राजपूत शौर्य की कोई सानी नहीं
इतिहास में हार-जीत होती रहती है। मुद्दे की बात है कि कौन स्पिरिट ज़िंदा रख पाता है। इज़राइल भी खदेड़ा गया था, लेकिन उसने अपनी स्पिरिट ज़िंदा रखी और आज वह अजेय देश है।
राजपूत राजा हारे या जीते; लेकिन उन्होंने " हिंदुत्व " की स्पिरिट की ज़िंदा रखा, इससे बढ़कर किसी का क्या अवदान हो सकता है आगामी पीढ़ियों के लिए ?
कासिम के आगमन से लेकर तराइन के दूसरे युद्ध तक पूरे भारत पर होने वाले आक्रमणों को यही राजपूत यौद्धा रोकते रहे। यही राजस्थान ढाल बनकर खड़ा था, आप जिसका बात-बात पर उपहास उड़ाते नहीं थकते।
या तो आप कहिए कि राजा अपने राज्यों के लिए लड़ रहे थे, फिर आप यह नहीं कह सकते कि उन्होंने किसका साथ दिया और क्यों दिया ... क्योंकि उन्हें हिंदुओं से मतलब नहीं था, सिर्फ राज चाहिए था। या आप कहिए कि हरेक राजा जितना भी उसके लिए शक्य था, हिंदुत्व की स्पिरिट को संरक्षित करने का काम कर रहा था।
आपके लिए यह कहना आसान है कि फलाँ युद्ध हार गए, फलाँ ने साथ नहीं दिया; भले आपको तत्कालीन स्थितियों का भान न हो। क्या आप जानते हैं कि इन राजपूत राजाओं के सामने एकमात्र चुनौती म्लेच्छ शत्रु ही नहीं थे; उन्हें अकाल से भी लड़ना था। एक सामान्य ठाकुर, जिसके खुद के खाने के लाले पड़ते हों, लेकिन अकाल पड़ा तो अपने अन्न-भंडार खोल दिये। ऐसा एक-दो नहीं, हजारों ठाकुरों-सामंतों ने किया। आप ख्यातों में पढ़ सकते हैं।
पहले तो आप अपनी लाइन क्लियर कर लीजिए।
आप ऐसे राजा की वंदना करते हैं, जिसने मन्दिर बनवाये - फिर आप मानसिंह की भी प्रशंसा कीजिए।
आप ऐसे विदेशी यौद्धा की प्रशस्ति पढ़ते हैं, जो अजेय यौद्धा था - फिर आप मानसिंह की प्रशस्ति भी पढ़िए। उसने हल्दी घाटी को छोड़कर एक युद्ध नहीं हारा।
आप राजपूतों को गाली देना चाहते हैं, तो ठहरिए; इसी मानसिंह के दादाजी, प्रताप के दादाजी के ध्वज के नीचे बाबर के विरुद्ध खानवा में लड़े थे।
मेरा मानसिंह के प्रति रत्तीभर सम्मान नहीं, लेकिन आप तो अपनी लाइन क्लियर कर लीजिए कि आप किसे और क्यों महत्वपूर्ण मानते हैं। आप इतिहास-मंथन से क्या तत्त्व निकालना चाहते हैं ?
इतिहास के पास एक साक्ष्य नहीं है, लेकिन आप जयचंद को गद्दार बनाकर घूम रहे हैं।
मालदेव पितृहन्ता नहीं था, लेकिन बना दिया गया; क्योंकि ख्यात की एक पंक्ति का अर्थ अशुद्ध निकाल दिया गया और वह घटना राजपूतों के विरुद्ध काम आ सकती थी। उस ख्यात का अनुवाद ऐसा व्यक्ति करता है जिसे राजस्थानी भाषा का ककहरा भी नहीं आता।
कमाल है, आप हजारों निर्दोष हिंदुओं का कत्लेआम करने वाले अकबर को लोदियों से कम नृशंस मानते हो ?
आप औरंगजेब की बर्बरताओं को तुलना की तुला पर रखते हो ?
फिर आप यह भी कहते हो कि आप इतिहास को आत्म-परीक्षण की दृष्टि से देखते हो। हद्द कर रहे, इससे बढ़िया तो वामी इतिहासकार हैं।
जसवंत सिंह औरंगजेब के अधीन थे, लेकिन जैसे ही औरंगजेब मारवाड़ के मंदिर तोड़ने की घोषणा करता है, जसवंत सिंह काबुल की सारी मस्जिदे तोड़ने का फरमान जारी कर देते हैं।
वह तो मुगलों के अधीन थे न,, फिर उन्होंने मन्दिर तोड़ने की बात पर इतना आक्रोश क्यों दिखाया ? क्योंकि उनमें हिन्दू स्पिरिट ज़िंदा थी।
कान्हड़देव मुट्ठी भर सैनिकों के साथ खिलजी की सेना का रास्ता रोक देते हैं, जब वह सोमनाथ से शिवलिंग लेकर दिल्ली जा रही होती है।
प्रताप गुजरात से लौट रही अकबर की सेना से टैक्स वसूल लेते हैं।
कल्ला रायमलोत जहांगीर को विवाह के बदले जूतों की माला पहना देता है।
आप पढ़िए कि इल्तुतमिश ने कितनी बार जूते खाये हैं राजस्थान में ?
ऐसे अनेक उदाहरणों से भारतीय इतिहास भरा पड़ा है।
मैं राजपूत राजाओं का गुणगान नहीं कर रहा। लेकिन आप बताएं कि एक गुलाम क़ौम, इतना खुलकर कैसे खेल सकती थी। हम तो मुगलों के हुक्म की तामील कर रहे थे।
महाराणा प्रताप को लेकर स्वयं दक्षिणपंथी भ्रम फैला रहे।
प्रताप अकेले लड़ रहे थे। सफेद झूठ। यह झूठ नहीं, थूक है, जो पलटकर आपके मुँह पर गिरता है।
मारवाड के चन्द्रसेन, सिरोही के राव सुरताण, बूंदी के दुधा, ईडर के राव नारायणदास, डूंगरपुर के सहसमल, ग्वालियर के रामसिंह तोमर ... और भी आसपास के सैनिक प्रताप के साथ खड़े थे।
आप अबुल फजल को पढ़िए और जानिए कि उस समय किस प्रकार प्रताप और उसके सहयोगियों ने मुगलों के व्यापार और हजयात्रा के रस्ते रोक दिए थे।
हल्दीघाटी युद्ध को लेकर पहले वामी इतिहासकारों ने कहा कि वह युद्ध प्रताप हार गए थे। फिर आये दक्षिणपंथी और कहने लगे कि युद्ध अनिर्णय पर छूटा था।
आप मेरी मत मानिए। अकबर की सेना के साथ आये इतिहासकार बदायूनी की पुस्तक " मुन्तख़ब उत तवारीख़ " पढ़ लीजिए। मेरे पास उसका कराची से छपा कोई पुराना अंग्रेजी वर्जन है।
* मुगल सेना मीलों भागती रही। एक जीती हुई सेना भाग रही - कमाल है।
* गोगुन्दा के पास मुगल सेना रात रुकी, तो आसपास के जंगल जलाए ताकि प्रताप की सेना पीछा न कर पाए। जीती हुई सेना में इतना खौफ़ ?
* अकबर ने युद्ध के पश्चात आसफ खां और मानसिंह को दरबार में आने से मना कर दिया। विजयी सेनापतियों को ऐसा उपहार ?
* हल्दी घाटी का युद्ध जून में हुआ था,, उसी साल अक्टूबर में अकबर पुनः चितौड़ पर आक्रमण कर देता है। अर्थात अपने द्वारा जीते हुए राज्य पर युद्ध ? हद्द है।
आप ओढा और मुंडेर के ताम्रपत्र पढ़िए। उनमें उल्लेख है कि प्रताप ने हल्दीघाटी के आसपास की जमीनें दान में दे दीं। अर्थात अकबर की जमीन दान में दी ???
बताएं, आप स्टैंड लेने के लिए तैयार हैं कि हल्दीघाटी का युद्ध प्रताप जीत चुके थे ? क्यों, आत्मालोचन के क्रम में ऐसा स्टैंड नहीं लेना चाहिए ?
अमरसिंह कायर थे, जबकि दिवेर जीत जाते हैं। राव सुरताण दत्तानी के युद्ध में अकबर की सारी सेना का सफाया कर देते हैं। कौन थे ये लोग ?? इतिहास की मुख्यधारा को गोली मारिए, क्या आप इन युद्धों की चर्चा करते हैं ?
आप कितने मुगल बादशाहों के नाम गिनवा सकते हैं, जो स्वयं युद्ध भूमि में हरावल में खड़े होकर लड़ते थे। जबकि ऐसा हर राजपूत राजा किया करता था। राजपूत राजाओं ने पीठ दिखाई होती तो आप और मैं अब इतिहास पर चर्चा नहीं कर रहे होते।
चारणों ने लिखा राजपूतों के पराक्रम पर। सांगा, प्रताप, राजसिंह, अमरसिंह, दुर्गादास, जसवंतसिंह, जगत सिंह, राव जैतसी, राव सुरताण, डूंगरसिंह -- दान दिया, युद्ध लड़े, दुर्ग बनवाए, मन्दिर बनवाए, तालाब खुदवाए। आपको एक क्षण नहीं लगता और आप कह उठते हैं कि चारण चापलूसी करते थे।
मैं समझता हूँ राजपूत राजाओं का ऋण है हम हिंदुओं पर। राजस्थान का तो नाम लेने से पहले दो बार अपने हाथों से कानों को स्पर्श कर लेना चाहिए।
हिन्दू स्पिरिट को इन राजाओं ने ज़िंदा रखा। आप अपना आत्मालोचन अपने पास रखिए। क्योंकि उसकी दृष्टि भी आत्म-विस्मृति से भरपूर है।
आप हार जीत के पलड़े में रखकर इतिहास देखने के पक्षपाती हैं, जो राजपूत राजाओं का सरासर अपमान है।
इति।
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