प्रबल राष्ट्रवादी : भीमराव अम्बेडकर


प्रबल राष्ट्रवादी : भीमराव अम्बेडकर

प्रभात कुमार रॉय
(पूर्व प्रशासनिक अधिकारी)

बाबासाहेब डा.अम्बेडकर एक अत्यंत प्रखर देशभक्त और प्रबल राष्ट्रवादी थे। 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग ने भारत का विभाजन करके पाकिस्तान निर्मित करने कै प्रस्ताव पारित किया था। इस प्रस्ताव के पश्चात बाबासाहेब डा.अम्बेडकर की एक पुस्तक ऑन पार्टिशन प्रकाशित हुई। इस प्रभावशाली और विचार उत्तेजक पुस्तक को पढ़कर ज्ञात होता है कि डा.अम्बेडकर कितने जबरदस्त राष्ट्रवादी थे। ऑन पार्टिशन के बाद डा.अम्बेडकर की पुस्तक थाट्स ऑन पाकिस्तान प्रकाशित हुई जिसने कि एक बार पुनः प्रखर देशभक्त के विचारों से अवगत कराया।  भारत की राजनीतिक एकता को मूर्तरुप देने का जैसा शानदार कार्य सरदार पटेल ने अंजाम दिया, उसी कोटि का अप्रतिम कार्य राष्ट्र की सामाजिक एकता को शक्तिशाली बनाने की खातिर डा.अम्बेडकर द्वारा किया गया। अपनी चेतना के उदय से अपनी जिंदगी के आखिरी पल तक इंसान-इंसान के मध्य भाईचारे का सूत्रपात करने और समानता की लहर प्रवाहित करने में डा.अम्बेडकर जुटे रहे। प्रजातंत्र और समानता उनके लिए पर्यायवाची शब्द कदाचित नहीं रहे। उनके अनुसार पूँजीवादी व्यवस्था के तहत मताधिकार का अधिकार उत्पीड़कों में से एक को चुन लेने का अधिकार मात्र है। वास्तविक आवश्यकता एक ऐसे समाज की संरचना करने की है, जिसके अंतर्गत शोषक और शोषित, उत्पीड़क और उत्पीड़ित वर्ग का फर्क स्वतः समाप्त हो जाए। ऐसे आर्थिक सामाजिक समत्व से परिपूर्ण समाज में प्रजातंत्र अपने वास्तविक रंग-रुप में प्रकट होगा। डा.अम्बेडकर ने व्यक्ति को समाज की वास्तविक इकाई माना और किसी धर्म-मजहब अथवा जाति को समाज की इकाई तसलीम नहीं किया।

     राष्ट्रवाद की उनकी अवधारणा में किसी तरह की संकीर्णता के लिए कदाचित कोई स्थान नहीं रहा। बाबासाहेब डा.अम्बेडकर ने कहा था कि मैं ब्राहम्णवाद का कट्टर विरोधी हूँ। किंतु मैं व्यक्तिगत तौर पर किसी ब्राहम्ण का विरोधी कदाचित नहीं हूँ। मानवता के समर्थक अनेक ब्राहम्ण मेरे व्यक्तिगत मित्र रहे। मेरी मान्यता है कि इंसान अपने गुणों ,ज्ञान, चिंतन-मनन और कर्मों से बड़ा अथवा छोटा होता है, न कि अपने कुल, जाति और जन्म के कारण से। डा.अम्बेडकर ने शिक्षित बनो का प्रबल उदघोष किया और सामाजिक एवं आर्थिक दासता के बरखिलाफ जोरदार जंग करने की पैरोकारी की। बाबासाहेब अम्बेडकर का नाम लेकर जातिवादी राजनीति करने कथित अम्बेडकरवादी, वस्तुतः डा.अम्बेडकर के विचारों के साथ विश्वासघात करने में जुटे हुए हैं। जो तत्व दलित राजनीति को संकीर्ण जातिवाद में उलझा देने पर आमादा रहे हैं, उनका बाबासाहेब अम्बेडकर के विचारों से कोई वास्ता नहीं है।

बाबासाहेब डा.अम्बेडकर ने हिंदू धर्म के अंदर विद्यमान जातिवाद का और सांप्रदायिकता का जितना प्रबल विरोध किया, वैसा प्रबल विरोध जंग ए आजादी के बहुत ही कम नेताओं ने किया। डा.अम्बेडकर राष्ट्रीय काँग्रेस की विचारधारा और कार्यशैली से सदैव असहमत बने रहे। उनके अनुसार काँग्रेस द्वारा बहुत ही कम कार्य अछूतों के लिए किया। महात्मा गाँधी और काँग्रेस के द्वारा अकारण ही राष्ट्र को खिलाफत आंदोलन में झोंक दिया गया। डा.अम्बेडकर का मानना था कि काँग्रेस के सांप्रदायिक तुष्टीकरण की नीति के कारण देश के बहुत नुकसान हुआ। डा.अम्बेडकर के अनुसार अंततोगत्वा देश का साम्प्रदायिक आधार पर घटित हुआ विभाजन, वस्तुतः काँग्रेस की साम्प्रदायिक तुष्टीकरण की कुनीति का तार्किक परिणाम था। थॉटस ऑन पाकिस्तान शीर्षक से एक पुस्तक डा.अम्बेडकर द्वारा 1945 में लिखी गई। इस पुस्तक में पुस्तक डा.अम्बेडकर ने मुस्लिम सांप्रदायिकता पर अत्यंत करारी चोट की। महात्मी गाँधी द्वारा स्वयं इस पुस्तक को एक श्रेष्ठ पुस्तक क़रार दिया गया। यह पुस्तक सामायिक होते हुए भी एक सार्वभौमिक महत्व की मानी गई।

डा.अम्बेडकर ने हिंदू जातिवादी व्यवस्था को ब्राहम्णवाद की गहन विकृति करार दिया। डा.अम्बेडकर ने कहा कि हमारे लिए रोटी–पानी का सवाल ईश्वर की आराधना से कहीं अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न है। हम हिंदू धर्म में मानवीय समानता के पक्षधर है और चतुर्वणीय व्यवस्था को समूल नष्ट करना चाहते हैं। इस सबके बावजूद राष्ट्र की मूल सांस्कृतिक धारा से कदाचित पृथक नहीं होना चाहते। अपने जीवन के अंतिम काल में डा.अम्बेडकर ने हिंदू धर्म का परित्याग करके बौद्ध धर्म को अंगीकार किया तो उन्होने कहा था कि मैं तथागत को उनकी धरा पर पुनः स्थापित कर रहा हूं। घोर अपमान बर्दाश्त करते हुए भी डा.अम्बेडकर जीवन पर्यन्त भारतीय धर्म-संस्कृति में ही बने रहे और इसके अंदर सुधार के लिए प्रयत्नशील रहे।

मानवीय गरिमा-गौरव और आत्म सम्मान का प्रश्न डा.अम्बेडकर के लिए सर्वोपरि प्रश्न बना रहा। उन्होने कहा कि हमारा संघर्ष केवल सत्ता और धन-दौलत हासिल करने के लिए कदाचित नहीं है, वरन् मानवीय गुलामी को धवस्त करके संपूर्ण आज़ादी प्राप्त करने के लिए है। भारत के भविष्य को लेकर डा.अम्बेडकर सदैव चिंतित बने रहे। वह प्रयासरत रहे कि भारत विश्व पटल पर एकता, अखंडता और समता का प्रतीक बनकर उभरे। उन्होने बारम्बार कहा कि भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की हिफ़ाजत करने के लिए अति-आवश्यक है कि सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में यथाशीघ्र समता और बराबरी को समुचित तौर पर समाहित किया जाए। भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि डा.अम्बेडकर के सपनों के भारत का निर्माण नहीं हो पाया। डा.अम्बेडकर की विरासत के दावेदारों को न तो भारत की एकता और अखंडता की कोई फिक्र नहीं  रही और नाहि  सामाजिक- आर्थिक समानता के ज्वलंत प्रश्न उनके ऐजेंडे में विद्यमान हैं। कथित अम्बेडकरवादी जातिय समीकरणों को भुनाकर येन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने में जुटे रहते हैं। डा.अम्बेडकर की शानदार वैचारिक विरासत की तभी हिफाज़त हो सकती है, जबकि अम्बेडकरवादी भारतीय समाज के सबसे बदनुमा दाग़ जातिवाद को समूल नष्ट करने के संकल्प को कदाचित विस्मृत न करके भारतीय समाज को सामाजिक और आर्थिक तौर पर समतावादी बनाने के लिए प्रतिबद्ध हो जाए। डा.अम्बेडकर ने कहा था कि दलितों तुम्हें अपनी दासता स्वयं ही समाप्त करनी है। दासता के खात्मे के  लिए दलितों को किसी ईश्वरीय शक्ति अथवा किसी महामानव पर निर्भर नहीं रहना है। आगामी दौर में दलित आंदोलन को नई ऐतिहासिक उचाईयों को छूना है और बाबासाहेब डा.अम्बेडकर के सपनों के भारत का निर्माण करना है, जिसमें जाँत-पांत, ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी के फर्क पूर्णतः समाप्त हो जाएगें। सांप्रदायिकता और धार्मिक-मजहबी संकीर्णता से पूरी तरह मुक्त अत्यंत शक्तिशाली भारत का निर्माण संभव हो सकेगा।

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