भारत की आजादी का अश्वमेध - रामबहादुर राय



अंग्रेजों के तीसरे मोर्चे को नाकाम किया था पटेल ने
- रामबहादुर राय

अंग्रेज भारत को आजाद करने से पहले एक कुटिल नीति पर चल रहे थे। उनकी योजना थी कि आजाद करने से पहले भारत को तीन हिस्से में बांट दें। हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और प्रिंसतान। रजवाड़े और रियासतों को वे प्रिंसतान बनाना चाहते थे।उस समय 565 ऐसे अलग-अलग देशभर में फैले रजवाड़े थे। उनका आकार विभि था। कोई तो यूरोप के देशों के बराबर थे। तो किसी का आकार पहाड़ी पर किसान की जो जोत होती है, उतना ही था। 1935 के भारत सरकार अधिनियम में इन रजवाड़ों को सीधे वायसराय के अधीन कर दिया गया था। उन राजे-महाराजों को ब्रिटिश सम्राज्य के प्रतिनिधि की उपाधि दी गई थी। उनके मामले को देखने के लिये वायसराय के अधीन एक राजनीतिक विभाग बनाया गया था। उन्हें संवैधानिक संरक्षण प्राप्त था। अनेक रियासतों की अपनी फौज थी, जिन्हें ब्रिटिश सेना ने प्रशिक्षित कर रखा था।

असंभव को संभव
ये रियासतें भारत को विखंडित करने के खतरों से भरी हुई थी। उन्हें अंग्रेजों का संरक्षण प्राप्त था। इस कारण आजाद भारत में पहले दिन से ही गृह युद्ध का खतरा मंडरा रहा था। उसे देख-समझ कर,परवाह न कर, सरदार पटेल ने जो काम कर दिखाया, उससे उन्हें भारत जहॉं "लौहपुरुष' मानता है, वहीं दुनिया में वे "भारत के बिस्मार्क' के रूप में जाने-माने जाते हैं। बिस्मार्क ने जर्मन राज्यों के एकीकरण के लिये जो किया, वह बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन सरदार पटेेल ने रियासतों के भारत में विलीनीकरण के लिये जो किया वह असंभव सा काम था। उन्हें सबसे पहले लार्ड माउंटबेटन से जूझना पड़ा। वे जीते। विलय के लिए एक दस्तावेज बना। जिस पर राजाओं को दस्तखत करना था। 565 रियासतों में 40 ऐसे राज्य थे, जिनके साथ संधियॉं थी। दूसरों के साथ सनदें थी।
सरदार ने अंग्रेजों की चाल समझ ली। उसे विफल करने के लिये पंडित नेहरू और मौलाना आजाद को समझाया। महात्मा गॉंधी को तैयार किया। अपनी योजना में वी.पी.मेनन को प्रमुख भूमिका दी।
2 सितंबर 1946 को जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनी। जिसमें सरदार पटेल गृहमंत्री और सूचना प्रसारण मंत्री बने, लेकिन रियासतों का राजनीतिक विभाग लार्ड माउंटबेटन संभाल रहे थे। चुनौतियां कम नहीं थीं, क्योंकि कुछ रियासतों के सीधे सम्पर्क में जिा थे। उन्हें उकसा रहे थे। वे साजिश भी रच रहे थे। उनको ब्रिटिश सरकार मदद भी कर रही थी। इस मकड़जाल को सरदार ने बड़ी आसानी से हटाया।

राजनैतिक अश्वमेध
अंग्रेज रियासतों के जरिए आजादी के समय" तीसरा मोर्चा' बनवाना चाहते थे। संसदीय राजनीति के गठबंधन दौर से फिर से वह कल्पना नए रूप में जन्म ले रही है । "तीसरे मोर्चे' की मानसिकता पुरानी है। उसे अनेक तरह के आडंबर दिए जाते हैं। जिस तरह रियासतों को निजी जायदाद चाहिए थी और कुछ अधिकार भी, उसी तरह आज के "तीसरे मोर्चे' को सत्ता और संपत्ति चाहिए। अंग्रेजों की "तीसरे मोर्चे' की कल्पना ने अब भारतीय राजनीति में जातिवाद, परिवारवाद और भ्रष्टाचार के तीन रोग का रूप ले लिया है। उसे ही दूर करने के लिए 15 दिसंबर को सरदार पटेल की पुण्यतिथि पर 565 स्थानों से एकता की दौड़ हुई। नरेन्द्र मोदी की इसमें प्रेरणा थी।
सरदार पटेल ने देश को किस तरह एक किया, यह जानने और समझने का यह सही वक्त है। क्योंकि तब जो खतरा था, वह इस समय भी मंडरा रहा है। सरदार पटेल रियासतों को मिलाने के लिए तब राजनीतिक अश्वमेध यज्ञ पर निकले थे। उन्होंने एक नीति अपनाई। जहॉं जरूरत पड़ी वहॉं समझाया। जहां बल प्रयोग जरूरी था, वहॉं बेहिचक वह अस्त्र चलाया। खुशामद नहीं की। दबाव बनाने का दिखावा नहीं किया। उनकी आवाज ही यह काम कर देती थी। उनके आदेश स्पष्ट होते थे। नेतृत्व का यही गुण आज दुर्लभ हो गया है।
उन्होंने उड़ीसा से शुरुआत की। वहां के छोटे राजाओं की सभा बुलाई। उन्हें समझाया। उनको आश्वस्त किया कि उनके अधिकार और गौरव सुरक्षित रहेंगे। परिणाम यह हुआ कि "मयूरभंज' के अलावा सभी रजवाड़े तैयार हो गए। उस समय उड़ीसा में ही 28 रियासतें थीं। उनका अगला कदम नागपुर में था। वहां 18 राजा थे। उन्हें सलामी रियासतें कहा जाता था। उनकी जब सभा हुई तो सरदार ने उन्हें सबसे पहले सलाम कहा। इतना ही काफी था। नागपुर के आसपास के सारे राजा समझदार निकले। वे बिना देर किए दस्तखत करने को तैयार हो गए।
हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर के अलावा सभी राज्यों के राजाओं ने 15 अगस्त 1947 से पहले भारत में मिलना स्वीकार कर लिया। जूनागढ़ में भी उनको बल प्रयोग करना पड़ा। उस राज्य के मुस्लिम नवाब को जिा ने फुसला लिया था। वहां सरदार को सेना भेजनी पड़ी। जूनागढ़ के तब दीवान शाहनवाज भुट्‌टो होते थे। उनके ही बेटे जुल्फिकार अली भुट्‌टो थे। जो बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। राजपूताने में जोधपुर ने थोड़ी समस्या पैदा की। उसे सरदार ने अपनी व्यवहार कुशलता से हल कर लिया। भोपाल के नवाब के जरिए जिा जोधपुर रियासत को पाकिस्तान में मिलाने के लिए षड़यंत्र कर रहे थे। उसे सरदार ने कैसे सुलझाया, यह एक रोचक इतिहास है। जोधपुर के नरेश बाद में सरदार पटेल के इतने भक्त हो गए कि वे उनके साथ राजाओं से बातचीत में भी रहने लगे।

कश्मीर समस्या भी नहीं होती
यह सिलसिला बढ़ता गया। सरदार जहॉं जाते वहॉं राजे-रजवाड़े बिछे हुए पाए जाते थे। सौराष्ट्र में 200 से ज्यादा तरह-तरह की रियासतें थीं। उनके नाम अलग थे। उनका दर्जा आकार-प्रकार से तय होता था। कुछ रजवाड़े कहलाते थे तो कुछ तालुकदार थे। वहॉं समस्या तुलना में ज्यादा थी। सरदार ने उन सबको संयुक्त सौराष्ट्र में मिलवाया। 15 जनवरी 1948 को उसका विधिवत गठन करवाया। उसमें वे उपस्थित रहे। इसी तरह कोल्हापुर राज्य को मुंबई प्रांत के साथ मिलवाया। तभी बड़ौदा रियासत ने स्वतंत्र बने रहने की चाल चली। सरदार ने उसे नाकाम किया। बड़ौदा नरेश को गद्‌दी से उतारा और उनके बेटे को राजा बनवा दिया। ऐसे अनेक संस्मरण बिखरे पड़ेे हैं, जिनमें सरदार पटेल के संकल्प और उनके व्यक्तित्व की करुणा झलकती है। उन्होंने रियासतों की सत्ता का विलय करवाया। साथ ही साथ राजाओं को देश प्रेम का पाठ भी पढ़ाया।
हैदराबाद देश की सबसे बड़ी रियासत थी। अंग्रेजों की उसे शह थी। जब अंग्रेजों ने टीपू सुल्तान को हरा दिया तो निजाम की सीमाओं का विस्तार हो गया। अंग्रेजों ने इसमें मदद की। आजादी के समय निजाम का गरूर कम नहीं हुआ था। उसके पास 50 हजार सैनिकों की फौज थी। निजाम की ताकत इस बात में भी थी कि उसे जिा और अंगे्रजों की मदद मिल रही थी। सरदार ने सब्र से काम लिया। जब देखा कि निजाम को सद्‌बुद्धि नहीं आ रही है तो जनरल राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में सेना भेजी। सेना की तीन टुकड़ियों ने तीन तरफ से प्रवेश किया। निजाम की सारी शेखी निकल गई। लेकिन सरदार पटले ने निजाम के साथ मानवीय व्यवहार किया। अगर जवाहर लाल नेहरू हस्तक्षेप न करते तो सरदार तभी कश्मीर के मसले को भी हल कर लेते।


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