केजरीवाल का सच



जरूर पढे इस पत्रिका को ........ केजरीवाल का सच......... शिमिरित ली जो कि असल सूत्रधार है केजरीवाल को खड़ा करने मे....... यह शिमिरित ली कौन है, शोधार्थी या अमेरिकी एजेंट? दस्तावेज बताते हैं कि वह बतौर शोधार्थी ‘कबीर’ संस्था से जुड़े थी। इस संस्था के गॉड-फादर अरविंद केजरीवाल रहे हैं। शिमरित ली को लेकर अटकलें लग रही हैं, क्योंकि शिमरित ली कबीर संस्था में रहकर न केवल भारत में आंदोलन का तानाबाना बुन रही थी, बल्कि लंदन से लेकर काहिरा और चाड से लेकर फिलिस्तीन तक संदिग्ध गतिविधियों में संलिप्त थी। शिमिरित ली दुनिया के अलग-अलग देशों में विभिन्न विषयों पर काम करती रही है। भारत आकर उसने नया काम किया। कबीर संस्था से जुड़ी। प्रजातंत्र के बारे में उसने एक बड़ी रिपोर्ट महज तीन-चार महीनों में तैयार की। फिर वापस चली गई। आखिर दिल्ली आने का उसका मकसद क्या था? इसे एक दस्तावेजी कहानी और अरविंद केजरीवाल के संदर्भ में समझा जा सकता है। बहरहाल कहानी कुछ इस प्रकार है। जिस स्वराज के राग को केजरीवाल बार-बार छेड़ रहे हैं, वह आखिर क्या है? साथ ही सवाल यह भी उठता है कि अगर इस गीत के बोल ही केजरीवाल के हैं तो गीतकार और संगीतकार कौन है? यही नहीं, इसके पीछे का मकसद क्या है? इन सब सवालों के जवाब ढूंढ़ने के लिए हमें अमेरिका के न्यूयार्क शहर का रुख करना पड़ेगा। न्यूयार्क विश्वविद्यालय दुनिया भर में अपने शोध के लिए जाना जाता है। इस विश्वविद्यालय में ‘मध्यपूर्व एवं इस्लामिक अध्ययन’ विषय पर एक शोध हो रहा है। शोधार्थी का नाम है, शिमिरित ली। शिमिरित ली दुनिया के कई देशों में सक्रिय है। खासकर उन अरब देशों में जहां जनआंदोलन हुए हैं। वह चार महीने के लिए भारत भी आई थी। भारत आने के बाद वह शोध करने के नाम पर ‘कबीर’ संस्था से जुड़ गई। सवाल है कि क्या वह ‘कबीर’ संस्था से जुड़ने के लिए ही शिमिरित ली भारत आई थी? अभी यह रहस्य है। उसने चार महीने में एक रिपोर्ट तैयार की। यह भी अभी रहस्य है कि शिमरित ली की यह रिपोर्ट खुद उसने तैयार की या फिर अमेरिका में तैयार की गई थी। बहरहाल, उस रिपोर्ट पर गौर करें तो उसमें भारत के लोकतंत्र की खामियों को उजागर किया गया है। रिपोर्ट का नाम है ‘पब्लिक पावर-इंडिया एंड अदर डेमोक्रेसी’। इसमें अमेरिका, स्विट्जरलैंड और ब्राजील का हवाला देते हुए ‘सेल्फ रूल’ की वकालत की गई है। अरविंद केजरीवाल की ‘मोहल्ला सभा’ भी इसी रिपोर्ट का एक सुझाव है। इसी रिपोर्ट के ‘सेल्फ रूल’ से ही प्रभावित है, अरविंद केजरीवाल का ‘स्वराज’। अरविंद केजरीवाल भी अपने स्वराज में जिन देशों की व्यवस्था की चर्चा करते हैं, उन्हीं तीनों अमेरिका, ब्राजील और स्विट्जरलैंड का ही जिक्र शिमिरित भी अपनी रिपोर्ट में करती हैं। ‘कबीर’ के कर्ताधर्ता अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया हैं। यहां शिमरित के भारत आने के समय पर भी गौर करने की जरूरत है। वह मई 2010 में भारत आई और कबीर से जुड़ी। वह अगस्त 2010 तक भारत में रही। इस दौरान ‘कबीर’ की जवाबदेही, पारदर्शिता और सहभागिता पर कार्यशालाओं का जिम्मा भी शिमरित ने ही ले लिया था। इन चार महीनों में ही शिमरित ली ने ‘कबीर’ और उनके लोगों के लिए आगे का एजेंडा तय कर दिया। उसके भारत आने का समय महत्वपूर्ण है। इसे समझने से पहले संदिग्ध शिमरित ली को समझने की जरूरत है, क्योंकि शिमरित ली कबीर संस्था में रहकर न केवल भारत में आंदोलन का तानाबाना बुन रही थी, बल्कि लंदन से लेकर काहिरा और चाड से लेकर फिलिस्तीन तक संदिग्ध गतिविधियों में संलिप्त थी। यहूदी परिवार से ताल्लुक रखने वाली शिमिरित ली को 2007 में कविता और लेखन के लिए यंग आर्ट पुरस्कार मिला। उसे यह पुरस्कार अमेरिकी सरकार के सहयोग से चलने वाली संस्था ने नवाजा। यहीं वह सबसे पहले अमेरिकी अधिकारियों के संपर्क में आई। जब उसे पुरस्कार मिला तब वह जेक्शन स्कूल फॉर एडवांस स्टडीज में पढ़ रही थी। यहीं से वह दुनिया के कई देशों में सक्रिय हुई। जून 2008 में वह घाना में अमेरिकन ज्यूश वर्ल्ड सर्विस में काम करने पहुंचती। नवंबर 2008 में वह ह्यूमन राइट वॉच के अफ्रीकी शाखा में बतौर प्रशिक्षु शामिल हुई। वहां उसने एक साल बिताए। इस दौरान उसने चाड के शरणार्थी शिविरों में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा संबंधी दस्तावेजों की समीक्षा और विश्लेषण का काम किया। जिन-जिन देशों में शिमिरित की सक्रियता दिखती है, वह संदेह के घेरे में है। हर एक देश में वह पांच महीने के करीब ही रहती है। उसके काम करने के विषय भी अलग-अलग होते हैं। उसके विषय और काम करने के तरीके से साफ जाहिर होता है कि उसकी डोर अमेरिकी अधिकारियों से जुड़ी है। दिसंबर 2009 में वह ईरान में सक्रिय हुई। 7 दिसंबर, 2009 को ईरान में छात्र दिवस के मौके पर एक कार्यक्रम में वह शिरकत करती है। वहां उसकी मौजूदगी भी सवालों के घेरे में है, क्योंकि इस कार्यक्रम में ईरान में प्रजातंत्र समर्थक अहमद बतेबी और हामिद दबाशी शामिल थे। ईरान के बाद उसका अगल ठिकाना भारत था। यहां वह ‘कबीर’ से जुड़ी। चार महीने में ही उसने भारतीय लोकतंत्र पर एक रिपोर्ट संस्था के कर्ताधर्ता अरविंद केजरावाल और मनीष सिसोदिया को दी। अगस्त में फिर वह न्यूयार्क वापस चली गई। उसका अगला पड़ाव होता है ‘कायन महिला संगठन’। यहां वह फरवरी 2011 में पहुंचती। शिमिरित ने वहां “अरब में महिलाएं” विषय पर अध्ययन किया। कायन महिला संगठन में उसने वेबसाइट, ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग का प्रबंधन संभाला। यहां वह सात महीने रही। अगस्त 2011 तक। अभी वह न्यूयार्क विश्वविद्यालय में शोध के साथ ही ‘अर्जेंट एक्शन फंड’ से बतौर सलाहकार जुड़ी हैं। पूरी दुनिया में जो सामाजिक न्याय, मानवाधिकार और स्त्री संबंधी मुद्दों पर जो प्रस्ताव आते हैं, उनकी समीक्षा और मूल्यांकन का काम शिमिरित के जिम्मे है। अगस्त 2011 से लेकर फरवरी 2013 के बीच शिमिरित दुनिया के कई ऐसे देशों में सक्रिय थी, जहां उसकी सक्रियता पर सवाल उठते हैं। इसमें अरब देश शामिल हैं। मिस्र में भी शिमिरित की मौजूदगी चौंकाने वाली है। यही वह समय है, जब अरब देशों में आंदोलन खड़ा हो रहा था। शिमिरित ली 17वें अरब फिल्म महोत्सव में भी सक्रिय रहीं। इसका प्रीमियर स्क्रीनिंग सेन फ्रांसिस्को में हुआ। स्क्रीनिंग के समय शिमिरित ने लोगों को संबोधित भी किया। इस फिल्म महोत्सव में उन फिल्मों को प्रमुखता दी गई, जो हाल ही में जन आंदोलनों के ऊपर बनी थी। शिमिरित आई तो फंडिंग बढ़ी शिमिरित ली के कबीर संस्था से जुड़ने के समय को उसके विदेशी वित्तीय सहयोग के नजरिए से भी देखने की जरूरत है। एक वेबसाइट ने ‘सूचना के अधिकार’ के तहत एक जानकारी मांगी। उस जानकारी के मुताबिक कबीर को 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड फाउंडेशन से 86,61,742 रुपए मिले। 2007 से लेकर 2010 तक फोर्ड ने कबीर की आर्थिक सहायता की। इसके बाद 2010 में अमेरिका से शिमिरित ली ‘कबीर’ में काम करने के लिए आती हैं। चार महीने में ही वह भारतीय प्रजातंत्र का अध्ययन कर उसे खोखला बताने वाली रिपोर्ट केजरीवाल और मनीष सिसोदिया को देकर चली जाती है। शिमिरित ली के जाने के बाद ‘कबीर’ को फिर फोर्ड फाउंडेशन से दो लाख अमेरिकी डॉलर का अनुदान मिला। इसे भारत की खुफिया एंजेसी ‘रॉ’ के अपर सचिव रहे बी. रमन की इन बातों से समझा जा सकता है। एक बार बी. रमन ने एनजीओ और उसकी फंडिंग पर आधारित एक किताब के विमोचन के समय कहा था कि “सीआईए सूचनाओं का खेल खेलती है। इसके लिए उसने ‘वॉयस ऑफ अमेरिका’ और ‘रेडियो फ्री यूरोप’ को बतौर हथियार इस्तेमाल करती है।” अपने भाषण में बी. रमन ने इस बात की भी चर्चा की कि विदेशी खुफिया एजेंसियां कैसे एनजीओ के जरिए अपने काम को अंजाम देती हैं। किसी भी देश में अपने अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए सीआईए उस देश में पहले से काम कर रही एनजीओ का इस्तेमाल करना ज्यादा सुलभ समझती है। उसे अपने रास्ते पर लाने के लिए वह फंडिंग का सहारा लेती है। जिस क्षेत्र में एनजीओ नहीं है, वहां एनजीओ बनवाया जाता है। (राकेश सिंह की यह रपट यथावत पत्रिका से साभार है।)

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