अद्वितीय वीरतापूर्ण संघर्ष पूर्ण बलिदानी मेजर शैतान सिंह पर बनी थी फ़िल्म हकीकत....

18 नवम्बर/इतिहास-स्मृति
(मेजर शैतान सिंह स्मृति दिवस)

अन्तिम सांस तक संघर्ष

भारतीय वीर सैनिकों के बलिदान की गाथाएं विश्व इतिहास में यत्र-तत्र स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। चाहे वह चीन से युद्ध हो या पाकिस्तान से; हर बार भारतीय वीरों ने अद्भुत शौर्य दिखाया है। यह बात दूसरी है कि हमारे नेताओं की मूर्खता और समझौतावादी प्रवृत्ति ने रक्त से लिखे उस इतिहास को कलम की नोक से काट दिया। 18 नवम्बर 1962 को चुशूल में मेजर शैतान सिंह और उनके 114 साथियों का अप्रतिम बलिदान इसका साक्षी है।

उत्तर में भारत के प्रहरी हिमालय की पर्वत शृंखलाएं सैकड़ों से लेकर हजारों मीटर तक ऊंची हैं। मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 13वीं कुमाऊं की 'सी' कम्पनी के 114 जवान शून्य से 15 डिग्री कम की हड्डियां कंपा देने वाली ठंड में 17,800 फुट ऊंचे त्रिशूल पर्वत की ओट में 3,000 गज लम्बे और 2,000 गज चौड़े रजांगला दर्रे पर डटे थे। 

वहां की कठिन स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि चाय बनाने के लिए पानी को कई घंटे तक उबालना पड़ता था। भोजन सामग्री ठंड के कारण बिलकुल ठोस हो जाती थी। तब आज की तरह आधुनिक ठंडरोधी टैंट भी नहीं होते थे। 

उन दिनों हमारे प्रधानमंत्री नेहरू जी 'हिन्दी-चीनी, भाई-भाई' के नशे में डूबे थे, यद्यपि चीन की सामरिक तैयारियां और उसकी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति देखकर सामाजिक रूप से संवेदनशील अनेक लोग उस पर शंका कर रहे थे। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी भी थे। उस समय हमारे सैनिकों के पास शस्त्र तो दूर, अच्छे कपड़े और जूते तक नहीं थे। नेहरू जी का मत था कि यदि हम शांति के पुजारी हैं, तो कोई हम पर आक्रमण क्यों करेगा ? पर चीन ऐसा नहीं सोचता था। 

18 नवम्बर 1962 को भोर में चार बजकर 35 मिनट पर चीनी सैनिकों रजांगला दर्रे पर हमला बोल दिया; पर उन्हें पता नहीं था कि उनका पाला किससे पड़ा है। मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में भारतीय सैनिक शत्रु पर टूट पड़े। उन्होंने अंतिम सांस और अंतिम गोली तक युद्ध किया। पल्टन के सब सैनिक मारे गये; पर चीन का कब्जा वहां नहीं हो पाया। कैसी हैरानी की बात है कि इस युद्ध का पता दिल्ली शासन को महीनों बाद तब लगा, जब चुशूल गांव के गडरियों ने सैनिकों के शव चारों ओर छितरे हुए देखे। 

सर्दियां कम होने पर जब भारतीय जवान वहां गये, तब पूरा सच सामने आया। भारतीय सैनिकों के हाथ बंदूक के घोड़े (ट्रिगर) पर थे। कुछ के हाथ तो हथगोला फेंकने के लिए तैयार मुद्रा में मिले। इसी स्थिति में वे जवान मातृभूमि की गोद में सदा के लिए सो गये। भारतीय सीमा में एक हजार से भी अधिक चीनी सैनिकों के शव पड़े थे। स्पष्ट था कि अपना बलिदान देकर 13वीं कुमाऊं की 'सी' कम्पनी ने इस महत्वपूर्ण चौकी की रक्षा की थी।

चीन से युद्ध समाप्त होने के बाद मूलतः जोधपुर (राजस्थान) निवासी मेजर शैतान सिंह को परमवीर चक्र, आठ सैनिकों को वीर चक्र तथा चार को सेना पदक दिया गया। सर्वस्व बलिदानी इस पल्टन को भी सम्मानित किया गया। 

इस युद्ध की स्मृति में रजांगला में एक स्मारक बना है, जिस पर 114 सैनिकों के नाम लिखे हैं। पास में ही 'अहीर धाम' बना है, चूंकि उस पल्टन के प्रायः सभी सैनिक रिवाड़ी (हरियाणा) के आसपास के अहीर परिवारों के थे। इस बलिदानी युद्ध से प्रेरित होकर एम.एस.सथ्यू ने 'हकीकत' फिल्म बनायी, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुई।  

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