गोवर्धन पूजन : अहंकार के विनाश और प्रकृति के उपकार का पर्व
इंद्र के अहंकार के विनाश और प्रकृति के सहयोगी उपकार को नमन का पर्व
प्रकृति की उपासना का पर्व है गोवर्धन पूजन
वाई. सी. शर्मा / आभार नवभारत टाईम्स
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दीपावली के दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को गोवर्धन पूजन किया जाता है। इसके लिए महिलाएं गाय के गोबर से गोवर्धन की मानव आकृति बनाती हैं। उसके चारों तरफ गाय, बछड़े तथा अन्य पशुओं की भी आकृति बनाई जाती है। बीच में श्रीकृष्ण की तथा कहीं-कहीं पाँचों पांडवों की भी आकृति बनाने की परंपरा है। चारों तरफ गोबर की छोटी दीवार बनाकर उसके द्वार पर एक ग्वाले की भी आकृति बनाई जाती है और उसके हाथ में एक छोटी लकड़ी थमा दी जाती है। शाम को उसका पूजन किया जाता है। कहीं-कहीं गोवर्धन बनाने की औपचारिकता न कर गोबर का केवल ढेर इकट्ठा करके उसे पहाड़ की आकृति दे दी जाती है और उसी का पूजन किया जाता है।
इसी दिन अन्नकूट का भी आयोजन होता है। अन्नकूट का अर्थ होता है अन्न का पहाड़। मूलतरू अन्नकूट का आयोजन गोवर्धन पूजन के निमित्त ही था। किन्तु अब कहीं-कहीं नवान्न से अन्नकूट का आयोजन प्रात: काल होता है तथा संध्या को गोवर्धन पूजन के लिए अलग से पकवान बना लिए जाते हैं। गोवर्धन के दिन एक और विशेष आयोजन होता है मुख्यतः बैल पूजन , आजकल टेकटर पूजन का आयोजन ।
गाय को लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है और इसलिए कहीं-कहीं तो दीपावली के दिन ही लक्ष्मी पूजन के बाद गऊ पूजन की परंपरा है। गोवर्धन के साथ तो गाय का विशेष संबंध है। इसलिए इस दिन गोधन के पूजन का, गाय, बछड़े तथा बैल का विशेष सम्मान / पूजा की जाती है। उन्हें विभिन्न रंगों में रंगा जाता है तथा उनके गले में माला, घंटियां, घुंघरू तथा अन्य इसी प्रकार के आभूषण पहनाए जाते हैं और तरह-तरह के पकवान खिलाए जाते हैं। इस दिन राजस्थान में कुछ स्थानों पर बैलों की दौड़ का भी आयोजन किया जाता है। छत्तीसगढ़ में इस दिन यादव लोग ढाल-तलवार से सज्जित होकर नाचते-गाते हैं।
गोवर्धन पर्वत के महात्म्य के बारे में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है। उस समय अन्नकूट पर देवराज इन्द्र की पूजा होती थी। इससे इन्द्र को अभिमान हो गया था। बृजवासियों का मानना था कि इन्द्र ही उनके लिए वर्षा करते हैं। कृष्ण ने कहा कि इंद्र की वजह से नहीं, गोवर्धन पर्वत की वजह से बृजभूमि धनधान्य से भरपूर रहती है। उनके कहने पर बृजवासियों ने इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा की। इससे क्रुद्ध होकर इन्द्र ने अपने मेघों को आदेश दिया कि वे वर्षा से बृजभूमि को डुबो दें। घनघोर वर्षा शुरू हुई तो बृजवासी घबराकर कृष्ण की शरण में गए। कृष्ण ने उन्हें अभय करते हुए कहा कि अब गोवर्धन ही उनकी सहायता करेंगे। कृष्ण ने अपनी तर्जनी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। सभी बृजवासी उसके नीचे आ गए। पूरे सात दिनों तक वर्षा होती रही, लेकिन बृजवासियों का वह कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी।
इस पौराणिक कथा में पहाड़ों तथा वृक्षों के महत्व की ओर संकेत है। संभव है इस कथा को अतिशयोक्ति से काल्पनिक स्वरूप दे दिया गया हो। पर किसी भी देवी-देवता की तुलना में प्राकृतिक सम्पदा को अधिक महत्व देने की दृष्टि से ही संभवत कृष्ण ने गोवर्धन पूजन की परंपरा शुरू की होगी और संयोगवश उसके तत्काल बाद घनघोर वर्षा शुरू हो गई होगी। उस वर्षा से बचने के लिए बृजवासियों ने कृष्ण के परामर्श के अनुसार गोवर्धन पर्वत पर चढ़कर अपनी रक्षा की होगी।
हमारा देश कृषि प्रधान है और इसलिए हमारे अधिकतर त्योहारों का संबंध कृषि से ही रहा है। इस दृष्टि से गोवर्धन पूजन की परंपरा पूर्णतरू हमारी कृषि परंपरा पर आधारित है। यह पर्व हमें अभिमान से दूर रहने का संकेत अवश्य देता है, लेकिन उससे भी अधिक यह हमारे गोधन के महत्व पर प्रकाश डालता है। खाद के रूप में गोबर के विशिष्ट महत्व और उसके सदुपयोग की आवश्यकता पर बल देता है। यह हमारे जंगल और पहाड़ों के महत्व की तरफ संकेत करता है जो हमारे लिए और हमारे पशुधन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यदि हम इन संकेतों को समझकर उनके अनुरूप आचरण करें, तभी इस पर्व की सार्थकता है।
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