आप की अराजकता, आप का धोखा - कल्पेश याग्निक




दैनिक भास्कर, कोटा से
Published on 25 Jan-2014


असंभव के विरुद्ध - कल्पेश याग्निक

आप की अराजकता, आप का धोखा; बहुत अच्छी शुरुआत
अनुशासन, अभ्यास, अनुभूति और अनुभव आधारित अलख

इस बार यह कॉलम हममें से उन लोगों को विचलित कर सकता है जिनमें एक उम्मीद जगी है।
'आप' के अनेक हंस अब बगुले सिद्ध हो रहे हैं। बहुत अच्छा हो रहा है। कि बहुत काल्दी ऐसा हो रहा है।
आप स्वयं अपने 'अराजक' होने पर गर्व कर रहे हैं। आपने आम आदमियों में एक बहुत बड़ा तूफान पैदा कर दिया था। फिर उस तूफान से मर्यादा के सारे किनारे तोड़ दिए।
'तूफान से तबाही ही तो आएगी' - ऐसा कह सकते हैं आप। राष्ट्र के पास सुनने के अलावा कोई चारा भी नहीं है। बेचारा।
यही भूल कर रहे हैं आप। राष्ट्र भला है। बेचारा नहीं।
आपने सबसे पहले, सफलता मिलते ही, एक नई भाषा गढ़ ली। आपने कहा - ''मैं कौन हूं? मेरी 'औकात' ही क्या है? यह मेरी सफलता नहीं। यह मेरे साथियों की सफलता नहीं। यह तो आम आदमी की सफलता है।''
फिर हर बात में दोहराना आरंभ कर दिया। 'मैं मुख्यमंत्री कैसे बनूंगा, क्यों बनूंगा। कभी भी नहीं बनूंगा। बनना चाहता ही नहीं। क्योंकि मेरी 'औकात' ही क्या है?' आम आदमी दंग रह गया। जो ६७ साल में नहीं हुआ - अब हो रहा है। हर बात में उसे पूछा जा रहा है। उसे यही पता था कि 'औकात' तो उसकी नहीं है। यहां तो पूछने वाला - राष्ट्रीय समाचार पटल पर अभूतपूर्व तरह से विचरण कर रहा नेतृत्व - अपने आप को ही कह रहा था कि वह तुच्छ है। कुछ है ही नहीं। जो कुछ है- वह आम आदमी ही है।
फिर अद्भुत 'त्याग' की गाथा सामने आई। सभी सत्ता देना चाहते हैं। ''हम सरकार बनाना नहीं चाहते, विपक्ष में बैठकर सेवा करना चाहते हैं।'' फिर दबाव बढ़ा। तो कहा- भाजपा, कांग्रेस दोनों बराबर की भ्रष्ट, अवसरवादी, सांप्रदायिक पार्टियां हैं। इनमें से किसी का भी समर्थन लेकर सरकार बनाने का प्रश्न ही नहीं। फिर कहा : 'कांग्रेस व्यर्थ, जबरदस्ती हमें समर्थन दे रही है। हमें फंसाना चाहती है!' - यही पहला धोखा।
फिर रहन-सहन, सुरक्षा, तामझाम, लाव-लश्कर पर जो कुछ कहा था, सब से पलटे। 'क्या करें, औकात ही नहीं है।' - यह दूसरा धोखा।
फिर ऐसे-ऐसे निर्णय - जो व्यापक जनहित यानी बड़े स्तर पर आम आदमी के भविष्य के लिए भयावह सिद्ध होंगे। आर्थिक अराजकता लिए हुए। राज-सहायता के पुरातन युग में ढकेलने वाले। कारोबार विरोधी। उपभोक्ता विरोधी। - यह तीसरा धोखा।
फिर सामने आया मंत्रियों का 'मैं आम आदमी हूं' के नाम पर चौंकाने वाला रूप। 'मुझे चाहिए पूर्ण स्वराज' वाली बात निश्चित ही समूचे आकार-प्रकार में लागू करने लगे आप के मंत्री। 'मुझे' पर विशेष जोर देकर। ले आए स्वराज। कानून मंत्री ने अपने आम आदमियों की रक्षा के लिए न जाने कौन-कौन सा रूप नहीं गढ़ा। वे पुलिस बन बैठे। वे ही हितैषी। वे ही रक्षक। वे ही कानून। वे ही जज।
महिलाओं की गरिमा के लिए उद्वेलित समूचे राष्ट्र को एक कानून मंत्री के दंभ और अहं के समक्ष तुच्छ बना देने का प्रयास शुरू हो गया। - यह चौथा धोखा।
किन्तु कौन कहे? कह तो कई रहे थे। सुने कौन? कांग्रेस - भाजपा सब को भ्रष्ट करार दिया था। इसलिए कोई भी कुछ कहेगा - तो वह 'आम आदमी' का विरोधी करार दिया जाएगा।
किन्तु आप के ही कुछ नामी लोगों ने कहना शुरू कर दिया। जब बात बढऩे लगी तो मीडिया में पहली बार आपके विरुद्ध कुछ आने लगा। तब जाकर आपने सोचा - अब अनदेखी नहीं कर सकते। कुछ करना पड़ेगा। क्योंकि आपका आधार मीडिया ही तो है। परंपरागत पार्टियों से चिढ़ है। परंपरागत मीडिया किन्तु अत्यधिक प्रिय है। फिर सोशलमीडिया तो है ही।
आम आदमी को ताकत मीडिया से ही तो मिलेगी। इसलिए मीडिया के लिए कुछ करना अनिवार्य। - पांचवा धोखा।
फिर राष्ट्रीय नाटक। विराट प्रहसन। 'मैंने तो पहले ही कहा था कि हम सिखाएंगे कांग्रेस-भाजपा और सभी परंपरागत पार्टियों को...।' सचमुच। बहुत सिखाया। संविधान की गरिमा ताक में। नियम कूड़ेदान में। मर्यादा को मसल कर रख डाला। आम आदमी त्रस्त होता रहा। उसके आवागमन के रास्ते, साधन, सुविधाएं। सब रुक गए। वह घबरा गया।
किन्तु, आप 'अराजक' कहलाने की प्रसिद्धि के लिए धरने-प्रदर्शन पर डटे रहे। आप सड़क पर लेट गए। रजाई सभी समस्याओं रूपी थपेड़ों का ढाल बना दी गई।जिम्मेदारी को वैगन आर के कोने में धकेल दिया गया।
क्यों?
क्योंकि आप को दिल्ली पुलिस अपने नियंत्रण में चाहिए। क्योंकि आपके मंत्रियों के साथ 'दुव्र्यवहार' हुआ। क्योंकि आपकी मनमर्जी नहीं चली।
आप तो कह रहे थे ना कि 'मेरी 'औकात' क्या है?' तो क्या वह पाखंड था? हैसियत दिखा देना चाहते थे? आपका अहं। आपका मान। आपकी मर्जी। आपकी ताकत। आपके मातहत।
सबकुछ आपका? तो हमारा क्या? हमारी भावनाओं का क्या? हमारी उम्मीदों का क्या? हमारे मन में जगाई गई इच्छाओं का क्या? कि भ्रष्टाचार मिटाने आ गया एक आम आदमी। कि झाड़ू फेर देगा सारी राजनीतिक बुराइयों पर एक आम आदमी।
आम आदमी ऐसे नहीं होते। आम आदमी, आम औरत को अपमानित नहीं करते। विदेशी महिलाओं को तो यूं भी नहीं।
आम आदमी केंद्रीय गृहमंत्री और राज्यसभा में विपक्ष के नेता व सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील के 'मुंह पर थूकने' की कायराना, अमानवीय और संस्कारहीन बात नहीं करते।
आम आदमी केरल से निकलकर समूचे देश में मरीजों की सेवा में सर्वस्व लगाकर खामोश जीवन और निर्धन स्थितियों में अंतिम दम तक अस्पताल में ही जुटे रहने वाली महिलाओं को 'काली-पीली' कहने की कलुषित हरकत नहीं करते। न ही आम आदमी मुहर्रम और ब्रह्मा-विष्णु-महेश पर किसी भी तरह की कविताएं, किसी भी स्थिति-देशकाल और वातावरण में लिखते हैं।
और आम आदमी न तो धर्म के नाम पर वोट मांगते हैं, न ही वोट ले लेने के बाद रातोरात $खास तरह की अराजकता फैलाते हैं।
सबसे बड़ी बात - आम आदमी धोखा नहीं देते। 'हिट-एंड-रन' की आदत हो - तो भी नहीं।
आम आदमी तो अपने परिवार, समूह और मित्र मंडली में कोई भी कुछ बुरा या $गलत कर दे - तो अपने रिश्तों की परवाह किए बग़ैर - उसे ठीक करने में लग जाते हैं। जिम्मेदारी का अहसास कराते हैं। सबकुछ खो देते हैं - किन्तु कर्तव्य से डिगते नहीं। इसीलिए तो आम आदमी है। बाकी सारे आप के गुण तो 'खास' के हैं। आपने डर अलग पैदा कर दिया है। एक वातावरण।
आप जैसे अति महत्वाकांक्षी, जो रातोरात बगैर किसी संघर्ष के मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, कुछ धैर्य रखकर अपनी अराजकता के बारे में सोचेंगे - यह असंभव है। किन्तु सोचना ही होगा। चूंकि आपने आम आदमी की जिम्मेदारी ली है - तो जवाबदेह भी होना होगा। रिस्पॉन्सिबल एंड रिस्पॉन्सिव।
अच्छा हुआ आपने यह रूप दिखा दिया। जल्दी। इससे भले-भोले भारतीय नागरिकों को सबकुछ पता चल गया। कुछ और नहीं तो सच्चाई सामने आ गई।
सच ही सबसे बड़ा राष्ट्रीय हित है।
(लेखक दैनिक भास्कर समूह के नेशनल एडिटर हैं।)
इस कॉलम पर आपके विचार ९२००००११७४ पर एसएमएस करें।
हंस श्वेतो बक: श्वेतो को भेदो बकंहसयो:।

नीरक्षीर विवेके तु हंस ; हंसो बको बक: ।।

(यूं तो हंस और बगुले दोनों का रंग धवल - सफेद - होता है किन्तु पानी मिले दूध में से केवल दूध पीने की परीक्षा में हंस ही सफल हो सकता है। अर्थात् दिखने-कहने से नहीं, योग्यता से अंतर पता चलता है। - शास्त्रों से।

- कल्पेश याग्निक

असंभव के विरुद्ध 

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