यह 'आप' है या अनाड़ी पार्टी : वेदप्रताप वैदिक
Published on 25 Jan-2014
दैनिक भास्कर, कोटा से
मोहभंग
यह 'आप' है या अनाड़ी पार्टी
वेदप्रताप वैदिक
यह आम आदमी की नहीं दिल्ली के खाए-अघाए मध्य वर्ग की पार्टी है जो मीडिया को अपना गुरु मानता है
पिछले हफ्ते मैंने लिखा था कि आम आदमी पार्टी का ज्वार कहीं भाटा में नहीं बदल जाए! तब तक अफ्रीकी महिलाओं का मामला और धरना आदि के विवाद शुरू नहीं हुए थे, लेकिन अब क्या हुआ? एक ही हफ्ते में आम आदमी पार्टी की दुनिया बदल गई। जो पार्टी लोकसभा के चुनाव में दिल्ली की सातों सीटें जीतने और देश भर में 300 उम्मीदवार लड़ाने का इरादा कर रही थी, उसके बारे में देश भर में हो रहे जनमत-सर्वेक्षण अब क्या कह रहे हैं? विभिन्न सर्वेक्षणों की राय है कि अब यदि पूरे भारत में उसे आठ-दस सीटें भी मिल जाएं तो गनीमत है। मुंबई के वित्तशास्त्र के पंडित कह रहे हैं कि उनके दिल में आम आदमी पार्टी के उदय ने जो धड़कन बढ़ा दी थी, वह अब शांत होती दिखाई पड़ रही है। इतना ही नहीं, पिछले हफ्ते तक आम आदमी पार्टी को लेकर जैसी खबरें आ रही थीं, अब क्यों नहीं आ रही हैं? आम आदमी पार्टी की सदस्य-संख्या रोज लाखों में बढ़ रही थी। अब क्या हो गया? अब तक तो उसे करोड़ों तक पहुंच जाना चाहिए था? 'आप' की सदस्यता लेने के लिए किसी भी योग्यता की जरूरत नहीं थी, आप कंप्यूटर का खटका दबाइए और सदस्य बन जाइए। जैसे खटका दबाते ही लाखों सदस्य बन गए वैसे ही अब जरा सा खटका होते ही लाखों सदस्य खिसक लिए। 'आप' के खेत में अचानक उग आए जनसमर्थन के वटवृक्ष इस वक्त कहां अंतर्धान हो गए? इसके नेता कुछ बोल क्यों नहीं रहे? वे हतप्रभ क्यों हैं? देश का जो मोहभंग अगले तीन-चार माह में शुरू होना था, वह अभी से शुरू हो गया है। इसका कारण क्या है?
इसका कारण, जो लोग देख सकते हैं, उन्हें पहले से दिख रहा था। आम आदमी पार्टी कोई पार्टी ही नहीं है। भारत-जैसे विशाल देश में क्या कोई पार्टी साल-छह महीने में खड़ी की जा सकती है? जिसे तख्ता-पलट या खूनी क्रांति कहते हैं, वह भी अचानक नहीं होती। उसके लिए बरसों की तैयारी लगती है। क्या लेनिन ने 1917 की क्रांति की शुरुआत या तैयारी 1915 में की थी? माओ त्से तुंग ने 1948 में जो सत्ता-पलट किया, उसके लिए क्या उन्होंने तीस साल का लंबा युद्ध नहीं लड़ा था? महात्मा गांधी ने भारत में पूरे 32 साल लगाए, तब जाकर सिर्फ राजनीतिक आजादी मिल पाई। 'आप' पार्टी ने हथेली में सरसों उगाने की कोशिश की। भ्रष्टाचार के विरुद्ध फैली उत्कट जन-भावना को लोकपाल के नाम पर भुनाने के बाद सत्ता की भूख जागी और कुछ नौसिखिये लोगों ने आनन-फानन में एक पार्टी खड़ी कर दी। उसको नाम दे दिया - आम आदमी पार्टी! कहां है, आम आदमी, उसमें? भारत के भूखे-प्यासे, दलित-वंचित, गरीब-ग्रामीण लोग ही आम आदमी हैं। ऐसे लगभग 100 करोड़ लोगों की इस पार्टी में कौन-सी जगह है? दिल्ली के पढ़े-लिखे, खाए-धाए, तेज-तर्रार मध्यमवर्ग में यह पार्टी लोकप्रिय हो गई, लेकिन यह-वही मध्यमवर्ग है, जिसके टीवी चैनल और अखबार ही गुरु होते हैं। जिधर उनका इशारा होता है, यह प्रबुद्ध वर्ग उधर ही दौड़ पड़ता है। इशारा मिला और प्रबुद्ध वर्ग मजमा सुना करके चल दिया।
खिड़की मोहल्ले में अफ्रीकी महिलाओं के साथ हुए दुव्र्यवहार और पुलिस के दुरुपयोग ने इन प्रचार माध्यमों के कान खड़े कर दिए और रेल-भवन के धरने ने तो उनके कानों में गर्म तेल उड़ेल दिया। नतीजा क्या हुआ? धरने में पहले जनता को न आने के लिए कहा गया और जब मामला फीका पड़ता दिखा तो मजबूरी में आने का आह्वान करना पड़ा। पहले ही उम्मीद से कम लोग आए और फिर समय गुजरने के साथ भीड़ घटती गई। इस धरने का वही हाल हुआ, जो मुंबई में किए गए अन्ना के आखिरी अनशन का हुआ था। मीडिया ने भी कोड़े बरसाने शुरू कर दिए। जिससे जितना गहरा प्यार होता है, उससे उतनी ही घनघोर घृणा होती है। मीडिया ने 'आप' के लिए बहुत मोहब्बत दिखाई थी। इस नई-नवेली पार्टी को ताजा हवा के झोंके की तरह लिया था। अब उसने उसे हवा में उड़ाना शुरू कर दिया।
अखबारों और चैनलों में 'आप' और उसके नेता छाए जरूर रहे। देश की राजधानी में कोई अराजकता मचाए तो उसे प्रचार तो मिलना ही है। 'आप' के नेताओं के लिए यही परम उपलब्धि थी, लेकिन मीडिया ने उन्हें उल्टा टांग दिया। मीडिया क मार पडऩे लगी तो 'आप' के नेता भाग निकलने की गली ढूंढऩे लगे। दिल्ली के उपराज्यपाल ने एक संकरा रास्ता क्या खोला, 'आप' ने अपनी टोपी संभाली और भाग निकली। चार पुलिसवालों को मुअत्तल करें तो उस विधि मंत्री को भी मुअत्तल क्यों न किया जाए, जो पुलिसवालों को गैर-कानूनी काम के लिए मजबूर कर रहा था। वकील के तौर पर तो अदालत की फटकार वह पहले ही खा चुका था, अब उसके कारनामों की वजह से अफ्रीकी देशों में भारत की बदनामी हो रही है। एक जिम्मेदार लोकतांत्रिक पार्टी की तरह अपने मंत्री से इस्तीफा मांगने की बजाय 'आप' सीनाजोरी पर उतारू हो गई। उसने अपने आंदोलनकारी रूप को भुनाने की कोशिश की। अपने आपको अराजकतावादी बताने लगे। जब मौका था तब आपने अपना यह अराजकतावादी रूप क्यों नहीं जाहिर किया। आज भी यदि 'आप' सत्तारूढ़ नहीं होती तो उसके इस रूप पर सारा देश लट्टू हो जाता, क्योंकि आज देश की सभी पार्टियां सिर्फ चुनाव-मशीनें बन गई हैं। वे न तो जनता को जगाती हैं और न ही जन-मुद्दों पर सड़क पर संघर्ष करती नजर आती हैं। चुनावों को देखते हुए राष्ट्रीय अधिवेशनों में भी सिर्फ संघर्ष की बात हो रही है, संघर्ष कहां है?
'आप' ने एक नई और जबर्दस्त राह पकड़ी थी। जन-आंदोलन की और वीआईपी संस्कृति के खिलाफ संघर्ष की, लेकिन उसने अपने आचरण से सिद्ध किया कि उसे न तो आंदोलन करना आता है और न ही सरकार चलाना। सिर्फ गांधी टोपी लगाने से कोई आंदोलनकारी नहीं बन जाता। मान लिया कि 'खिड़की' गांव में वेश्यावृत्ति होती है। तो फिर महात्मा गांधी क्या करते? वही करते, जो शराब की दुकानों पर वे करते थे। वहां पुलिस नहीं ले जाते, उन महिलाओं को गाली नहीं देते, उनके साथ झूमा-झटकी नहीं करते। वे उनसे हाथ जोड़कर कहते, मेरी बहनों, तुम्हें यह काम शोभा नहीं देता, लेकिन अब 'आप' ने नैतिक आंदोलन और पुलिस के डंडे, दोनों को गड्मड् कर दिया है। उसने अपने आपको दोनों शक्तियों से वंचित कर लिया है। सेंत-मेंत में कमाई हुई इज्जत उसी प्रकार से सेंत-मेंत में ही लुट गई।
ज्यादा अच्छा होता कि इस मुद्दे पर 'आप' डटी रहती और मामला तूल पकडऩे पर इस्तीफा दे देती। अगर ऐसा होता तो वह लोकसभा चुनावों तक जनता को कम से कम मुंह दिखाने लायक तो रहती। अब वह किस मुंह से जनता के सामने जाएगी? अब तो हाल यह है कि वह जितने दिन कुर्सी से चिपकी रहेगी, हर दिन उसका दामन भारी होता चला जाएगा। अनाड़ी हाथों में चले जाने पर सोना भी पीतल के भाव बिकने लगता है।
लेखक - भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें