गुरु गोबिन्द सिंह जयंती
07 जनवरी- 2014
गुरु गोबिन्द सिंह जन्मदिवस गुरु के जन्मदिन के वार्षिक उत्सव Nanakshahi कैलेंडर पर आधारित है
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संत सिपाही थे गुरु गोबिन्द सिंह
डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी
Saturday, January 05, 2008
dainik Bhaskar
जयंती विशेष. हिंदुस्तान को ऐतिहासिक मोड़ देने में राष्ट्रनायक गुरु गोबिन्द सिंह जी की विशेष भूमिका है। अत्याचार एवं जुल्म का प्रतिरोध करने के लिए जिस खालसे का उन्होंने सृजन किया, भविष्य में उसका प्रभाव भारतीय इतिहास में नजर आया। उनके लिए इंसान की एक ही जाति थी, मानवता। गुरु जी ने ऐसा जीवन दर्शन दिया जिसका पहला पाठ धर्म निरपेक्षता से जुड़ा हुआ था।
वे दार्शनिक एवं भारतीय भाषाओं के ज्ञाता थे। अरबी-फारसी, संस्कृत, हिंदी, पंजाबी, अवधी, ब्रज आदि भाषाओं पर उनका अधिकार था। आनंदपुर साहिब एवं पांउटा साहिब में उन्होंने नए साहित्य सृजन की जमीन तैयार की। उनके विद्या दरबार में भारतीय भाषाओं के 52 कवि थे।
इन सभी ने गुरु जी के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर अमर संस्कृत भारतीय साहित्य का हिंदी एवं पंजाबी में अनुवाद किया। यह भारतीय साहित्य का पुनर्सृजन था। भक्ति के नए अर्थ आम आदमी की जिंदगी को प्रभावित करने लगे। भक्ति कर्म से जुड़ी और कर्म राष्ट्रीय दुख-सुख का हिस्सा बना। गुरु जी द्वारा स्थापित सिख दर्शन और विचारधारा ने विश्व संस्कृति में नए अध्याय जोड़े।
13 अप्रैल 1699 में वैसाखी के मौके पर गुरु जी ने जिस खालसे का निर्माण किया वह गुरमुख भी था तथा अन्याय से सीधा टकराने की शक्ति भी रखता था। बेटों की शहादत पर गुरु जी ने कहा था कि मुझे अपने चार बेटों की कुर्बानी का दुख इसलिए नहीं है क्योंकि मेरे हजारों बेटे राष्ट्र के लिए जीवित हैं।
खालसा पंथ में नैतिकता एवं सच्चई के प्रति उदारता का संचार करने के लिए गुरु जी ने पहले पांच प्यारों को अमृत छकाया फिर उसी में से स्वयं अमृत का पान किया तथा एक हो गए। गुरु जी ने खालसा को अपना खास रूप कहकर पुकारा। खालसा में यह आस्था भी दृढ़ है कि मेरा अध्यात्म चिंतन खालसा में निवास करता है।
वास्तव में यह जिंदगी का नया समाजशास्त्र था जिसका निर्माण गुरु जी की दिव्य दृष्टि से हुआ। भारतीयों में सोई हुई शक्ति को गुरु जी ने फिर से जगाया ही नहीं, बल्कि उसे एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा भी बनाया जिससे वे अपनी गुरु जी के पावन जन्मदिवस पर हम उन्हें शत-शत प्रणाम करते हैं।
लेखक गुरुनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष हैं।
----------- गुरु गोबिन्द सिंह
( जन्म: २२ दिसंबर १६६६, मृत्यु: ७ अक्टूबर १७०८) सिखों के दसवें एवं अन्तिम गुरु थे। उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था । उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। उन्होने सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों ( जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े।
गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया और इसे ही सिखों को शाश्वत गुरू घोषित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है। सिखों के दस गुरु हैं ।
उस समय औरंगजेब बादशाह दिल्ली के तख्त पर बैठा हुआ था। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए जिस महान पुरुष ने अपने शीष की कुरबानी दी, ऐसे सिक्खों के नवें गुरु गुरु तेग बहादुर जी के घर में सिक्खों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी का परकाश् हुआ था। उन दिनों गुरु तेग बहादुर जी पटना (बिहार) में रहते थे।
22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग बहादुर की धर्मपरायण पत्नी गूजरी देवी ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया, जो बाद में गुरु गोबिंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। बालक के जन्म पर पूरे नगर में उत्सव मनाया गया। उन दिनों गुरु तेग बहादुर असम-बंगाल में गुरु नानक देव जी के संदेश का प्रचार-प्रसार करते हुए घूम रहे थे।
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गुरु गोबिन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु थे। उनका जन्म बिहार के पटना शहर में हुआ था । उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। विकिपीडिया
जन्म: 22 दिसम्बर 1666, पटना
मृत्यु: 7 अक्तूबर 1708, नांदेड़
पूर्ण नाम: गोबिन्द राय
जीवनसाथी: माता सुंदरी (विवा. 1684), माता साहिब कौर
बच्चे: साहिबज़ादा फतेह सिंह, अधिक
अभिभावक: गुरु तेग बहादुर सिंह, माता गुजरी
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गुरु का चेला
बन्दा सिंह बहादुर
बन्दा सिंह बहादुर या बन्दा बैरागी पहले ऐसे सिख जरनल हुए, जिन्होंने मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबजादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्ता सम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ की नीव रक्खी। यही नहीं, उन्होंने गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहर जारी करके, निम्न वर्ग के लोगों की उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मजदूरों को जमीन का मालिक बनाया।
परिचय
बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में 1670 ई. तदनुसार विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 को हुआ था। वह राजपूतों के भारद्वाज गोत्र से सम्बद्ध था और उसका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। 15 वर्ष की उम्र में वह जानकीप्रसाद नाम के एक बैरागी का शिष्य हो गया और उसका नाम माधोदास पड़ा। तदन्तर उसने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहा। वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चला गया जहाँ गोदावरी के तट पर उसने एक आश्रम की स्थापना की।
गुरु गोबिन्द सिंह से प्रेरणा
3 सितंबर, 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने इस आश्रम को देखा और उसे सिक्ख बनाकर उसका नाम बन्दासिंह रख दिया। पंजाब में सिक्खों की दारुण यातना तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष के शिशुओं की नृशंस हत्या ने उसे अत्यन्त विचलित कर दिया। गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वह पंजाब आया और सिक्खों के सहयोग से मुगल अधिकारियों को पराजित करने में सफल हुआ। मई, 1710 में उसने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उसने खालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।
सिक्खों के राज्य पर मुस्लिम आक्रमण
बन्दा सिंह के नेतृत्व में, सिक्खों के इस नवीन राज्य में व्यक्ति-व्यक्ति में भेदभाव न रहा और निम्न वर्ग का व्यक्ति शासन में उच्च पद का अधिकारी बना। परन्तु उसका राज्य थोड़े दिनों तक ही रहा। बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) उर्फ शाह आलम ने स्वयं चढ़ाई कर इसे परास्त किया और 10 दिसम्बर, 1710 ई. को सिक्खों के कत्लेआम का आदेश दिया।
राज्य-स्थापना हेतु आत्मबलिदान
बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फर्रुखसियर की शाही फौज ने अब्दुल समद खाँ के नेतृत्व में उसे गुरुदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उसने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। फरवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाया गया जहाँ 5 मार्च से 13 मार्च तक प्रति दिन 100 की संख्या में सिक्खों को फाँसी दी गयी। 16 जून को बादशाह फर्रुखसियर के आदेश से बन्दा सिंह तथा उसके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये।
बन्दा बैरागी का सुशासन
मरने से पूर्व बन्दा बैरागी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों और जमींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे था। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हजार मुसलमान भी उसकी सेना में थे। बन्दासिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगा और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ और खुतवा पढ़ने में पूरी तरह स्वतन्त्र होंगे।
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