतापी शासक : महाराजा छत्रसाल


महाराजा छत्रसाल
ज्येष्ठ शुक्ल ३ संवत १७०७

बुंदेलखंड में कई प्रतापी शासक हुए हैं। बुंदेला राज्‍य की आधारि‍शला रखने वाले चंपतराय के पुत्र छत्रसाल महान शूरवीर और प्रतापी राजा थे। छत्रसाल का जीवन मुगलों की सत्ता के खि‍लाफ संघर्ष और बुंदेलखंड की स्‍वतंत्रता स्‍थापि‍त करने के लि‍ए जूझते हुए नि‍कला। महाराजा छत्रसाल अपने जीवन के अंतिम समय तक आक्रमणों से जूझते रहे। बुंदेलखंड केशरी के नाम से वि‍ख्‍यात महाराजा छत्रसाल के बारे में ये पंक्तियां बहुत प्रभावशाली है:
इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस ।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस ।।
चंपतराय जब समय भूमि मे ंजीवन-मरण का संघर्ष झेल रहे थे उन्हीं दिनों ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत 1707 (सन 1641) को वर्तमान टीकमगढ़ जिले के लिघोरा विकास खंड के अंतर्गत ककर कचनाए ग्राम के पास स्थित विंध्य-वनों की मोर पहाड़ियों में इतिहास पुरुष छत्रसाल का जन्म हुआ। अपने पराक्रमी पिता चंपतराय की मृत्यु के समय वे मात्र 12 वर्ष के ही थे। वनभूमि की गोद में जन्में, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ। पांच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह धंधेर के पास देलवारा भेज दिया गया था। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात ही वे बड़े भाई अंगद राय के साथ देवगढ़ चले गये। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया। जिसने आंख खोलते ही सत्ता संपन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारंपरिक जागीर छिनी पायी हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसके बहादुर मां-बाप ने आत्महत्या की हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे 12-13 वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं? परंतु उसके पास था बुंदेली शौर्य का संस्कार, बहादुर मां-माप का अदम्य साहस और ‘वीर वसुंधरा’ की गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया वरन् एक रास्ता निकाला। उसने अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया। राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे अतः औंरगजेब ने जब उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला। मइ्र 1665 में बीजापुर युद्ध में असाधारण वीरता छत्रसाल ने दिखायी और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गोंडा राजा को पराजित करने में तो छत्रसाल ने जी-जान लगा दिया। इस सीमा तक कि यदि उनका घोड़ा, जिसे बाद में ‘भलेभाई’ के नाम से विभूषित किया गयाउनकी रक्षा न करता तो छत्रसाल शायद जीवित न बचते पर इतने पर भी जब विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बांध मुगल भाई-भतीजेवाद में बंट गया तो छत्रसाल का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी। इन दिनों राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल दुखी तो थे ही, उन्होंने शिवाजी से मिलना ही इन परिस्थितियों में उचित समझा और सन 1668 में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियेां का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की- करो देस के राज छतारे हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे। दौर देस मुगलन को मारो दपटि दिली के दल संहारो। तुम हो महावीर मरदाने करि हो भूमि भोग हम जाने। जो इतही तुमको हम राखें तो सब सुयस हमारे भाषंे।
शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन 1670 में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आयी परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल मिन्न थीं। अधिकाश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी। ओरछेश सुजान सिंह ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया तब छत्रसाल ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। कहते हैं उनके बचपन के साथी महाबली तेली ने उनकी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में वापस की जिससे छत्रसाल ने 5 घुड़सवार और 25 पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. 1728 (सन 1671) के शुभ मुहूर्त में शहंशाह आलम औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया।



बुंदेल केसरी महाराजा छत्रसाल

            मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । बुंदेल केसरी छत्रसालको ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले थे । उन्होंने अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया । उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे । छत्रसालने अपने ८२ वर्षके जीवन और ४४ वर्षीय राज्यकालमें ५२ युद्ध किये थे । उनके पिता चंपतरायने पूरे जीवनभर विदेशी मुगलों से संघर्ष करते हुए अपने ही विश्वासघातियों के कारण सन् १६६१ में अपनी वीरांगना पत्नी रानी लालकुंआरि के साथ आत्माहुति दी ।

इतिहास पुरुष : महाराजा छत्रसाल
             इतिहास पुरुष छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल ३ संवत १७०७ (सन् १६४१) को वर्तमान टीकमगढ जिलेमें हुआ । अपने पराक्रमी पिता चंपतराय की मृत्युके समय वे मात्र १२ वर्ष के ही थे । वनभूमिकी गोदमें जन्में, वनदेवोंकी छायामें पले, वनराजसे इस वीरका उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाहके बीच हुआ । उनका जन्म होते ही परिस्थिति अत्यंत विकट थी । पारंपरिक सत्ता शत्रुओंने छीन ली थी, निकटतम स्वजनोंके विश्वासघातके कारण उनके वीर मां-पिताजीको आत्महत्या करनी पडी, उनके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी नहीं था, ऐसे १२-१३ वर्षीय बालक की मनोदशा वैâसी होगी ? परंतु उनके पास बुंदेली शौर्यका संस्कार, वीर मां- पिताका अदम्य साहस और आत्मविश्वास था । इसलिए वे निराश न होकर अपने भाईके साथ पिताके मित्र राजा जयसिंहके पास पहुंचकर सेनामें भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया ।
           अपने पिताके वचनको पूरा करनेके लिए छत्रसालने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया । उस समय छत्रपति शिवाजी महाराज हिंदवी राज्यके लिए कृत्यशील थे । छत्रसालजी मुगल सत्ताके कारण दुखी थे,  इन परिस्थितियोंमें उन्होंने शिवाजीसे मिलना उचित समझा और सन १६६८ में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजीने छत्रसालको उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियोंका आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापनाकी मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदासके आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे
हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे।
दौर देस मुगलन को मारो
दपटि दिली के दल संहारो।
तुम हो महावीर मरदाने
करि हो भूमि भोग हम जाने।
जो इतही तुमको हम राखें
तो सब सुयस हमारे भाषे।

             शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन १६७० में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आए परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल भिन्न थीं । अधिकांश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसालके भाई-बंधु भी दिल्लीसे लडनेको तैयार नहीं थे । छत्रसालजीके बचपनके साथी महाबली तेलीने उनकी धरोहर, थोडी-सी पैत्रिक संपत्तिके दी जिससे छत्रसालजीने ५ घुडसवार और २५ पैदलोंकी छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. १७२८ (सन १६७१) के शुभ मुहूर्त में औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापनाका बीडा उठाया ।
संघर्ष का शंखनाद
                छत्रसाल की प्रारंभिक सेना में सैन्य, राजा नहीं थे अपितु तेली बारी, मुसलमान, मनिहार आदि जातियों से आनेवाले सेनानी ही थे । चचेरे भाई बलदीवान उनके साथ थे । छत्रसालने अपने माता-पिताके साथ विश्वासघात करने वाले सेहराके धंधेरों पर पहला आक्रमण किया । कुंअरसिंहको कैद किया तथा उसकी मददको आये हाशिम खांकी धुनाई की और सिरोंज एवं तिबरा लूटे गये । लूट की सारी संपत्ति छत्रसालने अपने सैनिकों में बांटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आवाहन किया । कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्होंने अनेक क्षेत्र जीत लिए । सन १६७१ में ही कुलगुरु नरहरि दास ने भी विजय का आशीष छत्रसाल को दिया।
              ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड रुपये प्राप्त हुए । इस कारण औरंगजेबने आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढाकोटा के पास छत्रसालपर धावा बोल दिया । घमासान युद्ध हुआ । दणदूल्हा (रुहल्ला खां)पराजित हुआ तथा भरपूर युद्ध सामग्री छोडकर जान बचाकर उसे भागना पडा । सन १६७१-८० की अवधि में छत्रसालजीने चित्रकूटसे लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढाकोटा  तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया । सन १६७५ में छत्रसाल की भेंट संत प्राणनाथसे हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया- छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय।

बुंदेले राज्यकी स्थापना
            आतंक के कारण अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को राज्य देने लगे । बघेलखंड, मालवा, राजस्थान और पंजाब तक छत्रसाल ने युद्ध जीते । परिणामतः यमुना, चंबल, नर्मदा और टोंस क्षेत्रमें बुंदेला राज्य स्थापित हो गया । सन १७०७ में औरंगजेबकी मृत्यु हो गई । उसके पुत्र आजमने छत्रसालजीको मात्र सूबेदारी देनी चाही पर छत्रसालने स्वाभिमानीसे इसे अस्वीकार कर दिया ।
           महाराज छत्रसालपर इलाहाबादके नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ । इस समय छत्रसाल लगभग ८० वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रोंमें अनबन थी । जैतपुरमें छत्रसाल पराजित हो रहे थे । ऐसी परिस्थितियोंमें उन्होंने बाजीराव पेशवाको पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियां थीं जो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आज बाजी जात बुंदेल की राखौ बाजी लाज।
         फलतः बाजीरावकी सेना आनपर बंगश की पराजय हुई तथा उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पडा । छत्रसाल युद्धमें क्षीण हो गए थे, लेकिन मराठोंके सहयोगसे उन्होंने  सम्मानसे मुगलोंसे युद्ध किया और विजयी हुए । छत्रसालजीने अपने अंतिम समय में राज्यके बंटवारेमें बाजीरावको तीसरा पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड झांसी, सागर, गुरसराय, काल्पी, गरौठा, गुना, सिरोंज और हटा आदि हिस्सेके साथ राजनर्तकी मस्तानी भी उपहार में दी । छत्रसालजीने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाहको जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपना दायित्व निभाया । यही कारण था कि छत्रसाल को अपने अंतिम दिनों में वृहद राज्य के सुप्रशासनसे (उस समय) एक करोड आठ लाख रुपये की आय होती थी । उनके एक पत्र से स्पष्ट होता है कि उन्होंने अंतिम समय १४ करोड रुपये राज्य के खजाने में (तब) शेष छोडे थे । प्रतापी छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया भृगुवार संवत् १७८८ (दिसंबर १७३१) को छतरपुर (नौ गांव) के निकट अपना शरीर त्यागा और भारतीय आकाश पर सदा-सदा के लिए जगमगाते सितारे बन गये।
कलाका सम्मान करनेवाले
           छत्रसाल की तलवार जितनी धारदार थी, कलम भी उतनी ही तीक्ष्ण थी । वे स्वयं कवि तो थे ही कवियों का श्रेष्ठतम सम्मान भी करते थे । अद्वितीय उदाहरण है कि कवि भूषणके बुंदेलखंडमें आने पर आगवानीमें जब छत्रसालने उनकी पालकीमें अपना कंधा लगाया था । बुंदेलखंड ही नही संपूर्ण भारत देष ऐसे महान व्यक्तित्व के प्रति कृतज्ञ रहेगा ।


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