स्वतंत्रता संग्राम के पितामह ”साइक्लॉनिक हिन्दू संत स्वामी विवेकानन्दजी “


12 जनवरी स्वामी विवेकानन्दजी की जयन्ति पर विषेश
स्वतंत्रता संग्राम के पितामह 
”साइक्लॉनिक हिन्दू संत स्वामी विवेकानन्दजी “
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अरविन्द सिसोदिया
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य, स्वामी विवेकानन्दजी के स्मरण मात्र से भारतवासी स्वाभिमान से भर उठते हैं और भारत की युवा शक्ति के वे पिछले 125 वर्षों से आईकाॅन हैं। स्वामीजी भारतमाता के वह सपूत थे जिन्हे स्वंय ईश्वर ने ही भारत के उद्दार के लिये,  उत्थान के लिये और पराधीनता से मुक्ति के स्वाभिमान जागरण हेतु भेजा था। उनमें अत्यंत विलक्षण प्रतिभा थी। वे परोक्ष रूप से भगवान शिव के अवतार माने जाते रहे हैं।
     उन्होने अमरीका के शिकागो शहर में 1893 में आयोजित उस विश्व धर्म संसद को अच्ंाभित कर दिया जो मात्र ईसाई श्रैष्ठता पर मुहर लगवानें के लिये आयोजित की गई थी। आयोजक स्वामीजी के बौद्धिक क्षमता से चकित थे उनके सम्बोधन प्रभाव और उसके धाराप्रवाह माधुर्य पर मोहित थे, वे उन्हे सबसे अंतिम वक्ताओं अर्थात प्रमुख वक्ता के रूप में बुलवाते थे ताकि धर्म संसद में आये श्रोता उन्हे सुनने के लोभ में रूके रहें । पूरा अमरीका उन पर मोहित था और तत्कालीन अमरीकन प्रेस उन के गुणगान में कसीदे पढ़ रहा था। वहाँ के लोगों को उन्होने भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान की। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू  ( तूफानी हिन्दू ) का नाम दिया था ।
नोबल पुरूस्कार धारी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था “ यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानन्दजी को पढि़ये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।” रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था ” उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी।“
          स्वामीजी स्वतंत्रता के भाव को भारतवासियों में भरते हुये तत्कालीन भारतवासियों से प्रश्न किया था कि ” ऐ भारत ! क्या दूसरों की ही हां में हां मिला कर, दूसरों की ही नकल कर, परमुखापेक्षी होकर इस दासों की सी दुर्बलता, इस घृणित जघन्य निष्ठुरता से ही तुम बडे-बडे अधिकार प्राप्त करोगे ? क्या इसी लज्जास्पद कापुरुषता से तुम वीरभोग्या स्वाधीनता प्राप्त करोगे?

         वे इस प्रश्न का उत्तर भी यूं देते थे ” ऐ भारत ! तुम मत भूलना कि तुम्हारे उपास्थ सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं, मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता,सावित्री,दमयन्ती है। मत भूलना कि तुम्हारा जीवन इन्द्रिय सुख के लिए, अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है। मत भूलना कि तुम जन्म से ही माता ( भारत माता ) के लिए बलिदान स्वरूप रखे गए हो, मत भूलना की तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है, तुम मत भूलना कि नीच,अज्ञानी,दरिद्र,मेहतर तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं। ऐ वीर, साहस का साथ लो ! गर्व से बोलो कि मैं भारतवासी हूं और प्रत्येक भारतवासी, मेरा भाई है। बोलो कि अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चांडाल भारतवासी, सब मेरे भाई हैं। “
         वे अपने आव्हान को इस प्रकार गति प्रदान करते थे कि ” तुम भी कटिमात्र वस्त्रावृत्त होकर गर्व से पुकार कर कहो कि भारतवासी मेरा भाई है, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत के देव-देवियाँ मेरे ईश्वर हैं। भारत का समाज मेरी शिशुसज्जा, मेरे यौवन का उपवन और मेरे वृद्धावस्था की वाराणसी है। भाई, बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है, और दिन-रात कहते रहो कि हे गौरीनाथ, हे जगदम्बे, मुझे मनुष्यत्व दो ! मां मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो, मुझे मनुष्य बनाओ! “


        वे मात्र हिन्दू सन्त ही नहीं थे बल्कि हिन्दुत्व के पुर्न उत्थानकर्ता भी थे। एक महान देशभक्त, विचारक, उद्बोधक , मानवतावादी और प्रखर प्रवक्ता भी थे। उन्होने सामाजिक समरसता का एकीकरण करते हुये आव्हान किया था कि ” नया भारत निकल पड़े मोची की दुकान से, भड़भूँजे के भाड़ से, कल-कारखानों से, हाट - बाजार से , निकल पडे झाडि़यों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। और उनकी यह स्वतंत्रता तथा स्वाभिमान से भरपूर अव्हान ही था जिसने भारत को स्वतंत्र होनें की उर्जा प्रदान की । इसीलिये उन्हे स्वतंत्रता संग्राम का पितामह भी कहा जाता है। “

उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआ, यही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा केवल यहीं आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिये जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति के द्वार का अनुसंधान हुआ है। उनके कथन- ” उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको, जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाये। “
स्वामी विवेकानन्दजी आडम्बरों और रूढि़यों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उनका कहना था कि  हिन्दू धर्म मानवता को पूरी तरह समर्पित है इसीलिये यह अनादिकाल से अनन्त तक मानव के साथ रहेगा । 
स्वामी विवेकानंदजी के ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। उन्होंने कहा था कि ” मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिये जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जायें। “
जीवन के अन्तिम दिन ४ जुलाई १९०२ को प्रतिदिन की भांती उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और इसी दौरान कहा था -” एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।“ लगता है कि उन्हे भारत के भविष्य का भान था और एक प्रकार से यह उनकी गूढ़ भविष्यवाणी थी। यही कारण है कि 1925 में नागपुर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की स्थापना डाॅ. केशवबलीराम हेडगेवार ने की और इस संगठन ने अपने विचार संचयन में लगभग शतप्रतिशत स्वामी विवेकानन्दजी के विचारों को ग्रहण किया और उसी मार्ग से देशसेवा में रत है।
संघ ने भारतमाता और भगवाध्वज को अपना अधिष्ठान बना कर प्रचारक रूपी आधुनिक संत परम्परा का अविष्कार किया और भारतीय संस्कृति के उत्थानरूपी अभियुद्य के लिये समर्पित युवकों को प्रेरित किया, स्वामीजी के विचारों की तेजस्विता और ओजस्विता से भरपूर स्वंयसेवकों का निर्माण कर उन्हे गांव - गांव तक फैला कर स्वामीजी के स्वप्न को साकार करने में निरंतर प्रयासरत है।
पिछले दिनों संघ के वर्तमान सरसंघचालक परमपूज्य मोहन भागवत जी ने अयोध्या में अपने सम्बोधन में कहा भी था कि संघ स्वामी विवेकानन्दजी के बताये मार्ग पर चलता हैं। स्वामीजी और संघ में अटूट नाता है । जब स्वामीजी की 100वीं जयन्ति आई थी तक संघ के प्रयासों से ही कन्याकुमारी में स्वामीजी का भव्य स्मारक बनवाया गया । इस कार्य को सम्पन्न करने के लिये संघ का पूरा तंत्र जुटा था और भव्य निर्माण का कार्य हाथ में लिया तथा संघ के ही वरिष्ठ प्रचारक एकनाथ रानाडे जी की देखरेख में यह कार्य सम्पन्न हुआ था।
स्वामीजी की 150वीं जयन्ति को भी भव्य स्वरूप में मनाये जाने तथा उसे समाजोपयोगी बनाने का मार्गदशन संघ ने ही किया।  संघ का मुख्य लक्ष्य जन - जन में स्वामी जी के विचारों को पुनः अधिष्ठाति करना रहा । स्वामी जी को केन्द्रित करके हजारों की संख्या में मध्यम और बडे कार्यक्रम इस 150 वें वर्ष के दौरान वर्षपर्यन्त श्रृंखलाबद्ध सम्पन्न हुये हैंे । विभिन्न भाषाओं में स्वामीजी का साहित्य और विचारों को घर - घर पहुंचाया गया, भव्य शोभयात्रायें, नाट्य आयोजन, विचार मंथन कार्यशालायें, भारत जागो दौड़ सहित विविध प्रकार के कार्यक्रमों के द्वारा स्वामीजी के विचारों का जनजागरण किया गया । जिसने साक्षात स्वामी विवेकानन्द के दिग्दर्शन समाज को करवाये । सच यही है कि संघ स्वामीजी के स्वप्न के युवाओं की निर्माण भूमि है जहां प्रचारक के रूप में लाखों युवकों को स्वामीजी के विचारों से सिंचित कर स्वामी विवेकानन्दजी की नव श्रृंखला तैयार कर रहा है।
- अरविन्द सिसोदिया, साहित्य प्रमुख ,
स्वामी विवेकानन्द सार्द्ध शति समारोह समिति,कोटा महानागर
राधाकृष्ण मंदिर रोड़,
डडवाडा, कोटा जं2
पिनकोड 324002 राजस्थान।
09509559131 / 09414180151

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