क्यों महत्वपूर्ण है नरेंद्र मोदी की पहल
नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक हैं , यह राष्ट्रवादी संगठन अखंड भारत की साधना करता है , आज की जो परिस्थिती में , दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) ही अखण्ड भारत का स्वरूप है ।
दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) को बुलाया जाना नई, मगर अच्छी परंपरा भी है । एक नई सरकार के साथ पहले ही दिन से पड़ोसियों से अच्छे संबंध बनाने का मौका मिलाना भी है !
क्यों महत्वपूर्ण है मोदी की पहल
हर्ष वी पंत, रक्षा विशेषज्ञ, किंग्स कॉलेज, लंदनhttp://www.livehindustan.com
नरेंद्र मोदी के शपथ-ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) के सदस्य राष्ट्रों के शासनाध्यक्षों को दिया गया न्योता एक अच्छी शुरुआत है। यह पहल बताती है कि भारत की नई सरकार दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय समीकरणों के अंदर समस्याओं के समाधान को लेकर गंभीर है। सच तो यह है कि भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों के नेताओं ने मोदी से संपर्क साधा है, जो नई सरकार के लिए एक अच्छा शगुन है। पाकिस्तान नई सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बना रहेगा। इस्लामाबाद की विदेशी नीति को आकार देने में नागरिक सरकार और फौज के बीच का मतभेद एक महत्वपूर्ण कारक के तौर पर मौजूद है। भारत के मामले में तो खासतौर पर। पाकिस्तान की नवाज शरीफ हुकूमत भारत के साथ ठोस सकारात्मक कदम उठाने की इच्छुक है या वह कदम उठाने में सक्षम है, यह अभी पूरी तरह से साफ नहीं है।
पाकिस्तान द्वारा भारत को सर्वाधिक तरजीही मुल्क का दर्जा देने का निर्णय अभी अटका हुआ है और हाल के महीनों में कश्मीर पर बयानबाजी भी तीखी हो गई है। पाकिस्तान ने कई बार स्वीकार किया है कि मनमोहन सिंह सरकार से उसकी बातचीत निर्थक रही और वह नई सरकार का इंतजार कर रहा है। पाकिस्तान में कई जानकार यह सलाह दे रहे हैं कि मजबूत मोदी सरकार भारत के साथ लंबे समय तक चलने वाले समाधान के अवसर उपलब्ध कराएगी। मोदी की जीत के बाद पाकिस्तानी हुकूमत भारत की नई सरकार के पाले में गेंद डालने की जल्दी में है। इधर, भाजपा ने संकेत दिया था कि पाकिस्तान के साथ उच्च-स्तरीय वार्ता तभी बढ़ेगी, जब कुछ बुनियादी शर्तें पूरी होंगी। ये शर्तें हैं- मुंबई पर आतंकी हमलों के गुनहगारों की सुपुर्दगी और आतंकी गतिविधियों के लिए पाकिस्तानी जमीन का इस्तेमाल न होने देने की गारंटी।
बयानबाजी कैसे वास्तविक नीतियों में परिवर्तित होती है, यह भी हमें आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा। लेकिन शपथ-ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को निमंत्रण देकर मोदी पहल करने में तो कामयाब रहे हैं। भारतीय राजनीति में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के उदय का स्वागत बांग्लादेश ने भी किया है। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने मोदी को अपने बधाई संदेश में यह सुझाव दिया है कि विदेश दौरे के तौर पर वह सबसे पहले ढाका आएं। यह बयान काफी महत्वपूर्ण है। बीते कुछ वर्षो से हसीना भारत के लिए एक महत्वपूर्ण सहयोगी रही हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार के दबाव के चलते केंद्र की पूर्व संप्रग सरकार कुछ मुद्दों पर ठोस निर्णय नहीं कर पाई, जिसे ढाका ने शिद्दत से महसूस किया। शेख हसीना ने द्विपक्षीय मुद्दों के समाधान की ओर बढ़ने के लिए बड़े राजनीतिक जोखिम उठाए। किंतु इस दिशा में भारत की तरफ से सार्थक प्रयास नहीं हुए।
नौकरशाहों की काहिली और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के चलते कई समझौते-मुद्दे अधर में अटके रह गए। ढाका की मांग है कि बांग्लादेशी उत्पादों पर से चुंगी और गैर-चुंगी बाधाएं हटाई जाएं और इस मामले में वह भारत से फौरी फैसला चाहता है। सीमा से जुड़े मुद्दों पर भी बहुत कम प्रगति हुई है। हसीना के प्रस्तावों का जवाब देने में भारत विफल रहा है। ऐसे में, मोदी सरकार के पास एक अवसर होगा कि वह इस दिशा में नई शुरुआत करे, भारतीय वायदों को पूरा करे, जिनसे द्विपक्षीय संबंधों में कुछ भरोसा बहाल हो। एक साझेदार के तौर पर स्थिर और शांत बांग्लादेश भारत के दीर्घकालीन हित में है। रचनात्मक भारत-बांग्लादेश संबंध दक्षिण एशियाई क्षेत्र की स्थिरता के लिए भी महत्वपूर्ण हो सकता है।
भारत के लिए श्रीलंका मुश्किल देश बना हुआ है। कोलंबो महत्वपूर्ण है, क्योंकि हिंद महासागर मायने रखता है। इस सदी का ‘सबसे बड़ा खेल’ हिंद महासागर में ही खेला जाएगा। भारत की भौगोलिक स्थिति हिंद महासागर में इसे प्रचुर सामरिक लाभ दिलाती है, लेकिन इसका यह निश्चित मतलब नहीं कि नई दिल्ली इस भौगोलिक लाभ पर काबिज होने की स्थिति में है। इस क्षेत्र में चीन का प्रभुत्व बढ़ रहा है और श्रीलंका के साथ उसके संबंध इसी लक्ष्य की बुनियाद पर टिके हैं कि दुनिया के इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में अपनी पकड़ बढ़ानी और मजबूत बनानी है। भारतीय नीति-नियंताओं को इधर शीघ्र काम करने की जरूरत है, अन्यथा वे इस खेल को गंवाने की स्थिति में आ जाएंगे। कोलंबो में हमारे लिए एक उम्मीद है। जयललिता की अन्नाद्रमुक केंद्र की नई गठबंधन सरकार की साझेदार नहीं है, इसे देखते हुए भारत कोलंबो के साथ अपने संबंध मधुर और स्थायी बना सकता है। वैसे, राज्यसभा में अन्नाद्रमुक के साथ की जरूरत मोदी सरकार को पड़ेगी और इससे श्रीलंका के लिए भारत की पहल सीमित भी हो सकती है।
लोकतांत्रिक स्थिरता पाने के लिए नेपाल का प्रयोग जारी है। हाल के वर्षों में वहां की राजनीतिक-आर्थिक अस्थिरता ने अधिक अनिश्चितता पैदा की। भारत को वहां की घरेलू सियासत में एक समस्या के तौर पर देखा जाता है। नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता ने वहां भारत-विरोधी भावनाओं को हवा और चीन के विस्तार को अनुमति दी है। हिमालय-राष्ट्र संकट के दौर से गुजर रहा है और भारत को परदे के पीछे से डोर खींचने-कसने का आरोपी ठहराया जाता है। असुरक्षा की इसी भावना का फायदा बीजिंग उठा रहा है। ऐसे समय में, नेपाल की तमाम सियासी पार्टियों ने नरेंद्र मोदी की भावी सत्ता का स्वागत किया है, इस उम्मीद के साथ कि मोदी के विकासवादी एजेंडे का लाभ नेपाल को होगा।
अफगानिस्तान सत्ता हस्तांतरण के अहम पड़ाव पर खड़ा है। दिल्ली में यह बहस वर्षों से चल रही है कि अफगानिस्तान में भारत सुरक्षा के लिए किस हद तक जाए, लेकिन अभी तक कुछ भी तय नहीं हुआ। यदि भारत यह साफ नहीं करता है कि पश्चिमी फौजों की विदाई के बाद वह अफगानिस्तान में अपने लिए सख्त सुरक्षा व्यवस्था चाहता है तथा अपने रक्षा-हितों को बढ़ाना चाहता है, तो वहां से पश्चिमी फौज के निकलते ही भारत के तमाम निवेश बेकार चले जाएंगे। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई अपने हालिया भारत दौरे पर इसी मुद्दे को तरजीह देते नजर आए और उन्होंने बताया भी कि वह नई दिल्ली से किस तरह की रक्षा मदद चाहते हैं। मोदी सरकार के पास अफगान नीति को पुन: आकार देने का मौका तब होगा, जब काबुल में सरकार बदल चुकी होगी।
विश्व-शक्ति होने के तमाम दावों के बीच भारत दक्षिण एशियाई राष्ट्र की अपनी पहचान खोता गया है। समय आ चुका है कि दक्षिण एशिया पर जोर दिया जाए और इस क्षेत्र के कई संकटों से निपटा जाए। ऐसा इसलिए कि यदि नई दिल्ली ने इस तरह की अपनी उदासीनता दिखाई, तो दूसरी ताकतें इस शून्य को भर देंगी और यह भारत के हित में नहीं होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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