माओवाद-नक्सवाद : क्यों नहीं होती चर्च की चर्चा ?
संवाद और समन्वय से सुलझेगी समस्या
तारीख: 25 Jan 2016
पाञ्चजन्य, ऑर्गनाइजर द्वारा आयोजित सुरक्षा पर संवाद अपने तीसरे वर्ष में है। इस बार विशेषज्ञों के साथ दिनभर चली चर्चाओं में खंगाले गए लाल आतंक यानी नक्सलवाद से जुड़े तमाम पहलू। प्रस्तुत हैं इस विचार-विमर्श के संपादित अंश।
ताकत संवाद की- मोबाइल रेडियो कर सकता है माओवाद को पंक्चर-शुभ्रांशु चौधरी
मेरी समझ में माओवादी आतंक यानी 'लाल आतंक' छत्तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश में फैला है। 60 के दशक में यह लड़ाई शुरू करने वाले आज भी डटे हैं और वे हिंसा से सत्ता परिवर्तन चाहते हैं। उनकी ओर से लड़ाई दो प्रकार से लड़ी जा रही है। माओवादी बिना हथियार हैं तो माओवादी समर्थकों के हाथों में हथियार हैं। माओवादियों की संख्या मात्र एक या दो फीसद है, जबकि 99 फीसद माओवादी समर्थक हैं। लोग माओवाद से प्रभावित या आकर्षित होकर उनकी तरफ नहीं गए हैं, पर ज्यादातर हमारे उनसे बातचीत न करने, संपर्क नहीं किए जाने और हम लोगों के दबाव के कारण वहां गए हैं। वैसे, बस्तर में माओवादी आंदोलन की ताकत ऊपरी तौर पर कम हुई है। उसके पोलित ब्यूरो में 40 में से मात्र 20 लोग या उससे भी कम बचे हैं। कुछ जेल में हैं, कुछ मर चुके हैं। जो बुद्धिजीवी, जिनसे लोग जुड़ते थे, उनका वह क्रम 90 के दशक के बाद से लगभग बंद हो गया है, पर वहीं थोड़े से 100-200 लोग जो भी बचे हैं उन्हें स्थानीय मदद लगातार बढ़ रही है। इन वनवासियों के साथ हमने कभी कोई संपर्क नहीं बनाया है। वे सिर्फ ऑल इंडिया रेडियो ही सुन सकते हैं और आजादी के 70 साल बाद भी 1़2 करोड़ गोंड आदिवासियों की भाषा में एक न्यूज बुलेटिन तक नहीं है। गोंडी भाषा का कोई संस्थान नहीं है। माओवाद को हम देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती कहते हैं, लेकिन कोई भी पत्रकार, पुलिस अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी नहीं मिलता जिसने इस भाषा को सीखने का प्रयास किया हो। रेडियो ऐसे में वह कर सकता है जो बंदूक नहीं कर सकती है। यह स्थिति संवाद टूटने की वजह से पैदा हुई है। हम मनुष्य हैं, यदि आप मुझसे बात नहीं करेंगे तो निश्चित ही मैं दूसरी तरफ के लोगों से बात करूंगा। उसके पास बात करने के लिए केवल माओवादी हैं। मध्य भारत में 10 करोड़ वनवासी रहते हैं। इन्हें यदि मोबाइल का प्रयोग करना, बात करना, गीत गाना सुलभ करा दें तो सुधार होगा। लोग माओवादी इसलिए बन रहे हैं क्योंकि वनवासियों की छोटी से छोटी समस्याएं हल नहीं हो रही हैं। मोबाइल रेडियो ये काम कर सकता है। हम माओवादियों की व्यवस्था मंे पंक्चर कर सकते हैं। वनवासी संपर्क टूटने से आशा खो चुके हैं, उनमें आशा जगाने की जरूरत है। माओवादियों ने कभी दावा नहीं किया कि वे वनवासियों की दशा या समस्या सुधारने में लगे हैं। उनका उद्देश्य साफ है कि वे लालकिले पर अपना झंडा फहराना चाहते हैं। उस इलाके को केवल उन्होंने चुना था छिपने के लिए, जो आज उनका मुख्यालय बन चुका है।
विजय क्रांति- आम आदमी को मुख्यधारा से जोड़ना होगा। सड़क से दूर जंगल में रहने वाले आम आदमी को जब तक देश की व्यवस्था का लाभ नहीं मिलेगा, वह हमारे संपर्क में नहीं रहेगा तो उसे कोई भी अपने साथ ले जाएगा।
ल्ल पवन देव -उपेक्षित करने वाला तथ्य गलत है। वहां पर असल में नक्सलियों का एक भय है और भय के कारण ग्रामीण उन्हें समर्थन देते हैं। उन्हें भय है कि पुलिस 24 घंटे उन्हें सहयोग नहीं दे सकती है। यह जो भय का कारण है, वही सबसे बड़ी समस्या है।
अता हसनैन- यह पता करना बेहद जरूरी है कि माओवाद इतने लंबे समय तक आखिर चल कैसे गया और उसके पीछे क्या ताकतें हैं। यदि कोई उनसे जुड़ा है तो कौन है और उसकी क्या भूमिका है। इस तरह की चीजें बिना किसी आर्थिक मदद के चल नहीं सकतीं और बिना मदद के इतना लंबा चलना नामुमकिन हो जाता है। दूसरी बात यह है कि जब तक निचले स्तर पर राजनीति न की जाए, तब तक आप सफल नहीं हो सकते। देश में बहुत जगहों पर पंचायती राज्यों की भूमिका रही है। क्या छत्तीसगढ़ में ऐसी कोई व्यवस्था है?
शुभ्रांशु- मैं समस्या को भाषा की दृष्टि से देख रहा हूं, यह 'फॉल्ट लाइन' है। बस्तर दक्षिण भारत का हिस्सा है और उस पर एक उत्तर भारतीय मानसिकता के साथ शासन किया जा रहा है। वही उत्तर में अता हसनैन जी को ग्राम पंचायत और राजनीति के बारे में देना चाहूंगा। आप दो किलोमीटर अंदर चले जाइए, भूखे मर जाएंगे। पराई भाषा का कोई एक शब्द भी नहीं समझता, विशेषकर महिलाएं। हिन्दी और गोंडी के बीच गहरी खाई बन चुकी है। अनुवाद ज्यादातर गलत होते हैं। शिक्षा और जमीनी स्तर पर देखभाल बेहद जरूरी है।
आलोक बंसल- मेरा मानना है कि विकास नहीं हुआ इसलिए लोग माओवादी बन गए, यह गलत है। जिस चीज से लोग असंतुष्ट हैं, वह अन्याय है। इस मत में मेरी शुभ्रांशु से भिन्नता है। वे बोलते हैं कि 90 के दशक में ऐसा हुआ जिससे लोग माओवादी बन गए। मैं बस्तर में उस समय रहा हूं जब लिखा जाता था 'बस्तर की गलियां सूनी हैं, डी़ पी़ मिश्रा खूनी है।' प्रवीरचंद भंजदेव को उसके घर में घुसकर सोफे के नीचे गोली मार दी गई थी। उसके बावजूद वहां नक्सलवाद नहीं बढ़ा। मैं जब वहां रहा, तब वहां शांति थी। हिन्दी और गोंडी में कोई विवाद न था। बस्तर के वनवासी संतुष्ट लोग हैं। वहां एक विचारधारा को संगठित किया जा रहा है। इस्लामी कट्टरवाद में भी यही हो रहा है। 1970 में भी वहां नक्सलवाद की कोशिश की गई पर वे कामयाब नहीं हो पाए। विषय यह है कि नक्सलवाद 1990 में क्यों हुआ?
सूत्र खंगालिए: कहां-कहां जुड़े हैं तार- पी.वी. रमन्ना
चीजों को तब से ध्यान से देखना होगा जब 1980 में पीपुल्स वार की स्थापना हुई। इसके बाद 1991 में एक दस्तावेज आया जिसमें कोंडापल्ली सीतारमैय्या ने कहा कि अबूझमाड़ हमारे लिए रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह हमारा कमान मुख्यालय बनेगा। चलो, आगे बढ़कर यहां कब्जा करें। आज बस्तर जो भी है वह लंका पापी रेड्डी की वजह से है।
क्रांति भले ही जिनका एजेंडा न हो, ऐसे अन्य समूहों से भी रणनीतिक संबंध रखना और वहां पैठ बनाना यह माओवादी रणनीति का हिस्सा है। आप सबने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और इसकी बैठकों के बारे में सुना होगा। जहां भी वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम का आयोजन होता है वहां-वहां वर्ल्ड सोशल फोरम का भी आयोजन होता है। बैठकें की जाती हैं। मगर वर्ल्ड सोशल को तो पश्चिमी साम्राज्यवाद ने ही खड़ा किया है! माओवादियों को यह बात समझने में देर लगी। और बाद में इसके जवाब में उन्होंने 'एमआर2004' या 'मुंबई रजिस्टेंस' का गठन किया। लैटिन अमेरिका से फिलीपींस तक, दक्षिणपूर्व एशिया के 43 देश इस बैठक में शामिल हुए। उन्होंने मुंबई में रैलियां की, वृतचित्र बनाए।
समन्वय की जरूरत : मिल कर चलें केन्द्र और राज्य -प्रकाश सिंह
आज सवाल है कि हम माओवादी समस्या का कैसे सामना करें? इसमें केन्द्र और राज्यों का समन्वय अहम है लेकिन यह देखने को नहीं मिलता है। सवाल यह भी है कि समन्वय किस स्तर पर हो, किन मुद्दों पर हो। माओवादी समस्या से निबटने के लिए अब तक कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनी। ऐसा क्यों हुआ? केन्द्र और राज्य के बीच समन्वय न होने का प्रमुख कारण ही है राष्ट्रीय स्तर की सुरक्षा नीति का न होना। मुख्यमंत्री अपनी बुद्धि, विवेक और समझ के अनुसार माओवाद का सामना कर रहे हैं। हर प्रदेश अलग ढंग से लड़ रहा है। किसी का बल प्रयोग तो किसी का आर्थिक प्रगति का दृष्टिकोण है। यही कारण है कि यह समस्या एक गांव से शुरू होकर आज 180 जिलों में फैल चुकी है। कई मुख्यमंत्रियों पर आरोप लग चुके हैं कि वे माओवादी नेताओं को अपने पक्ष में मतदान के लिए बोलते हैं।
साथ ही, केन्द्र का राज्य और राज्य का दूसरे राज्यों से सूचनाओं का आदान-प्रदान भी काफी महत्वपूर्ण है एक बार पश्चिम बंगाल और झारखंड एक-दूसरे पर सूचनाओं का आदान-प्रदान न करने का आरोप लगा रहे थे। आंध्रप्रदेश की एसआईबी का काम सराहनीय रहा है, एसआईबी न केवल अपनी, बल्कि दूसरे राज्यों और कई बार राष्ट्रीय स्तर की सूचनाएं रखती थी। दिल्ली तक उन्होंने अपनी सूचनाएं पहंुचाई हैं। आंध्रप्रदेश में जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक अपने स्तर पर गांव-गांव में लोगों से संपर्क साधते थे। बच्चों के लिए खेल-कूद प्रतियोगिताओं का आयोजन करवाते थे। जिन परिवारों के बच्चे माओवादियों के संपर्क में आकर चले जाते थे, उनके परिवार के सदस्यों की पुलिस देखभाल करती थी। बीमार परिजनों के उपचार से लेकर उन्हें आर्थिक मदद मुहैया करवाई जाती थी। इसका असर हुआ। माओवादियों का इस तरह की कार्यप्रणाली से हृदय परिवर्तन भी हुआ। हमारे निष्क्रिय रहने की वजह से छोटे रूप में उभरी समस्या विकराल रूप ले लेती है जिसे बाद में हम देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। वैसे, जान को जोखिम में डाले बिना समस्या से कभी नहीं लड़ा जा सकता। एक समय ऐसा आ गया था कि केन्द्र की नीतियां भी आमने-सामने के संघर्ष में जान के जोखिम से कतराती थीं।
कर्नल जयबंस सिंह- माओवाद-नक्सवाद से देश के पांच-छह राज्य जूझ रहे हैं। नक्सलियों की अलग-अलग धाराएं हैं, अलग भाषाएं और दूसरे अंतर हैं तो फिर केन्द्र सरकार किस प्रकार एक ही योजना से इस समस्या का समाधान कर सकती है? दूसरे, एक ही विभाग इस समस्या का हल कैसे निकाल सकता है?
प्रकाश सिंह- देखिए, राष्ट्रीय नीति सभी राज्यों में इस समस्या का समाधान कर सकती है। दिक्कत यह है कि हमारे पास न कोई आतंकवाद निरोधक नीति है और न ही कोई राष्ट्रीय स्तर की नीति है जिससे हम आतंकवाद का सामना कर सकें। अमेरिका और ब्रिटेन में उनकी सुरक्षा नीति को बखूबी देख सकते हैं जबकि हमें अपने देश में इन नीतियों से संबंधित कोई पत्र या कागजात देखने को नहीं मिलते। आज तक कभी किसी सरकार ने इस नीति को क्यों नहीं बनाया, जबकि यह पांच से छह माह में तैयार हो सकती है?
पवन देव- मुझे लॉस एंजिलिस जाने का अवसर मिला। वहां एक सवाल किया गया पुलिस अधिकारियों से कि 9/11 के बाद वहां बड़ा हमला क्यों नहीं हुआ, जबकि भारत मंे हर साल-दो साल में कुछ न कुछ घटना हो जाती है। इस पर उन अधिकारियों का कहना था कि इसके लिए परिणाम पर काम करना होगा। घटनाएं रोकने के लिए अपराधियों को पकड़ना होगा।
प्रकाश सिंह- दिक्कत यह है कि यदि कोई सरकार आतंकवाद या नक्सलवाद पर कड़ाई करनी शुरू करती है तो कार्रवाई से पहले ही विपक्ष हंगामा खड़ा कर देता है। जबकि सुरक्षा के मुद्दे पर कोई दखल नहीं होना चाहिए। फ्रांस में हुए हमले के बाद वहां की सरकार ने तुरंत कार्रवाई का निर्णय कर लिया, लेकिन भारत में बटला हाउस एनकाउंटर हुआ तो दुनियाभर में बवाल मच गया। राष्ट्रीय सुरक्षा नीति तैयार करनी चाहिए, यहां राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कोई विचारधारा ही नहीं है।
केजी सुरेश-हम विचारधारा की बात करते हैं। इसे राष्ट्रीय परिपेक्ष में देखें। पिछले 65 साल से देश में एक ही दल का शासन रहा है और ये इसलिए रहा क्योंकि इसके सामने इसे चुनौती देने वाली कोई अन्य विचारधारा नहीं दिखती थी। कोई भी विचारधारा ऐसी स्थिति में हावी होने लगती है जब उसके सामने उसे चुनौती देने वाला विचार मौजूद न हो। विचार की गैरमौजूदगी में राज्य इसकी जगह नहीं ले सकता, कोई विचारधारा नहीं हो सकता। यह इसका जवाब नहीं हो सकता। पुलिस भी इसका जवाब नहीं हो सकती। विचारधारा को तो विचारधारा से ही चुनौती दी जा सकती है। मुझे लगता है नक्सल समस्या को सुलझाने की दृष्टि से यह बात समझना महत्वपूर्ण है।
सब साफ-साफ हो : नीतियों में स्पष्टता से मिलेंगे परिणाम- पवन देव
संविधान के अनुसार पुलिस राज्य का विषय है और आंतरिक सुरक्षा राज्य का हिस्सा है। अभी सीआरपीएफ या आईटीबीपी को नहीं पता कि उन्हें क्या करना है। दुविधा यही है। सीआरपीएफ, आईटीबीपी या बीएसएफ बोलती है कि नक्सलवाद खत्म करना है, राज्य पुलिस ऐसे में क्या करे? यदि पुलिस को कहीं ऑपरेशन का संचालन करना है तो फिर सीआरपीएफ की क्या भूमिका है? सीआरपीएफ स्थानीय पुलिस महानिरीक्षक की सुनेगी या अपने पुलिस महानिरीक्षक की? आईटीबीपी आती है तो कहती है क्षेत्र में पुलिस तंत्र विफल हो चुका है। यदि अभियानों में नियंत्रण और संचालन अलग-अलग होगा तो माओवाद या किसी दूसरी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। नीतियों में स्पष्टता से आतंकवाद के विरुद्ध अभियानों के परिणाम बेहतर हो सकते हैं।
प्रकाश सिंह- देखिए, दिक्कत राज्य पुलिस की ओर से भी रही है। ऐसा इसलिए हुआ कि जब राज्य पुलिस की ओर से माओवाद की समस्या को दूर करने के लिए कोई रुख स्पष्ट नहीं हुआ तो अर्द्धसैनिक बलों की जरूरत पड़ी। पुलिसकर्मी अधिक संख्या में क्यों नहीं भेजे जाते? राज्य सरकार अपने स्तर पर कार्य तो करे तो यह विवाद खत्म हो सकता है।
धु्रव कटोच- सुरक्षाबलों के परस्पर समन्वय का महत्व बहुत ज्यादा है यह बात समझनी होगी। इसके लिए संयुक्त कार्रवाई करनी होगी।
छोड़नी होगी हिचक : डर के आगे जीत है-प्रकाश सिंह
आज की तारीख में एक शहरी और दूसरा ग्रामीण क्षेत्र है। जहां पर प्रशासन की देखभाल नहीं है, वहां वनवासी सरकार के पास न जाकर माओवादी से संपर्क करता है।
सरकार की विफलता ही है कि वहां, आजादी के सात दशक बाद भी विकास न हो सका। सवाल यह है कि वहां तक क्यों नहीं पहंुचा गया? मैं अबूझमाड़ की सीमा तक गया, लेकिन वहां की पुलिस ने मुझे आगे नहीं जाने दिया, कहा कि सुरक्षा की जिम्मेदारी हम नहीं ले सकते हैं। लोग माउंट एवरेस्ट पर जा सकते हैं तो फिर अबूझमाड़ जाना संभव क्यों नहीं है? एक बार वर्चस्व होने के बाद पीछे क्यों हटते हैं?
क्यों नहीं होती चर्च की चर्चा?
नक्सली भय फैलाना चाहते हैं। इसके लिए हमें वनवासी समाज को सामर्थ्यवान बनाना होगा। पहले तो हम वनवासियों को राजनीति से दूर कर चुके हैं, केवल ऊपरी लोग ही राजनीति में सक्रिय हैं। इन लोगों से कोई संवाद नहीं है। क्या हम एक ऐसा कोई प्लेटफार्म संवाद का बना सकते हैं, जहां पर इन लोगों से संपर्क किया जा सके? रेडियो को वहां बढ़ावा दिया जाए, जो कि क्रिश्चियन मिशनरी कर रही हैं। नारायणपुर में चर्च के प्रति वनवासियों का रुझान बढ़ रहा है। चमत्कार बताकर बांटी जा रही अंग्रेजी दवाओं की पुडि़या से बीमारी ठीक हो रही है। गांव के गांव टुकड़ों में बंट रहे हैं। कन्वर्जन तेजी से बढ़ रहा है। — शुभ्रांशु चौधरी
माओवाद जब नेपाल में बढ़ा, उसकी कम चर्चा हुई। वहां कन्वर्जन वालों को करोड़ों रुपया विदेशों से आता है। नेपाल में चर्च ने बहुत बड़ी रकम माओवादियों को दी। चर्च आतंकवादी संगठनों को धन उपलब्ध करवाकर कन्वर्जन को बढ़ावा दे रहा है और पिछड़े इलाकों में खूब सक्रिय हो रहा है। वे सुनियोजित तरीके से अपनी योजना को अंजाम दे रहे हैं।
—विजय क्रांति
मैं जब नागालैण्ड में तैनात था तो देखा कि चर्च कन्वर्जन के लिए राशि मुहैया करवाता था।
—धु्रव कटोच
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मंथन - माओवाद के बुर्के में चर्च!! - देवेन्द्र स्वरूप
13 अगस्त शनिवार को रात 9.15 बजे उड़ीसा के कंधमाल जिले के जलेसपट्टा कन्या आश्रम में कृष्ण जन्माष्टमी समारोह में व्यस्त 84 वर्षीय संत स्वामी लक्ष्मणानंद जी सरस्वती की चार शिष्यों के साथ हत्या की पाशविक घटना ने पूरे उड़ीसा को जनाक्रोश के दावानल में झोंक दिया है। एक दिन पहले ही स्वामी जी ने थाने को लिखित सूचना दी थी कि उन्हें जान से मारने की धमकी का गुमनाम पत्र मिला है अत: उन्हें समुचित सुरक्षा प्रदान की जाए। पर पुलिस अधिकारियों ने उनकी चेतावनी को अनसुना कर दिया। क्या वे सचमुच नहीं जानते थे कि 50 वर्षों से उड़ीसा के कंधमाल जिले के गरीब और पिछड़े वनवासियों की नि:स्वार्थ सेवा में जुटे स्वामी लक्ष्मणानंद जी का उड़ीसा वासियों के अंत:करणों में कितना ऊंचा स्थान है और ऐसे तपस्वी संत की पाशविक हत्या की प्रतिक्रिया कितनी तीव्र होगी? क्या उन्हें यह भी पता नहीं था कि 1924 में जन्मे स्वामी लक्ष्मणानंद का गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने और दो पुत्रों के पिता होने के बाद भी उनकी अध्यात्म-पिपासा उन्हें हिमालय की गुफाओं में खींच ले गयी थी और वहां से लौटकर उन्होंने गांधी जी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी संत विनोबा के गोरक्षा आंदोलन का व्रत धारण किया? 1966 में प्रयाग के कुंभ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी एवं नवोदित विश्व हिन्दू परिषद् से प्रभावित होकर कंधमाल जिले को ही अपनी आजीवन तपोभूमि बनाने का संकल्प लिया। कंधमाल जिले के गरीब वनवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक विकास की अनेकविध योजनाओं को प्रारंभ करते समय उन्हें माओवादी कहीं नहीं दिखायी दिये, पर पग-पग पर बड़े पैमाने पर वनवासियों के मतांतरण में जुटे ईसाई मिशनरियों ने उन्हें मार्ग की बाधा के रूप में देखा और उन्हें अपना शत्रु घोषित कर दिया।
तेजी से बढ़ा ईसाई प्रतिशत
कंधमाल जिले में ईसाई मिशनरियों के मतांतरण अभियान की विशालता और गति का अनुमान इसी से लग सकता है कि उस जिले में मतांतरित ईसाइयों का प्रतिशत 1971 के 6 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 27 प्रतिशत पहुंच गया। 1991 में वहां मतांतरितों की संख्या 75,571 थी तो 2001 में वह बढ़कर 11,79,500 पहुंच गयी। पानोस जाति के वनवासियों में 70 प्रतिशत मतांतरित ईसाई बन गए। इतने बड़े पैमाने पर मतांतरण में कितना विशाल संगठन तंत्र और साधन लगे होंगे इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने अत्यंत सीमित साधनों के होते हुए भी अपनी नि:स्वार्थ सेवा भावना और पाण्डित्यपूर्ण तपोबल के भरोसे मतान्तरण की इस गति को न केवल कुंठित किया बल्कि प्रलोभन, छल और बल से मतान्तरित वंचित ईसाइयों को "घर वापसीव् की प्रेरणा भी दी। बड़ी संख्या में मतान्तरित ईसाई पुन: अपने पूर्वजों की श्रद्धा-धारा में वापस लौट आए। स्वामी जी के तपोबल के इस प्रभाव से मिशनरी तंत्र चिंतित हो गया। उन्हें अपने रास्ते से हटाने के लिये उन पर पहले भी 1971 और 1995 में प्राणघाती हमले किए गये, पर ईश्वरीय कृपा से वे हर बार बच गए। पिछले साल दिसंबर 2007 में कांग्रेस के राज्यसभा सांसद राधाकांत नाईक, जो स्वयं भी वंचित वर्ग के ईसाई हैं, के गांव ब्रााह्मणी में स्वामी जी की कार पर पथराव हुआ, उत्तेजित ईसाई भीड़ ने वहां के पुलिस स्टेशन पर भी आधुनिक आग्नेयास्त्रों से हमला किया। इसके प्रतिक्रिया स्वरूप ईसाई और हिन्दू वनवासियों के बीच व्यापक हिंसक संघर्ष हुए। इस संघर्ष में कुछ ईसाई पादरी भी मारे गए। तभी से चर्च क्षेत्रों में स्वामी जी को रास्ते से हटाने के लिये तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जा रहे थे।
भ्रामक प्रचार उजागर
23 अगस्त की रात्रि के प्राणघाती हमले को इन्हीं षड्यंत्रों की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। रात्रि में 9.15 बजे के लगभग 50 नकाबधारी लोग काले वस्त्र पहनकर आधुनिकतम स्वचालित शस्त्रों से लैस होकर कृष्ण जन्माष्टमी समारोह में तल्लीन कन्याश्रम में घुस आए। उनका एकमात्र लक्ष्य स्वामी जी एवं उनके शिष्य अरूपानंद, चिन्मयानंद, माता भक्तिमयी थे। स्वामी जी उस समय शौचालय में थे। पर उन दुष्टों ने शौचालय का दरवाजा तोड़कर नि:शस्त्र व असावधान स्वामी के शरीर को गोलियों से छेद डाला। इस दुर्घटना के एक घंटे के भीतर ही डी.जी.पी. गोपाल नंदा और राज्य के गृह सचिव टी.के.मिश्रा ने इस आक्रमण को माओवादियों की करतूत घोषित कर दिया। फलत: मीडिया ने देश भर में इसे माओवादी हमले के रूप में प्रस्तुत किया। इस भ्रामक प्रचार की पुष्टि के लिये किसी माओवादी संगठन दि पीपुल्स लिबरेशन रिवोल्यूशनरी ग्रुप ने इस हमले और स्वामी जी की हत्या की जिम्मेदारी भी ले ली। गृहसचिव तरुणकांत मिश्र ने कहा कि "हथियारों के प्रकार और हमले की शैली से इस हमले में माओवादियों के हाथ को नकारा नहीं जा सकता।व् विश्व हिन्दू परिषद् की राज्य इकाई के सचिव गौरी प्रसाद रथ ने सवाल उठाया कि यदि यह माओवादी हमला था तो उन्होंने आश्रम के द्वार पर मौजूद चार होमगार्डों को अपना निशाना क्यों नहीं बनाया, क्यों सीधे स्वामी लक्ष्मणानंद जी और उनके संन्यासी शिष्यों को ही निशाना बनाया? यदि माओवादी गरीबों के हित चिंतक हैं तो स्वामी जी से उनकी क्या शत्रुता हो सकती है, क्योंकि स्वामी जी की तो 40 वर्ष लम्बी साधना तो गरीबों, वंचितों, पिछड़ों के उद्धार के लिए ही समर्पित थी? सरकारी तंत्र भले ही इस घटना को माओवादी हमले के रूप में देख रहा हो, पर उड़ीसा की जनता को तनिक भ्रम नहीं है कि इस घटना के पीछे चर्च का षड्यंत्र है, क्योंकि चर्च ही स्वामी जी को अपने मतान्तरण के प्रयत्नों का शत्रु मान बैठा था।
इस हत्याकांड की पृष्ठभूमि और उसका स्वरूप इतना स्पष्ट है कि माओवादी हमले का भ्रामक प्रचार पूरी तरह ढह गया है। इस घटना के संबंध में जो व्यक्ति अब तक गिरफ्तार हुए हैं- गुंजीवाडी का विक्रम दिग्गल, विलियम दिग्गल और खड़कपुर का प्रकाश दास-वे तीनों ही वंचित ईसाई हैं और उन्होंने हमलावर गिरोह में सम्मिलित होने की बात कबूल कर ली है। इनके पास से प्रतिबंधित सीपीआई (माओ) की फ्रंट संस्था वंशधारा कमेटी का पेम्फ्लेट भी बरामद हुआ है। इन सब तथ्यों के कारण अब यह कहा जा रहा है कि शायद चर्च और माओवादियों के बीच गठबंधन हो गया है और दोनों एक दूसरे का इस्तेमाल कर रहे हैं। ग्राहम स्टींस की हत्या के आरोपी दारासिंह को गिरफ्तार करने वाले साहसी पुलिस महानिरीक्षक वाई.जी. खुरानियां ने दिसंबर 1994 में पुलिस थाने पर ईसाई भीड़ द्वारा इस्तेमाल किये गये आग्नेयास्त्रों और 23 अगस्त की घटना में समानता का उल्लेख करते हुए कहा कि ईसाई मिशनरियों व माओवादियों के बीच गठबंधन की आशंका की पुष्टि होती जा रही है। अब उड़ीसा का प्रशासन तंत्र कैथोलिक चर्च द्वारा दक्षिण अमरीका में आविष्कृत लिबरेशन थियोलॉजी का भी स्मरण करने लगा है।
वस्तुत: पिछले कई वर्षों से हमारी अन्तरात्मा कह रही थी कि उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश के सघन वनवासी क्षेत्रों में माओवादी हिंसा की बाढ़ के पीछे चर्च का हाथ होना चाहिए। यहां स्थिति माओवादियों और चर्च के बीच गठबंधन की नहीं है। न ही चर्च माओवादियों का इस्तेमाल कर रहा है। वस्तुत: चर्च स्वयं ही माओवाद के बुर्के को ओढ़कर इन वनवासी क्षेत्र में हिंसा के द्वारा भय और आतंक का वातावरण पैदा करके अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। चर्च ने भोले, अशिक्षित, गरीब वनवासियों को ही अपनी धर्मांतरण योजना का लक्ष्य चुना है। "लिबरेशन थियोलॉजीव् को भारतवर्ष में माओवाद के आवरण में क्रियान्वित किया जा रहा है। स्वामी लक्ष्मणानंद ने अपनी प्राणाहुति देकर चर्च के षड्यंत्री चेहरे पर से माओवाद का बुर्का हटा दिया है। अब उड़ीसा, छत्तीसगढ़ की आंखें खुल जानी चाहिए और उन्हें माओवाद के भ्रमजाल से बाहर निकलकर चर्च की घेराबंदी करनी चाहिए।
संलिप्तता के सबूत
चर्च की संगठन क्षमता एवं षड्यंत्रकारी कार्यशैली के सूक्ष्म अध्येताओं को यह समझने में देर नहीं लगेगी कि माओवादियों के आधुनिक शस्त्र, वाहन, पैसा व प्रशिक्षण आदि साधन चर्च ही प्राप्त करा सकता है। माओवाद का बुर्का ओढ़ लेने पर चर्च को उन सब वामपंथी, प्रगतिवादी, मानवाधिकारवादी बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों एवं संगठनों का रक्षा कवच सहज ही मिल जाता है जो माओवादी हिंसा को आर्थिक विषमता, शोषण और गरीबी का प्रस्फुटन मान बैठे हैं। छत्तीसगढ़ में डा.विनायक सेन की गिरफ्तारी के विरुद्ध जो प्रचार अभियान भारत और विदेशों में चलाया जा रहा है वह केवल चर्च ही चला सकता है, माओवादी नहीं चला सकते। डा. विनायक सेन को जेल से बाहर लाने के लिये उनके लिए यूरोप में एक पुरस्कार की व्यवस्था की गयी, उनके पक्ष में दस यूरोपीय नोबल पुरस्कार विजेताओं का संयुक्त वक्तव्य जारी कराया गया। दस यूरोपीय नोबल पुरस्कार विजेताओं के हस्ताक्षर जुटाना भारतीय माओवादियों के बूते में नहीं है, यह चर्च ही कर सकता है। इस दृष्टि से चर्च की कार्यशैली का, उनके साहित्य का सूक्ष्म अध्ययन बहुत आवश्यक है। स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या की उग्र प्रतिक्रिया से चिंतित होकर वेटिकन तुरंत मैदान में कूद पड़ा। उसने चर्च द्वारा संचालित अनाथालय पर हमले की निंदा की। उसे विश्व प्रचार का मुद्दा बनाया। एक कार्दिनल जॉन लुईस तौरान ने भी अनाथालय पर हमले को ही उछाला। जिस प्रकार गुजरात के दंगों के समय दो चित्र पूरे विश्व में उछाले गए थे उसी प्रकार इस बार भी एक चित्र, जिसमें किसी चर्च के शिखर पर लगे क्रॉस पर किसी बजरंग दल के कार्यकर्ता को भगवा फहराते हुए दिखाया गया है, सब समाचार पत्रों में प्रकाशित किया जा रहा है। उसे भारत में ईसाई मत पर हमले के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया जाएगा।
कितना दुर्भाग्य है कि चर्च अभी भी मतान्तरण को ही अपना एकमात्र एजेंडा बनाकर चल रहा है, जो समाजों के बीच वैमनस्य और संघर्ष का मुख्य कारण बन गया है। चर्च अपने आंतरिक पतन को दूर करने की कोशिश क्यों नहीं करता? यह प्रश्न उसकी रातों की नींद क्यों नहीं उड़ाता कि यूरोप और अमरीका के जो गोरी चमड़ी वाले हजार वर्ष पहले चर्च की शरण में आए, वे उसे छोड़कर क्यों जा रहे हैं? पश्चिम का मीडिया बड़े-बड़े पादरियों के यौनाचार की कथाओं से भरा पड़ा है। स्वयं चर्च के भीतर पादरियों में विवाह की भूख बढ़ती जा रही है। अब पश्चिमी देशों से मिशनरी कम संख्या से निकलते हैं। भारत जैसे गरीब देश से ईसाई मिशनरी विदेशों में भागे जा रहे हैं। स्वयं ईसाई समाज के भीतर चर्च के पतन और मतान्तरण की नीति की आलोचना व्यापक होती जा रही है। अनेक ईसाई विचारक चर्च द्वारा मतान्तरण के कार्यक्रम को इक्कीसवीं शताब्दी में पूरी तरह अप्रासंगिक एवं कालबाह्र मानते हैं। एक भारतीय वंचित ईसाई आर.एल.फ्रांसिस ने हाल ही में "आस्था से विश्वासघातव् पुस्तक में वंचित ईसाइयों के प्रति भेदभाव की नीति के तथ्य प्रस्तुत किये हैं। इस पुस्तक के एक अध्याय का शीर्षक है, "गरीबों से दूर होता चर्चव्, दूसरे का शीर्षक है, "धर्मान्तरण से नहीं बदली जीवन की तस्वीरव्, तीसरे का शीर्षक है, "दलित ईसाई-चर्च नेतृत्व से मुक्ति की जरूरतव्। ये शीर्षक चर्च की विफलता की बोलती कहानी हैं। पर चर्च अपनी विफलताओं को ढकने के लिए गरीब, भोले, अशिक्षित वनवासियों के धन, बल, छल से मतान्तरण में ही अपनी पूरी शक्ति लगा रहा है।
निशाने पर बस हिन्दू समाज
उसने विविधताओं से परिपूर्ण हिन्दू समाज को ही अपना मुख्य निशाना बनाया है। इसके लिए वह सभी हिन्दूद्वेषी तत्वों से गठबंधन को तैयार है। 26 जुलाई के बम विस्फोटों की जांच में पता चला कि जिहादी सोभान या तौकीद ने जो ईमेल 5 मिनट पहले भेजी थी वह मुम्बई के केन हेवुड नामक अमरीकी के यहां से भेजी गयी थी। अब जांच से सामने आया है कि हेवुड मतान्तरण के लिये कुख्यात एक चर्च में अत्यधिक सक्रिय था और वह जांच के भय से रहस्यमय ढंग से अमरीका चला गया। अमदाबाद के फादर सेड्रिक प्रकाश की हिन्दू विरोधी गतिविधियों के तार अमरीका तक फैले हुए हैं। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सरकारों ने यदि माओवादी हिंसा की गहरी छानबीन की तो माओवाद के बुर्के में छिपा चर्च का चेहरा बेनकाब हो जाएगा।
चर्च भारत के ईसाई समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता, बल्कि वह ईसाई समाज का सबसे बड़ा शत्रु है। उसकी एकमात्र चिंता अपने अस्तित्व की रक्षा और अपने साम्राज्य का विस्तार है। दिल्ली के श्रेष्ठ विद्यालय सेंट स्टीफेंस कालेज में पिछले दिनों प्राचार्य के चयन और स्टाफ व छात्रों में ईसाई कोटे को लेकर चर्च ने जो दबाव बनाया उससे इस कालेज की छवि को बहुत धक्का लगा। उदारवादी ईसाई बुद्धिजीवियों ने ही चर्च के हस्तक्षेप का विरोध किया। भारत का ईसाई समाज अधिकांशत: उदार, प्रगतिशील व देशभक्त है। इसी 27 अगस्त को बंगलूरू के कर्नल जोजन जोसेफ थामस (43) ने कश्मीर के मट्टन सेक्टर में जिहादी घुसपैठियों के विरुद्ध वीरतापूर्ण संघर्ष में आत्मबलिदान किया, वह पूरे भारत के लिए गर्व का विषय है। 29.8.2008
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