सावधान ! जारी है माओवादी दुष्प्रचार !!

सावधान ! जारी है माओवादी दुष्प्रचार !!

तारीख: 25 Jan 2016 14:51:41


विजय क्रांति-(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सेंटर फॉर हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के अध्यक्ष हैं।)
2011 के बाद के महीनों में छत्तीसगढ़ पुलिस और सुरक्षा एजंेसियों ने कुछ माओवादियों को बस्तर शहर के एक बड़े उद्योग समूह के एजेंट से 15 लाख रुपए लेते हुए रंगहाथों गिरफ्तार किया था। पुलिस द्वारा जारी विवरण के अनुसार, उनमें से एक था नौजवान लिंगाराम, जो अपने माओवादियों से जुड़ाव के चलते पहले से ही पुलिस की नजरों में था। दूसरी थी उसकी रिश्तेदार कुमारी सोनी सोरी, जो, पुलिस के अनुसार, एक भीड़भाड़ वाले हाट में भाग निकलने में कामयाब हो गई, लेकिन जल्दी ही दिल्ली में एक वामपंथी अड्डे से गिरफ्तार कर ली गई थी। जांचकर्ताओं ने पाया कि माओवादी उस उद्योग समूह से यह राशि ले रहे थे जिसको उनसे पिछले कई साल से धमकियां और हमले झेलने पड़े थे। वह भुगतान एक बड़े सौदे का हिस्सा माना जा रहा था, जो छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्रप्रदेश में शांति और आजादी से काम करने की एवज में किया गया था। जल्दी ही एक स्थानीय पत्रकार को भी बड़ी मात्रा में (करोड़ों में) पैसा लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, जो उसे कई माओवादी भूमिगत नेताओं को कथित तौर पर देने वाला था।

शुरू में सुरक्षा एजेंसियां इस बड़ी उपलब्धि पर बहुत संतोष महसूस कर रही थीं। लेकिन बहुत जल्दी उन्हें यह देखकर दंग रह जाना पड़ा  कि मामला उनके और पूरे राज्य अधिष्ठान पर ही उलटा आन पड़ा था। आने वाले कुछ महीनों के दौरान राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई वामपंथी गैर सरकारी संगठनों, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार एजेंसियों, राजनीतिक नेताओं, राष्ट्रीय मीडिया और मानवाधिकार के स्वयंभू मसीहाओं और देशभर के विश्वविद्यालयांे में महिला अधिकारों के पैरोकारों द्वारा दुष्प्रचार का युद्ध इस पैमाने पर छेड़ दिया गया कि न तो राज्य सरकार और न ही उसके इस मामले से जुड़े अधिकारी उस दुष्प्रचार के हमले का सामना कर पाए।

दुष्प्रचार के इस तमाशे ने लगभग हर तरह की तरकीब अपनाई, जो वामपंथियों के अपने दुश्मनों पर हमले से जुड़ी थी। न केवल अरुंधति राय जैसे बड़े नामों और कानून के प्रशांत भूषण जैसे दिग्गजों ने उस अभियान और कानूनी कार्रवाई में खुद को शामिल किया, बल्कि कई संदिग्ध दिखने वाले अंतरराष्ट्रीय समूहों, जो संभवत: अंतरराष्ट्रीय ईसाई कन्वर्जन अधिष्ठान द्वारा प्रायोजित और पोषित थे, ने भी इस मामले को भारत की छवि को एक ऐसे समाज के तौर पर पेश किया जिसमें 'भेदभाव' किया जाता है। एक अंतरराष्ट्रीय वेबसाइट-'यूनाइटेड ब्लैक अनटचेबल्स...' और एक अन्य 'इंडियन होलोकास्ट...' ने इसी तरह की अपीलें पोस्ट कीं, जो मशहूर वामपंथी दुष्प्रचाररत लेखक हिमांशु कुमार ने लिखी थीं, शीर्षक था 'द वैरी राइट ऑफ लिविंग इन दिस कंट्री हैज बीन स्नैच्ड फ्रॉम मी'। इसी तरह कुछ और समूहों ने कुछ देशों में भारतीय दूतावासों और कॉन्सुलेट पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने के लिए प्रदर्शन किया, उनका दावा था कि सोनी सोरी भारतीय 'रंगभेद' की शिकार है। सोनी के पक्ष में समर्थन पाने के लिए जो पर्चे बांटे गए उनमें से एक पर अक्खड़ अंदाज में एक भड़काऊ शीर्षक था-'हाऊ वुड यू फील इफ फाइव पुलिसमैन होल्ड यू डाउन एंड पुश्ड दिस इन टू योर एनस'।

जिस देश में एक खास कानूनी आपराधिक मामले की कामयाबी व्यवस्था तंत्र और बचाव पक्ष के उत्साह और निष्ठा पर बहुत ज्यादा आधारित हो, गवाहों के दमखम और न्यायदाता तंत्र के साहस पर आधारित हो, वहां आश्चर्य था कि राज्य सरकार और इसकी एजेंसियांे को मामले को रफादफा होने देना ही बेहतर लगा। कहानी के अंत मंे सोनी सोरी भारतीय अधिष्ठान को तब नाक चिढ़ाती सामने आई उसने जब बस्तर में आम आदमी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा, हालांकि वह कामयाब नहीं हुई। भारतीय वामपंथी, खासकर माओवादी भारतीय बुद्धिजीवियों के एक वर्ग की गफलत पर फलते-फूलते हैं, जो अपनी मान्यता से भले वामपंथी न हों, लेकिन भद्र और राजनीतिक नजरिये से सुभीते दिखने की इच्छा के चलते आसानी से इस दुष्प्रचार के शिकार हो जाते हैं। दिवंगत विनोद मेहता इसके एक खास उदाहरण रहे हैं, जो 'आउटलुक' पत्रिका के संस्थापक संपादक थे। हालांकि उन्होंने खुद 'बुर्जुआ' जीवनशैली ही अपनाई थी, लेकिन वे हमेशा वामपंथियों को अपनी पत्रिका का उनके सत्ता विरोधी दुष्प्रचार का हस्तक बनने देने में उत्साहित दिखते थे। एक बार उन्होंने अरुंधति राय को उनका एक कुख्यात और असाधारण रूप से लंबा निबंध (3200 शब्द से ज्यादा लंबा) प्रकाशित करने दिया जिसका शीर्षक था 'वॉकिंग विद द कामरेड्स'। निबंध न केवल भारतीय लोकतांत्रिक अधिष्ठान के बल की भर्त्सना और उसको चुनौती देता था, बल्कि माओवादियों के भारत विरोधी हिंसक अभियानों की तारीफ करता था और उसे न्यायपूर्ण ठहराता था।

मेहता ने कई मौकों पर एक और संदिग्ध माओवादी दुष्प्रचाररत दिल्ली विश्वविद्यालय की कामरेड (कुमारी) नलिनी सुंदर को 'आउटकुल' के जरिये माओवादी विचार प्रसारित करने की सहूलियत दी। ऐसे ही एक आलेख में उन्होंने न केवल जीरमघाटी में 2013 में माओवादियों द्वारा छत्तीसगढ़ के लगभग पूरे वरिष्ठ कांग्रेसी नेतृत्व की सामूहिक हत्या को न्यायसंगत बताते हुए महिमामंडित किया, बल्कि वे मशहूर जनजातीस कांग्रेसी नेता महेन्द्र कर्मा की हत्या पर भी खीसें निपोरती दिखीं जिन्होंने बस्तर के वनवासियों का सलवा जुडुम अभियान शुरू कराया था, जो माओवादियों के बेरहम संहारों और जनजातीय समाज की प्रताड़ना के खिलाफ उबरे जनाक्रोश से उपजा था। भारतीय वामपंथियों द्वारा पूरे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया को अपनी दलीलों से रिझा लेना, नारेबाजी करने वालों और न्यायतंत्र को सलवा जुडुम को 'राज्य प्रायोजित आतंकी समूह' जैसा मान लेने को तैयार कर लेना इसका एक शानदार उदाहरण हो सकता है कि लोकतंत्र में जनमत और नीति निर्माण को कैसे प्रभावित किया जाय।

खोज करने पर मुझे 'तहलका' पत्रिका, जिसे खांटी कांग्रेसी समर्थक तरुण तेजपाल संपादित करते थे, में 20 से ज्यादा समाचार दिखे जो खासतौर पर सोनी सोरी को समर्पित थे। दरअसल भारतीय मीडिया में बैठे वामपंथी समर्थक आजाद भारत के इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना को आसानी से छिपा लेते हैं जिसमें माओवादियों ने 2007 में मई और जून में छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में बिजली के टावर उड़ा दिए थे। बस्तर इलाके के नागरिक, जिनमें जनजातीय और गैर जनजातीय दोनों थे, को अस्पताल और पेयजल जैसी बुनियादी सुविधाओं के बिना जीने को मजबूर कर दिया गया था।

माओवादियों के मीडिया मैनेजरों ने लोक व्यवस्था की संवेदनशीलता और राष्ट्रीय मीडिया की अकर्मण्यता को बेनकाब करके रख दिया था। ऐसी कुछ पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के अलावा, अनेक वेबसाइट हैं जो या तो ईसाई कन्वर्जन तंत्र द्वारा सीधे शुरू की गई हैं या उससे पोषित-समर्थित हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब माओवादी नेताओं जैसे विनायक सेन, कोबाड़ घंडी, जी. एन. साईबाबा और सुधीर धवले की गिरफ्तारी हुई तो सोशल मीडिया की इस कड़ी ने भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग को प्रभावित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हुए वामपंथी दुष्प्रचार तंत्र का हस्तक बनने की हिमाकत  की थी।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत का राजनीतिक समुदाय बढ़ते माओवादी संकट के पीछे मौजूद असली संकट को समझने में नाकाम रहा है।
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वामपंथी विचारधारा का सच
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1932 में रुस में पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत हुई। समाजवादी पैटर्न के कारण हमने भी आंख मूदकर अपने यहां लागू कर लिया। खैर 1932 के पंचवर्षीय योजना में रुस ने कहा कि इसके अंत तक अर्थात 1936 तक रुस में हम सभी चर्च बंद करा देंगे। कारण कि धर्म अफीम की गोली है। 1937 में फिर से लिख दिया कि GOD WILL BE EXPELLED FROM RUSSIA. लेकिन रुस और चीन ने जो संविधान बनाया उसमें मौलिक अधिकारो में freedom of religion को शामिल कर दिया गया। कुछ साल पहले जो कैथोलिक चर्च के पोप हैं वह पोलैण्‍ड गये, पोलैण्‍ड एक कम्‍यूनिस्‍ट देश है जहां की आधी आबादी पोप साहब के दर्शन करने आई। संयाेग से होम टाउन सैंटो के निवासी पोप ने अपने ही देश और शहर में लोगों से कहा कि धर्म अफीम की गोली है और मनुष्‍य आर्थिक प्राणी है इसका मै तीब्र विरोध करता हूं। 
दूसरा state withers away राज्‍य तिरोहित हो जायेगा, दुनियां के मजदूर इक्‍टठा हो जायेगें कितना हास्‍यास्‍पद निकला जब चीन ओर रुस सीमा विवाद में फंसे रहे, यूगोस्‍लाविया और रुस लडते रहे, यूगोस्‍लाविया और वियतनाम गाली गलौज करते रहे, इसी तरह वियतनाम और कंबोडिया मारकाट मचाये रहे ये सभी वामपंथी थे और सभी राष्‍ट्रवादी हो गये अपने अपने स्‍वार्थ को लेकर। 
इनकी प्रमुख पुस्‍तक THE NEW CLASS, IMPERFECT SOCIETY में साफ कहा कि हमने पुराने वर्ग को तो नष्‍ट कर दिया लेकिन वर्गहीन समाज नहीं बना पाये बल्कि नये वर्ग बन गये जिनके प्रीवलेज पहले जैसे ही थे। यही बात आगे चलकर माओ भी कहता है कि yesterday revolutionaries are todays counter revolutionaries.. 
कुलमिलाकर इनके सभी कसमें वादे तो फर्जी निकले अब भारत में सिर्फ सरकार चाहे जिसकी हो दूसरे शब्‍दों में दूल्‍हा कोई भी हो बाराती बनने के लिये परेशान रहते हैं। ताकी सेकुलरीज्‍म पर हुंआ हुंआ करते रहें।
 ये वहीं लोग है जिनको पेट में दर्द है या दांत में दर्द है, ईलाज के लिये बिजींग और मास्‍को जाते हैं। चेयरमैन माओ, हमारा चेयरमैन कहते शरमाते नहीं।
 1962 के युद्ध में चीन का पक्ष लिया और अब रुस और चीन के कम्‍यूनिस्‍ट पार्टियों के टुकडों पर पलते हैं। कश्‍मीर में आतंकियों के मानवाधिकारों के सबसे बडे पैरोकार हैं और लाल क्रांति के नाम पर गरीब, निर्दोष किसानों वनवासियों की हत्‍याएं कराते हैं- करते हैं- ये हैं एलीट नक्‍सली।
ये वही लोग है जो पूरे देश में जब स्‍वदेशी आंदोलन अपने चरम पर था और लोग जगह जगह विदेशी कपडाे की होली जला रहे थे तो कम्‍यूनिस्‍ट नेता भरी गर्मी के दिनों में लंका शायर के मिलों में उत्‍पादित कपडें के सूट पहनकर घुमते थे ताकी भारत में स्‍वदेशी आंदोलन के कारण लंका शायर के मिल मजदूर बेरोजगार न हो। ये वही लोग है जो 1942 के अंग्रेजो भारत छोडो आंदोलन के दौरान महाम्‍मा गांधी को साम्राज्‍यवदियों को दलाल और सुभाष चंद्र बोस को तोजो का कुत्‍ता तक कहा।
ये वहीं लोग है जो अंग्रेजो के खुफिया एजेंट का काम किया। ये वही लोग है जो पाकिस्‍तान निर्माण के लिये सैद्धांतिक आधार देते हुए भारत को खंड खंड बाटने की बहुराष्‍ट्रीय योजना तैयार की।
ये वहीं लोग है जो सत्‍ता सुख भोगने के लिये कांग्रेस की दलाली करते आपात काल का समर्थन किया और जिनके लिये राष्‍ट्रवाद और देशभक्ति जैसे शब्‍द गाली होते हैं। कुछ तो शरम करते। वंदे मातरम !

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