छठ पूजा : सूर्य की सांध्य पूजन का महामेला



छठ पूजा / Chhath Pooja
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दीपावली के एक सप्ताह पश्चात् बिहार में छठ का पर्व मनाया जाता है। एक दिन व रात तक समूचा बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश गंगा के तट पर बसा प्रतीत होता है। इस दिन सूर्यदेव की उपासना व उन्हें अर्ध्य दिया जाता है। भारत के बिहार प्रदेश का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है—सूर्यषष्ठी। यह पर्व मुख्यतः भगवान सूर्य का व्रत है। इस व्रत में सर्वतोभावेन सूर्य की पूजा की जाती है। वैसे तो सूर्य के साथ सप्तमी तिथि की संगति है, किन्तु बिहार के इस व्रत में सूर्य के साथ 'षष्ठी' तिथि का समन्वय विशेष महत्व का है। इस तिथि को सूर्य के साथ ही षष्ठी देवी की भी पूजा होती है। पुराणों के अनुसार प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं; जो कि सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी गई है। ये लोक के समस्त बालकों की रक्षिका देवी है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम "षष्ठी" भी है। षष्ठी देवी का पूजन–प्रसार ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राजा प्रियव्रत के काल से आरम्भ हुआ। जब षष्ठी देवी की पूजा 'छठ मइया' के रूप में प्रचलित हुई। वास्तव में सूर्य को अर्ध्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय भारतीय जनमानस में इस प्रकार को गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है। वास्तव में ये दो अलग–अलग त्यौहार हैं। सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है।

छठ बिहार का प्रमुख त्यौहार है। छठ का त्यौहार भगवान सूर्य को धरती पर धन–धान्य की प्रचुरता के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। लोग अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी इस पर्व को मनाते हैं। पर्व का आयोजन मुख्यतः गंगा के तट पर होता है और कुछ गाँवों में जहाँ पर गंगा नहीं पहुँच पाती है, वहाँ पर महिलाएँ छोटे तालाबों अथवा पोखरों के किनारे ही धूम–धाम से इस पर्व को मनाती हैं।

छठ महोत्सव और धार्मिक कर्मकाण्ड
चुंकि इस त्यौहार पर न तो किसी मन्दिर में पूजा हेतु जाया जाता है, और न ही घर की कोई विशेष सफ़ाई की जाती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह पर्व बहुत ही आसानी से या बिना किसी कर्मकाण्ड के मना लिया जाता है। लेकिन ऐसा नहीं है, बल्कि इस त्यौहार पर इतने कर्मकाण्ड होते हैं कि विशेष अनुष्ठानों की तुलना में तो मध्यकालीन फ्राँसीसी विधान भी तुच्छ प्रतीत होंगे।

स्नान एवं उपवास
सांध्य सूर्यपूजा के एक दिन पहले, श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। पूरे दिन में उपवास रखा जाता है तथा श्रद्धालु देर शाम तक पूजा के बाद ही उपवास तोड़ते हैं।

प्रसाद एवं अर्पण की वस्तुएँ
चावल का हलुआ, पूड़ी तथा केला—ये ही इस दिन की विशेष भोजन सामग्री हैं। अर्पण के पश्चात् इन्हीं भोज्य पदार्थों को मित्रों एवं सम्बन्धियों में बाँटा जाता है। लोग बड़ी ही श्रद्धा से इसे खाते हैं।

शुभ दिन-संझा वाट
दूसरे दिन चौबीस घंटे का उपवास प्रारम्भ होता है। दिनभर प्रसाद बनाने की तैयारी होती है तथा संध्या को भक्तगण छठ मैया का गीत गाते हुए नदी तट, जलकुण्ड या तालाब पर पहुँच जाते हैं। वहाँ पर अस्त होते हुए सूर्य को उपर्युक्त प्रसाद का अर्पण किया जाता है। रात्रि के समय श्रद्धालु घर लौटते हैं, जहाँ पर एक अन्य महोत्सव प्रतीक्षारत होता है। गन्ने की टहनियों से बने एक छत्र के नीचे दीपयुक्त मिट्टी के हाथी व प्रसाद से भरे बर्तन रखे जाते हैं। श्रद्धालु उपवास के समय जल भी ग्रहण नहीं करते हैं। सूर्योदय से ठीक पहला, भक्तगण नदी तट की ओर पुनः छठ मैया के गीत गाते हुए प्रस्थान करते हैं तथा उदयमान सूर्य की उपासना अर्चना करते हैं। प्रार्थना के पश्चात् प्रत्येक व्यक्ति को प्रसाद प्रदान किया जाता है। इस प्रसाद में विशेष रूप से पत्थर की सिल पर पीसे हुए आटे का प्रयोग होता है। इस आटे को देर तक तला जाता है तथा इसमें मीठा डालकर इसकी गोलकार गठ्ठियाँ बनायी जाती हैं, जिसे "ठेकुआ" कहते हैं। इसके अलावा इस विशेष प्रसाद में अंगूर, पूरा नारियल, केले व मसूर की दाल के दाने भी होते हैं। पूजा के समय ये सभी वस्तुएँ बाँस की अर्धगोलाकार टोकरियों में रखी जाती हैं। इन टोकरियों का "सूप" कहते हैं।
रंग-बिरंगा उत्सव है

छठपर्व अत्यन्त रंग–बिरंगा उत्सव है, जिसमें श्रद्धालुओं को नये वस्त्र धारण करना आवश्यक होता है। घर व नदी के तट पर संगीत के सुर भक्ति व लोकभाषा से महक उठते हैं। पटना में लाखों लोग गंगा के तट पर मीलों लम्बी कतारों में बैठे रहते हैं। पर्व से उत्पन्न यह आपसी मेल–जोल अनूठा ही प्रतीत होता है।

नियम एवं व्रत पालन
जैसे ही दीपावली का आनन्द शान्त होता दिखाई पड़ता है, छठ की छटा खिल उठती है। प्रौढ़ विवाहित स्त्रियाँ ही सभी तैयारियाँ करती हैं। एक ओर आयु में कम स्त्रियाँ व बच्चे घर के अन्य कार्यों का सम्भालते हैं, दूसरी ओर प्रौढ़ स्त्रियाँ उन वस्तुओं की भली–भाँति सफ़ाई–धुलाई करती हैं, जिनका प्रयोग पूजा, प्रसाद में होता है। सभी वस्तुओं की चाहे वह रसोई का चूल्हा हो, करछुल हो, पकान में प्रयोग आने वाली पकड़ हो या भूनने का पात्र–सबकी पूरी तरह से सफ़ाई की जाती है। नये पीसे हुए चावलों की लेई बनाई जाती है। सूखी मेवा व नारियाल के टुकड़ों को स्वाद बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता है। इनको आटे में मिला कर लड्डू बनाए जाते हैं। पारम्परिक व्यंजन 'ठेकुआ' गेहूँ के मड़े हुए आटे को विभिन्न आकारों में काटकर बनाया जाता है। इसके लिए काष्ठ के साँचों का भी प्रयोग किया जाता है। तत्पश्चात् इसे गाढ़े भूरे रंग का होने तक तला जाता है। तलने के बाद यह अत्यन्त कुरकुरा हो जाता है तथा बड़े ही स्वाद से खाया जाता है। पश्चिम के देशों में लोकप्रिय व्यंजन "कुकी" की भाँति ही इसमें घर का बना मक्खन, बहुत सा गुड़ तथा नारियल डाला जाता है।

इस प्रसाद को बनाने के लिए गृहस्थ प्रौढ़ महिला कुछ नियमों का पालन करती है। जैसे वह पका हुआ खाना नहीं खाती तथा सिले हुए वस्त्र नहीं पहनतीं। रसोई में जाने से पहले प्रत्येक व्यक्ति का स्नान करना आवश्यक होता है। 

सांध्य पूजन का महामेला
समवेत स्वर में लोकप्रिय भक्ति संगीत गाते हुए लोगों के छोटे–छोटे समूह प्रत्येक घर से निकलते हैं और नदी तट तक पहुँचते–पहुँचते ये जुलूस एक विशाल जनसमूह का रूप ले लेते हैं। जुलूस में सम्मिलित पुरुष अपने वक्ष को नग्न रखते हैं तथा प्रसाद को बाँस की छोटी–छोटी टोकरियों में लेकर चलते हैं। इन टोकरियों को जाने–अनजाने जूठा होने से बचाने के लिए ऊँचाई पर रखा जाता है। इन टोकरियों में लड्डू, ठेकुआ तथा मौसमी फल होते हैं। नारियल, केले के गुच्छे, एक–दो सन्तरे इत्यादि को हल्दी में रंगे कपड़े से ढंका जाता है। इन पदार्थों के अतिरिक्त एक मिट्टी का दीपक भी इन टोकरियों में रखा जाता है।

जैसे ही सूर्यास्त होता है, प्रार्थना–पूजा आरम्भ हो जाती है। नदी तट पर किसी का फिसलना या कोई भूल करना एक दैविक संकट का प्रतीक माना जाता है। नवशीत में पश्चिम के ओजस्वी आकाश ललाट पर श्रद्धा–भक्ति–प्रेम का वांग्मय दृश्य प्रकाशित हो उठता है–सहस्रों उठे हस्त धारण करते हैं, बाँस की थालियाँ व टोकरियाँ। मध्यम लौ में प्रकाशित ढके हुए दीपक मंत्रोच्चारित वातावरण को देदीप्यमान कर देते हैं। पल बीतता है, मुखाकृतियाँ धूमिल हो उठती हैं और अंधेरा होते ही जनसमूह नदी तट से वापस घर लौटना प्रारम्भ करता है।
नवोदित सूर्य की अर्चना का महोत्सव

अस्ताचल सूर्य को श्रद्धाजंली प्रदान करने के पश्चात् अब समय होता है, सूर्योदय प्रार्थना की तैयारी का। यह पूजा विधान का अभिन्न अंग है। नदी तट की ओर यात्रा उषा से ही प्रारम्भ हो जाती है। कृष्णपक्ष के चन्द्रमा के कारण बाहर आकाश मार्ग वृक्ष की भाँति काला प्रतीत होता है। ओस से भीगी घास व प्रवाहित होते जल की ध्वनि ही नदी तट निकट होने का संकेत देती है। इस समय सभी पूर्व की ओर मुख करते हैं और नदी में स्नान के लिए आगे बढ़ते हैं। इसी बीच टोकरियों को एक अस्थाई मण्डप के नीचे सुरक्षित रखा जाता है। इस मण्डप को ताज़ा उपजे गन्ने की टहनियों से बनाया जाता है। इसके लिए एक विशेष ढाँचा बनाया जाता है, तथा इसके कोनों को हाथी व पक्षी के रूप में बनाए मिट्टी के दीपकों से सजाया जाता है। निर्मलता व शुद्धि रखने व क्रूर दुरात्माओं को दूर रखने के लिए चन्दन का लेप, सिन्दूर, भीगे चावल, फल व पुष्प भी रंगे हुए लाल सूती वस्त्र के भीतर रखे जाते हैं। जैसे ही सूर्य की किरणें उदित होती हैं, साड़ी व धोती पहने स्त्री–पुरुष उथले पानी में कूद पड़ते हैं। पैर जमाकर ये लोग जल की अतिशीतलता को भूल जाते हैं तथा ऋग्वैदिक के उस कालातीत मंत्र, जो विशेष रूप से सूर्य के लिए है—गायत्री मंत्र—का उच्चारण करते हुए स्नान कर सूर्य की श्रद्धा से पूजा करना प्रारम्भ करते हैं।

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छठ पूजा का इतिहास
शोध / प्रस्तुति  - शिवकुमार सिंह कौशिकेय
साहित्यकार , पुरोविद , अध्यात्मतत्ववेत्ता
http://kaushikey.blogspot.in/2011/11/blog-post.html
सूर्य और षष्ठी तिथि के पूजन की परम्परा जो आज मात्र भोजपुरी , मैथिली क्षेत्र मे सिमट गयी है । यह सूर्य पूजा कभी अफ़्रीका , अमेरिका महाद्वीप तक फ़ैली थी । सूर्य पूजा की परम्परा आदित्य कुल के भार्गवो ने शुरु करायी । हिस्टोरियन हिस्ट्री आफ़ दी वल्ड एवं मिश्र के पिरामिडो से मिले प्रमाणो के अनुसार महर्षि भृगु के वंशज भार्गवो ने जिन्हे इस महाद्वीप पर हिस्त्री , खूफ़ू ..., मनस नामो से जाना गया । इन लोगो ने यहां सूर्य पूजा की परम्परा हजारो साल चलायी । इस तथ्य की जानकारी मिश्र के अलमरना मे हुई खुदाई से मिले पुरातात्विक साक्ष्यो और अमेरिकी विद्वानो कर्नल अल्काट , ए0डी0मार , प्रो0 ब्रुग्सवे के शोध ग्रन्थो से की जा सकती है ।
इसी प्रकार अमेरिका महाद्वीप पर 12अक्टूबर 1492 तक यह परम्परा कायम रही है । 12अक्टूबर 1492 को जब क्रिस्टोफ़र कोलम्बस नाम के पुर्तगाली नाविक यहां पहुंचे । उस समय इस महाद्वीप पर 10लाख सूर्य पूजक इण्डियन _ रेड इण्डियन भारतीय मूल के भार्गव वशी मय _ माया के वंशज मौजूद थे । जिनका कत्लेआम , इस जमीन पर कब्जा करने के लिए यूरोपवासियों ने बड़ी बेरहमी से किया । इस तथ्य को अमेरिकी विद्वानो चेसली बैटी की पुस्तक अमेरिका बिफ़ोर कोलम्बस , प्रो0हेम्बेरटो की पुस्तक - थाउजेण्ड इयर ओल्ड सिविलेजेशन इन अमेरिका , हेरिसन की पुस्तक _ इण्डिया इन द यूनाइटेड स्टेट और कम्पाजेट की पुस्तक _ दी हेरिटेज आफ़ अमेरिका मे देखा जा सकता है । इसके अतिरिक्त अमेरिका के ग्वालेटा यूक्जाक्टन और मैक्सिको मे हुई , पुरातात्विक खुदाईयो मे भी इसके प्रमाण मिले है ।
इंसान ने जब अपनी जिज्ञासा की आंखे खोली तो उसे सबसे पहले एक वह तारा दिखा जो रोज उसके लिए उजाला और अपनी गर्मी से शरीर को ताजगी देने आ जाता था । जिससे शिकार करने मे , अपने रहने के लिए नया बसेरा खोजने मे काफ़ी सुविधा हो जाती थी । प्राचीन इतिहासकार रांगेय राघव अपनी पुस्तक महागाथा मे लिखते है कि उस समय लोग मानते थे कि ये देवता महासागर मे रहते है । रोज हमे जगाने और खिलाने के लिए आते है ।
.महाप्रलय के बाद जिस कालखण्ड मे जिसमे हमलोग आज है । माता अदिति के सबसे छोटे पुत्र आदित्य के नाम पर रोज उजाला लेकर आने वाले इस चमकीले तारे का नाम आदित्य रख दिया । कालान्तर मे जब इस आदित्य ने इस नक्षात्र की चाल गति उष्मा , प्रकाश , ऊर्जा का अध्ययन किया , तब उसे परिभाषित करके इस ग्रह का नाम सूर्य रखा । इस ग्रह की प्रथम विवेचना करने वाले सूर्य _ विवस्वान _ आदित्य के नाम मे इस ग्रह के बारे मे शोध करने वाले मनीषियो के नाम आगे जुड़ते रहे । जैसे _ मित्रावरुण के नाम से सूर्य का नाम मित्राय _ अरुण पड़ा । भास्कराचार्य के नाम पर भास्कर _ भानु , खगाय , पूष्णे आदि नाम ऐसे ही पड़े है ।
आगे भी जब कोई विद्वान सूर्य के बारे मे उल्लेखनीय शोध करेगा तो उसका भी नाम इस ग्रह के नाम से जुड़ कर चमकने लगेगा ।

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर आलेख.छठ पर्व की बहुत अच्छी जानकारी.

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  2. छठ पूजा से सम्बधित सम्पूर्ण जानकारी सहित संग्रहणीय आलेख !
    आभार !

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