सर्वोच्च न्यायालय को दोहरे मापदंड से बचना चाहिए - अरविन्द सिसोदिया

सर्वोच्च न्यायलय का सुपर संसद बनना ही,लोकतंत्र की हत्या - अरविन्द सिसोदिया 

भारत में सर्वोच्च न्यायालय के दोहरे मापदंड़ों को लेकर गंभीर प्रश्न उठा हैँ। उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ नें न्यायपालिका पर गंभीर प्रश्न उठायें हैँ। उन्होंने कहा राष्ट्रपति को न्यायपालिका निर्देश नहीं दे सकती। उन्होंने यह भी कहा कि सर्वोच्च न्यायालय सुपर संसद बन रही है। वह कार्यपालिका का काम भी अपने हाथ में ले रही है। कई तरह कई टिप्पणीयां उन्होंने न्यायपालिका के विरुद्ध की हैँ। उन्होंने इशारे से यह भी कहा है कि जज भी जाँच के दायरे से बाहर नहीं हैँ।

इसी तरह सुप्रशिद्ध अधिवक्ता विष्णुशंकर जैन नें भी कहा कि पुराना वक्फ क़ानून संविधान विरोधी है, देश के अनेकों उच्च न्यायालयों में मुकदमेँ चल रहे हैँ। जबकि उसे सुप्रीम कोर्ट को सुनना चाहिए था। किन्तु तब सुप्रीम कोर्ट नें कहा पहले हाई कोर्ट जाइये। इसी सिद्धांत को वक्फ संसोधन बिल के मामले में भी मानना चाहिए था। किन्तु उसे सुप्रीम कोर्ट नें सीधे सुन लिया। यह सुप्रीम कोर्ट का भेदभाव है। 

जब हिंदू पक्ष या वक्फ से पीड़ित वर्ग सर्वोच्च न्यायालय गया तो, उसे हाई कोर्ट भेज दिया। दूसरी और जब वक्फ संसोधन के विरुद्ध पुराने वक्फ समर्थक पहुंचे तो उसे सीधे सर्वोच्च न्यायलय नें सुन कर, भेद भाव की मिसाल पेश की जो पूरी तरह अनुचित है।

मेरा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट अंतिम या सर्वोच्च न्यायलय है। इसलिए उसे अपील जैसी स्थिति हेतु स्वयं को सुरक्षित होना चाहिए। पहले हाईकोर्ट या नीचे ही ट्रायल होना चाहिए। 

यदि सर्वोच्च न्यायालय ही ट्रायल कोर्ट बन गया , तो अपील कहाँ होगी। यदि अपील कि गुंजाइस नहीं है तो सिर्फ तानाशाही कहलाएगी। बड़ी बेंच छोटी बेंच अर्थ हीन तथ्य है। देश की चुनी हुई संसद का सम्मान करना भी कर्तव्य है, क्योंकि लोकतंत्र संसद है न्यायालय नहीं। 

आप जन पर अपराध के आरोप को न्याय की तराजू पर तौलने बाली संस्था न्यायपालिका को अपने न्यायाधीश के घर मिले नोटों के अंबार पर कठोर कार्यवाही करनी ही चाहिए था। यह उनकी नैतिकता थी, मगर लीपापोती नें न्यायतंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया है। 

सुप्रीम कोर्ट को मानक तय करना चाहिए और उन पर ठहरना चाहिए।

न्यायाधीशों को व्यक्तिगत मानसिकता थोपने का कोई अधिकार नहीं है। उन्हें जो समझ है वह समझ तो समाज के अन्य लाखों व्यक्तियों को भी है। वे कुर्सी पर बैठे हैँ, इसलिए उन्हें कुर्सी का सम्मान करना चाहिए।
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जब कोर्ट खुद तीन महीनेँ में फैसला नहीं कर सकता तो राज्यपाल और राष्ट्रपति को निर्देश कैसे दे सकता है।


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क्या यह माफी लायक है? FIR क्यों नहीं हुई; जस्टिस वर्मा के घर से कैश मिलने पर भड़के उपराष्ट्रपति

जज के घर मिले कैश मामले में धनखड़ ने कहा कि हमें खुद से कुछ सवाल पूछने होंगे। क्या देरी के लिए कोई सफाई दी जा सकती है? क्या यह माफी योग्य है? क्या इससे कुछ बुनियादी सवाल नहीं उठते?

क्या यह माफी लायक है ? FIR क्यों नहीं हुई; जस्टिस वर्मा के घर से कैश मिलने पर भड़के उपराष्ट्रपति
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के आवास से बड़े पैमाने पर कैश की बरामदगी से जुड़े मामले में एफआईआर दर्ज न किए जाने पर सवाल उठाया और भड़कते हुए कहा कि क्या कानून से परे एक श्रेणी को अभियोजन से छूट हासिल है। 

धनखड़ ने कहा, ''अगर यह घटना उसके (आम आदमी के) घर पर हुई होती, तो इसकी (प्राथमिकी दर्ज किए जाने की) गति इलेक्ट्रॉनिक रॉकेट सरीखी होती, लेकिन उक्त मामले में तो यह बैलगाड़ी जैसी भी नहीं है।'' धनखड़ ने कहा कि सात दिनों तक किसी को भी इसके बारे में पता नहीं चला। हमें खुद से सवाल पूछने होंगे। क्या देरी की वजह समझ में आती है? क्या यह माफी योग्य है?


उपराष्ट्रपति ने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्र जांच या पूछताछ के खिलाफ किसी तरह का सुरक्षा कवच नहीं है। उन्होंने कहा कि किसी संस्था या व्यक्ति को पतन की ओर धकेलने का सबसे पुख्ता तरीका उसे जांच से सुरक्षा की पूर्ण गारंटी प्रदान करना है। सुप्रीम कोर्ट ने 14 मार्च को होली की रात दिल्ली में जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास पर लगी भीषण आग को बुझाने के दौरान वहां कथित तौर पर बड़े पैमाने पर नोटों की अधजली गड्डियां बरामद होने के मामले की आंतरिक जांच के आदेश दिए थे। इसके अलावा, न्यायमूर्ति वर्मा को दिल्ली उच्च न्यायालय से वापस इलाहाबाद उच्च न्यायालय भेज दिया गया था। धनखड़ ने मामले की आंतरिक जांच के लिए गठित तीन न्यायाधीशों की समिति की कानूनी वैधता पर भी सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि तीन न्यायाधीशों की समिति मामले की जांच कर रही है, लेकिन जांच कार्यपालिका का अधिकार क्षेत्र है, न्यायपालिका का नहीं। उपराष्ट्रपति ने दावा किया कि समिति का गठन संविधान या कानून के किसी प्रावधान के तहत नहीं किया गया है।


उन्होंने कहा, ''और समिति क्या कर सकती है? समिति अधिक से अधिक सिफारिश कर सकती है। सिफारिश किससे? और किसलिए?'' धनखड़ ने कहा, ''न्यायाधीशों के लिए हमारे पास जिस तरह की व्यवस्था है, उसके तहत अंततः एकमात्र कार्रवाई (न्यायाधीश को हटाना) संसद द्वारा की जा सकती है।'' उन्होंने कहा कि समिति की रिपोर्ट का स्वाभाविक रूप से कोई कानूनी आधार नहीं होगा। यहां राज्यसभा प्रशिक्षुओं के एक समूह को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा, ''एक महीने से ज्यादा समय बीत चुका है। भले ही इस मामले के कारण शर्मिंदगी या असहजता का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन अब समय आ गया है कि इससे पर्दा उठाया जाए। सारी सच्चाई सार्वजनिक मंच पर आने दें, ताकि व्यवस्था को साफ किया जा सके।''

उन्होंने कहा कि सात दिन तक किसी को इस घटनाक्रम के बारे में पता नहीं था। धनखड़ ने कहा, ''हमें खुद से कुछ सवाल पूछने होंगे। क्या देरी के लिए कोई सफाई दी जा सकती है? क्या यह माफी योग्य है? क्या इससे कुछ बुनियादी सवाल नहीं उठते? क्या किसी आम आदमी से जुड़े मामले में चीजें अलग होतीं?'' उपराष्ट्रपति ने कहा कि शीर्ष अदालत की ओर से मामले की पुष्टि किए जाने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि इसकी जांच किए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा, ''अब राष्ट्र बेसब्री से इंतजार कर रहा है। राष्ट्र बेचैन है, क्योंकि हमारी एक संस्था, जिसे लोग हमेशा से सर्वोच्च सम्मान और आदर की दृष्टि से देखते आए हैं, वह अब कठघरे में खड़ी है।''

कानून के शासन की अहमियत पर जोर देते हुए धनखड़ ने कहा कि लोकतंत्र में आपराधिक न्याय प्रणाली की शुचिता ही उसकी दिशा निर्धारित करती है। उन्होंने कहा कि मामले में प्राथमिकी न दर्ज किए जाने के मद्देनजर फिलहाल कानून के तहत कोई जांच नहीं हो रही है। उपराष्ट्रपति ने कहा, ''यह देश का कानून है कि हर संज्ञेय अपराध की सूचना पुलिस को देना जरूरी है और ऐसा न करना एक अपराध है। इसलिए, आप सभी को आश्चर्य हो रहा होगा कि कोई प्राथमिकी क्यों नहीं दर्ज की गई।'' उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि उपराष्ट्रपति सहित किसी भी संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की जा सकती है।


धनखड़ ने कहा, ''केवल कानून का शासन लागू किए जाने की जरूरत होती है। किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं पड़ती। लेकिन अगर यह न्यायाधीशों, उनकी श्रेणी का मामला है, तो सीधे प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती। न्यायपालिका में संबंधित लोगों की ओर से इसका अनुमोदन किए जाने की जरूरत होती है।'' उपराष्ट्रपति ने इस बात पर जोर दिया कि संविधान में केवल राष्ट्रपति और राज्यपालों को ही अभियोजन से छूट प्रदान की गई है। उन्होंने आश्चर्य जताते हुए कहा, ''तो फिर कानून से परे एक श्रेणी को यह छूट कैसे हासिल हुई?'' पारदर्शिता के महत्व को रेखांकित करते हुए उपराष्ट्रपति ने लोकपाल पीठ के इस फैसले का जिक्र किया कि लोकपाल को उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच करने का अधिकार है।
- सरकार के खिलाफ अदालत के हाथ लगा परमाणु बम, आर्टिकल 142 पर बोले धनखड़

उन्होंने कहा कि स्वत: संज्ञान लेकर शीर्ष अदालत ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता के आधार से जुड़े आदेश पर रोक लगा दी। धनखड़ ने कहा, ''यह स्वतंत्रता जांच, पूछताछ या छानबीन के खिलाफ किसी तरह का सुरक्षा कवच नहीं है। संस्थाएं पारदर्शिता से फलती-फूलती हैं। किसी संस्था या व्यक्ति को पतन की ओर धकेलने का सबसे पुख्ता तरीका यह है कि उसे इस बात की पूरी गारंटी दे दी जाए कि उसके खिलाफ कोई जांच, कोई पूछताछ या कोई छानबीन नहीं होगी।''

Justice Yashwant Varma
Jagdeep Dhankhar

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जगदीप धनखड़: एक ऐसा नाम, जिसे न तो संविधान की सीमाएँ समझानी पड़ती हैं और न ही राजनीति के व्याकरण का पाठ पढ़ाना पड़ता है।

देश के वर्तमान उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ को केवल एक राजनेता समझ लेना भूल होगी। ये व्यक्ति संविधान, कानून, न्याय प्रक्रिया और संसदीय कार्यप्रणाली के इतने गहरे जानकार हैं कि 10 मुख्य न्यायाधीश भी उनके सामने मौन हो जाएँ।
 • राजस्थान हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे।
 • अंतरराष्ट्रीय कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन (पेरिस) के सदस्य के रूप में तीन वर्ष तक भारत का प्रतिनिधित्व किया।
 • किसान परिवार में जन्मे, पर कानून और राजनीति की ऊँचाइयों तक पहुँचे।
 • पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी ने उन्हें संसदीय कार्यमंत्री बनाया था—जिससे संसद की कार्यशैली और सीमाएँ उन्हें गहराई से ज्ञात हैं।
 • भाजपा के विधि प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय संयोजक के रूप में कार्य किया।

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के रूप में उनका कार्यकाल संघर्षों से भरा रहा। एक बार AM-PM की तकनीकी भूल के कारण रात 2 बजे कैबिनेट बैठक बुला ली—क्योंकि संवैधानिक जिम्मेदारी से वे कभी समझौता नहीं करते। ममता बनर्जी से तमाम विवादों के बावजूद TMC ने उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी उम्मीदवार को वोट नहीं दिया, यह उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और प्रभाव का प्रमाण है।

आज जब धनखड़ जी सुप्रीम कोर्ट पर सीधे सवाल उठा रहे हैं—तो उसे सिर्फ एक बयान समझना भूल होगी।
 • जस्टिस यशवंत वर्मा के घर से करोड़ों रुपये बरामद हुए, पर एक महीने में भी FIR दर्ज नहीं हुई—यह सवाल वे देश के सामने उठा रहे हैं।
 • वे पूछते हैं—राष्ट्रपति जो देश की प्रथम नागरिक हैं, उन्हें कोई आदेश कैसे दे सकता है?

धनखड़ जी सैनिक स्कूल के छात्र रहे हैं—जहाँ अनुशासन और राष्ट्र सर्वोपरि होते हैं। इसलिए चाहे कोई भी संस्था हो, अगर वह देशहित के विरुद्ध जाती है, तो धनखड़ जैसा व्यक्तित्व उसे बेनकाब करने से पीछे नहीं हटता।

यह वक्त है उनके सवालों को हल्के में लेने का नहीं, बल्कि गहराई से सोचने का।

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#JagdeepDhankhar #VicePresidentOfIndia #ConstitutionalCrisis #SupremeCourtDebate #IndianPolitics #RuleOfLaw

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Supreme Court Interim Order On Waqf Act What Questions Is Vishnu Shankar Jain Raising Know Here Detail

वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश, विष्णु शंकर जैन क्या सवाल उठा रहे?

Vishnu Shankar Jain on Supreme Court Waqf Hearing: वक्फ संशोधन बिल को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दूसरे दिन सुनवाई हुई। इस दौरान कोर्ट ने मामले में सरकार से जवाब मांगा। इस पर सरकार ने एक हफ्ते का समय लिया। कोर्ट ने इस दौरान वक्फ बोर्ड में कोई नई नियुक्ति नहीं करने का आदेश दिया है। इस प्रकार के मामले पर अब वकील विष्णु शंकर जैन का बयान सामने आया है।


वक्फ बिल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चल रही है सुनवाई
मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को जारी किया है आदेश
विष्णु शंकर जैन ने मामले की सुनवाई को लेकर उठाए सवाल


Vishnu Shankar Jain on Supreme Court Waqf Bill Hearing Interim Order


लखनऊ: सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील विष्णु शंकर जैन ने सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़ा किया है। दरअसल, विष्णु शंकर जैन वक्फ बोर्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट गए थे। वहां से उन्हें हाई कोर्ट जाने का आदेश दिया गया था। अब वक्फ बिल को लेकर दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में दो दिनों से सुनवाई चल रही है। साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अंतरिम आदेश भी जारी किया है। ऐसे में विष्णु शंकर जैन सवाल उठाते दिख रहे हैं।


वरिष्ठ वकील ने क्या कहा?
वरिष्ठ वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा कि जब हमने वक्फ बोर्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, तो कोर्ट ने हमसे पूछा था कि हम सीधे सर्वोच्च न्यायालय क्यों आए? सुप्रीम कोर्ट ने हमें सुझाव दिया था कि हमें हाई कोर्ट जाना चाहिए और हमें कोई अंतरिम राहत नहीं मिली। इस प्रकार के मामलों में अलग-अलग हाई कोर्ट में 140 से ज्यादा याचिकाएं दायर की गई हैं। इसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट का यह रुख था।


विष्णु शंकर जैन ने सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठाते हुए कहा कि अब क्या मापदंड है कि कोई दूसरा पक्ष सुप्रीम कोर्ट आए और उनकी न सिर्फ सुनवाई हो बल्कि अंतरिम आदेश से जुड़ी बातें भी कही जाएं? उन्होंने कहा कि पिछले 13 सालों से हिंदू मंदिरों के अधिग्रहण से संबंधित 4 राज्यों के हिंदू बंदोबस्ती अधिनियम की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही थी।


संवैधानिक पीठ के गठन की मांग
सीनियर वकील ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा कि ये मामले हाई कोर्ट में सुने जाने चाहिए। कोर्ट ने पूछा कि हम (सुप्रीम कोर्ट) ऐसे मामलों की सुनवाई क्यों करें? मेरा सुझाव है कि (वक्फ संशोधन अधिनियम के संबंध में) सभी मामलों को एक ही हाई कोर्ट में ले जाया जाना चाहिए।

विष्णु शंकर जैन ने मांग की कि 6 महीने के भीतर मामलों की सुनवाई के लिए एक संवैधानिक पीठ का गठन किया जाना चाहिए। उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया में समानता और स्पष्टता की मांग करते हुए कहा कि सभी पक्षों के लिए एक समान मानक लागू होने चाहिए।
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नोट यह आलेख फेसबुक से मिला है। में नहीं जानता कि यह सच है झूठ है। किन्तु विचारणीय है। इसमें कोई तथ्य गलत है तो बताएं, ताकी सही तथ्य लिखा जा सके। सच जानने का अधिकार देश की जनता को है।......

क्या आप सुप्रीमकोर्ट के कांग्रेसी वामपंथी न्यायधीशों से न्याय की उम्मीद रखते हैं?

आईये पहले कुछ जजों को पुनर्स्मरण कर लें।

श्री बच्चू जगन्नाथदास 1953 से 1958 तक सुप्रीम कोर्ट के जज थे। वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे। न्यायमूर्ति जीवन लाल कपूर 1957 से 1962 तक सुप्रीम कोर्ट में कार्यरत थे। वे पंजाब सोशलिस्ट पार्टी (कम्युनिस्ट) के सदस्य थे। न्यायमूर्ति के. एस. हेगड़े राजनीतिक अतीत के साथ सुप्रीम कोर्ट आए थे। कांग्रेस पार्टी द्वारा मनोनीत हेगड़े 1952 से 1957 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। इसके तुरंत बाद, वे मैसूर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने और फिर 1966 में दिल्ली उच्च न्यायालय की स्थापना के समय इसके पहले मुख्य न्यायाधीश बने। उन्हें 1967 में सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त किया गया था और उनके हटाए जाने के बाद अप्रैल 1973 में उन्होंने इस्तीफा दे दिया था।

न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्ण अय्यर, जो 1973 से 1980 तक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे, तत्कालीन अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) द्वारा समर्थित विधायक थे। उन्होंने ई.एम.एस. नंबूदरीपाद के नेतृत्व वाली भारत की पहली कम्युनिस्ट सरकार में 1957 से 1959 तक गृह, कानून, जेल, बिजली, सिंचाई, सामाजिक कल्याण और अंतर्देशीय जल मंत्री के रूप में भी कार्य किया। न्यायमूर्ति पी.बी. सावंत, अपने वकील के दिनों में, महाराष्ट्र में किसानों और श्रमिकों की पार्टी (कम्युनिस्ट) के सदस्य थे। बाद में वे बॉम्बे हाई कोर्ट और फिर 1989 से 1995 तक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश बने।

न्यायमूर्ति एस. रत्नावेल पांडियन जब वकील थे, तब द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के तिरुनेलवेली जिला सचिव थे। उन्हें 1974 में मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया और बाद में 1988 से 1994 तक उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय की पीठ में अपनी सेवाएं दीं। न्यायमूर्ति आफ़ताब आलम, जो 2007 से 2013 तक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहे, पटना उच्च न्यायालय में अपनी पहली नियुक्ति से कुछ साल पहले तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे।

जस्टिस वी गोपाल गौड़ा सीपीआई(एम) के सदस्य थे। बाद में वे 2007 में कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने और 2012 से 2016 तक सुप्रीम कोर्ट बेंच पर रहे। जस्टिस बहारुल इस्लाम, जो 1962 में और फिर 1968 में कांग्रेस के सदस्य के रूप में राज्यसभा के लिए चुने गए थे, 1972 में असम और नागालैंड उच्च न्यायालय (अब गुवाहाटी उच्च न्यायालय) के न्यायाधीश बने और 1980 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नत किया गया। विवादास्पद रूप से, उन्होंने 1983 में शीर्ष अदालत से इस्तीफा दे दिया और फिर से कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य बन गए।

ऊपर सिर्फ कुछ कांग्रेसी, वामपंथी न्यायधीशों की झलक है। ऐसे कई हैं। इन कांग्रेसी वामपंथी न्यायधीशों ने एक कोलेजियम सिस्टम बना लिया है जिसके तहत वे जजों की नियुक्ति की सिफारिश करते हैं। ये कांग्रेसी वामपंथी न्यायधीश अपने भाई, भतीजे, बेटे, पोते या पैसा लेकर दोस्त के बेटे, भतीजे आदि को जज नियुक्त करते हैं। जो अन्य न्यायधीश बनते हैं वे संभवतः कांग्रेसी नेता और वकील अभिसेक्स मनु सिंघवी के पलंग पर बनाये जाते होंगे तो आश्चर्य नहीं है क्योंकि परीक्षा के माध्यम से कोई सेलेक्शन प्रोसीजर या ट्रांसपैरेंट सिस्टम तो है नहीं। इसी भ्रष्ट सिस्टम से महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता के बेटे आर एस गवई न्यायधीश बने हैं जो अगला चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया बननेवाले हैं और उसके बाद गुजरात कांग्रेस के नेता के बेटे जे बी पारदीवाला चीफ जस्टिस बनने वाले हैं।

अब आप समझ गये होंगे कि कांग्रेसी, वामपंथी, जिहादी, भ्रष्टाचारी राष्ट्रहित में केंद्र, राज्य सरकारों द्वारा लिए गये निर्णयों के विरुद्ध पूरे आत्मविश्वास से सीधे सुप्रीमकोर्ट क्यों पहुंचकर न्याय की उम्मीद करते हैं और उन्हें मनचाहा न्याय भी क्यों मिल जाता है। साथ ही आप सुप्रीमकोर्ट के हिन्दू विरोधी, सनातन विरोधी, जिहादी और भ्रष्टाचारी लिकर मानसिकता का कारण भी समझ गये होंगे अगर आप कांग्रेसी, वामपंथी मानसिकता को अच्छी तरह समझते होंगे तो। 

अब आप यह भी समझ गये होंगे की नुपुर शर्मा के सच बोलने से क्यों परदीवाला को लगा की पूरा देश खतरे में आ गया है। क्यों मीलॉर्ड को सर तन से जुदा का नारा कर्णप्रिय और देश के “गद्दारों” को गोली मारो सालों को कर्णकटु लगता है। बुलडोजर न्याय से तो इन्हें दिक्कत है पर मुसलमानों द्वारा रोज रोज हम हिन्दुओं, बौद्धों के धार्मिक जुलूसों या कार्यक्रमों पर मस्जिदों से किये जा रहे हमले और पत्थरबाजी से इनके मस्तिष्क पर जूं नहीं र्रेंगता है।  क्यों मणिपुर के कुकी ईसाई उग्रवादियों की आवाज तो सुनाई देती है पर बंगाल में 2021 विधानसभा चुनाव के बाद हिन्दुओं की हत्या रेप लूट आगजनी से उत्पन्न चीख पुकार सुनाई नहीं देती है। 

यूपी में एक दीवानी केस को क्रिमिनल केस में बदल देने मात्र से पूरे यूपी में कानून का शासन ध्वस्त हो जाता है परन्तु मुर्शिदाबाद में हिन्दुओं के विरुद्ध राज्यप्रयोजित या सत्ताधारी नेताओं द्वारा किये गये हिंसा, रेप, दंगा, घरों दुकानों मन्दिरों में तोड़फोड़ और आगजनी, हिन्दुओं का पलायन और करुण क्रंदन इनके लिए कोई मायने नहीं रखता है। ऐसे दर्जनों नहीं सैकड़ों मामले हैं जिसमें सुप्रीमकोर्ट के हिन्दू विरोधी, सनातन विरोधी, जिहादी लिकर कांग्रेसी-वामपंथी मानसिकता के स्पष्ट दर्शन होते हैं। पर इन्होंने भ्रष्टाचार और तानाशाही का ऐसा किला बना रखे हैं कि सरकार चाह कर भी इसे भेद नहीं पा रही है। जब तक यह किला ध्वस्त नहीं हो जाता हम तो सुप्रीमकोर्ट से किसी प्रकार के न्याय की उम्मीद नहीं करते हैं।  

एक बात और भी जान लीजिए...

अगर आप सोचते हैं कि कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी जैसे बड़े बड़े कांग्रेसी, वामपंथी सुप्रीमकोर्ट में सिर्फ वकालत करते हैं तो आप गलत हैं। ये वकील कम सुप्रीमकोर्ट के जजों के अघोषित दलाल ज्यादा हैं। ये बड़े बड़े अपराधियों, भ्रष्टाचारियों, घोटालेबाजों, जिहादियों आदि का सुप्रीमकोर्ट में सेटिंग कराते हैं और पैसे के दम पर मनचाहा न्याय करवाते हैं। इन्हें सुपर जज भी कह सकते हैं। 

ये सुप्रीमकोर्ट से फोन पर बेल करा देते हैं, फोन पर अग्रिम जमानत करा देते हैं, फोन पर केस की लिस्टिंग करा देते हैं यहाँ तक कि जब एक केस पर बहस कर रहे होते हैं तो उसी बीच जजों को दूसरा केस लिस्ट करने के लिए भी कह देते हैं जिसे जज साहब तुरंत मान लेते हैं। इसीलिए बड़े बड़े अपराधी, भ्रष्टाचारी, घोटालेबाज, जिहादी, रेपिस्ट, आतंकी जल्द से जल्द सुनवाई के लिए सीधे इनसे कांटेक्ट करते हैं। इसलिए नहीं कि ये कानून के बहुत बड़े जानकार है बल्कि इसलिए कि इनके कहने पर, जहाँ आम लोगों को वर्षों बाद नम्बर आता है, या मीलॉर्ड कह देते हैं जाओ हाईकोर्ट में पहले अपील करो, मीलॉर्ड सुबह फाईल किए तो शाम में, शाम फाईल किए तो रात में नहीं तो अगले दिन “मनमाना न्याय” दे देते हैं। इसलिए इनका रेट करोड़ों, अरबों में होता है और कहने की जरूरत नहीं है “कद्दू” कटता है तो किस किस को बंटता है। 

 (अस्वीकरण: अगर गलत है तो साबित करें अन्यथा सच मानें)
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ये उनके लिए जिन्हें लगता हो कि न्यायालय को बाहुबल से प्रभावित नहीं किया जा सकता...

इन दस जजों ने डर कर खुद को अतीक अहमद के केस से अलग कर लिया था, इसका दूसरा रूप तब भी देखा गया था जब सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी सरेंडर करने कोर्ट जा रहे थे और न्यायालय पर प्रभाव डालने के लिए सड़क पर कांग्रेसी उत्पात मचा रहे थे 

इसका अर्थ सीधा सा है कि जगह जगह वफ्फ के नाम पर जो हिंसा हो रही है उसका उद्देश्य न्यायालय पर दवाब बनाना है, जोकि दिख भी रहा है, बाकी रही सही कसर कांग्रेस पार्टी के अधिवक्ता पूरी कर देते हैं.

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