सांसदों को बचाने के लिए अध्यादेश पर विचार की संभावना
Tuesday, September 24, 2013
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नई दिल्ली : सरकार द्वारा दोषी सांसदों और विधायकों को अयोग्य घोषित होने से संरक्षण प्रदान करने के लिए मंगलवार को एक अध्यादेश पर विचार किए जाने की संभावना है । सरकार इस संबंध में संसद में विधेयक पारित कराने में विफल रही है ।
इस मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए संसद में विधेयक पारित कराने में विफल रहने के बाद आपराधिक मामलों में दोषी करार दिए गए और दो साल या इससे अधिक की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों पर तुरंत अयोग्य घोषित किए जाने का खतरा मंडरा रहा है ।
सू़त्रों ने बताया कि भ्रष्टाचार के मामले तथा अन्य अपराधों में कांग्रेस सांसद राशिद मसूद को दोषी ठहराए जाने के बाद सरकार इस संबंध में अध्यादेश लाने के विकल्पों को तौल रही है ।
सूत्रों ने यह भी दावा किया कि केंद्रीय कैबिनेट अपने विवेक के आधार पर अध्यादेश लाने के खिलाफ भी फैसला कर सकती है । सीबीआई अदालत द्वारा अगले माह सजा घोषित किए जाने पर मसूद के अपनी राज्यसभा सदस्यता गंवा देने की आशंका है क्योंकि उच्चतम न्यायालय का दस जुलाई का आदेश प्रभावी हो चुका है । शीर्ष अदालत के फैसले के बाद वह अपनी संसद सदस्यता गंवाने वाले पहले सांसद होंगे ।
अभी ऐसी भावना है कि जब तक संसद उच्चतम न्यायालय के फैसले को निरस्त करने के लिए जन प्रतिनिधित्व( दूसरा संशोधन ) विधेयक पारित नहीं करती है तब तक सांसद , विधायक और पाषर्द अपनी सदस्यता गंवाते रहेंगे ।
लेकिन , इसी के साथ ही ऐसी भी भावना है कि यदि अध्यादेश लाया गया तो विपक्ष संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार को आड़े हाथ ले सकता है क्योंकि विधेयक संसद में लंबित है ।
तकनीकी रूप से , सरकार अध्यादेश लाने के लिए स्वतंत्र है । राजनीतिक दलों ने एक बैठक में विधेयक की जरूरत पर सरकार का समर्थन किया था लेकिन जब इसे राज्यसभा में पेश किया गया तो कुछ मुद्दों को लेकर मतभेद उभर आए थे। उच्चतम न्यायालय ने अपने 10 जुलाई के फैसले में निर्वाचन कानून के एक प्रावधान को रद्द कर दिया था जो दोषी ठहराए गए सांसद को इस आधार पर अयोग्यता से बचाता है कि अपील अदालतों में लंबित है ।
जन प्रतिनिधि अधिनियम के अनुच्छेद आठ के उप अनुच्छेद (4 ) में विधेयक के जरिए एक प्रावधान जोड़ा गया है जो कहता है कि यदि 90 दिनों के भीतर अपील दाखिल कर दी जाती है और अदालत ने दोषसिद्धि और सजा पर स्थगनादेश दिया हुआ है तो एक दोषी सांसद या विधायक को अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।
लेकिन इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे सांसद या विधायक न तो मतदान करने के लिए अधिकृत होंगे और न ही वेतन या भत्ते ले सकेंगे। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया था कि सांसद, विधायक और पार्षद दोष सिद्धि की तारीख से अयोग्य होंगे । शीर्ष अदालत इस संबंध में सरकार की पुनरीक्षा याचिका को नामंजूर कर चुकी है । समझा जाता है कि अध्यादेश के मसौदे में समान प्रावधान हैं । (एजेंसी)
First Published: Tuesday, September 24, 2013, 13:15
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'कोई जज यह तय नहीं कर सकता है कि कौन चुनाव लड़ने के योग्य है और कौन नहीं क्योंकि अंतिम निर्णय तो संबंधित मुकदमे पर अंतिम फैसला आने के बाद ही किया जा सकता है।'
- कपिल सिब्बल, कानून मंत्री
दो मिनट में पास हुआ दागियों को बचाने का बिल
ब्यूरो शनिवार, 7 सितंबर 2013
अमर उजाला, दिल्ली
अब हिरासत में रहकर या जेल से भी चुनाव लड़ा जा सकेगा। इसके अलावा निचली अदालत से दो साल या उससे अधिक की सजा पाए सांसदों-विधायकों की सदस्यता पर भी कोई आंच नहीं आएगी।
लोकसभा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को पलटने के लिए दो संशोधन बिलों को शुक्रवार को आनन फानन में पारित कर दिया। राज्यसभा दोनों बिल पहले ही पारित कर चुकी है।
सांसदों और विधायकों को अयोग्य होने से बचाने के लिए पेश किए गए संसद निरर्हता निवारण संशोधन विधेयक तो बिना किसी चर्चा के ही दो मिनट के अंदर पारित हो गया।
जबकि हिरासत और जेल से भी चुनाव लड़ने का अधिकार बरकरार रखने के लिए पेश लोक प्रतिनिधित्व संशोधन बिल पर बमुश्किल 15 मिनट की चर्चा हुई और इसे मंजूरी दे दी गई। इसके बाद लोकसभा को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को फैसला दिया था कि सांसद-विधायक दोषी करार दिए जाने के दिन से ही अयोग्य घोषित माने जाएंगे। एक अन्य फैसले में शीर्ष अदालत ने हिरासत और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी।
इन फैसलों का हालांकि चौतरफा स्वागत हुआ था, मगर सभी दल इसके खिलाफ एकजुट हो गए थे। मालूम हो कि दागियों की अयोग्यता के फैसले पर केंद्र की पुनर्विचार याचिका सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को खारिज कर दी थी, जबकि जेल से चुनाव लड़ने के फैसले पर फिर से विचार करने पर सहमति जताई थी।
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लोकसभा में सांसदों को अयोग्य होने से बचाने के लिए पेश किया गया बिल बिना किसी चर्चा के पारित हो गया। हालांकि हिरासत और जेल से चुनाव लड़ने पर रोक संबंधी फैसले को पलटने के लिए पेश किए गए बिल पर करीब 15 मिनट चर्चा हुई।
इस दौरान सभी दलों ने एक स्वर से सुप्रीम कोर्ट के फैसले की निंदा की। कई सदस्यों ने तो सुप्रीम कोर्ट पर हद पार करने का आरोप तक लगा दिया। खुद कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने इस फैसले की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि अगर अदालत का फैसला गलत है तो संसद का यह कर्तव्य है कि वह अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए आगे आए।
सिब्बल ने कहा कि हिरासत या जेल से चुनाव लड़ने का अधिकार खत्म करने के फैसले का व्यापक दुरुपयोग होने की आशंका थी। राजनीतिक विरोधी किसी को भी ठीक नामांकन के समय आरोप लगाकर हिरासत में भिजवा सकता है और उसे चुनाव लड़ने से वंचित कर सकता है।
किसी ने नहीं किया बिलों का विरोध
बिलों पर चर्चा के दौरान सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की तीखी आलोचना की। लेकिन पूरी बहस में एक भी दल के सदस्य ने दोनों बिल में से किसी का भी विरोध नहीं किया।
खुद कानून मंत्री सिब्बल ने दोनों बिलों को जोरदार तरीके से आगे बढ़ाया तो भाजपा के कीर्ति आजाद ने बेहद आक्रामक अंदाज में बिलों का समर्थन किया।
तृणमूल के कल्याण बनर्जी ने कहा कि कई बार अदालतें बिना किसी खास कारण के अति सक्रियता दिखा कर कार्यपालिका और संसद के अधिकारों में हस्तक्षेप करने से नहीं चूकतीं।
बसपा के दारा सिंह ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि इससे चुनाव लड़ने के अधिकारों का हनन होने का खतरा बन गया है।
दागियों पर क्या थे सुप्रीम कोर्ट के फैसले
फैसला -1
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि दो साल की सजा पाए सांसदों, विधायकों को दोषी ठहराए जाने के दिन से ही सदस्यता से अयोग्य माना जाएगा।
फैसला-2
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जेल में बंद या हिरासत में चल रहे व्यक्ति को मतदान का अधिकार नहीं है। मतदान के अधिकार से वैधानिक रूप से वंचित व्यक्ति चुनाव लड़ने का हकदार नहीं है।
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