धर्म और संविधान एक-दूसरे के पूरक
धर्म और संविधान एक-दूसरे के पूरक
- प्रणय कुमार
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Mar 21, 2024 / Panchjay
धर्म और संविधान एक-दूसरे के पूरक
प्रणय कुमार
धर्म और संविधान एक-दूसरे के पूरक
संविधान में समाहित श्रीराम, माता जानकी लक्ष्मण का चित्रण
गत 4 मार्च को पुणे में एक अदालत के भवन की आधारशिला रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति अभय एस. ओका ने कहा, ‘‘न्यायालय परिसर में आयोजित किसी भी कार्यक्रम में पूजा-अर्चना या दीप-प्रज्ज्वलन जैसे अनुष्ठान बंद कर देने चाहिए।’’ उनका कहना था कि इसकी बजाय न्यायालय के किसी भी आयोजन में संविधान की प्रस्तावना की प्रति रखनी चाहिए और उसी के आगे सिर झुकाना चाहिए। इसी कार्यक्रम में न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने न्यायमूर्ति ओका के मत से सहमति जताते हुए कहा, ‘‘किसी धर्म विशेष की पूजा करने के स्थान पर हमें अपने हाथों में फावड़ा लेकर नींव के लिए निशान लगाना चाहिए और दीप प्रज्ज्वलन की बजाय पौधों को पानी देकर कार्यक्रम का उद्घाटन करना चाहिए। इससे पर्यावरण के मामले में समाज में एक अच्छा संदेश जाएगा।’’
इससे एक सप्ताह पूर्व 28 फरवरी को सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ ने कहा था, ‘‘सर्वोच्च न्यायालय के ध्येय-वाक्य ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ को बदल देना चाहिए, क्योंकि सत्य ही संविधान है, जबकि धर्म सदा सत्य नहीं होता।’’ उन्होंने प्रश्न उठाया कि जब अन्य सभी उच्च न्यायालयों और राष्ट्रीय संस्थानों में आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ है, तो सर्वोच्च न्यायालय का आदर्श वाक्य भिन्न क्यों है? रोचक है कि 2018 में एक संगोष्ठी में न्यायमूर्ति जोसेफ ने कहा था, ‘‘कैथोलिक चर्च ने हमेशा दुनिया की अन्य परंपराओं एवं विश्वासों को अपने-आप में आत्मसात किया है। यह हमारे संविधान की प्रस्तावना की तरह ही है, जो ‘हम’ (वी) शब्द से प्रारंभ होती है।’’
सामान्यत: ऐसे तर्कों एवं वक्तव्यों के मूल में या तो रिलीजन, मजहब एवं संप्रदाय आदि को धर्म का पर्याय मानने की भूल होती है या सेकुलरवाद की भ्रामक एवं मिथ्या अवधारणा। हमें याद रखना होगा कि ‘पंथनिरपेक्षता’ मूलत: भारतीय संविधान का हिस्सा नहीं था। इसे आपातकाल के दौरान 42वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से सम्मिलित किया गया था, जब पूरा विपक्ष जेल में था। स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि संविधान सभा ने ‘पंथनिरपेक्षत’ को प्रस्तावना में सम्मिलित नहीं करने का विकल्प क्यों चुना था और बाद में ऐसी कौन-सी परिस्थितियां निर्मित हुईं कि इसे रातों-रात सम्मिलित करने की विवशता आ पड़ी?
उल्लेखनीय है कि संविधान की मूल प्रति में शताब्दियों से चली आ रही राष्ट्रीय, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक परंपरा की महत्ता एवं अस्मिता को रेखांकित करने के लिए 22 चित्र हैं, जिनमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसे सार्वकालिक महानायकों से लेकर हनुमान जी, लक्ष्मण जी, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, राजा भरत, महाराज विक्रमादित्य, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, यज्ञ कराते वैदिक ऋषि आदि प्रमुख हैं। यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि संविधान सभा के सदस्य ‘पंथनिरपेक्षता’ के आज के तथाकथित झंडाबरदारों की तुलना में कहीं अधिक पंथनिरपेक्ष तथा नीति एवं नीयत को लेकर अत्यधिक स्पष्ट, निष्पक्ष एवं पारदर्शी थे। क्या यह सत्य नहीं कि भारत अपनी मूल प्रकृति एवं स्वभाव से ही पंथनिरपेक्ष है? क्या इसमें भी दो राय हो सकती है कि भारत पंथनिरपेक्ष रह सका है, क्योंकि यहां हिंदू बहुसंख्या में हैं?
एकत्व का भाव
वस्तुत: सेकुलरवाद एक ऐसी अवधारणा है, जिसे यूरोप से भारत में आयातित किया गया है। इस अवधारणा का जन्म यूरोप में मध्य युग में हुआ था, जब चर्च और राज्य सत्ता अपने-अपने प्रभाव व कार्य-क्षेत्र के लिए आपस में टकराए थे। वहां की परिस्थिति विशेष के लिए वह एक उचित समाधान रहा होगा, परंतु हमारे यहां कभी भी मजहबी राज्य नहीं था, न ही राज्य-सत्ता व धर्मसत्ता के मध्य कभी कोई टकराव देखने को मिला, इसलिए उस संदर्भ में ‘पंथनिरपेक्षता’ की बात ही अर्थहीन है। हमारे देश में धर्माचार्यों के शासन की नहीं, प्रत्युत अनुशासन की परंपरा अवश्य रही है। धर्म को रिलीजन अथवा पंथ के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि धर्म समग्र जीवन-पद्धत्ति से भी विशालतर अवधारणा है, यह एक ब्रह्मांडीय विचार है, यह वैविध्य में एकत्व देखने की अंतर्दृष्टि है।
पंथ या रिलीजन एक ग्रंथ, एक पंथ, एक प्रतीक, एक पैगंबर को मानने के लिए बाध्य करता है। वह इनके अलावा अन्य किसी मत या सत्य को स्वीकार नहीं करता। जो-जो उनसे असहमत या भिन्न मत रखते हैं, उनके प्रति उनमें निषेध या अस्वीकार ही नहीं, अपितु कई बार घृणा, वैमनस्यता एवं शत्रुता तक पाई जाती है। भिन्न प्रतीकों-चिह्नों या पार्थक्य-बोध को ही वे अपनी अंतिम व एकमात्र पहचान बना लेते हैं। जबकि धर्म पार्थक्य में एकत्व ढूंढने, चेतना-संवेदना को विस्तार देने तथा आंतरिक उन्नयन के प्रयास करता है। वह समरूपता का पोषक नहीं, विविधता, वैशिष्ट्य एवं चैतन्यता का संरक्षक है।
सनातन संस्कृति में धर्म एक व्यापक अवधारणा है, जो मानव मात्र के लिए है, किसी समूह या जाति विशेष के लिए नहीं। इसीलिए हर यज्ञ-अनुष्ठान के बाद सनातन संस्कृति में धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, जैसी मंगलकामनाएं की जाती हैं। वहां किसी विशेष मत, पंथ, संप्रदाय एवं समुदाय आदि की जय-जयकार नहीं की जाती। गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी यही कहते हैं, ‘जब-जब धर्म का नाश होता है, अधर्म बढ़ता है, मैं अवतरित होता हूं।’ ध्यान रहे कि उन्होंने यह नहीं कहा कि जब-जब किसी मत या पंथ का नाश होता है, तब-तब उनका अवतरण होता है।
धर्म व्यक्ति, समाज, प्रकृति, परमात्मा व अखिल ब्रह्मांड के मध्य सेतु-समन्वय स्थापित करता है। वह सबके कल्याण एवं सत्य के सभी रूपों-मतों को स्वीकारने की बात करता है। धर्म कहता है, ‘एकं सद् विप्रा: बहुधा वदन्ति।’ अर्थात् सत्य एक है, लेकिन इसकी अभिव्यक्तियां अलग-अलग हैं। ‘आनो भद्रा कृतवो यंतु विश्वत:’ अर्थात् सभी दिशाओं से अच्छे विचार मेरे पास आएं। ‘उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् उदार चरित्र वाले लोग संपूर्ण वसुधा को ही अपना परिवार मानते हैं। ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भाग्भवेत’ अर्थात् सभी सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को दु:ख का भागी न बनना पड़े।
मनु ने धर्म की व्याख्या करते हुए जो दस लक्षण बताए, ‘धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्’ उसमें किसी के प्रति अस्वीकार या असहिष्णुता तो दूर, कहीं रंच मात्र संकीर्णता, संकुचितता या अनुदारता के संकेत तक नहीं। जबकि सभी अब्राह्मिक मतों में उनके पैगंबरों की वाणी को ही अंतिम, अलौकिक और एकमात्र सत्य माना गया है, जबकि शेष को लौकिक व मिथ्या घोषित कर दिया गया है। इतना ही नहीं, अपितु वहां उस मत, मजहब, रिलीजन के भीतर भी नवीन ज्ञान व अनुभवजनित सत्य के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा गया। वहां मानव जाति के सोचने की सामर्थ्य व संभावनाओं पर ही सिरे से विराम या प्रतिबंध लगा दिया गया है, क्योंकि उनकी स्पष्ट घोषणा है कि सत्य अंतिम रूप से जाना या पाया जा चुका है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि धर्म उन व्यवस्थाओं अथवा नियमों के समुच्चय का नाम है, जो व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं मानव जीवन के विभिन्न अंगों को धारण किए रहता है। वहीं मजहब एवं रिलीजन का संबंध कुछ निश्चित आस्थाओं-मान्यताओं से होता है।
भारत की दृष्टि
हमें यह समझना होगा कि राजकीय समारोहों के उद्घाटन के अवसर पर दीप-प्रज्ज्वलन की परिपाटी या नए जहाज के जलावतरण की मंगलमय वेला में नारियल तोड़कर प्रसन्नता प्रकट करना अथवा नवनिर्माण से पूर्व भूमि-पूजन कर धरती माता के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना किसी उपासना पद्धति का भाग न होकर भारतीय संस्कृति और परंपरा का अंग है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अंधकार से प्रकाश की ओर- यह मानव की प्रगति-यात्रा का दिशानिर्देश है। चिरकाल से मनुष्य नन्हा-सा दीप जलाकर अंधकार की सत्ता को चुनौती देता आया है। हम आलोकधर्मी संस्कृति के वाहक हैं। अंधकार किसी भी समूह, समाज अथवा समुदाय का अभीष्ट नहीं हो सकता, न ही होना चाहिए।
ज्ञात हो कि नए संसद-भवन के ऊपरी तल पर लगाए गए अशोक स्तंभ के अनावरण-अनुष्ठान के शुभ अवसर पर सबसे पहला मंत्र ‘ॐ वसुंधराय विद्महे भूतधत्राय धीमहि तन्नो भूमि: प्रचोदयात्’ बोला गया। अब जो पृथ्वी सबका भरण-पोषण करती है, उससे आशीर्वाद की कामना भी भला संकीर्ण, अनुदार व सांप्रदायिक हो सकती है? क्या धरती, आकाश, सूरज, चांद, नदी, पर्वत, जल और प्रकाश जैसे प्राकृतिक उपादानों का भी भला कोई पंथ या मजहब हो सकता है? हां, विभिन्न सभ्यताओं द्वारा इन्हें देखने का एक भिन्न एवं विशेष दृष्टिकोण अवश्य होता है। जीवन और जगत को देखने का हम भारतीयों का भी अपना भिन्न एवं विशेष दृष्टिकोण है। उसे ही बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति कहकर संबोधित किया जाता है।
इन दिनों भारतीय संस्कृति में मान्य एवं प्रचलित ऐसे तमाम प्रतीकों को लांछित या अपमानित करने का चलन-सा चल पड़ा है। इसीलिए केवल दीप-प्रज्ज्वलन अथवा भूमि-पूजन ही क्यों, कभी सरस्वती पूजा, कभी गणेश-वंदना, कभी विद्यालयों में होने वाली प्रात: वंदना, कभी वैदिक मंत्र, कभी सूक्ति-श्लोक, कभी राष्ट्र-गान, कभी राष्ट्रगीत, कभी राष्ट्रीय ध्वज, कभी सेंगोल (राजदंड) तो कभी अशोक-स्तंभ जैसे राष्ट्रीय प्रतीकों को लेकर भी अनावश्यक विवाद पैदा किया जाता है या जान-बूझकर इनकी उपेक्षा और अवमानना की जाती है। राष्ट्रीय प्रतीकों अथवा युगों से चली आ रही सांस्कृतिक परंपराओं को मजहबी या सेकुलर चश्मे से देखना न तो न्यायसंगत है, न ही विवेकसम्मत।
सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग
न्यायाधीशों से लेकर हर प्रबुद्ध-साधारण को यह समझना होगा कि ये प्रतीक एवं परंपराएं हमारे राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक जीवन के अभिन्न अंग हैं, न कि धार्मिक जीवन के। इनका संबंध पंथ विशेष की पूजा-पद्धत्तियों या मान्यताओं से न होकर राष्ट्र की अविच्छिन्न सांस्कृतिक परंपराओं से है, जीवन और जगत को देखने के चिरंतन दृष्टिकोण से है। इंडोनेशिया का उदाहरण हमारे सामने है। सर्वाधिक जनसंख्या वाला मुस्लिम देश होने के बावजूद उन्होंने अपनी संस्कृति नहीं बदली। उन्होंने अपनी सार्वजनिक संस्थाओं एवं उपक्रमों के नाम पूर्ववत व पारंपरिक ही रखे। उनकी विमान-सेवा का प्रतीक-चिह्न (लोगो) ‘गरुड़’ है। उनकी जलसेना का ध्येय वाक्य ‘लेष्वेव जयामहे’ यानी ‘जल में ही विजय’ है। रामायण और रामलीला वहां अत्यंत लोकप्रिय हैं। एक इस्लामिक देश में यदि यह सब संभव है तो भारत में इन पर अनावश्यक विवाद क्यों?
आज जिन्हें ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ से आपत्ति है, कोई आश्चर्य नहीं कि कल उन्हें ‘सत्यमेव जयते’ से लेकर अन्य संगठनों-संस्थाओं के ध्येय-वाक्य से भी आपत्ति हो सकती है इस देश में तथाकथित सेकुलरों का एक ऐसा गिरोह सक्रिय है, जिनकी पंथनिरपेक्षतावादी मानसिकता भारत के स्व, स्वत्व एवं संस्कृति को ठेस पहुंचाकर ही तुष्ट होती है। क्या-क्या बदलेंगे? ‘धर्मो रक्षति रक्षित:’, ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’, ‘सेवा अस्माकं धर्म:’, ‘नभ: स्पर्शम दीप्तम्’, ‘कोश मूलो दंड’, ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ जैसे अधिकांश ध्येय-वाक्यों का संबंध तो सनातन शास्त्रों एवं संस्कृत से ही है, तो क्या केवल इसी आधार पर इन्हें बदल देना चाहिए?
(लेखक शिक्षाविद् एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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