रक्षा बंधन पर रक्षा सूत्र : संघ का महाभियान
रक्षाबंधन : संघ के महाभियान का एक चरणरूप
August 06, 2014http://vskbharat.com
(लेखक डा. कृष्ण गोपाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह हैं)
रक्षा बंधन के पर्व का महत्व भारतीय जनमानस में प्राचीन काल से गहरा बना हुआ है. यह बात सच है कि पुरातन भारतीय परंपरा के अनुसार समाज का शिक्षक वर्ग होता था, वह रक्षा सूत्र के सहारे इस देश की ज्ञान परंपरा की रक्षा का संकल्प शेष समाज से कराता था. सांस्कृतिक और धार्मिक पुरोहित वर्ग भी रक्षा सूत्र के माध्यम से समाज से रक्षा का संकल्प कराता था. हम यही पाते हैं कि किसी भी अनुष्ठान के बाद रक्षा सूत्र के माध्यम से उपस्थित सभी जनों को रक्षा का संकल्प कराया जाता है. राजव्यवस्था के अन्दर राजपुरोहित राजा को रक्षा सूत्र बाँध कर धर्म और सत्य की रक्षा के साथ साथ संपूर्ण प्रजा की रक्षा का संकल्प कराता था. कुल मिलाकर भाव यही है कि शक्ति सम्पन्न वर्ग अपनी शक्ति सामर्थ्य को ध्यान में रखकर समाज के श्रेष्ठ मूल्यों का एवं समाज की रक्षा का संकल्प लेता है. संघ के संस्थापक परम पूज्य डॉक्टर साहब हिन्दू समाज में सामरस्य स्थापित करना चाहते थे तो स्वाभाविकरूप से उनको इस पर्व का महत्व भी स्मरण में आया और समस्त हिन्दू समाज मिलकर समस्त हिन्दू समाज की रक्षा का संकल्प ले, इस सुन्दर स्वरूप के साथ यह कार्यक्रम (उत्सव) संघ में स्थापित हो गया.
वैसे तो हिन्दू समाज के परिवारों में बहिनों द्वारा भाइयों को रक्षा सूत्र बांधना, यह इस पर्व का स्थायी स्वरूप था. संघ के उत्सवों के कारण इसका अर्थ विस्तार हुआ. सीमित अर्थों में न होकर व्यापक अर्थों में समाज का प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक वर्ग की रक्षा का संकल्प लेने लगा. समाज का एक भी अंग अपने आपको अलग-थलग या असुरक्षित अनुभव न करने पाये – यह भाव जाग्रत करना संघ का उद्देश्य है.
महाविकट लंबे पराधीनता काल के दौरान समाज का प्रत्येक वर्ग ही संकट में था. सभी को अपने अस्तित्व की सुरक्षा एवं प्राण रक्षा की चिंता थी. इस कारण समज के छोटे-छोटे वर्गों ने अपने चारों ओर बड़ी दीवारें बना लीं. समाज का प्रत्येक वर्ग अपने को अलग रखने में ही सुरक्षा का अनुभव कर रहा था. इसका लाभ तो हुआ, किंतु भिन्न-भिन्न वर्गों में दूरियां बढ़तीं गईं. हिन्दू समाज में ही किन्हीं भी कारणों से आया दूरी का भाव बढ़ता चला गया. कहीं-कहीं लोग एक दूसरे को स्पर्श करने से भी भयभीत थे. कुछ लोग, कुछ लोगों की परछाईं से भी डरने लगे. जातियों के भेद गहरे हो गये. भाषा और प्रांत की विविधताओं में कहीं-कहीं सामञ्जस्य के स्थान पर विद्वेष का रूप प्रकट होने लगा. यह विखण्डन का काल था. ऐसा लगता था कि हिन्दू समाज अनगिनत टुकड़ों में बंट जायेगा. सामञ्जस्य एवं समरसता के सूत्र और कम होते गये. विदेशी शक्तियों ने बजाय इसके कि इसको कम किया जाये, आग में घी डालने का काम किया. विरोधों का सहारा लेकर खाई को चौड़ा किया. विविधता में विद्वेष पैदा करने में वे लोग सिद्धहस्त थे.
कार्यक्रम के उपरांत स्वयंसेवक अपने समाज की उन बस्तियों में चले जाते हैं जो सदियों से वंचित एवं उपेक्षित हैं. वंचितों एवं उपेक्षितों के बीच बैठकर उनको भी रक्षा सूत्र बांधते और बंधवाते हुए हम उस संकल्प को दोहराते हैं जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- समानम् सर्व भूतेषु. यह अभूतपूर्व कार्यक्रम है जब लाखों स्वयंसेवक इस देश की हजारों बस्तियों में निवास करने वाले लाखों वंचित परिवारों में बैठकर रक्षा बंधन के भाव को प्रकट करते हैं. विगत वर्षों के ऐसे कार्यक्रमों के कारण हिंदू समाज के अंदर एक्य एवं सामरस्य भाव-संचार का गुणात्मक परिवर्तन दिखाई दे रहा है. इसके पीछे संघ के इस कार्यक्रम की महती भूमिका है. भाव यही है कि सम्पूर्ण समाज, सम्पूर्ण समाज की रक्षा का व्रत ले. लोग श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की रक्षा का व्रत लें. सशक्त, समरस एवं संस्कार संपन्न समाज ही किसी देश की शक्ति का आधार हो सकता है. इसी प्रयत्न में संघ लगा है. रक्षा बंधन का यह पर्व इस महाअभियान के चरणरूप में है.
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