फिर जले आग में देश : जातीय जनगणना



- अरविन्द सिसोदिया 
  केंद्र सरकार ने जातीय जनगणना के आदेश देकर वह आग फिरसे लगादी है जो कभी मंडल आयोग के द्वारा प्रधान मंत्री वी पी सिंह के समय लगी गई थी |  अब यह होगा की जातीय जनगणना के आंकड़े आते ही मुलायम सिंह , लालू यादव , रामविलास पासवान देश में नये आरक्षण फार्मूले के नाम पर हुड़दंग करेंगे , चुनावी मुद्दों से भ्रष्टाचार , भुखमरी, स्विस बैंकों में जमा काला धन  और  महंगाई जैसे असली असली मुद्दे फिर से गायब हो जायेंगे और जातीय आरक्षण का नया मुद्दा सामनें आ जाएगा | देश भर में जनता आपस में मुर्गों की तरह लडेगी , राजनेता इस लडाई का आनंद उठाएंगे |
कुल  मिला  कर  जातीय  जनगणना , जनता को आपस में मुर्गों की तरह लड़ने का खेल है ..!   


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सागर जिले के बीना में भारत-ओमान रिफायनरी लिमिटेड के लोकार्पण समारोह में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जातिगत जनगणना के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा , "जाति के आधार पर जनगणना हिन्दुस्तान में फिर से मत कराइए। महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी कहा था कि जातिगत भेदभाव ठीक नहीं है, सामाजिक समरसता की नई बयार हिन्दुस्तान में चले क्योंकि 'जात-पात पूछे नहीं कोई हरि को भजे से हरि को होई'।"
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ई दिल्ली।। केंद्र सरकार ने जाति, धर्म और आर्थिक स्थिति के आधार पर जनगणना के प्रस्ताव को गुरुवार को हरी झंडी दे दी। इससे गरीबी रेखा के नीचे तथा उसके ऊपर जीवनयापन कर रहे लोगों और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में सही जानकारी मिल सकेगी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इसे मंजूरी दी गई।

आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, जनगणना के लिए सर्वेक्षण जल्द ही शुरू हो जाने की उम्मीद है। जाति तथा धर्म के बारे में जानकारी से इस बात के मूल्यांकन में मदद मिलेगी कि सामाजिक तथा धार्मिक पृष्ठभूमि के कारण देश के बहुत से नागरिकों के लिए आर्थिक अवसर कहां तक सीमित होते हैं।

जनगणना करने वाले कर्मचारी लोगों के बीच धर्म और जाति से संबंधित प्रश्नावली बांटेंगे । लोगों को सिर्फ दो सवालों के जवाब देने होंगे कि उनकी जाति क्या है और उनका धर्म क्या है? लेकिन गरीबी रेखा के संबंधित सवाल पर कई प्रश्न पूछे जाएंगे, जैसे- परिवार के सदस्यों की संख्या, रोजाना की आय तथा खर्च।

गरीबी से संबंधित जनगणना इससे पहले 2002 में कराई गई थी, लेकिन जाति और धर्म को जनगणना में पहली बार शामिल किया जा रहा है।
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भारत में जाति आधरित जनगणना क्या उचित है? यह जनगणना देश में जातियों में बंटवारा है आश्चर्य है कि भारत का प्रधानमंत्री विश्व का इतना बड़ा अर्थशास्त्री है वह किसके दबाव में आकर जातिगत जनगणना करा रहे हैं। वैसे इस सवाल पर जितनी गंभीरता से सोचा जाना चाहिए, उतनी गंभीरता से प्रधानमंत्री ने इसपर विचार नहीं किया। भारत में जनगणना का इतिहास काफी पुराना है। अंग्रेजो के समय की बात को लो तो, ईस्ट इंडिया कंपनी के जमाने में देशव्यापी जनगणना शुरु करने से पहले लगभग 70 साल प्रयोग इसके किए गए कि उचित रहेगा भी कि नहीं?

पहली जनगणना 14 फरवरी 1881 को शुरु हुई थी। उस समय भारत के भाग्य विधाता ईस्ट-इंडिया कंपनी की कोर्ट आॅफ डायरेक्टर ने 1856 में ही भारत में दस साल जनगणना का निर्णय लिया था, पर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के तूफान ने इसको उड़ा दिया। 1864 में पुनः शुरु हुई और राज्यों में कहीं-2 प्रयोग भी हुए। प्रयोगों की सफलता के बाद1881 में जनगणना हुई। अंग्रेजो ने इस कार्य को रोकने में 70 साल लगाया अंग्रेज बिना मकसद के कोई काम नहीं करते थे इस कार्य में भी ब्रिटिश हुकूमत का एक मकसद था जिस कारण से उन्होंने जनगणना नीति का विकास किया। मेरा मुख्य सवाल है प्रधानमंत्री से कि क्या उन्होंने जनगणना नीति के बारे में पुनर्विचार किया है, क्या उनका मकसद कोई नीति लेकर आने का है? या फिर हम यह माने कि वे सिर्फ राजनीतिक अस्तित्व को बचाने के लिए विपक्ष की मांग पर समय व्यतीत कर रहे हैं। क्या हमें यह नहीं देखना चाहिए कि हम यह देखे कि अंग्रेजो ने जिस नीति का विकास किया, उसका असल लक्ष्य क्या था? ब्रिटिश प्रशासन ने पहली जनगणना के बाद लंदन में कहा था,हमने पहली बार भारत के प्रत्येक जन को पहचाना है। सभी पेड़ों पर निशान लगाया है, प्रत्येक पालतू जानवरों को गिना है, यह सभी करने के पीछे सिर्फ एक लक्ष्य था कि फूट डालो और राज करो उन्होंने जनगणना में महजब व जाति को सामाजिक वर्गीकरण का मुख्य आधार बनाया। हिन्दू केा भी इस्लाम और ईसाई के बराबर में रखा। ब्रिटिश हुकूमत ने पहली बार 1901 में सामाजिक उच्चता का सिद्धांत भी प्रतिपादित किया। इस सिंद्धात के आधार पर उन्होंने जातियों ऊंच-नीच की खाई पैदा की और उस खाई से निकली जाति आधारित महासभाएं। 1931 तक तो यह नीति अंग्रेजों को ठीक लग रही थी। 1935 का गवर्नमेट आॅफ इंडिया एक्ट इसी की देन है। खास यह है किइस एक्ट के80 प्रतिशत से अधिक हिस्से को हमारे संविधान में शामिल कर लिया गया, उस एक्ट में एसटी, एससी के लिए आरक्षण का सिद्धांत शामिल था। जब देश आजाद हो गया तो हमारे संविधान निर्माताओं और नेताओें ने अंग्रेजो की ‘फूट डालो’ नीति से हटते हुए जनगणना से जाति का कालम हटा दिया और एक लक्ष्य रखा कि हम हिन्दुस्तान को जाति विहीन समाज बनाएंगे। आखिर मनमोहन से यह प्रश्न क्यो नही किया जा रहा है कि उन्होंने पंडित नेहरु या महात्मा गांधी या कंाग्रेस के अन्य महानतम नेताओं के जाति विहीन समाज के सपने क्यों खारिज कर दिया।
ब्रिटिश राजनीति में छाई अनिश्चितता पर नजर रखने वाले पर्यवेक्षक प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन और उनके साथियों की किसी हालत में सत्ता में बने रहने की लालसा केा देखकर हैरान हैं। स्पष्ट तौर पर घबराहट पैदा करने वाले जनादेश द्वारा नकार दिए गए, ब्राउन ने खुद को अनुपातिक प्रतिनिधित्व के चैपियन के रुप में रुपंातरित कर लिया है। इंग्लैण्ड की लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को यह मुद्दा बहुत अधिक प्रिय है जितना कि भाजपा को धारा 370 का उन्मूलन। तथाकथित व्यवस्था की पुष्टि के कारण बिल्कुल स्पष्ट है। लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी को समर्थन किया। इसमें कुछ छोटी पार्टियों और कुछ विदेश में रह रहे लोगों के वोटो को भी शामिल कर ले तो स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिटेन के सामने सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा चुनाव प्रणाली में बदलाव लाना है। यह आंकड़ा उतना चैंकाने वाला नहीं है 75 प्रतिशत मतदातों ने ब्रिटेन की विद्यमान फस्र्ट पास्ट-द पोस्ट व्यवस्था पर मुहर लगाते हुए यह जनादेश दिया कि वहां की सरकार को अपना समय और ऊर्जा आर्थिक संकट हल करने पर लगानी चाहिए। समय की कसौटी पर खरा उतरने वाली चुनाव प्रणाली का लक्ष्य स्थिर सरकार का गठन है। ब्राउन किसी भी कीमत पर सत्ता पाने वाली धाराओं में पश्चिम की बू सी आती है। गांधीवादी विचारधारा चलायी वह पश्चिम से बड़ी और उनको सुधारने वाली थी। अब बात आती है समकालीनो में चाहे वो ज्योतिबा फूले हो या पेरियार हो या कम्युनिस्ट या अंबेडकरवादी नेता इन सब ने जो विचार धाराएं चलायीं वे सभी अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के आश्वासन की वजह से चारांे खाने चित पड़ गई। इसको मै एक बिंडबना ही मानती हँू कि जिस लोहिया के अनुयायी मुलायम या लालू अपने को मानता हँू, ये लोग जाति की पहचान व पहचान की राजनीति को आज की सबसे बड़ी जरुरत समझ रहे हैं यही वजह है ये लोग जाति की पूछ पकड़ कर सत्ता की वैतरणी को पार करने में जुटे हंै। जाति एक सामाजिक यथार्थ है पर इसका उपयोग सत्ता की राजनीति नही होनी चाहिए। यदि नेता वास्तव मे ईमानदार है तो उनको जनगणना की सुस्पष्ट नीति तैयार करनी चाहिए, जिसमे सामाजिक यथार्थ का पूरा-लेख-जोखा हो, जनगणना का जो प्रयोजन होता है, उसके लिए ही जनगणना हो, आज की जनगणना 2014 के चुनाव केा ध्यान में रखकर हो रही है, पर 2014 जाति को पूरे आंकड़े नही मिल सकेगे।
कितना हास्यास्पद लगता है कि अंतिम निर्णय एक ऐसे व्यक्ति को सांैपा गया है भारत में पहले जनगणना के जातीय विभाजन के कारण उथल-पुथल से अनभिज्ञ हंै। इस मसले पर नागरिक समाज से न तो विचार-विमर्श किया गया और न ही सरकार या विपक्ष ने ही सुझाया कि ऐसे फैसले किसी भी स्वार्थ के निहितार्थ के कारण शीघ्र नहीं लिये जा सकते। क्या हमारे प्रधानमंत्री ने इसके दुष्प्रभाव पर विचार किया? शायद नहीं? हमारे राजनेता इतने आलसी है कि जो वो कर रहे है। उसका परिमाण क्या होगा उसका अनुमान वो नही लगा पाते?

राजनीतिक मोलभाव के लिए जातीय संख्या का इस्तेमाल पहले डींग मारने के लिए किया जा चुका है, पर इस बार वास्तविक संख्या पर आधारित होगा, इसमें अधिक हिस्सेदारी की मांग होगी। इससे घिनौना यह होगा कि अगर वे बहुमत की राय को उलट दे और अनुपातिक प्रतिनिधित्व के औजार के तौर पर राजनीतिक ब्लैक मेटन पर आमादा हो गए है।
अच्छी राजनीति केवल पारदर्शिता के ऊपर निर्भर नही रहती। निर्णय लेने और सलाह-मशविरा की प्रक्रिया भी इतनी ही महत्वपूर्ण है। इंग्लैण्ड इसलिए मतदान और प्रतिनिधित्व की प्रणाली मे बदलाव करता है कि लेबर पार्टी केा अल्पमत को बहुमत मेें बदलने के लिए सांसदो की जरुरत है तो इसमें समझदारी नहीं होगी। जो परिवर्तन राजनीतिक मूलाधार को प्रभावित करते हैं, उन पर बड़े धैर्य और सूझबूझ के साथ विचार किया जाना चाहिए। मेरा इसको बताने का एक मकसद है कि हमारे प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों एवं जिम्मेदार लोगो की सीखना चाहिए,जिन भी महानुभावों ने जातिय आधार पर जनगणना 2011 का भयावह फैसला है। लगभग 60 साल पुरानी नीति जिसमें जंग लग चुका था उसको बिना साफ सफाई के अर्थात् पुरानी नीति केा गंभीर बहस के बिना ही अचानक बदलने में पड़यंत्र की बू सी आ रही। यह एक संगीन अपराध और भी संगीन इसलिए भी हो जा रहा है क्योंकि इतने महत्वपूर्ण विषय पर फैसला बिना किर्सी तर्क के ही स्वीकारा गया आखिर क्यों? कुछ समय पहले कांग्रेस अध्यक्ष ने बड़ी उदारता दिखाते हुए जाति आधारित जनगणना को स्वीकार कर लिया, इससे सोनिया का कद और ऊँचा होगा और कांग्रेस के बिगड़ते जा रहेे रिश्तों में सुधार की आस भी बंधती नजर आ रही है।
इसे मैं स्वीकार करती हँू कि जाति का शामिल करना सामाजिक यथार्थ को जानने के लिए उपयोगी है, पर यदि लोग सही बताएं तो जो जाति आधरित राजनीति हो रही है, आने वाले समय में उसकी हवा निकल सकती है। वैसे सच है कि हमारे देश में जाति एक सामाजिक यथार्थ मनु के समय से ही है जो लोग जाति विहीन समाज की बात करते है, वे सामाजिक यथार्थ से अनजान है जिन भी लोगो ने सुधारवादी आंदोलन चलाए और उसके लिए विचाराधाराएं गढ़ी,उन सभी विचार हमेशा साठ सालों से हमारे यहां आधुनिकता वादियों का एक वर्ग जाति वर्ग से ऊपर उठने की कोशिश कर रहा है, इन्होंने सामाजिक संस्था को विवाह और मिलाप के रीतिरिवाजों तक ही सीमित रखा है। सोनिया और मनमोहन ने एक ही झटके में जाति केा एक केन्द्रीय बिन्दु बना डाला। अब हमारे देश में भारतीय फिर से भारतीयों केा उनकी जाति से पारिभाषित करेगा अर्थात् पहचान जाति के आधार पर होगी। राजनीति भी जातीय आधार पर ही होंगी। कंाग्रेस की जो प्रबंधन नीतियां है वह आने वाले समय में देश केा काफी भारी पड़ेगी इसमें सब समाहित हो जाएगा कुछ भी बाकी नहीं बच पाएगा। हम फिर ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों पर चल रहे है सोनिया इटली की नीतियां यहां भी लागू कर रही हैं। अभी वक्त है मेरा आग्रह जनता से है कि जातिगत जनगणना को न स्वीकारें।


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