योजना आयोग का गरीब बनाने का अभियान
- अरविन्द सीसौदिया
जानकारी में आया है कि योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया है कि जिसकी खर्च क्षमता शहरी क्षैत्र में 20 रूपये है और ग्रामीण क्षैत्र में 15 रूपये है। उसे गरीब नहीं माना जा सकता। यह इस देश के गरीब का मजाक उडाया जाना मात्र नहीं है। बल्कि उसे गरीब बना कर फिर इसाई मिशनरियों की दया से उपकृत कर इसाई में धर्मांतरित करने की दीर्घगामी योजना अधिक प्रतीत होती है। जिस पर कांग्रेस नेतृत्व सरकार चल रही हे।
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अनिल जैन
जिस तरह भारत कृषि प्रधान देश है, उसी तरह गरीबी प्रधान देश भी है यानी भारत की बहुसंख्य आबादी गरीब है। इस जगजाहिर हकीकत के बावजूद किसी को यह ठीक-ठीक मालूम ही नहीं है कि गरीबी का यह हिंद महासागर कितना विशाल है यानी देश में गरीब आबादी का वास्तविक आँकड़ा क्या है। देश और समाज की जमीनी हकीकत से हमारे नीति-नियामकों की बेखबरी की यह इंतहा ही है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने लंबी ऊहापोह के बाद फैसला किया है कि 2011 की जनगणना के साथ जातियों के आँकड़े जुटाने के साथ ही गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाली आबादी के आँकड़े भी जुटाए जाएँगे। इसी फैसले के तहत सरकार लगभग रुपए साढ़े तीन हजार करोड़ खर्च कर इसी महीने पूरे देश में गरीबों की पहचान के लिए गणना अभियान शुरू कर रही है। लेकिन सवाल यह खड़ा हो गया है कि सरकार किसे गरीब मानेगी।
गरीबी मापने की जो प्रचलित सरकारी पद्धति है उसे तमाम अर्थशास्त्री नकारते रहे हैं। गरीबी मापने के जो अंतरराष्ट्रीय पैमाने हैं, उनमें और हमारी सरकारी पद्धति में भी कोई साम्य नहीं है। दरअसल, सरकार में बैठे योजनाकारों द्वारा गरीबी मापने का जो पैमाना तय किया गया है, वह गरीबी को मापने से ज्यादा गरीबी को छिपाने का काम करता है। यही वजह है कि योजना आयोग द्वारा निर्धारित गरीबी की परिभाषा से सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) भी सहमत नहीं है।
योजना आयोग ने 2004-05 में बताया था कि देश में सिर्फ 27 फीसद लोग गरीब हैं। योजना आयोग द्वारा ही 2009 में गठित सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने यह आँकड़ा खारिज करते हुए बताया कि 37 फीसद भारतीय गरीब हैं, जिनमें 42 फीसद गरीब गाँवों में बसते हैं।
तेंदुलकर समिति का यह अनुमान भी हकीकत से दूर है। तेंदुलकर समिति के बाद उसी दौर में असंगठित क्षेत्र की स्थिति के अध्ययन के लिए गठित अर्जुन सेनगुप्त की सदारत वाली एक अन्य समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुल आबादी के 78 फीसद हिस्से के गरीब होने का अनुमान पेश किया था। इसके बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से गठित एनसी सक्सेना की अध्यक्षता वाली समिति ने आधी यानी 50 फीसद आबादी को गरीब माना। अब योजना आयोग ने गरीबी की जो कसौटी बनाई है, वह हैरान करने वाली और निहायत ही हास्यास्पद है।
अपनी बनाई इस कसौटी को योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में भी पेश किया है। इस कसौटी के मुताबिक शहरी क्षेत्र में रुपए 578 मासिक यानी प्रतिदिन रुपए बीस से कम पर गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति को गरीब माना जाएगा। इस रुपए 578 में दो वक्त का खाना, मकान का किराया, दवाई आदि समेत बीस मदें शामिल हैं। इसमें सब्जी-भाजी की मद में खर्च की सीमा एक रुपए बाईस पैसे प्रतिदिन है। इस खर्च सीमा में कोई व्यक्ति दो वक्त की बात तो छोड़िए, एक वक्त के लिए भी कैसे सब्जी-भाजी जुटा सकता है?
इसी तरह शहरों में मकान के किराए पर खर्च की सीमा रुपए इकतीस प्रति व्यक्ति प्रतिमाह रखी गई। ग्रामीण इलाकों के लिए तो गरीबी की कसौटी और भी सख्त है। योजना आयोग ने गाँवों में रहने वाले उन्हीं लोगों को गरीब माना है जिनका रोजाना का खर्च रुपए पंद्रह से ज्यादा न हो। इससे भी ज्यादा अतार्किक और हास्यास्पद बात यह है कि शहरी और ग्रामीण गरीबी का यह निर्धारण 2004-05 की कीमतों के आधार पर किया गया है, जबकि आज कीमतें तब के मुकाबले लगभग दोगुनी हो गई हैं।
जाहिर है कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से निर्देशित होने वाले हमारे योजनाकार गरीबों और गरीबी की खिल्ली उड़ा रहे हैं। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और उनकी योजनाकार मंडली की बाजीगरी देखिए कि उन्होंने गरीबी कम करने के तो कोई उपाय नहीं खोजे, जो कि वे खोजना भी नहीं चाहते हैं और न ही खोज सकते हैं पर गरीबों की संख्या कम करने और दिखाने की कई नायाब तरकीबें उन्होंने जरूर ईजाद कर ली हैं।
वैसे गरीबों की संख्या कम करने का सबसे पुराना तरीका तो वह गरीबी रेखा है जो सत्तर के दशक में इंदिरा गाँधी के गरीबी हटाओ कार्यक्रम के तहत ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी और शहरी इलाकों में 2100 कैलोरी के उपभोग के आधार पर गढ़ी गई थी। इसके तहत जिस भी व्यक्ति की मासिक आमदनी इस जरूरी कैलोरी का भोजन जुटाने लायक नहीं थी उसे गरीबी रेखा के नीचे माना गया था।
अब भी गरीबी मापने के लिए शहरी और ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति मासिक आमदनी की जो सीमा तय की गई है उसमें 2400 कैलोरी का भोजन तो दूर, एक वक्त का भोजन भी जुटाना मुश्किल है। इसलिए योजना आयोग द्वारा निर्धारित गरीबी की इस रेखा को अर्थशास्त्री अगर भुखमरी की रेखा कहते हैं तो इसमें गलत क्या है?
योजनाकारों द्वारा बनाई गई गरीबी मापने की यह कसौटी दरअसल गरीबी की वास्तविक तस्वीर छिपाने की फूहड़ कोशिश ही है और साथ ही देश के गरीबों के साथ शर्मनाक मजाक भी। यही वजह है कि एनएसी के सदस्य इस कसौटी को लेकर आगबबूला हैं। गरीबी मापने के अंतरराष्ट्रीय मापदंड के अनुसार प्रतिदिन सवा डॉलर तक खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब और एक डॉलर तक खर्च करने वाले को अति गरीब माना जाता है। अगर यही मापदंड भारत में लागू किया जाए तो कैसी तस्वीर दिखाई देगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
सवाल उठता है कि आखिर हमारे योजनाकार गरीबी की असली तस्वीर पर पर्दा क्यों डालना चाहते हैं? जाहिर है कि वे ऐसा करके मौजूदा आर्थिक नीतियों की सार्थकता साबित करना और गरीब तबके के लिए चलने वाली योजनाओं के बजट में कटौती करना चाहते हैं और सबसिडी का बोझ घटाना चाहते हैं। इसके लिए यह जरूरी है कि सरकारी आँकड़ों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों की संख्या सीमित रखी जाए लेकिन कोई कितनी ही और कैसी भी कोशिश कर ले, आम लोगों की आर्थिक हालत ऐसी चीज है जो छिपाने की लाख कोशिशों के बाद भी नहीं छिप सकती।
पिछले कुछ वर्षों से देश के चंद उद्योग घरानों की संपत्ति में हो रहा बेतहाशा इजाफा और देश के विभिन्न इलाकों में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं और भूख व कुपोषण से हो रही मौतें बता रही हैं कि किस तरह से भारत का निर्माण हो रहा है और सरकार का हाथ किसके साथ है। खुद यजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका के सिलसिले में दायर अपने हलफनामे में कहा है कि देश में प्रतिदिन कोई ढाई हजार बच्चे कुपोषण की वजह से मौत के मुंह में चले जाते हैं। दूसरी ओर भंडारण की बदइंतजामी, गोदामों की कमी और लापरवाही के चलते हजारों टन अनाज हर साल सड़ जाता है।
इतनी सारी कड़वी हकीकतों के बावजूद सरकार के योजनाकार गरीबों की संख्या सीमित बताने की फूहड़ और शर्मनाक कोशिशें कर रहें हैं। ऐसे में सारा दारोमदार मानसून सत्र में आने वाले खाद्य सुरक्षा बिल पर है, जिसमें अगर गरीबी रेखा का तर्क संगत निर्धारण होगा तो ही सरकारों की नीतियों और प्राथमिकताओं में -
पिछले दिनों केंद्र सरकार ने लंबी ऊहापोह के बाद फैसला किया है कि 2011 की जनगणना के साथ जातियों के आँकड़े जुटाने के साथ ही गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाली आबादी के आँकड़े भी जुटाए जाएँगे। इसी फैसले के तहत सरकार लगभग रुपए साढ़े तीन हजार करोड़ खर्च कर इसी महीने पूरे देश में गरीबों की पहचान के लिए गणना अभियान शुरू कर रही है। लेकिन सवाल यह खड़ा हो गया है कि सरकार किसे गरीब मानेगी।
गरीबी मापने की जो प्रचलित सरकारी पद्धति है उसे तमाम अर्थशास्त्री नकारते रहे हैं। गरीबी मापने के जो अंतरराष्ट्रीय पैमाने हैं, उनमें और हमारी सरकारी पद्धति में भी कोई साम्य नहीं है। दरअसल, सरकार में बैठे योजनाकारों द्वारा गरीबी मापने का जो पैमाना तय किया गया है, वह गरीबी को मापने से ज्यादा गरीबी को छिपाने का काम करता है। यही वजह है कि योजना आयोग द्वारा निर्धारित गरीबी की परिभाषा से सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) भी सहमत नहीं है।
योजना आयोग ने 2004-05 में बताया था कि देश में सिर्फ 27 फीसद लोग गरीब हैं। योजना आयोग द्वारा ही 2009 में गठित सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने यह आँकड़ा खारिज करते हुए बताया कि 37 फीसद भारतीय गरीब हैं, जिनमें 42 फीसद गरीब गाँवों में बसते हैं।
तेंदुलकर समिति का यह अनुमान भी हकीकत से दूर है। तेंदुलकर समिति के बाद उसी दौर में असंगठित क्षेत्र की स्थिति के अध्ययन के लिए गठित अर्जुन सेनगुप्त की सदारत वाली एक अन्य समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुल आबादी के 78 फीसद हिस्से के गरीब होने का अनुमान पेश किया था। इसके बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से गठित एनसी सक्सेना की अध्यक्षता वाली समिति ने आधी यानी 50 फीसद आबादी को गरीब माना। अब योजना आयोग ने गरीबी की जो कसौटी बनाई है, वह हैरान करने वाली और निहायत ही हास्यास्पद है।
अपनी बनाई इस कसौटी को योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में भी पेश किया है। इस कसौटी के मुताबिक शहरी क्षेत्र में रुपए 578 मासिक यानी प्रतिदिन रुपए बीस से कम पर गुजर-बसर करने वाले व्यक्ति को गरीब माना जाएगा। इस रुपए 578 में दो वक्त का खाना, मकान का किराया, दवाई आदि समेत बीस मदें शामिल हैं। इसमें सब्जी-भाजी की मद में खर्च की सीमा एक रुपए बाईस पैसे प्रतिदिन है। इस खर्च सीमा में कोई व्यक्ति दो वक्त की बात तो छोड़िए, एक वक्त के लिए भी कैसे सब्जी-भाजी जुटा सकता है?
इसी तरह शहरों में मकान के किराए पर खर्च की सीमा रुपए इकतीस प्रति व्यक्ति प्रतिमाह रखी गई। ग्रामीण इलाकों के लिए तो गरीबी की कसौटी और भी सख्त है। योजना आयोग ने गाँवों में रहने वाले उन्हीं लोगों को गरीब माना है जिनका रोजाना का खर्च रुपए पंद्रह से ज्यादा न हो। इससे भी ज्यादा अतार्किक और हास्यास्पद बात यह है कि शहरी और ग्रामीण गरीबी का यह निर्धारण 2004-05 की कीमतों के आधार पर किया गया है, जबकि आज कीमतें तब के मुकाबले लगभग दोगुनी हो गई हैं।
जाहिर है कि विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से निर्देशित होने वाले हमारे योजनाकार गरीबों और गरीबी की खिल्ली उड़ा रहे हैं। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और उनकी योजनाकार मंडली की बाजीगरी देखिए कि उन्होंने गरीबी कम करने के तो कोई उपाय नहीं खोजे, जो कि वे खोजना भी नहीं चाहते हैं और न ही खोज सकते हैं पर गरीबों की संख्या कम करने और दिखाने की कई नायाब तरकीबें उन्होंने जरूर ईजाद कर ली हैं।
वैसे गरीबों की संख्या कम करने का सबसे पुराना तरीका तो वह गरीबी रेखा है जो सत्तर के दशक में इंदिरा गाँधी के गरीबी हटाओ कार्यक्रम के तहत ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी और शहरी इलाकों में 2100 कैलोरी के उपभोग के आधार पर गढ़ी गई थी। इसके तहत जिस भी व्यक्ति की मासिक आमदनी इस जरूरी कैलोरी का भोजन जुटाने लायक नहीं थी उसे गरीबी रेखा के नीचे माना गया था।
अब भी गरीबी मापने के लिए शहरी और ग्रामीण इलाकों में प्रति व्यक्ति मासिक आमदनी की जो सीमा तय की गई है उसमें 2400 कैलोरी का भोजन तो दूर, एक वक्त का भोजन भी जुटाना मुश्किल है। इसलिए योजना आयोग द्वारा निर्धारित गरीबी की इस रेखा को अर्थशास्त्री अगर भुखमरी की रेखा कहते हैं तो इसमें गलत क्या है?
योजनाकारों द्वारा बनाई गई गरीबी मापने की यह कसौटी दरअसल गरीबी की वास्तविक तस्वीर छिपाने की फूहड़ कोशिश ही है और साथ ही देश के गरीबों के साथ शर्मनाक मजाक भी। यही वजह है कि एनएसी के सदस्य इस कसौटी को लेकर आगबबूला हैं। गरीबी मापने के अंतरराष्ट्रीय मापदंड के अनुसार प्रतिदिन सवा डॉलर तक खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब और एक डॉलर तक खर्च करने वाले को अति गरीब माना जाता है। अगर यही मापदंड भारत में लागू किया जाए तो कैसी तस्वीर दिखाई देगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
सवाल उठता है कि आखिर हमारे योजनाकार गरीबी की असली तस्वीर पर पर्दा क्यों डालना चाहते हैं? जाहिर है कि वे ऐसा करके मौजूदा आर्थिक नीतियों की सार्थकता साबित करना और गरीब तबके के लिए चलने वाली योजनाओं के बजट में कटौती करना चाहते हैं और सबसिडी का बोझ घटाना चाहते हैं। इसके लिए यह जरूरी है कि सरकारी आँकड़ों में गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वालों की संख्या सीमित रखी जाए लेकिन कोई कितनी ही और कैसी भी कोशिश कर ले, आम लोगों की आर्थिक हालत ऐसी चीज है जो छिपाने की लाख कोशिशों के बाद भी नहीं छिप सकती।
पिछले कुछ वर्षों से देश के चंद उद्योग घरानों की संपत्ति में हो रहा बेतहाशा इजाफा और देश के विभिन्न इलाकों में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं और भूख व कुपोषण से हो रही मौतें बता रही हैं कि किस तरह से भारत का निर्माण हो रहा है और सरकार का हाथ किसके साथ है। खुद यजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका के सिलसिले में दायर अपने हलफनामे में कहा है कि देश में प्रतिदिन कोई ढाई हजार बच्चे कुपोषण की वजह से मौत के मुंह में चले जाते हैं। दूसरी ओर भंडारण की बदइंतजामी, गोदामों की कमी और लापरवाही के चलते हजारों टन अनाज हर साल सड़ जाता है।
इतनी सारी कड़वी हकीकतों के बावजूद सरकार के योजनाकार गरीबों की संख्या सीमित बताने की फूहड़ और शर्मनाक कोशिशें कर रहें हैं। ऐसे में सारा दारोमदार मानसून सत्र में आने वाले खाद्य सुरक्षा बिल पर है, जिसमें अगर गरीबी रेखा का तर्क संगत निर्धारण होगा तो ही सरकारों की नीतियों और प्राथमिकताओं में -
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सौजन्य: इंडिया टुडे
गरीबों के साथ ही जाति की गणना पर मुहर लगाकर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने लंबे समय से चली आ रही 'गरीबी हटाओ' की राजनीति को नए सिरे से हवा दी है.
लेकिन इस चक्कर में सरकार ने जनगणना के मूल सिद्धांतों को ही सिर के बल खड़ा कर दिया है. जनगणना शुरू होने के पहले ही सरकार को बखूबी मालूम है कि देश में 37.2 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले (बीपीएल) हैं. और योजना आयोग इस बात पर अड़ा हुआ है कि गिनती चाहे किसी भी पैमाने पर कर ली जाए, बीपीएल की संख्या 37.2 फीसदी ही रहेगी. सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बावजूद इस आंकड़े का पेट भरने के लिए बीपीएल की गिनती का काम जून के अंत तक शुरू हो जाएगा. इस पर पूरे 4,000 करोड़ रु. की रकम खर्च होने का अनुमान है.
सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् (एनएसी) की मंजूरी मिलने के बाद सरकार के हौसले इतने बुलंद हैं कि पहले से चल रही करीब 3,000 करोड़ रु. की यूनीक आइडेंटिटी नंबर (यूआइडी) परियोजना से इसे जोड़ने के बारे में सोचा तक नहीं गया.
बीपीएल जनगणना के गणित को आसान भाषा में समझ्ना हो तो मामला यह है कि सरकार पहले से तय करना चाहती है कि वह अपनी योजनाओं में बीपीएल के लिए कितना पैसा खर्च करेगी.
अब बीपीएल की आबादी चाहे कितनी भी रहे, सरकार पैसा इतना ही खर्र्च करेगी. ऐसे में बीपीएल की बड़ी तादाद बाद में कोई झंझट खड़ा न करे, इसलिए सरकार ने बजट के साथ ही गरीबों की संख्या भी तय कर ली है.
मामले की तह में जाएं तो दिखता है कि योजना आयोग का बस चलता तो वह गरीबों की संख्या को 37.2 फीसदी से भी नीचे रखता, लेकिन बीपीएल की रूपरेखा तय करने के लिए बनी सुरेश तेंडुलकर कमेटी ने अप्रैल, 2010 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश के ग्रामीण क्षेत्र में 41.8 फीसदी आबादी गरीब है. वहीं शहरी क्षेत्र में गरीबी का आंकड़ा 25.7 फीसदी रहा. इस तरह गांव और शहर मिलाकर देश की कुल गरीब आबादी 37.2 फीसदी मान ली गई.
तेंडुलकर कमेटी ने नेशनल सेंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन के 2004-05 में किए गए नेशनल हाउसहोल्ड कंजम्शन एक्सपेंडीचर सर्वे के आधार पर यह आंकड़ा पेश किया. मजे की बात यह कि इसी सर्वेक्षण के आधार पर सरकार गरीबों की तादाद को 27 फीसदी मानकर चल रही थी, लेकिन बाद में योजना आयोग ने तेंडुलकर कमेटी की रिपोर्ट मंजूर कर ली.
उधर बीपीएल जनगणना का तरीका सुझाने के लिए गठित एन.सी. सक्सेना कमेटी ने पोषण के आधार पर देश में 50 फीसदी लोगों को गरीब माना. वहीं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के 2010 के आकलन के मुताबिक देश में 55 फीसदी लोग गरीब हैं. पर योजना आयोग ने इन आंकड़ों को स्वीकार नहीं किया.
बीपीएल जनगणना में नोडल एजेंसी की भूमिका निभा रहे केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के सचिव बी.के. सिन्हा ने साफ शब्दों में कहा, ''बीपीएल जनगणना में देश की पूरी आबादी में से 37.2 फीसदी गरीबों की पहचान करने का काम किया जाना है.'' ग्रामीण विकास मंत्रालय के अलावा शहरी विकास मंत्रालय और गृह मंत्रालय भी नोडल एजेंसी होंगे और जनगणना के लिए कर्मचारी जुटाने का काम राज्य सरकारों को करना है.
भले ही कोई सर्वेक्षण गरीब आबादी की मोटी तस्वीर दे सकता है, लेकिन सर्वेक्षण के आंकड़े जनगणना के व्यापक आंकड़ों से ज्यादा प्रामाणिक तो नहीं हो सकते. ऐसे में सर्वेक्षण के नतीजे को जनगणना पर थोपना कहां तक जायज है? इस सवाल पर सिन्हा ने कहा, ''हमें जनगणना के माध्यम से 37.2 फीसदी गरीब लोगों को छांटने का काम मिला है.
हमारा काम योजना आयोग के निर्देशों का अनुपालन करना है. इस जनगणना के माध्यम से देश की पूरी आबादी का आर्थिक वर्गीकरण हो जाएगा और इनमें से सबसे गरीब 37.2 फीसदी लोग बीपीएल माने जाएंगे. इस आंकड़े से छेड़छाड़ का अधिकार हमारे पास नहीं है.'' गौरतलब है, बीपीएल जनगणना का यह काम पूरी तरह कंप्यूटराइज्ड होगा. इसके लिए 6 लाख से अधिक टेबलेट पीसी (लेपटॉप जैसा कंप्यूटर) का इस्तेमाल किया जा रहा है. वहीं जाति के आंकड़े गुप्त रखे जाएंगे और सरकार बाद में इन्हें सार्वजनिक करेगी.
गरीबों की इस तरह की गिनती किस हद तक जायज है, इस सवाल पर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) की सचिव कविता श्रीवास्तव कहती हैं, ''पीयूसीएल पहले ही भूख और गरीबी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर चुका है. इस तरह की मनमानी जनगणना गरीबों के साथ मजाक है.''
गौरतलब है कि पीयूसीएल की याचिका पर सुनवाई के दौरान ही सुप्रीम कोर्ट ने योजना आयोग से पूछा था कि गांव में 15 रु. प्रतिदिन और शहर में 20 रु. प्रतिदिन से अधिक कमाने वाले व्यक्ति को वह किस आधार पर गरीबी रेखा से बाहर कर रहा है. आयोग ने प्रतिदिन की इसी आय के आधार पर 37.2 फीसदी गरीबों का आंकड़ा तैयार किया है.
उधर आयोग की इस बेतुकी जिद का विरोध बढ़ता जा रहा है. सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् के कुछ सदस्यों ने तो आयोग के दफ्तर योजना भवन के बाहर 23 मई को धरना-प्रदर्शन भी किया. इनमें ज्यां द्रेज, अरुणा राय और हर्ष मंदर भी शामिल हैं. धरने के बाद आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने प्रदर्शनकारियों के साथ बंद कमरे में मुलाकात भी की.
बैठक में मौजूद सूत्रों के मुताबिक दोनों पक्ष अपनी बात पर अड़े रहे. इस दौरान अहलूवालिया ने कहा कि गरीबी का कोई ना कोई पैमाना तो पहले से तय करना ही पड़ेगा. आयोग को डर है कि अगर ऊपर से गरीबों की संख्या तय नहीं की जाएगी तो राज्य सरकारें इस संख्या को अपने हिसाब से बढ़ा सकती हैं.
उसकी असल चिंता यह है कि गरीबों की संख्या 37.2 फीसदी मानने पर ही खाद्य सब्सिडी के मौजूदा बिल में 6,000 करोड़ रु. का इजाफा हो जाएगा. यह बिल मौजूदा 55,780 करोड़ रु. से बढ़कर 61,780 रु. हो जाएगा. अगर गरीबों की संख्या 50 फीसदी तक पहुंच गई तो सब्सिडी का बोझ उठाना सरकार के लिए भारी होगा.
बैठक में मौजूद ज्यां द्रेज ने आयोग से कहा कि बीपीएल देश में गरीबी के निर्धारण की बेस लाइन है, इसलिए सब्सिडी से इसे जोड़ना ठीक नहीं है. गरीबों का निर्धारण उनकी गरीबी के आधार पर हो, ना कि सब्सिडी बिल के आधार पर.
उन्होंने यह भी कहा कि जनगणना में बीपीएल एक्सक्लूजन (गरीबी रेखा से बाहर करना) पर जितना पैसा खर्च होगा उसमें तो बहुत-से गरीबों का भला हो जाएगा. बीपीएल जनगणना के मौजूदा तरीके पर अरुणा राय का मानना है कि इस तरह से गरीबों की गिनती करना देश की गरीब आबादी के साथ खिलवाड़ है. इस गिनती में असली गरीब बाहर छूट जाएंगे. ऐसे आंकड़े जब राशन वितरण प्रणाली में लागू किए जाएंगे तो इसके नतीजे भयानक होंगे.
सरकार गरीबों की असली संख्या से डर रही है. लेकिन जिस तरह एनएसी ने भी जनगणना को मंजूरी दे दी है उससे लगता नहीं कि एनएसी सदस्यों का विरोध कोर्ई असर डाल पाया है.
अब जरा इस पर नजर डालें कि आखिर सरकार ने गरीबों को खोजने का क्या नायाब तरीका बनाया है. गरीबों के चयन के लिए तीन श्रेणी बनाई गई हैं-सीधे तौर पर नजर आने वाले गरीब, सीधे तौर पर गरीबी की सीमा से बाहर के लोग और गरीबी के विभिन्न स्तर के लोग (देखें बॉक्स). इसमें सबसे ज्यादा पेच इस श्रेणी में है. तीसरी श्रेणी में से कम अंक पाने वाले बहुत-से गरीब बीपीएल सूची से गायब हो जाएंगे. सरकार अपनी विभिन्न योजनाओं में सहूलियत के लिहाज से जब चाहेगी, लोगों को शामिल कर लेगी और जब चाहेगी, बाहर कर देगी. इस तरह हर योजना के अपने-अपने गरीब नजर आएंगे.
इसी कवायद को अंतरराष्ट्रीय नजरिए से देखें तो तस्वीर कुछ और ही दिखती है. ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने ऑक्सफोर्ड पावर्टी ऐंड डेवलपमेंट इनीशिएटिव (ओपीएचआई) 2010 के तहत गरीबी मापने के लिए मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआइ), बनाया है.
इस सूचकांक में गरीबों के चयन के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर को मुख्य इंडीकेटर बनाया गया है. इन तीन मुख्य इंडीकेटर के भीतर कुल 10 इंडीकेटर बनाए गए हैं. जिनमें बिजली, पानी और सेनिटेशन भी शामिल हैं. इस सूचकांक के मुताबिक भारत में 55.4 फीसदी लोग गरीब हैं और गरीब आबादी की हिस्सेदारी पाकिस्तान से अधिक है. श्रीलंका की तुलना में देश में 10 गुना ज्यादा गरीब हैं और इस मामले में हम इराक जैसे अशांत देश से भी आगे हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि पहले से तय संख्या के आधार पर क्या वाकई गरीबों के आंकड़े कभी सामने आ पाएंगे. इस बात का पूरा अंदेशा है कि लुटियन की दिल्ली से थोपी जाने वाली परियोजनाएं गांधी के गांवों पर एक बार फिर से बहुत भारी गुजरें. और नतीजा वही निकले जिसे जनकवि नागार्जुन ने एक अपनी कविता में कहा है, बाकी बच गया अंडा.
क्या है गरीबों के चयन का आधारप्रत्यक्ष गरीबः बेघर, सड़कों पर रहने वाले लोग, कूड़ा बटोरने वाले, मूल आदिवासी और कानूनी तौर पर रिहा कराए गए बंधुआ मजदूर.
गरीबी रेखा से ऊपरः मोटर वाहन वाले घर, मछली पकड़ने की पंजीकृत नाव वाले घर, ट्रैक्टर और हारवेस्टर जैसे मशीनी कृषि यंत्र रखने वाले घर, 50,000 रु. से अधिक की क्रेडिट लिमिट वाला किसान के्रडिट कार्ड रखने वाले घर, सरकारी कर्मचारी का घर (आशा और आंगनवाड़ी जैसे कार्यकर्ता इससे बाहर होंगे), किसी भी तरह के पंजीकृत उद्यम वाले घर, 10,000 रु. महीने से अधिक की आमदनी वाले घर, आयकर या प्रोफेशनल टैक्स देने वाले घर, 3 या अधिक कमरों वाले पक्के मकान में रह रहा परिवार, फ्रिज या लैंडलाइन फोन रखने वाले परिवार.
संभावित गरीबः आर्थिक सामाजिक हालात के आधार पर गरीबी के लिए शून्य से सात के बीच अंक दिए जाएंगे. सबसे अधिक अंक वाले परिवार को गरीबी सूची में नाम दर्ज कराने में प्राथमिकता मिलेगी. कैबिनेट में पास प्रस्ताव में यह तो कहा गया है कि सबसे ज्यादा गरीब परिवारों को सबसे ज्यादा अंक मिलेंगे, लेकिन अंक प्रणाली की बारीकियां तय किया जाना अभी बाकी हैं. अंक प्रणाली में गरीबों को आर्थिक स्तर के आधार पर सूचीबद्ध किया जाएगा. योजना आयोग द्वारा तय सीमा को छूने पर बीपीएल सूची पूर्ण मान ली जाएगी.
ऑक्सफोर्ड के गरीब
देश-गरीबों का प्रतिशत
भारत-55.4
चीन-12.5
नेपाल-64.7
श्रीलंका-5.3
पाकिस्तान-51.1
बांग्लादेश-57.8
इराक-14.2
स्रोत: मल्टीडायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स (एमपीआइ), ऑक्सफोर्ड पावर्टी ऐंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनीशिएटिव 2010
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