कोसी का कहर क्यों होता है ?
कोसी नदी के द्वारा अपना मार्ग बदल कर बिहार की तबाही करना आम बात हे। यही बात हमें विलुप्त सरस्वती महानदी के लुप्त होने के कारणों पर सोचनें की दिशा देती है। हमारे सामने एक तो कोसी का प्राकृतिक संकट सामने है कि पहाडो से बह कर आने वाली विशाल रेत की मात्रा जमते जमते बड़ा अवरोध बन कर नदी का मार्ग बदल देती हे। दूसरा सोच सुनामी की घटना का है कि आंतरिक प्लेटों की ऊंचाई नीचाई में बदलाव जमीन के ऊपर सब कुछ बदल सकता है। तीसारा सोच भूकम्पों का है जो दिशा और दशा बदलने में सक्षम है। कोसी तो मार्ग बदल कर फिरसे अपने रास्ते पर आ जाती हे। मगर सरस्वती अपना मार्ग बदलने पर अपने रास्ते पर नहीं आ सकी । अनुमान तो यही है कि शिवालिका पहाडि़यों से बह कर राजस्थान के रास्ते खंबात की खाडी में जाने वाली सरस्वती अब यमुना में ही मिल कर अपना अस्तित्व समाप्त कर चुकी हे। इलाहाबाद में सरस्वती की धारा का त्रिवेणीं में होने की मान्यता के पीछे भी यही तथ्य हे। हजारों हजारों वर्ष पूर्व कभी सरस्वती ने भी अपना तटबंध तोडा और बारास्ते यमुना वह गंगा में होते हुये बंगाल की खाडी पहुच गई। क्यों कि उसके रास्ते की रूकावट तब हटाई नहीं जा सकी जिस तरह की कोसी के रास्ते की रूकावटों को हटा दिया जाता हे।
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कोसी का कहर क्यों होता है ?
पटना
कोसी इलाके में बिहार-नेपाल की सीमा के पास बाढ़ के बढ़ते खतरे को देखते हुए बिहार सरकार ने राज्य के 9 जिलों में नदी और इसके किनारों के बीच रहने वाले लोगों को जबरन क्षेत्र खाली कराने के आदेश दिए हैं। कोसी की सहायक नदी भोटे कोसी को जाम करने वाले भूस्खलन के मलबे को आंशिक रूप से हटाने के लिए नेपाली सेना द्वारा कम क्षमता के दो विस्फोट कर 1 . 25 लाख क्यूसेक पानी छोड़ने के बाद यह कदम उठाया गया है। पानी छोड़ने से बिहार में नदी के जलस्तर में बढ़ोतरी हो गई है। नेपाल में कोसी तटबंध में दरार आने की वजह से बिहार में 2008 में भयानक बाढ़ आई थी। इसमें कम से कम 26 लोगों की मौत हुई थी और करीब 30 लाख लोग विस्थापित हुए थे।आपदा प्रबंधन विभाग के विशेष सचिव अनिरुद्ध कुमार ने कहा, 'हमने आपदा प्रबंधन अधिनियम के प्रावधान लागू किए हैं ताकि कोसी के खतरे वाले इलाकों में रहने वाले लोगों को जबरन खाली कराया जा सके। अब तक हमने 16800 लोगों को बाहर निकाला है लेकिन 60 हजार से ज्यादा लोग अब भी नदी और इसके किनारों पर रह रहे हैं। कुमार ने कहा, हमारे नए आकलन के मुताबिक अगर नदी में बाढ़ आती है तो राज्य में कोसी के आसपास रह रहे 4 . 25 लाख लोग प्रभावित होंगे। हम उन सभी को हटाने का प्रयास कर रहे हैं।
सुपौल को राहत, बचाव और खाली कराने के अभियान का मुख्यालय बनाया गया है। राज्य सरकार ने लोगों के लिए 120 राहत शिविर और 17 शिविर पशुओं के लिए बनाए हैं। विस्थापित लोगों को ऊंचे स्थानों पर बने स्कूलों और कॉलेजों में आश्रय मुहैया कराया जा रहा है। सभी शिविरों में भोजन, साफ-सफाई और इलाज की सुविधाएं दी जा रही हैं।
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NOVEMBER 16, 2008
यह वाकया इसलिये याद आ गया दो महीने पहले बिहार में ही कोसी नदी ने जब अपनी धारा बदली तो सात जिलो के दो लाख लोगो को लील लिया। लेकिन किसी अखबार-पत्रिका या न्यूज चैनल की कवर या मुख्य स्टोरी यह तब तक नहीं बन पायी जब तक प्रधानमंत्री ने इसे राष्ट्रीय विपदा नही बताया।
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छह साल पहले 18 अगस्त 2008 को कोसी नदी में नेपाल की ओर से अचानक भरी मात्रा में पानी आने से कुसहा बांध टूट गया था। बाढ़ में करीब 247 गांव के करीब सात लाख लोग प्रभावित हुए थे। 217 लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। इसके अलावे दो लाख 60 हजार पशु भी बाढ़ की चपेट में आए थे जिनमें से 5445 की मौत हो गई। क्षेत्र में 50769 लाख हेक्टेयर भूमि पर लगी फसल बर्बाद हो गई थी।
कोसी नदी की धारा में अब तक परिवर्तन नहीं
बिहार के बड़े हिस्से में बाढ़ की आशंका के बीच केंद्र ने कहा कि कोसी नदी की धारा में कोई बड़ा बदलाव अब तक नहीं देखा गया है। केंद्र सरकार ने स्थिति को लेकर सभी तकनीकी जानकारी राज्य सरकार और नेपाल के साथ साझा की है। नेपाल में भूस्खलन के बाद कोसी नदी पर कृत्रिम बांध बनने की स्थिति को लेकर बिहार के मुख्य सचिव ने ताजा जमीनी हालात के बारे में केंद्र सरकार के अधिकारियों को अवगत करा दिया है।
गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा, दिन में कोसी नदी की धारा में कोई अहम बदलाव नहीं हुआ। हालात पर लगातार नजर रखी जा रही है। केंद्रीय एजेंसियां तकनीकी जानकारी बिहार सरकार और नेपाल के साथ बांट रही है।
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कोसी को क्यों कोसते हो?
01 September, 2008 प्रेम शुक्ल
एशिया की दो नदियों को दुखदायिनी कहा जाता है. एक है चीन की ह्वांग-हो जिसे पीली नदी के नाम से जाना जाता है और दूसरी है बिहार की कोसी नदी. अगर चीन की ह्वांग-हो को 'चीन का शोक' कहा जाता है तो कोसी नदी 'बिहार का शोक' है. इन नदियों की शोकदायिनी क्षमता ही बिहार और चीन के बीच विकास का अंतर भी स्पष्ट करती हैं. ह्वांग-हो की बाढ़ पर चीन ने पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया है. अब वहां बाढ़ की विभीषिका नहीं झेलनी पड़ती जबकि कोसी साल-दर-साल डूब और विस्थापन का दायरा बढ़ाती जा रही है.
पिछले एक पखवाड़े में ही २०० से अधिक लोग मारे गये हैं और कोई २५ लाख लोगों के विस्थापित होने का अनुमान है. जैसा कि कोई भी राज्य सरकार अपनी अक्षमता छिपाने के लिए कर सकती है बिहार सरकार भी वैसा ही कर रही है. मरने और विस्थापित होनेवाले आंकड़े निश्चित रूप से इससे कहीं ज्यादा होंगे. वैसे भी यह विपदा असंभावित नहीं थी. अरसे से जल-वैज्ञानिक यह चेतावनी दे रहे थे कि कोसी बैराज की कमजोरी के चलते न केवल उत्तर बिहार बल्कि बंगाल और बांग्लादेश तक संकट में आ सकते हैं. कोसी को आप घूमती-फिरती नदी भी कह सकते हैं. पिछले २०० सालों में इसने अपने बहाव मार्ग में १२० किलोमीटर का परिवर्तन किया है. नदी के इस तरह पूरब से पश्चिम खिसकने के कारण कोई आठ हजार वर्गकिलोमीटर जमीन बालू के बोरे में बदल गयी है. नगरों और गांवों के उजड़ने-बसने का अंतहीन सिलसिला चलता ही रहता है. इस सनातन उठा-पटक के बीच जो जीव और संपत्ति हानि होती है उसका हिसाब किताब अलग है.
बिहार आज जिस तरह से बेहाल हुआ है उससे सरकारें चाहें जितनी लापरवाह और अचेत रही हों लेकिन पर्यावरणविद बहुत पहले से इस बात की चेतावनी दे रहे थे. मार्च १९६६ में अमेरिकन सोसायटी आफ सिविल इंजीनियरिंग द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कोसी नदी के तट पर १९३८ से १९५७ के बीच में प्रति वर्ष लगभग १० करोड़ क्यूबिक मीटर तलछट जमा हो रहा था. केन्द्रीय जल एवं विद्युत शोध प्रतिष्ठान के वी सी गलगली और रूड़की विश्वविद्यालय के गोहेन और प्रकाश द्वारा बैराज निर्माण के बाद प्रस्तुत अध्ययन में भी आशंकाएं जताई गयी थी कि बैराज निर्माण के बाद भी तलछट जमा होने के कारण कोसी का किनारा उपर उठ रहा है. कोसी बैराज निर्माण के कुछ वर्षों बाद १९६८ में बाढ़ आयी थी. उस साल जल प्रवाह का नया रिकार्ड बना था २५,००० क्यमेक्स (क्यूबिक मीटर पर सेकेण्ड). उसके बाद डूब के लिए पर्याप्त जल प्रवाह नौ से सोलह हजार क्यूमेक्स पानी तो हर साल ही बना रहता है. एक अरसे से जल वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे थे कि कोसी पूर्व की ओर कभी भी खिसक सकती है. अनुमान भी वही था जो आज हकीकत बन गया है. जिस चीन की पीली नदी का जिक्र हम उपर कर आये हैं उसने भी १९३२ में अपना रास्ता बदल लिया था और उस प्रलय में पांच लाख से अधिक लोग मारे गये थे. कोसी नदी के विशेषज्ञ शिलिंग फेल्ड लंबे समय से चेतावनी दे रहे थे कि जब कोसी पूरब की ओर सरकेगी तो वह पीली नदी से कम नुकसान नहीं पहुंचाएगी.
वैज्ञानिकों की चेतावनी को कुछ पर्यावरणविद यह कहकर टाल रहे थे कि कोसी को अपनी मूल धारा की ओर लौटने देना चाहिए. कोसी की बाढ़ को रोकने का एकमेव उपाय था कि नेपाल में जहां कोसी परियोजना है वहीं पानी भंडारण के लिए ऊंचे बांध बनाये जाते. लेकिन पर्यावरणविदों का एक वर्ग लगातार यह तर्क देता रहा कि लोगों को बाढ़ का सम्मान करना चाहिए. ऐसा कहनेवालों का नजरिया यूरोप और चीन के हालात देखकर बने हैं जहां बाढ़ अंशकालिक नुकसान पहुंचाती है, जबकि आज जो उत्तर बिहार में हुआ है वह स्थाई क्षति है.
कोसी की समस्या को समझने के लिए उसकी भौगोलिक स्थिति को समझना जरूरी है. यह नदी गंगा में मिलने से पहले २६,८०० वर्गमील क्षेत्र को प्रभावित करती है जिसमें ११,४०० वर्गमील चीन, ११,९०० वर्गमील नेपाल और ३६०० वर्गमील भारत का इलाका शामिल है. उसके उत्तर में ब्रह्मपुत्र, पश्चिम में गंडकी, पूर्व में महानंदा और दक्षिण में गंगा है. कमला, बागमती और बूढ़ी गंडक जैसी नदियां कोसी में आकर मिलती हैं. गंडक और कोसी के चलते लगभग हर मानसून में बिहार में बाढ़ आती है. इसका नतीजा यह होता है कि सालभर में बाढ़ से जितनी मौतें होती हैं उसमें से २० प्रतिशत अकेले बिहार में होती है. नेपाल में कोसी कंचनजंगा के पश्चिमी हिस्से में बहती है. वहां इसमें सनकोसी, तमकोसी, दूधकोसी, इंद्रावती, लिखू, अरूण और तमोर नदियां आकर मिलती हैं. नेपाल के हरकपुर गांव में दूधकोसी आकर सनकोसी में मिलती है. त्रिवेणी में सनकोसी, अरूण और तंवर से मिल जाती है इसलिए इसे यहां सप्तकोसी कहा जाता है. ये नदियां चारों ओर से माउण्ट एवरेस्ट को घेरती हैं और इन सबको दुनिया के सबसे ऊंचे ग्लेशियरों से पानी मिलता है.
चतरा के पास कोसी नदी मैदान में उतरती है और ५८ किलोमीटर बाद भीमनगर पास बिहार में प्रवेश करती है. वहां से २६० किलोमीटर की यात्रा कर यह कुरसेला में गंगा में आकर समाहित हो जाती है. इसकी कुल यात्रा ७२९ किलोमीटर है. पूर्वी मिथिला में यह नदी सबसे १८० किलोमीटर लंबा और १५० किलोमीटर चौड़े कछार का निर्माण करती है जो दुनिया का सबसे बड़ा कछार त्रिशंकु है. कोसी बैराज में १० क्यूबिक यार्ड प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष रेत का जमाव होता है जो दुनिया में सर्वाधिक है. सबसे ज्यादा रेत अरूण नदी के कारण कोसी में पहुंचता है जो कि तिब्बत से निकलती है. यहां इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि चीन की महत्वाकांक्षी तिब्बत रेल परियोजना के कारण भारी मात्रा में अरूण नदी में रेत का प्रमाण बढ़ा है जिसके कारण रेत का जमाव और फैलाव बिहार में बढ़ा है. क्योंकि सप्तकोसी का पानी कोसी में आयेगा और कोसी की तलछट मैदानी इलाके में जमा होगा जिसका सबसे बड़ा हिस्सा भारत में है इसलिए कोसी के मार्ग में आगे भी बदलाव आता रहेगा और मानसून-दर-मानसून बिहार डूबने के लिए अभिशप्त ही बना रहेगा. अगर इससे निजात पाना है तो हमें कुछ स्थायी समाधान के बारे में दीर्घकालिक रणनीतिक के तहत उपाय करने होंगे.
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हिमालय से निकलने वाली कोसी नदी नेपाल से बिहार में प्रवेश करती है। इस नदी के साथ कई कहानियां जुड़ी हुई है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार कोसी का संबंध महर्षि विश्वामित्र से है। महाभारत में इसे `कोशिकी´ कहा गया है। वहीं इस नदी को `सप्तकोसी´ भी कहा जाता है। हिमालय से निकलने वाली कोसी के साथ सात नदियों का संगम होता है, जिसे सन कोसी, तमा कोसी, दूध कोसी, इंद्रावती, लिखू, अरुण और तमार शामिल है। इन सभी के संगम से ही इसका नाम `सप्तकोसी´ पड़ा है। कोसी नदी दिशा बदलने में माहिर है। कोसी के मार्ग बदलने से कई नए इलाके प्रत्येक वर्ष इसकी चपेट में आ जाते हैं। बिहार के पूर्णिया, अरररिया, मधेपुरा, सहरसा, कटिहार जिलों में कोसी की ढेर सारी शाखाएं हैं। कोसी बिहार में महानंदा और गंगा में मिलती है। इन बड़ी नदियों में मिलने से विभिन्न क्षेत्रों में पानी का दबाव और भी बढ़ जाता है। बिहार और नेपाल में `कोसी बेल्ट´ शब्द काफी लोकिप्रय है। इसका अर्थ उन इलाकों से हैं, जहां कोसी का प्रवेश है। नेपाल में `कोसी बेल्ट´ में बिराटनगर आता है, वहीं बिहार में पूर्णिया और कटिहार जिला को कोसी बेल्ट कहते हैं।
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