महाराण प्रताप : सूरवीर राष्ट्रभक्त

 यह आलेख क्षत्रिय कल्याण सभा भिलाई .. के द्वारा परिश्रम पूर्वक तैय्यार किया गया है ....

  महाराणा प्रताप और सिसोदिया राजवंश 
सन 712 ई० में अरबों ने सिंध पर आधिपत्य जमा कर भारत विजय का मार्ग प्रशस्त किया। इस काल में न तो कोई केन्द्रीय सत्ता थी और न कोई सबल शासक था जो अरबों की इस चुनौती का सामना करता। फ़लतः अरबों ने आक्रमणो की बाढ ला दी और सन 725 ई०  में जैसलमेर, मारवाड, मांडलगढ और भडौच आदि इलाकों पर अपना आधिपत्य जमा लिया। ऐसे लगने लगा कि शीघ्र ही मध्य पूर्व की भांति भारत में भी इस्लाम की तूती बोलने लगेगी। ऐसे समय में दो शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। एक ओर जहां नागभाट ने जैसलमेर. मारवाड, मांडलगढ से अरबों को खदेड कर जालौर में प्रतिहार राज्य की नींव डाली, वहां दूसरी ओर बप्पा रायडे ने चित्तौड के प्रसिद्ध दुर्ग पर अधिकार कर सन 734 ई० में मेवाड में गुहिल वंश का वर्चश्व स्थापित किया और इस प्रकार अरबों के भारत विजय के मनसूबों पर पानी फ़ेर दिया।मेवाड का गुहिल वंश संसार के प्राचीनतम राज वंशों में माना जाता है। मेवाड राज्य की केन्द्रीय सत्ता का उद्भव स्थल सौराष्ट्र रहा है। जिसकी राजधानी बल्लभीपुर थी और जिसके शासक सूर्य वंशी क्षत्रिय कहलात्र थे। यही सत्ता विस्थापन के बाद जब ईडर में स्थापित हुई तो गहलौत मान से प्रचलित हुई। ईडर से मेवाड स्थापित होने पर रावल गहलौत हो गई। कालान्तर में इसकी एक शाखा सिसोदे की जागीर की स्थापना करके सिसोदिया हो गई। चुंकि यह केन्द्रीय रावल गहलौत शाखा कनिष्ठ थी। इसलिय्र इसे राणा की उपाधि मिली। उन दिनों राजपुताना में यह परम्परा थी कि लहुरी शाखा को राणा उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। कुछ पीढियों बाद एक युद्ध में रावल शाखा का अन्त हो गया और मेवाड की केन्द्रीय सत्ता पर सिसोदिया राणा का आधिपत्य हो गया। केन्द्र और उपकेन्द्र पहचान के लिए केन्द्रीय सत्ता के राणा महाराणा हो गये। अस्तु गहलौत वंश का इतिहास ही सिसोदिया वंश का इतिहास है।
मान्यता है कि सिसोदिया क्षत्रिय भगवान राम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंशज हैं। सूर्यवंश के आदि पुरुष की 65 वीं पीढी में भगवान राम हुए 195 वीं पीढी में वृहदंतक हुये। 125 वीं पीढी में सुमित्र हुये। 155 वी. पीढी अर्थात सुमित्र की 30 वीं पीढी में गुहिल हु जो गहलोत वंश की संस्थापक पुरुष कहलाये। गुहिल से कुछ पीढी पहले कनकसेन हुए जिन्होंने सौराष्ट्र में सूर्यवंश के राज्य की स्थापना की। गुहिल का समय 540 ई० था। बटवारे में लव को श्री राम द्वारा उत्तरी पश्चिमी क्षेत्र मिला जिसकी राजधानी लवकोट थी। जो वर्तमान में लाहौर है। ऐसा कहा जाता है कि कनकसेन लवकोट से ही द्वारका आये। हालांकि वोश्वस्त प्रमाण नहीं है। टाड मानते है कि 145 ई० में कनकसेन द्वारका आये तथा वहां अपने राज्य की परमार शासक को पराजित कर स्थापना की जिसे आज सौराष्ट्र क्षेत्र कहा जाता है। कनकसेन की चौथी पीढी में पराक्रमी शासक सौराष्ट्र के विजय सेन हुए जिन्होने विजय नगर बसाया। विजय सेन ने विदर्भ की स्थापना की थी। जिसे आज सिहोर कहते हैं। तथा राजधानी बदलकर बल्लभीपुर ( वर्तमान भावनगर ) बनाया। इस वंश के शासकों की सूची कर्नल टाड देते हुए कनकसेन, महामदन सेन, सदन्त सेन, विजय सेन, पद्मादित्य, सेवादित्य, हरादित्य, सूर्यादित्य, सोमादित्य और शिला दित्य बताया। - 524 ई० में बल्लभी का अन्तिम शासक शिलादित्य थे। हालांकि कुछ इतिहासकार 766 ई० के बाद शिलादित्य के शासन का पतन मानते हैं। यह पतन पार्थियनों के आक्रमण से हुआ। शिलादित्य की राजधानी पुस्पावती के कोख से जन्मा पुत्र गुहादित्य की सेविका ब्रहामणी कमलावती ने लालन पालन किया। क्योंकि रानी उनके जन्म के साथ ही सती हो गई। गुहादित्य बचपन से ही होनहार था और ईडर के भील मंडालिका की हत्या करके उसके सिहांसन पर बैठ गया तथा उसके नाम से गुहिल, गिहील या गहलौत वंश चल पडा। कर्नल टाड के अनुसार गुहादित्य की आठ पीढियों ने ईडर पर शासन किया ये निम्न हैं - गुहादित्य, नागादित्य, भागादित्य, दैवादित्य, आसादित्य, कालभोज, गुहादित्य, नागादित्य।
जेम्स टाड के अनुसार शिकार के बहाने भीलों द्वारा नागादित्य की हत्या कर दी। इस समय इसके पुत्र बप्पा की आयु मात्र तीन वर्ष की थी। बप्पा की भी एक ब्राहमणी ने संरक्षण देकर अरावली के बीहड में शरण लिया। गौरीशंकर ओझा गुहादित्य और बप्पा के बीच की वंशावली प्रस्तुत की, वह सर्वाधिक प्रमाणिक मानी गई है जो निम्न है - गुहिल, भोज, महेन्द्र, नागादित्य, शिलादित्य, अपराजित, महेन्द्र द्वितीय और कालभोज बप्पा आदि। यह एक संयोग ही है कि गुहादित्य और मेवाड राज्य में गहलोत वंश स्थापित करने वाले बप्पा का बचपन अरावली के जंगल में उन्मुक्त, स्वच्छन्द वातावरण में व्यतीत हुआ। बप्पा के एक लिंग पूजा के कारण देवी भवानी का दर्शन उन्हे मिला और बाबा गोरखनाथ का आशिर्वाद भी। बडे होने पर चित्तौड के राजा से मिल कर बप्पा ने अपना वंश स्थापित किया और परमार राजा ने उन्हे पूरा स्नेह दिया। इसी समय विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण को बप्पा ने विफ़ल कर चित्तोड से उन्हे गजनी तक खदेड कर अपने प्रथम सैन्य अभिमान  में ही सफ़लता प्राप्त की। बप्पा द्वारा धारित रावल उपाधि रावल रणसिंह ( कर्ण सिंह ) 1158 ई० तक निर्वाध रुप से चलती रही। रावण रण सिंह के बाद रावल गहलोत की एक शाखा और हो गई। जो सिसोदिया के जागीर पर आसीन हुई जिसके संस्थापक माहव एवं राहप दो भाई थे। सिसोदा में बसने के कारण ये लोग सिसोदिया गहलौत कहलाये।
सत्ता परिवर्तन, स्थान परिवर्तन, व्यक्तिगत महत्वकांक्षा एवं राजपरिवार में संख्या वृद्धि से ही राजपूत वंशों में अनेक शाखाओं एवं उपशाखाओं ने जन्म लिया है। यह बाद गहलौत वंश के साथ भी देखने को मिली है। बप्पा के शासन काल मेवाड राज्य के विस्तार के साथ ही उसकी प्रतिष्ठा में भी अत्यधिक वृद्धि हुई है। बप्पा के बाद गहलौत वंश की शाखाओं का निम्न विकास हुआ।
  1. अहाडिया गहलौत - अहाड नामक स्थान पर बसने के कारण यह नाम हुआ।
  2. असिला गहलौत - सौराष्ट्र में बप्पा के पुत्र ने असिलगढ का निर्माण अपने नाम असिल पर किया जिससे इसका नाम असिला पडा।
  3. पीपरा गहलौत - बप्पा के एक पुत्र मारवाड के पीपरा पर आधिपत्य पर पीपरा गहलौत वंश चलाया।
  4. मागलिक गहलौत - लोदल के शासक मंगल के नाम पर यह वंश चला।
  5. नेपाल के गहलोत - रतन सिंह के भाई कुंभकरन ने नेपाल में आधिपत्य किया अतः नेपाल का राजपरिवार भी मेवाढ की शाखा है।
  6. सखनियां गहलौत - रतन सिंह के भाई श्रवण कुमार ने सौराष्ट्र में इस वंश की स्थापना की।
  7. सिसौद गहलौत - कर्णसिंह के पुत्र को सिसौद की जागीर मिली और सिसौद के नाम पर सिसौदिया गहलौत कहलाया।
सिसौदिया वंश की उपशाखाएं -
  1. चन्द्रावत - यह 1275  ई० में अस्तित्व में आई। चन्द्रा के नाम पर इस वंश का नाम चन्द्रावत पडा।
  2. भोंसला सिसौदिया - इस वंश की स्थापना सज्जन सिंह ने सतारा में की थी।
  3. चूडावत - चूडा के नाम पर यह वंश चला। इसकी कुल 30 शाखाएं हैं।
मेवाड - वीर प्रसूता मेवाड की धरती राजपूती प्रतिष्ठा, मर्यादा एवं गौरव का प्रतिक तथा सम्बल है। राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी अंचल का वह राज्य अधिकांशतः अरावली की अभेद्य पर्वत श्रृंखला से परिवेष्टिता है। उपत्यकाओं के परकोटे सामरिक दृष्टिकोण के अत्यन्त उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। इन्ही परकोटों के बीच छोटी - बडी अनेक पहाडियों को अपने सीने पर उठाए हुए समतल उपजाऊ एवं कुछ कम उपजाऊ मैदानी भू - भाग है। कुल मिलाकर यही मेवाड राज्य है। संभवतः मेव जाति का निवास होने के कारण मेववाड और बाद में मुख सुख के कारण मेवाड बन गया होगा। उदयपुर, चित्तौड, भीलवाडा वर्तमान में इनके तीन जिलें हैं।
मेवाड में गहलोत राजवंश - बप्पा ने सन 734 ई० में चित्रांगद गोरी परमार से चित्तौड की सत्ता छीन कर मेवाड में गहलौत वंश के शासक का सूत्रधार बनने का गौरव प्राप्त किया। इनका काल सन 734 ई० से 753 ई० तक था। इसके बाद के शासकों के नाम और समय काल निम्न था -
  1. रावल बप्पा ( काल भोज ) - 734 ई० मेवाड राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।
  2. रावल खुमान - 753 ई०
  3. मत्तट - 773 - 793 ई०
  4. भर्तभट्त - 793 - 813 ई०
  5. रावल सिंह - 813 - 828 ई०
  6. खुमाण सिंह - 828 - 853 ई०
  7. महायक - 853 - 878 ई०
  8. खुमाण तृतीय - 878 - 903 ई०
  9. भर्तभट्ट द्वितीय - 903 - 951 ई०
  10. अल्लट - 951 - 971 ई०
  11. नरवाहन - 971 - 973 ई०
  12. शालिवाहन - 973 - 977 ई०
  13. शक्ति कुमार - 977 - 993 ई०
  14. अम्बा प्रसाद - 993 - 1007 ई०
  15. शुची वरमा - 1007- 1021 ई०
  16. नर वर्मा - 1021 - 1035 ई०
  17. कीर्ति वर्मा - 1035 - 1051 ई०
  18. योगराज - 1051 - 1068 ई०
  19. वैरठ - 1068 - 1088 ई०
  20. हंस पाल - 1088 - 1103 ई०
  21. वैरी सिंह - 1103 - 1107 ई०
  22. विजय सिंह - 1107 - 1127 ई०
  23. अरि सिंह - 1127 - 1138 ई०
  24. चौड सिंह - 1138 - 1148 ई०
  25. विक्रम सिंह - 1148 - 1158 ई०
  26. रण सिंह ( कर्ण सिंह ) - 1158 - 1168 ई०
  27. क्षेम सिंह - 1168 - 1172 ई०
  28. सामंत सिंह - 1172 - 1179 ई०
क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह। ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान मेवाड पर अधिकार कर लिया। सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये। इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया। लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया। 
  1. कुमार सिंह - 1179 - 1191 ई०
  2. मंथन सिंह - 1191 - 1211 ई०
  3. पद्म सिंह - 1211 - 1213 ई०
  4. जैत्र सिंह - 1213 - 1261 ई०
  5. तेज सिंह  -1261 - 1273 ई०
  6. समर सिंह - 1273 - 1301 ई०
समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया। नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं।
रतन सिंह ( 1301-1303  ई० ) - इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा -  बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।
राजा अजय सिंह ( 1303 - 1326 ई० )  - हमीर राज्य के उत्तराधिकारी थे पर्न्तु अवयस्क थे। इसलिए अजय सिंह गद्दी पर बैठे।
महाराणा हमीर सिंह ( 1326 - 1364 ई० )  - हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारं किया। इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।
महाराणा क्षेत्र सिंह ( 1364 - 1382 ई० ) -
महाराणा लाखासिंह ( 1382 - 11421 ई० ) - योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान। इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।
महाराणा मोकल ( 1421 - 1433 ई० ) -
महाराणा कुम्भा ( 1433 - 1469 ई० ) - इन्होने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि योग्य प्रशासक, सहिष्णु, किलों और मन्दिरों के निर्माण के रुप में ही जाने जाते हैं। इनके पुत्र उदा ने इनकी हत्या करके मेवाड के गद्दी पर अधिकार जमा लिया।
महाराणा उदा ( उदय सिंह ) ( 1468 - 1473 ई० ) - महाराणा के द्वितीय पुत्र मे रायमल जो ईडर में निरासित जीवन व्यतितकर रहा था। आक्रमण करके उदय सिण्ह को पराजित कर सिंहासन की प्रतिष्ठा बचा ली। अन्यथा उदा पांच वर्षों तक मेवाड का विनाश करता रहा।
महाराणा रायमल ( 1473 - 1509 ई० ) - सबसे पहले महाराणा रायमल के माडु के सुल्तान गयासुद्दीन को पराजित किया और पानगढ, चित्तौड्गढ और कुम्भलगढ किलों  पर पुनः अधिकार कर लिया पूरे मेवाड को पुनर्स्थापित कर लिया। इसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि कुछ समय के लिये बाह्य आक्रमण के लिये सुरक्षिर हो गया। लेकिन इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।
महाराणा सांगा ( संग्राम सिंह ) ( 1509 - 1527 ई० ) - महाराणा सांगा उन मेवाडी महाराणाओं में एक था जिसका नाम मेवाड के ही वही, भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है। महाराणा सांगा एक साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी शासक थे, जो संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहते थे। इनके समय में मेवाड की सीमा का दूर - दूर तक विस्तार हुआ। उनके हृदय में यह भावना रहती थी कि मेवाड के सिसोदिया वंश का इतिहास शूरता से रक्तरंजीत इतिहास है। जिसकी बराबरी दूसरा वंश नही कर सकता। महाराणा हिन्दु रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ, राजनीतीज्ञ, कुश्ल शासक, आश्चर्यजनक, सहनशक्ति, उच्चतम शक्तिशाली शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित, शूरवीर, दूरदर्शी थे। इनका इतिहास स्वर्णिम है। जिसके कारं आज मेवाड के उच्चतम शिरोमणि शासकों में इन्हे जाना जाता है।
महाराणा रतन सिंह ( 1528 - 1531 ई० ) -
महाराणा विक्रमादित्य ( 1531 - 1534ई० ) - यह अयोग्य सिद्ध हुआ और गुजरात के बहादुर शाह ने दो बार आक्रमण कर मेवाड को नुकसान पहुंचाया इस दौरान 1300  महारानियों के साथ कर्मावती सती हो गई। विक्रमादित्य की हत्या दासीपुत्र बनवीर ने करके 1534 - 1537 तक मेवाड पर शासन किया। लेकिन इसे मान्यता नहीं मिली। इसी समय सिसोदिया के उदय सिंह को पन्नाधाय ने अपने पुत्र की जान देकर भी बचा लिया और मेवाड के इतिहास में प्रसिद्ध हो गई।
महाराणा उदय सिंह ( 1537 - 1572 ई० ) -  1537 ई० में उदय सिंह ने सरदारों के नेतृत्व में चित्तौडगड को पुनः जीत लिया। इनके काल में शेरशाह सूरी का आक्रमण हुआ जिससे उन्होने बिना युद्ध किये चित्तौडगड किला इन्होने दे दिया। अकबर के 1567 के आक्रमण के समय सपरिवार भाग गये। चार माह बाद 15 फ़रवरी 1568 को अकबर ने चित्तौडगढ  पर अधिकार कर लिया। ऐसे में रानियों ने जौहर किया। अकबर ने भयंकर कत्लेआम कराया। 40 हजार लोग मारे गये। इस युद्ध में जयमल और पत्ता ने अदभुत शौर्य का परिचय दिया। अकबर स्वयं इनकी प्रशंसा की और आगरे के किले के द्वार पर  उनकी मूर्तियां लगवाई। उनके ज्येष्ठ पुत्र प्रताप थे परन्तु अपने जिवन काल में उत्तराधिकार वे जगमाल को सौंप चुके थे अंततः सरदारों ने प्रताप को ही उत्तराधिकारी बनाया है।
महाराणा प्रताप ( 1572 -1597 ई० ) -  इनका जन्म 9 मई 1540 ई० मेम हुआ था। राज्य की बागडोर संभालते समय उनके पास न राजधानी थी न राजा का वैभव, बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ। उन्होने तय किया कि सोने चांदी की थाली में नहीं खाऐंगे, कोमल शैया पर नही सोयेंगे, अर्थात हर तरह विलासिता का त्याग करेंगें। धीरे - धीरे प्रताप ने अपनी स्थिति सुधारना प्रारम्भ किया। इस दौरान मान सिंह अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर आये जिसमें उन्हे प्रताप के द्वारा अपमानित होना पडा। परिणाम यह हुआ कि 21 जून 1576 ई० को हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर और प्रताप का भीषण युद्ध हुआ। जिसमें 14 हजार राजपूत मारे गये। परिणाम यह हुआ कि वर्षों प्रताप जंगल की खाक छानते रहे, जहां घास की रोटी खाई और निरन्तर अकबर सैनिको का आक्रमण झेला, लेकिन हार नहीं मानी। ऐसे समय भीलों ने इनकी बहुत सहायता की। प्रताप की कठिनाईयों को सुनकर अकबर का भी हृदय कांप उठा। उसने प्रताप के तप, त्याग और बलिदान की प्रशंसा की। बादशाह अकबर ने सिसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छॊड कर सबको मोल ले लिया, परन्तु वह प्रताप को नहीं खरीद सका। अन्त में भामा शाह ने अपने जीवन में अर्जित पूरी सम्पत्ति प्रताप को देदी। जिसकी सहायता से प्रताप चित्तौडगढ को छोडकर अपने सारे किले 1588 ई० में मुगलों से छिन लिया। 15 जनवरी 1597 में चांडव में प्रताप का निधन हो गया।
प्रताप के शौर्य न केवल अनुकरणीय हैं, वंदनीय हैं, सराहनीय है, बल्कि जीवन के हर संघर्ष में पथ आलोकित करने वाली है। अकबर जैसे सम्राट से आजीवन संघर्ष करके उन्होने यह सिद्ध कर दिया कि यदि व्यक्ति ठान ले तो कुछ भी असंभव नहीं है। यही कारण है कि अकबर ने भी उनका लोहा माना। महाराणा प्रताप के जीवन से जुडी हुई ऐसी अनेक घटनाऐं है जो उनके हिन्दुत्व, प्रेम, आन - बान की रक्षा, अटूट देश भक्ति दृढ आत्मविश्वास, अदम्य साहस, दृढ संकल्प जैसे उत्कृष्ठ चारित्रिक गुणों की परिचायक है।
महाराणा अमर सिंह -(1597 - 1620 ई० ) - प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया। जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफ़ल हुए। अंत में खुर्रम ने मेवाड पर अधिकार कर लिया। हारकर बाद में इन्होनें अपमानजनक संधि की जो उनके चरित्र पर बहुत बडा दाग है। वे मेवाड का अंतिम स्वतन्त्र शासक  है।
महाराणा कर्ण सिद्ध ( 1620 - 1628 ई० ) - इन्होनें मुगल शासकों से संबंध बनाये रखा और आन्तरिक व्यवस्था सुधारने तथा निर्माण पर ध्यान दिया।
महाराणा जगत सिंह ( 1628 - 1652 ई० ) -
महाराणा राजसिंह ( 1652 - 1680 ई० ) - यह मेवाड के उत्थान का काल था। इन्होनेण औरंगजेब से कई बार लोहा लेकर युद्ध में मात दी। इनका शौर्य पराक्रम और स्वाभिमान महाराणा प्रताप जैसे था। इनकों राजस्थान के राजपूतों का एक गठबंधन, राजनितिक एवं सामाजिक स्तर पर बनाने में सफ़लता अर्जित हुई। जिससे मुगल संगठित लोहा लिया जा सके। महाराणा के प्रयास से अंबेर, मारवाड और मेवाड में गठबंधन बन गया। वे मानते हैं कि बिना सामाजिक गठबंधन के राजनीतिक गठबंधन अपूर्ण और अधूरा रहेगा। अतः इन्होने मारवाह और आमेर से खानपान एवं वैवाहिक संबंध जोडने का निर्णय ले लिया। हालांकि महाराणा प्रताप के कट्टर समर्थक इअसका प्रबल विरोध कर दिया जिसे दबाने के लिये सिन्धिया नरेश "ग्वालियर" ने मदद किया। जिसके बदले मेवाड का बडा भू-भाग सिंधिया ने हथिया लिया।
महाराणा जय सिंह ( 1680 - 1698 ई० ) -
महाराणा अमर सिंह द्वितीय ( 1698 - 1710 ई० ) - इसके समय मेवाड की प्रतिष्ठा बढी और उन्होनें कृषि पर ध्यान देकर किसानों को सम्पन्न बना दिया। इनके निधन से मेवाड और राजस्थान की बडी क्षति हुई।
महाराणा संग्राम सिंह ( 1710 - 1734 ई० ) - महाराणा संग्राम सिंह दृढ और अडिग, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सिद्धांतप्रिय, अनुशासित, आदर्शवादी थे। इन्होने 18 बार युद्ध किया तथा मेवाड राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को न केवल सुरक्षित रखा वरन उनमें वृध्दि भी की।
महाराणा जगत सिंह द्वितीय ( 1734 - 1751 ई० )  - ये एक स्क्षम, अदूरदर्शी और विलासी शासक थे। इन्होने जलमहल बनवाया।
महाराणा प्रताप सिंह द्वितीय ( 1751 - 1754 ई० )  -
महाराणा राजसिंह द्वितीय ( 1754 - 1761 ई० )  -
महाराणा अरिसिंह द्वितीय ( 1761 - 1773 ई० )  -
महाराणा हमीर सिंह द्वितीय ( 1773 - 1778 ई० )  - इनके कार्यकाल में सिंधिया और होल्कर मेवाड राज्य को लूटपाट करके उसे तहस - नहस कर दिया। अर्थात अपनों ही ने अपनों को लूटा।
महाराणा भीमसिंह ( 1778 - 1828 ई० )  -  इनके कारकाल में भी मेवाड आपसी गृहकलह से दुर्बल होता चला गया। आर्थिक जर्जरता के कारण मराठों से पांच लाख कर्ज लेना पडा। वस्तुतः अब मेवाड सिन्धि भी होल्कर आंबा लकवा के लिये चारागाह हो गया। मेवाड राज्य की नियती यह हो गई कि युद्ध कोई भी करे या लडे क्षतिपूर्ति मेवाढ राज्य को ही देनी होती। होल्कर और सिंधिया धन वसूली कर करके मेवाड राज्य को बरबादी के कगार पर पहुंचा दिया। 13 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी और मेवाड राज्य में समझौता हो गया। अर्थात मेवाड राज्य ईस्ट इंडिया के साथ चला गया।
मेवाड राज्य में ब्रिटिश सेना के पहुंच जाने मात्र से ही मेवाड को जीवनदान मिल गया। मराठों ,पठानों और पिडारियों का भी हस्तक्षेप बंद हो गया। उदंड भील भी मार्यादित आचरण करने लगे। मेवाड के पूर्वजों की पीढी में बप्पारावल, कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी, वीर पुरुषों का प्रशासन मेवाड राज्य को मिल चुका था। प्रताप के बाद अधिकांश पीढियों में वह क्षमता नहीं थी जिसकी अपेक्षा मेवाड को थी। महाराजा भीमसिंह योग्य व्यक्ति थे\ निर्णय भी अच्छा लेते थे परन्तु उनके क्रियान्वयन पर ध्यान नही देते थे। इनमें व्यवहारिकता आभाव था। इनके समय चतुर्दिक अराजकता फ़ैल गई। लेकिन ब्रिटिश एजेन्ट से तालमेल बैठाकर इस अराजकता की एक -एक करके दूर किया जाने लगा। कृषि, व्यापार उन्नत होने लगा। ब्रिटिश एजेन्ट के मार्गदर्शन, निर्देशन एवं सघन पर्यवेक्षण से मेवाड राज्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला गया। 

महाराणा जवान सिंह ( 1828 - 1838 ई० )  - निःसन्तान। सरदार सिंह गोद ले लिया था।
महाराणा सरदार सिंह ( 1838 - 1842 ई० )  - निःसन्तान। भाई को गई थी।
महाराणा स्वरुप सिंह ( 1842 - 1861 ई० )  - इनके समय 1857 की क्रान्ति हुई। इन्होनेण विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की। सतीप्रथा बंद करा दिये।
महाराणा शंभू सिंह ( 1861 - 1874 ई० ) - निःसन्तान। शंभू सिंह को कोद दिया। 1868 में घोर अकाल पडा। अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढा।
महाराणा सज्जन सिंह ( 1874 - 1884 ई० )  - बागोर के महाराज शक्ति सिंह के कुंवर सज्जन सिंह को महाराणा का उत्तराधिकार मिला। उत्तराधिकार का झगडा शुरु हो गया। ब्रिटिश एजेन्ट ने इन्हे स्वीकृति दे दी। इन्होनें राज्य की दशा सुधारनें में उल्लेखनीय योगदान दिया।
महाराणा फ़तह सिंह ( 1883 - 1930 ई० )  - सज्जन सिंह के निधन पर शिवरति शाखा के गजसिंह के अनुज एवं दनक पुत्र फ़तेहसिंह को महाराणा बनाया गया। फ़तहसिंह कुटनीतिज्ञ, साहसी स्वाभिमानी और दूरदर्शी थे। क्रान्तिकारी की भी गुप्त रुप से मदद करते थे। महाराणा की सोच एवं कार्यप्रणाली अंग्रेजों के हित में नहीं थी। लेकिन भूपाल सिंह को अंग्रेजों ने अपने वस में करके पिता फ़तहसिंह को झुका दिया। मेवाड राज्य की जर्जर अर्थव्यवस्था को महाराणा ने अपनी पूरी क्षमता से सुदृढ बनाया। अपने उत्तराधिकारियों को महाराणा ने एक सुदृढ अर्थ्व्यवस्था एवं राज्यकोष सौंपा, कर्ज नहीं सौंपा था।
महाराणा भूपाल सिंह (1930 - 1955 ई० )  - वैसे तो अंग्रेजों ने मिलकर 1921 में मेवाड की प्रशासनीक सत्ता छिन ली थी भले औपचारिक गद्दी 1930 में मिली। विदेश शासन के हस्तक्षेप एवं स्थानीय केन्द्रीय शासन की उदासीनता से जमीनदार निरवंश हो गये थे। किसानों में विद्रोह भरता जा रहा था। शिक्षा की हालत दयनीय थी इनके समय भारत को स्वतन्त्रता मिली और भारत या पाक मिलने की स्वतंत्रता। भोपाल के नवाब पाक में मिलना चाहते थे और मेवाड को भी उसमें मिलाना चाहते थे। इस पर उन्होनें कहा कि मेवाड भारत के साथ था और अब भी वहीं रहेगा। यह कह कर वे इतिहास में अमर  हो गये। स्वतंत्र भारत के वृहद राजस्थान संघ के भूपाल सिंह प्रमुख बनाये गये।
महाराणा भगवत सिंह ( 1955 - 1984 ई० )  - में शिवरती शाखा के थे। गोद लिये गये थे।
महाराणा महेन्द्र सिंह 1984 ई० - में अखिल भारतीय महासभा के भी अध्यक्ष  रहे। महेन्द्र सिंह एक समाजसेवी व्यक्ति थे।
इस तरह 556 ई० में जिस गुहिल वंश की स्थापना हुई बाद में वही सिसोदिया वंश के नाम से जानी गयी। जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होने इस वंश की मानमर्यादा, इज्जत और सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोड दिया। महाराणा महेन्द्र तक यह वंश कई उतार-चढाव और स्वर्णिम अध्याय रचते हुए आज भी अपने गौरव और श्रेष्ठ परम्परा के लिये जाना पहचाना जाता है। मेवाड अपनी समृद्धि, परम्परा, अधभूत शौर्य एवं अनूठी कलात्मक अनुदानों के कारण संसार के परिदृश्य में दे दीप्यमान है। स्वाधिनता एवं भारतीय संस्कृति की अभिरक्ष के लिए इस वंश ने जो अनुपम त्याग और अपूर्व बलिदान दिये सदा स्मरण किये जाते रहेंगे। मेवाड की वीर प्रसूता धरती में रावल बप्पा, महाराणा सांगा, महाराण प्रताप जैसे सूरवीर, यशस्वी, कर्मठ, राष्ट्रभक्त व स्वतंत्रता प्रेमी विभूतियों ने जन्म लेकर  न केवल मेवाड वरन संपूर्ण भारत को गौरान्वित किया है। स्वतन्त्रता के अखल जगाने वाले प्रताप आज भी जन-जन के हृदय में बसे हुये, सभी स्वाभिमानियों के प्रेरक बन हुए है। धन्य है वह मेवाड और धन्य सिसोदिया वंश जिसमें ऐसे ऐसे अद्वीतिय देशभक्त दिये।

1 महाराणा प्रताप: सूरवीर राष्ट्रभक्त 
2 वीर सपूत महाराणा प्रताप
3 महाराणा प्रताप की जयंती
महाराणा प्रताप कठे
http://arvindsisodiakota.blogspot.in/2010/06/blog-post_15.html 




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