माता पिता देवता के समान हैँ - सनातन धर्म Hindu Dharm


" मातृ देवो भव, पितृ देवो भव: सनातन गुणवत्ता और हिंदू परिवार व्यवस्था " 

"मातृ देवो भव, पितृ देवो भव" का अर्थ है माता और पिता को देवता के समान मानना ​​चाहिए। यह वाक्यांश तैत्तिरीय उपनिषद (शिक्षावल्ली) से लिया गया है और यह हिंदू धर्म की समाज  और धर्म व्यवस्था की महत्ता को संदर्भित करता है।

इस सिद्धांत का आधार, सनातन हिंदू परिवार की जीवन पद्धति का आधार है। इसे समझने के लिए हम इसे विभिन्न विशिष्टताओं में विभाजित करके देख सकते हैं। -

1. सनातन सिद्धांत : माता-पिता का सम्मान...

हिन्दू धर्म में माता-पिता को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। "मातृ देवो भव" और "पितृ देवो भव" ये माता-पिता न केवल जीवनदाता हैं, बल्कि बच्चों के पालक और प्रथम शिक्षक भी होते हैं। इसलिए संतान को उनकी आज्ञा पालन करना, सेवा करना और  पालन पोषण करना एक धार्मिक कर्तव्य माना गया है।

माता का महत्व:-
माता को सृष्टि की रचना करने वाली शक्ति के रूप में देखा जाता है। वह बच्चे को गर्भ में पालकर जन्म देती है, पोषण कर बड़ा करती है, वह का पहली गुरु है, जो उसे सामाजिक गुण अवगुण, संस्कार और जीवन जीने की कला सिखाती है।

पिता का महत्व:- 
पिता परिवार का पालनकर्ता होता है। वह बच्चों को निर्देश, शिक्षा और समाज में सही मार्गदर्शन प्रदान करता है। 

2. कर्तव्यनिष्ठा: पारिवारिक संरचना का आधार
हिंदू परिवार प्रणाली संयुक्त परिवार प्रणाली पर आधारित है। इसमें प्रत्येक सदस्य अपनेधर्म का पालन करता है, अर्थात अपने अपने कर्तव्य का पालन करते हैँ।

बच्चों का कर्तव्य:-
बच्चों को अपने माता-पिता की सेवा करनी चाहिए और उनकी प्रति आज्ञाकारी होनी चाहिए। वे अपनी पढ़ाई, सामाजिक व्यवहार और पारिवारिक व्यवहार से परिवार को आगे बढ़ाते हैँ।

माता-पिता का कर्तव्य:-
माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देते हैं। बच्चों की शिक्षा, विवाह और भविष्य निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार "कर्तव्यनिष्ठा" ही हिंदू परिवार प्रणाली की आधारशिला है।

3. संस्कारों की शिक्षा: सनातन गुणवत्ता
हिंदू धर्म में संस्कारों (जैसे नामकरण संस्कार, उपनयन संस्कार आदि) के माध्यम से बच्चों को जीवन जीने के आदर्श सिखाए जाते हैं। इन संस्कारों में "मातृ देवो भव" और "पितृ देवो भव" जैसे सिद्धांत भी जुड़े हुए हैं।

ये सिद्धांत बच्चों में निर्देश, आदरभाव, सहनशीलता, और दायित्वबोध विकसित किए गए हैं।
इसके कारण परिवार में एकजुटता रहती है और समाज में सकारात्मक योगदान देता है।

4. संयुक्त परिवार प्रणाली: एक व्यावहारिक दृष्टिकोण

हिंदू संस्कृति में संयुक्त परिवार प्रणाली ने "मातृ देवो भव" और "पितृ देवो भव" जैसी विचारधारा को व्यवहारिक रूप दिया:-

सामूहिक जिम्मेदारी:-
सभी सदस्य सामूहिक घर निर्माण में योगदान देते हैं।
आस्था के बीच संबंध:-
बुजुर्गों के बड़ों से युवा पीढ़ी सीखती है।
स्नेहपूर्ण वातावरण:-
मित्रवत प्रेम एवं सहयोग से पारिवारिक मित्रों का समाधान होता है।
: ...
इस प्रकार "मातृ देवो भव" और "पितृ देवो भव" जैसे सिद्धांत हिंदू परिवार स्वरूप को अत्यंत लाभकारी मानते हैं। ये केवल व्यक्तिगत विकास नहीं बल्कि सामाजिक स्थिरता के लिए भी आवश्यक हैं। हिंदू धर्म इसे अन्य सिद्धांतों से अलग मानता है क्योंकि यह व्यक्ति अपनी धार्मिकता के आधार पर पारिवारिक संतुलन को मजबूत बनाता है।

टिप्पणियाँ

इन्हे भी पढे़....

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहे।

प्रेम अवतारी श्री सत्य साईं राम

कण कण सूं गूंजे, जय जय राजस्थान

छत्रपति शिवाजी : सिसोदिया राजपूत वंश

हमारा देश “भारतवर्ष” : जम्बू दीपे भरत खण्डे

‘‘भूरेटिया नी मानू रे’’: अंग्रेजों तुम्हारी नहीं मानूंगा - गोविन्द गुरू

वीरांगना रानी अवंती बाई

हिन्दु भूमि की हम संतान नित्य करेंगे उसका ध्यान

“Truth is one — whether witnessed in a laboratory or realized in the depths of meditation.” – Arvind Sisodia