बनारस में ‘मोदी नाम केवलम्’ का चक्रवात



‘मोदी नाम केवलम्’ का चक्रवात
Apr 26 2014

।।  डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ।।  (वरिष्ठ साहित्यकार)
इन दिनों कोयल के बोलने का मौसम है. कोई और साल होता, तो अप्रैल की सुबह केवल कोयल बोलते. मगर इस बार अप्रैल में कोयल और काग एक साथ बोल रहे हैं. एक कोयल पर बीस काग. लगभग यही अनुपात है. जो लोग सुबह तड़के जागने के अभ्यस्त हैं, उनके दिन का श्रीगणोश कोयल की मीठी बोली सुन कर होती है. उसके बाद शुरू हो जाता है, चुनाव का कौवारोर, जो सड़कों-गलियों से होते हुए टीवी चैनलों तक पहुंचता है. अखबारों में भी वही नेताओं का अनर्गल प्रलाप. स्थिति यहां तक आ गयी है कि प्रात: भ्रमण करने निकलिए, तो रास्ते में सड़कछाप प्रत्याशी लार टपकाते मिल जायेंगे. एक नवोदित पार्टी ने तो ईमानदार नेताओं की फौज ही खड़ी कर दी है. लोगों की शिकायत थी कि नेता बेईमान हो गये हैं, तो उसने सस्ती दर पर थोक के भाव में नेताओं का उत्पादन शुरू कर दिया. परिणाम यह हुआ कि गली-गली में नकली क्रांतिकारी पैदा हो गये हैं. मेरे मुहल्ले का एक असफल कवि, जो कविता से ज्यादा शराब का सेवक था, इस बार चुनाव में उठ खड़ा हुआ. मगर जब यथार्थ सामने आया, तो वीरतापूर्वक पीछे हट गया. आजकल आचार संहिता को लेकर रो रहा है, जिसके कारण सारे सरकारी कवि सम्मेलन बंद हैं. एक और कवि सात साल पहले मेरी पश्मीना शाल ले उड़ा था. वह भी अब नेता हो गया है. उसने सिद्ध कर दिया कि साहित्यकार यदि राजनीति का मैला सिर पर ढोने की हिम्मत कर सके, तो उसके लिए राजनीति में अब भी संभावना है.

चाहे शहर हो, गांव हो या कस्बा हो, हर जगह प्रत्याशी मतदाता को देखते ही मक्खियों की तरह भिनभनाने लगते हैं. उनके लिए एक मतदाता एक रोटी के बराबर है. वह रोटी, जो किसी को सात दिन भूखा रहने के बाद मिले. महाभारत में अकाल के समय विश्वामित्र ने भूख से कुलबुला कर मरे हुए कुत्ते का मांस खाया था. वोट वह भीख है, जो दुर्भिक्ष के दिनों में जड़ पदार्थो से भी मिलने की आशा लेकर छुटभैये नेता घूम रहे हैं. ताव में आकर ट्रेन से टकरा गये. अब लस्त-पस्त होकर शिकायत कर रहे हैं-जबरा मारे, रोवे न दे. किसी के पास मोदी के अलावा कोई मुद्दा नहीं है. देश के मतदाताओं ने अभी मन बनाया नहीं है, मगर सारी पार्टियां मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में लगी हैं. भारतीय राजनीति क्या इतनी दिवालिया हो गयी है कि सभी दल एक स्वर से ‘मोदी नाम केवलम्’ जप रहे हैं! उस एक आदमी को पटकने के लिए भाइयों ने क्या-क्या नहीं किया. यहां तक कि उसकी पत्नी के प्रति भी हमदर्दी जता आये. न भाषा की मर्यादा रही, न संबंधों की. बड़े-बड़े नेता जहर उगल रहे हैं और मीडिया उसे सोने की थाल में रख कर लोगों के सामने परोस रहा है. जो राजनीतिक संवाद समाज या देश के लिए अशुभ है, क्या मीडिया उसे अपने विवेक से खारिज नहीं कर सकता? मीडिया को दासबुद्धि से मुक्त होना चाहिए.

सोचा था कि अब देश में लोकतंत्र वयस्क हो गया है, अबकी बार चुनाव में देश के भविष्य को संवारने के लिए सभी पार्टियां अपने-अपने संकल्प देश के मतदाताओं के समक्ष रखेंगी. मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ. बल्कि इस बार सबके होठों पर एक ही शब्द, एक ही संज्ञा- मोदी. व्याकरण की एक संज्ञा देखते-देखते, जाने-अनजाने सर्वनाम हो गयी. इतना तो स्वयं मोदी ने भी नहीं सोचा होगा. मोदी देश का प्रधानमंत्री हो न हो, वह पूरे देश में छा गया. बिहार के एक गांव में मैंने स्वयं यह देखा. एक लड़का मोदी का अभिनय कर रहा था और टोले की तमाम स्त्रियां और बच्चे उसे घेर कर नयी रामलीला देख रहे थे.

मुङो याद आया 1971 का लोकसभा चुनाव, जब जनसंघ एक दीन-हीन पार्टी की भांति चुनाव लड़ रही थी. उसके पास चुनाव-प्रचार के लिए आर्थिक साधन नहीं होते थे. जनसंघ के प्रत्याशी इसी तरह मुहल्ले के बच्चों को बटोर कर उन्हें गुड़-चना बांटते थे और छोटे-छोटे झंडे देकर उन्हें गली-गली घूमने को कहते थे. राजनीतिक दंगल में उसकी कोई औकात नहीं थी. आज वही जनसंघ भाजपा के नाम से इतनी बड़ी पार्टी हो गयी है कि एक ओर सारी पार्टियां और दूसरी ओर अकेले यह. देश की राजधानी दिल्ली के नेतागण हर साल रावण का पुतला जलाने के अभ्यस्त हैं. बहुत संभव है, उन्हें मोदी में भी रावण दिखायी दे रहा हो. किसी ने कहा भी कि यह गुब्बारा है, चुनाव के बाद फट जायेगा. हो सकता है कि उसकी बात में दम हो. मगर, चुनाव के परिणाम एक तरफ और मोदी की अपार जनप्रियता एक तरफ. मानना पड़ेगा कि मोदी का जादू चल गया है. अब चुनाव-परिणाम कई कारणों से प्रभावित होते हैं. इसलिए प्रधानमंत्री कोई भी बनेगा, सिक्का मोदी का ही चलेगा.

इसका सबसे बड़ा सबूत है, 24 अप्रैल को बनारस में नरेंद्र मोदी को देखने के लिए उमड़ी भीड़, जिसकी कल्पना शायद भाजपा के संयोजकों ने भी नहीं की थी. किसी ‘बाहरी’ राजनेता के स्वागत में पूरा शहर ही नहीं, आसपास के गांव भी उमड़ आये थे. जो लोग बनारस को नहीं जानते, बाहरी-भीतरी परिकल्पना उनके संकीर्ण मस्तिष्क की उपज है. बनारस एक ऐसा शहर है, जो बाहरी प्रतिभाओं को मांज कर चमकाने में विश्वास रखता है. इसके घाट देश की विभिन्न रियासतों ने बनवाये हैं. बिस्मिल्ला खां से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी तक सभी बाहर से आकर बनारसी हो गये. यहां तक कि जिसे बाहर के लोग बनारसी पान कहते हैं, वह भी मगध से आता है, और बनारसी चौरसिया के हाथ फेरते ही सोने के रंग का हो जाता है. बनारस की संस्कृति में न कोई हिंदू है, न मुसलिम. वह सिर्फ बनारसी है. बनारस के शायर नजीर बनारसी ने जिस अंदाज में काशी के घाटों, गंगा की आरती, सुबह-ए-बनारस, भांग और बाबा विश्वनाथ को अपनी शायरी में उकेरा है, वैसा किसी से संभव नहीं हुआ. भाजपा के लोग साहित्य की समझ थोड़ी कम रखते हैं, वरना मोदी के प्रस्तावकों में नजीर साहब के परिवार को शामिल करना चाहिए था.

मोदी के विरोधी नेता आपनी-अपनी अकल भर लोगों को कितना ही भड़काएं, मगर काशी के मतदाता यह जानते हैं कि उनका वोट किसी सांसद के लिए नहीं, बल्कि देश के प्रधानमंत्री बनाने के लिए है. इससे पहले बनारस के लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे, मगर बहुत थोड़े दिनों के लिए. वह समय भी भारत-पाकिस्तान युद्ध के हवाले हो गया. काशी के लोगों को यह विश्वास है कि मोदी के आने से बनारस अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के अनुरूप विकास के अवसर पा सकेगा. नजीर साहब यदि आज जीवित होते, तो पांडेय हवेली में अपने नगर के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी को बीच राह में रोक कर शायद यही कहते :

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