नरेन्द्र मोदी - एक अद्वितीय व्यक्तित्व



नरेन्द्र मोदी - एक अद्वितीय व्यक्तित्व 
- गिरीश दाबके
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"नरेन्द्रायण - व्यक्ति से समष्टि : एक आकलन" नरेन्द्र मोदी पर प्रकाशित चरित्र ग्रन्थ है। यह चरित्र ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय भी हुआ। किन्तु आज भी ऐसा लगता है कि लेखक कुछ कहने से रह गये हैं कारण कि चरित्र ग्रन्थ की एक मर्यादा होती है। ग्रन्थ लिखते समय लेखक के मन में आए हुए भाव इस लेख मे प्रकाशित किए गए हैं।

सूर्य को दु:ख है कि उसके प्रेम में व्याकुल रात्रि को वह कभी देख नहीं पाता। सोने को दु:ख है कि उसे कभी-भी सन्तों की संगति का लाभ नहीं मिलता और लेखक को दु:ख है कि वह जो कहना चाहता है, समग्र रूप से उसे कह नहीं पाता। इस उक्ति का अनुभव हरेक लेखक को सदैव होता रहता है। इसका कारण है कि खूब प्रयोग में आनेवाले शब्द कई बार सांकेतिक हो जाते हैं। शब्द प्रतीकात्मक हो जाते हैं और वे प्रतीक के रूप में भिन्न अर्थ व्यक्त करते हैं। शब्द के व्यक्त अर्थ से अलग एक भाव लेखक के मन में होता है। वह भाव कभी-भी अभिव्यक्ति मेंनहीं बदलता है। लेखक के मन के भाव अनेक बार केवल सांकेतिक रूप में व्यक्त होते हैं।
""नरेन्द्रायण - व्यक्ति से समष्टि : एक आकलन"" नरेन्द्र मोदी पर प्रकाशित चरित्र ग्रन्थ है। यह चरित्र ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध और लोकप्रिय भी हुआ। किन्तु आज भी ऐसा लगता है कि मोदीजी कुछ कहने से रह गये हैं कारण कि चरित्र ग्रन्थ की एक मर्यादा होती है। वह एक इतिहास होता है। उसकी घटनाएं असम्भव लगती हैं। बहुत सी घटनाएं व्यवस्थित करनी होती हैं। आज के इस छोटे से लेख में हम नरेन्द्र मोदी के जीवन के बीते हुए पल को प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। इस प्रस्तुति में हम उनके जीवन की कुछ सर्वज्ञात घटनाओं का विश्लेषण करेंगे। उनकी कविताओं की चर्चा करेंगे।
नरेन्द्र मोदी का जन्म सन् 1950 ई. में हुआ। उनका निम्न मध्यमवर्गीय आर्थिक स्थिति का परिवार था। जीवन के आर्थिक संघर्ष कोबालक नरेन्द्र मोदी भलीभांति जान गये थे। वे अपने पिताजी की चाय की छोटी सी दूकान पर उनकी सहायता सदैव करते रहते थे। दूकान पर कार्य से समय मिलते ही वे पढने लगते। अध्ययन और इच्छानुसार खेलना उनका दैनिक कार्य था। पढते-खेलते हुए नरेन्द्र मोदी की हिमालय की ऊँची चोटियों, गिरि कन्दराओं में जाकर विचरण और अनुसंधान की ललक अचानक जाग उठती। सच में यह प्रेरणा इतनी प्रबल होती कि घर-बार का मोह छोडकर वे उच्च हिमालय की गोद में चले जाते। यह क्रम पाँच-छह वर्ष तक चलता रहा। उनके भीतर ऐसी प्रेरणा कहाँ से उत्पन्न होती? क्यों उत्पन्न होती? वह एकाएक क्यों उत्पन्न होती? उस प्रेरणा के उत्पन्न होने से उनकी मानसिक स्थिति कैसी होती? घर-परिवार, माँ, मित्र मंडली का स्नेह, मिलने वाले सुख-वैभव इत्यादि एक क्षण में ही अरुचिकर क्यों लगने लगते? मनुष्य वास्तव में क्या खोजना चाहता है? क्या पाना चाहता है? उसे खोजने के लिए हिमालय की ऊँची चोटियां कैसी लगती हैं? यह सब नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ में गम्भीरता से विचारणीय है। हिमालय की गोद में जाकर विचरण और खोज करनेवाले नरेन्द्र मोदी पहले व्यक्ति नहीं थे। स्वामी विवेकानन्द,अरविन्द घोष, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, प.पू. श्री गुरुजी इत्यादि अनेक महापुरुषों ने यह मार्ग अपनाया था। एक साधक साधना करता है, किन्तु प्रामाणिक रूप से वह क्या करता है? इस प्रश्न का हल नहीं मिला है। साधना का मंगल निरामय विश्व त्याग करके एक साधक पुन: सांसारिक होने आये और "विश्व के सर्वमंगल" की आशा के साथ सामाजिक कार्य में लग जाये, ऐसा प्राय: देखने में कम ही आता है। सामाजिक कार्य अलग है और साधना अलग है, ऐसा विचार लोगों के मन में आता है। इस सन्दर्भ में समर्थ गुरु रामदास का कथन उल्लेखनीय है। वे कहते हैं, "यदि कार्य साधक बुरा है तो परमार्थ का कार्य भी बुरा ही होता है।"
चाहे शब्दों का अंबार लगा दें और अलंकारिक भाषा का प्रयोग करें, किन्तु मन की भावना को पूरी तरह से व्यक्त करना कठिन होता है। सभी घटनाओं को एक सिलसिलेवार क्रम से बैठाना पडता है। नरेन्द्र मोदी को किसी समय हिमालय में जाने की इच्छा हुई होगी और घर-बार छोडकर वहां गये होंगे। यह घटना बहुत से लोगों को ज्ञात भी नहीं होगी। उनके विषय में तरह-तरह की बातें लिखने वाले पत्रकारों- लेखकों और उनके व्यक्तित्व,कृतित्व पर परिचर्चा आयोजित करनेवाले प्रसार माध्यमों को उनके बारे में ऐसी कल्पना भी हुई होगी। क्योंकि वे सही तथ्यों की खोज करते ही नहीं, वे तो केवल अनर्गल टीका-टिप्पणी में ही रुचि लेते हैं।
नरेन्द्र मोदी के जीवन के बारे में मैं जब-जब विचार करता हूँ, तो मुझे आश्चर्य होता है। व्यक्ति प्रचारक क्यों बनता है? संघ के लिए, हिन्दुत्व के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने की प्रेरणा कैसे उत्पन्न होती है? प्रचारक बनने का निर्णय लेते समय कौन से संस्कार जागृत होते हैं? सारा जीवन संघकार्य में समर्पित करने की इच्छा कैसे जागती होगी? ऐसे अनेक प्रश्न मन में उठते हैं। संघ का कार्य करते हुए कार्यकर्ता का जयकार नहीं होता। उसे स्तुति- सुमन अर्पित नहीं किये जाते। संन्यास धारण करने की व्यवस्था अलग ही है। संन्यासी को मान मिलता है, बहुत सी नजरें सन्यासी के कदमों में झुक जाती हैं, व्यक्ति का अहंकार नष्ट हो जाता है, किन्तु प्रचारक के जीवन मेंऐसा भी नहीं होता। संघ के प्रत्येक प्रचारक ज्ञानी और उच्चशिक्षा प्राप्त होते हैं। वे जीविकोपार्जन के लिए प्रचारक नहीं बनते स्वार्थ जैसा क्षुद्र विचार उनके मन में आता भी नहीं है। व्यक्ति का स्वभाव है कि वह अपनी उपलब्धियों पर गर्व करता है। किन्तु संघ का कार्यकर्ता अपने "स्व" का त्याग करके सामाजिक कार्य करने का संकल्प लेता है। मन में यह भी प्रश्न उठता है कि वे इतना बडा निर्णय कैसे लेते हैं और अपने संकल्प पर जीवन पर टिके कैसे रहते हैं?
नरेन्द्र मोदी संघ के प्रचारक थे। सन् 1970 ई. में वे प्रचारक बने। भाजपा में वे बाद में सन् 1989 में गये। भाजपा में अनेक पदों पर कार्य करने का अनुभव उन्हें मिला। वे इस समय गुजरात के मुख्यमंत्री हैं। संघ का प्रचारक बनने से भाजपा में आने तक पूरे बीस वर्षों का सामाजिक कार्य का अनुभव उनके पास था। भाजपा में भी बारह वर्षों तक अनेक प्रकार के दायित्व को सम्भाला। उसके उपरान्त उनके ऊपर शासन की जिम्मेदारी आयी। इस जिम्मेदारी को भी उन्होंने आज्ञा का पालन करने के भाव से स्वीकार किया। संघ-कार्य और राज-कार्य में इकतीस वर्षों का कालखंड व्यतीत हुआ है। आज सन् 2010 ई. में संघ-कार्य बहुत व्यापक हो गया है। उसकी समाज में प्रतिष्ठा है। भारत वर्ष के सात राज्यों में भाजपा की सरकारें होने से राजनीति के क्षेत्र में भाजपा देश की अग्रगण्य पार्टी बन चुकी है। यह वर्ष 2010 का चित्र है। सन् 1970 ई. में ऐसा नहीं था। उस समय संघ के विरोधियों ने कल्पना भी नहीं की थी कि संघ विचारधारा के राजनीतिक दल को कभी केन्द्र व राज्य की सत्ता प्राप्त होगी। सत्तर के दशक में संघ का प्रचारक बनने के पीछे कोई राजकीय लिप्सा नहीं थी। सत्ता-प्राप्ति का स्वप्न भी नहीं था। वह समाज के प्रति समर्पण की शुद्ध भावना है। अत्यन्त प्रामाणिक तथा शपथपूर्वक स्वीकार करने का कार्य है। उस कार्य में सेवा- समर्पण- सामाजिक परिवर्तन का तीन सूत्र ही है। लेकिन ऐसा विचार करके कोई विश्लेषण नहीं करता है। राजनीतिक नेताओं के विषय में तुच्छतापूर्ण ह्ष्टिकोण से लिखने का चलन हो गया है। दुर्दैव से पवित्र तथा तटस्थ भाव से लिखने की पद्धति का लोप हो गया है। राजकार्य की मीमांसा इतने सरल तरीके से नहीं की जा सकती है, क्योंकि राजकार्य मूलत: समाजकार्य होता है। लेखकों की एक विशेषता होती है कि वे राजनीति पर लिखते-लिखते तात्कालिक सत्ता संघर्ष पर लिखने लगते हैं। राजनीति में सत्ता प्राप्त करना अपरिहार्य है, किन्तु सत्ता प्राप्त करना राजनीति का एक पक्ष है, महत्वपूर्ण है, आवश्यक है। नरेन्द्र मोदी के जीवन में सकारात्मक कार्य हेतु राजनीतिक धागा गूंथा गया है। सामाजिक परिवर्तन, हिन्दुत्व का सांस्कृतिक आधार और भारत वर्ष का परम वैभव हिन्दुत्व का ध्येय है। विगत् कई वर्षों से हिन्दुत्व पर केवल आरोप ही लगाया जाता रहा है और अपना दुर्दैव ऐसा है कि बहुत से लेखक हिन्दुत्व के पराभव की मीमांसा करने लगे। किंतु मेरा ऐसा सौभाग्य है कि नरेंद्र मोदी के जीवन चरित्र के निमित्त हिन्दुत्व की यशोगाथा बताने का अवसर प्राप्त हुआ। वर्तमान मूल्यहीन राजनीति और सामाजिक कार्य की पृष्ठभूमि पर एक तत्वनिष्ठ और स्वच्छ छवि वाले पुरुष की कथा कहने का सुयोग मेरी साहित्यिक कुंडली में था। यह सारा भाव नरेन्द्र मोदी की कविता में बडी अच्छी तरह व्यक्त हुआ है।
इस कविता में नि:स्पृह करुणा शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। करुणा सकारण होती है। यह व्यवहार में होता है कि स्नेह प्रदर्शन के पीछे आत्मिक लाभ का भाव रहता है, यह जग की रीति है। किन्तु जब करुणा अकारण उपजती है तो उसका स्वामी स्वभावत: कर्तव्य करने लगता है।
नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ में प्रचार माध्यम निम्न स्तर तक उतर आये। एक उदाहरण बताता हूं, कुछ पत्रकारों ने लिखा कि मोदी का दोहरा व्यक्तित्व है। एक ओर वे कम्प्यूटर युग में प्रगति का स्वप्न देखते हैं और ऐसे समय में वे हिन्दुत्व की अनदेखी करते हैं। जो भी मन में आता है लिखने वाले खिलते हैं किन्तु यह किसने कहा कि हिन्दुत्व में विज्ञान का विरोध है। स्वा. वीर सावरकरजी ने सन् 1930 ई. में ही कहा था कि हिन्दू समाज को विज्ञाननिष्ठ होना चाहिए। जो कुछ भी वैज्ञानिक है, उसे स्वीकार करना चाहिए।
आज गुजरात को एक ऐसा नेता मिला है जिसकी प्रशासन पर मजबूत पकड है और जो कवि हृदय और आध्यात्मिक स्वभाव का होने के कारण सामाजिक समरसता के आधार पर समग्र विकास के लिए सदैव तत्पर रहता है। हाल ही में नरेन्द्र मोदी की प्रशासनिक क्षमता का सम्मान करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी उनको एक प्रशस्तिपत्र दिया है। इन दिनों एक नया शब्द "रेशनल" अर्थात तार्किक प्रचलन में है। ऐसा माना जाता है कि जो "रेशनल" है वह धार्मिक वृत्ति का नहीं हो सकता। वस्तुत: श्रद्धा का मतलब अज्ञानता नहीं है। ज्ञान जब परिपक्व हो जाता है तब वह श्रद्धा में परिवर्तित होता है। केवल मोदी जी ही नहीं, अपितु अनेक श्रेष्ठ कर्तव्यशील व्यक्ति श्रद्धावान होते हैं, धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं।
इस वृत्तांत को लिखने के सन्दर्भ में नरेन्द्र मोदीजी से हमारी तीन बार भेंट हुई। मैंने उनसे पुस्तक के स्वरूप के बारे मेंहल्की फुल्की बात की। उन्होंने बडे चाव से पूरी बात को सुना और बडी आत्मीयता से दाद दी। पिछले वर्ष जब हमारी भेंट हुई, उस समय मेरे घर में दु:खद निधन हुआ था। मोदीजी को यह मालूम था। भेंट के समय सबसे पहले उन्होंने यही पूछा, ""आपके घर में दु:खद घटना घटी थी, क्या हुआ था?"" इससे हमें घरेलू सम्बन्ध प्राप्त हुआ। नरेन्द्र मोदी ने उस भेंट के समय मुझे दो पुस्तकें उपहार में दी थीं। उन पुस्तकों के बारे में बात करते हुए वे मुख्यमंत्री न होकर एक लेखक थे, एक कवि थे। सावरकर साहित्य का गहन अध्ययन करने के उपलक्ष्य में हमने उन्हें अभिनन्दन पत्र दिया था। सम्मान पत्र ग्रहण करते हुए उन्होंने कहा, "यह सम्मान पत्र नहीं है, यह आशीर्वाद पत्र है।" नरेन्द्र मोदी के भव्य मुख्यमंत्री आवास में केवल दो लोग रहते हैं - वे स्वयं तथा उनका रसोइया। मोदीजी को जो कुछ भी उपहार स्वरूप प्राप्त होता है, उसे वे कन्याओं के पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा, विकास एवं संरक्षा के निमित्त दान कर देते हैं। उनके द्वारा आज तक पाँच करोड से अधिक निधि उपलब्ध करायी गयी है। मोदीजी के बंगले के द्वार पर "दया परमो धर्म:" के स्थान पर "शूरता परमो धर्म:" वाक्य लिखा हुआ है।
सचमुच में एक महान व्यक्ति के साथ लगभग डेढ वर्ष तक संगति का लाभ मुझे मिला। यह चरित्र लिखते हुए मैं कुछ अर्थों में मोदी जैसा होने का प्रयास कर रहा था। परकाया प्रवेश के बिना लेखन सम्भव नहीं है।
इस निमित्त मोदी के साथ मानसिक जुडाव का लाभ मिला। ऐसा सौभाग्यशाली भला कौन हो सकता है?
नरेन्द्र मोदीजी कहते थे, "मैं मुख्यमंत्री रहूं या न रहूं, किन्तु मैं कवि जरूर हूं और कवि जरूर रहूंगा।" मोदीजी के सिर पर राजमुकुट है, परन्तु उसमें एक मोरपंख भी है। राजमुकुट कर्तव्य का प्रतीक है और मोरपंख प्रतिभा का प्रतीक है। भविष्य में राजमुकुट अधिक प्रभावी एवं व्यापक हो, किन्तु उस समय देखना यह है कि कविता का मोरपंख उसी तरह चमचमाता रहे। ऐसा होगा यह हमें विश्वास है।

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