भारतीय नववर्ष ,चैत्र शुक्ल प्रतिपदा












      भारतीय काल गणना के स्वरूप पर 3 लेख मुझे अच्छे लगे सो यहाँ पर दे रहा हूँ ....पढ़ कर हमारे संवत्सर के  महत्व और गहराई को आप  समझेंगे , यही अपेक्षा है ..सादर..!  - अरविन्द सिसोदिया , कोटा , राजस्थान |
- आसुतोष मिश्रा 
भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है।  जिसमें एक वर्ष की अवधि को संवत, संवत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर आदि नामों से अभिहित किया जाता है। ग्रन्थों में विभिन्न समय में चले संवत का उल्लेख वर्णित है, जिसमें युधिष्ठिर संवत, कलि संवत जिसमें कलि का प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद विक्रमी संवत का प्रारम्भ हुआ जो सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। इस दिन नवरात्र का प्रारम्भ, सृष्टि आरम्भ दिन, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक, शकारि विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत का शुभारम्भ व आर्य समाज की स्थापना व झूले लाल का जन्म दिन हुआ।
हिन्दी मास में चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्रि्वन, कार्तिक, मार्गशीष, पौष, माघ, फाल्गुन बारह महीनें है। फाल्गुन माह में होली के पश्चात चैत्र शुक्ल एकम् से नव वर्ष में क्रिया कलाप व्यवस्थित करने का क्रम तेजी से चल रह है। शास्त्रों में वर्णित है कि
ब्रहणों दितीय पराद्र्वे, श्वेतवाराह कल्पे वैवस्त
मनवन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथम चरणे।

अर्थात ब्रह्मा के द्वितीय परार्ध के श्वेतवाराहकल्प के वैवस्त मन्वन्तर के 28 वे कलियुग के प्रथम चतुर्थास भाग में यही हमारी परम्परा प्राप्त काल गणना एक कल्प है। एक कल्प में एक हजार बार सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग व्यतीत हुआ करते है, जिसमें एक बार के चार युगों की वर्ष संख्या 43 लाख 20 हजार है। मानव के जातीय इतिहास में एक कल्प को चौदह मन्वन्तरों में विभक्त किया जाता है। जानकारों के अनुसार अब तक छह मन्वन्तर बीत चुके है 28 वीं बार तीन युग बीत कर चौथा कलियुग चल रहा है।

8 अप्रैल 2016 को सृष्टि संवत 1955885119 युगाब्द 5118  विक्रमी संवत 2073 का प्रारम्भ हो रहा है। 

विडम्बना है कि भारतीय संवत को भुलाने का उपक्रम तेजी से चल रहा है। लोग विक्रमी संवत भूल कर पाश्चात्य ईसवी सन का दैनिक दिनचर्या क्रिया कलापों का रट्टा लगाया जाता है। सारे क्रिया कलाप भारतीय पद्धति से करने के बाद भी आधुनिकता में स्थिति को इसे स्वीकारते नहीं। फिर भी चैत्र शुक्ल एकम् नवरात्र से प्रारम्भ होने वाले भारतीय नूतन संवत्सर के प्रारम्भ में एक दूसरे को बधाई देकर शक्ति आराधना के साथ मंगल की कामना करने वालों की बहुलता आज भी है। पिछले कुछ वर्षों से संघ प्रेरणा से इसके संवर्धन हेतु विविध आयोजन चल रहे हैं ..! वे आज भी प्रेरणास्रोत्र नव संवत्सर पर संकल्प लेकर भारतीय जीवन पद्धति व संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। वर्तमान में राष्ट्र के सभी कर्णधार इक्कीसवी सदी की बात करते है जो ईसा संवत से सोचते है, जबकि हमारे पूर्वज बावनवी शताब्दी के पहले से मौजूद है।
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भारतीय नववर्ष तथा कालगणना

Monday, December 7, 2009

- डॉ. ए. कीर्तिवर्द्धन
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प्राचीन काल में मुर्गे की बाँग, पक्षियों की उड़ान आकाश में चाँद, तारों व सूर्य की स्थिति, सूर्य की किरणों के कारण वृक्ष, पहाड़ आदि की छाया से लोग समय व कालखंड का अनुमान लगाते थे । इस कालखंड को मापने के लिये मानव ने जिस विधा या यंत्र का आविष्कार किया, उसे हम काल निर्णय, कालनिर्देशिका व कैलेन्डर कहते हैं । दुनिया का सबसे प्राचीनतम कैलेण्डर भारतीय है । इसे सृष्टि संवत कहते हैं । भारतीय कालगणना का आरम्भ सृष्टि के प्रथम दिवस से माना जाता है । इसलिये इसे सृष्टि संवत कहते हैं । यह संवत 1975949109 एक अरब सत्तानबे करोड़, उनतीस लाख, उनचास हजार, एक सौ नौ वर्ष पुराना है ( 2007 में )।
कैलेण्डर के निर्माण में अनेक अवधारणायें उपलब्ध हैं। वैदिक काल में साहित्य में ऋतुओं के आधार पर कालखंड के विभाजन द्वारा कैलेण्डर के निर्माण का उल्लेख मिलता है । बाद में नक्षत्रों की चाल, स्थिति, दशा और दिशा से वातावरण व मानव स्वभाव पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन के आधार पर भी कैलेण्डर का निर्माण किया गया । हमारे खगोलशास्त्रियों ने ३६० अंश के पूरे ब्रह्याण्ड को २७ बराबर भागों में बांटा । इन्हें नक्षत्र कहते हैं । इन नक्षत्रों के नाम क्रमशः अश्‍विनी, भरिणी, कृतिका, रोहिणी, मृगसिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पू.फा., उ.फा., हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, गूला, पूषा, उषा, श्रवण, घनिष्टा, शततार, पू.भा, उ.भा तथा रेवती रखे गये । इसमें से बारह नक्षत्रों में चन्द्रमा की स्थिति के आधार पर बारह महीनों के नाम रखे गये । एक, तीन, पाँच, आठ, दस, बारह, चौदह, अठारह, बीस, बाईस व पच्चीसवें नक्षत्र के आधार पर भारतीय महीनों के नाम - चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, अश्‍विन, कार्तिक, मृगशिरा, पौष, माघ व फाल्गुन रखे गये ।
प्रश्न यह है कि भारतीय नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र मास से ही क्यों? वृहद नारदीय पुराण में वर्णन है कि ब्रह्मा जी ने सृष्टि का सृजन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही प्रारम्भ किया था । वहां लिखा है-
“चैत्र मासि जगत ब्रह्यससजप्रिथमेऽइति । ”
इसलिये ही-भारतीय नववर्ष का प्रारम्भ आद्‌याशक्‍ति भगवती दुर्गा की पूजा-उपासना के साथ चैत्र मास से शुरू करते हैं । प्रत्येक माह में कितने दिन होंगे, इसे समझने से पहले आपको दिनों के नाम व सप्ताह के बारे में बताते हैं-
हमारे ऋषि-मुनियों ने वैज्ञानिक गणना तथा सूर्य के महत्व को समझते हुये रविवार को ही सप्ताह का पहला दिन माना । उन्होंने यह भी आविष्कार किया कि सूर्य, शुक्र, बुधश्‍च, चन्द्र, शनि, गुरू तथा मंगल नामक सात ग्रह हैं । जो निरन्तर पृथ्वी की परिक्रमा करते रहते हैं और निश्‍चित अवधि पर सात दिन में प्रत्येक ग्रह एक निश्‍चित स्थान पर आता है । अतः इन ग्रहों के आधार पर ही सात दिनों के नाम रखे गये । सात दिनों के इस अन्तराल को सप्ताह कहा गया । इसमें दिन-रात शामिल हैं । ज्योतिषीय गणित की भाषा में दिन-रात को महोरात्र कहते हैं । यह चौबीस घंटे का होता है । एक घंटे की एक घेरा होती है । इसी ‘घेरा’ शब्द से अंग्रेजी का “ऑवर” शब्द बना है । प्रत्येक घेरा का स्वामी कोई ग्रह होता है । जैसा कि हमने ऊपर बताया है कि स्थूल ग्रह सात होते हैं और उन्हीं के नाम पर सात दिवस माने जाते हैं । सूर्योदय के समय जिस ग्रह की प्रथम घेरा होती हैं उसी के आधार पर उस दिन का नाम रखा गया है । इस प्रकार हमारा प्रथम दिवस रविवार से प्रारम्भ होकर सोमवार, मंगलवार, बुधवार, वृहस्परिवार, शुक्रवार तथा अन्तिम दिन शनिवार पर खत्म होता है ।
भारतीय ऋषि-मुनियों ने कालगणना का सूक्ष्मतम तक अध्ययन किया । इसके अनुसार दिन-रात के चौबीस घंटों को सात भागों में बांटा गया और एक भाग का नाम रखा ‘घटी” । इस प्रकार एक घटी हुई चौबीस मिनट के बराबर और एक घंटे में हुई ढाई घटी । इससे आगे बढ़ें तो एक घटी में साठ पल, एक पल में साठ विपल, एक विपल में साठ प्रतिफल ।
२४ घंटे = साठ घटी
१ घटी = साठ पल
१ पल = साठ विपल
१ विपल = साठ प्रतिपल
अगर हम कालगणना की बड़ी ईकाई का अध्ययन करें तो देखें-
२४ घंटे = एक दिन
३० दिन = एक माह
१२ माह = एक वर्ष
१० वर्ष = एक दशक
१० दशक = एक शताब्दी
१० शताब्दी = एक सहस्त्राब्दी
हजारों सालों को मिलाकर बनता है एक युग । युग चार होते हैं- जिनमें-
कलयुग = चार लाख बत्तीस हजार वर्ष ४३२००० वर्ष
द्वापर युग = आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष ८६४०००
त्रेतायुग = बारह लाख छियानवे हजार वर्ष १२९६०००
सतयुग = सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्ष १७२८०००
एक महायुग चारों युगों का योग = ४३२०.००० वर्ष
१००० महायुग = एक कल्प
एक कल्प को ब्रह्मा जी का एक दिन या एक रात मानते हैं । अर्थात ब्रह्मा जी का एक दिन व एक रात २००० महायुग के बराबर हुआ । हमारे शास्त्रों में ब्रह्मा जी की आयु १०० वर्ष मानी गयी है । इस प्रकार ब्रह्मा जी की आयु हमारे वर्ष के अनुसार ५१ नील, १० खरब, ४० अरब वर्ष होगी । वर्त्तमान में ब्रह्मा जी की आयु के ५१ वर्ष. एक माह, एक पक्ष के पहले दिन की कुछ घटिकायें व पल व्यतीत हो चुके हैं ।
समय की ईकाई का एक अन्य वर्णन भी हमारे ग्रन्थों में पाया जाता है-
१ निमेष = पलक झपकने का समय (न्यूनतम ईकाई)
२५ निमेष = एक काष्ठा
३० काष्ठा = एक कला
३० कला = एक मूहर्त
३० मूहर्त = एक अहोशत्र (रात व दिन मिलाकर)
१५ दिन व रात = पखवाड़ा या एक पक्ष
२ पक्ष = एक माह (कृष्ण पक्ष व शुक्ल पक्ष)
६ माह = एक अयन
२ अयन = एक वर्ष (दक्षिणायन व उत्तरायण)
४३ लाख बीस हजार वर्ष = एक पर्याय (कलयुग, द्वापर, त्रेता व सतयुग का योग)
७१ पर्याय = एक मन्वन्तर
१४ मन्वन्तर = एक कल्प
वर्तमान भारतीय मान्य गणना के अनुसार वर्ष में ३६५ दिन १५ घटी, २२ पल व ५३.८५०७२ विपल होते हैं । तथा चन्द्रगणना के आधार पर भारतीय महीना २९ दिन, १२ घंटे, ४४ मिनट व २७ सैकेन्ड का होता है । सौर गणना के अन्तर को बांटने के लिये अधिक तिथि और अधिक मास तथा विशेष स्थिति में क्षय की भी व्यवस्था की गई है । प्रत्येक तीसरे वर्ष अधिक मास का आवर्तन होता है । वास्तव में भारतीय गणना अतिसूक्ष्म है । उपरोक्‍त गणनाओं के अनुसार अभी सृष्टि के खत्म होने में ४ लाख २६ हजार ८६६ वर्ष, कुछ महीने, कुछ पक्ष कुछ सप्ताह, कुछ दिन, कुछ प्रहर, कुछ घटिकायें, कुछ पल व विपल बाकी हैं ।
हमारे ग्रन्थों की रचना करते समय भी ऋषि-मुनियों ने कालगणना के अनूठे गणित को गुप्त सूत्रों में पिरोने का प्रयास किया । शतपथ ब्राह्मण (१०/४२/२२/२५) के अनुसार ऋग्वेद में कुल ४३२०००० अक्षर हैं, जिनका योग महायुग के वर्ष के बराबर है । इनसे १२००० वृहदी छंद बनाये गये हैं । प्रत्येक छंद में ३६० अक्षर हैं ।
यजुर्वेद में ८००० तथा सामवेद में ४००० वृहदी छंदों का वर्णन है । इनका योग भी १२०० वृहती छंद तथा अक्षर ४३२०००० है । जब पंक्‍ति छंद ४० अक्षर का बनाते हैं तब छंद संख्या १०८०० होती है । एक वर्ष में ३६० दिन और एक दिन में ३० मुहुर्त होने से भी वर्ष में १०८०० मूहर्त बनते हैं ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय कैलेण्डर एवं कालगणना विश्‍व में सबसे प्राचीन एवं सूक्ष्मतम है ।
आभार-इस आलेख के लिये ब्रह्मा-पुराण, वैदिक सम्पत्ति (पं. रधुनन्दन शर्मा), कार्त्तवीर्यार्जुन पुराण, समयोपाख्यान (विलास गुप्ता) विरासत (डा. रवि शर्मा ) तथा शतपथ ब्राह्माण से तथ्यों का उल्लेख किया गया है
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भारतीय गणित शास्त्र के अनुसार नौ प्रकार की वर्ष गणनाएं प्रसिद्ध हैं, ब्रह्म, दिव्य, पित्रय,प्राजापत्य,बार्हस्पत्य,नक्षत्र, सौर, चन्द्र, साधन। पहली तीन गणनाएं युग समय गणना के काम आती है। प्राजापत्यगणना वर्ष के शुभाशुभ परीक्षण में उपयोगी है। बार्हस्पत्यगणना से कुंभ तथा अधिक वर्ष आदि का ज्ञान होता है। नक्षत्र गणना से श्रौत यज्ञ का विवेचन होता है। सूर्य संबंधी अयन गति, ऋतु संपात और वैवाहिक मुहूर्त आदि सौर गणना पर आधारित हैं। सूर्य-चन्द्र ग्रहण, सामुद्रिकज्वार-भाटा, अन्य व्रत आदि का ज्ञान चन्द्र गणना मूलक है।
इन गणनाओं में एकता स्थापित करने के लिए सूर्य और चन्द्र दोनों पर आधारित सायनगणना की उत्पत्ति हुई है। इससे ऐसा सामंजस्य बैठ जाता है कि तिथिवृद्धि,तिथिसम,अधिक मास, क्षय मासादिकोई व्यवधान नहीं कर पाते। सदा तारतम्य बना रहता है। तिथि घटे या बढे किंतु सूर्य ग्रहण सदा अमावस्या को होगा और चन्द्र ग्रहण सदा पूर्णिमा को होगा, इसमें अंतर नहीं आ सकता। तीसरे वर्ष एक मास बढ जाने पर भी ऋतुओं का प्रभाव उन्हीं महीनों में ही दिखाई देता है, जिनमें सामान्य वर्ष में दिखाई पडता है, जैसे वसन्त के फूल चैत्र-वैशाख में ही खिलते हैं और पतझड माघ-फाल्गुन में होता है। इस दृष्टि से सायनसंवत्सर संसार के सभी संवत्सरोंकी अपेक्षा वैज्ञानिक, पूर्ण तथा प्राकृतिक है। यही कारण है कि महाराज विक्रमादित्य ने भारत भूमि को विदेशियों के पंजे से मुक्त करने के पश्चात् चैत्र शुक्ल प्रतिपद से इस संवत्सर का प्रारम्भ किया। विज्ञान सम्मत होने के अतिरिक्त इस तिथि की पृष्ठभूमि में अन्य अनेक ऐतिहासिक और शास्त्रीय आधार भी हैं। वास्तव में वह दिन सृष्टि का आदि दिन भी है। सतयुग इसी दिन से प्रारम्भ हुआ था। तेलगू भाषी अब भी इसे युगादि के नाम से पुकारते हैं और बडे उत्साह से यह पर्व मनाते हैं। इसी दिन भारत में काल गणना का प्रारम्भ हुआ था। ब्रह्म पुराण में कहा गया है,
चैत्रेमासि जगत् ब्रह्म ससर्जप्रथमेऽहनि।
शुक्ल पक्षेसमग्रेतुतदा सूर्योदयेसति।
अर्थात, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सूर्योदय होने पर पहले-पहले ब्रह्म ने जगत् की सृष्टि की थी। उन्होंने प्रतिपदा को प्रवरातिथि भी घोषित किया था।
तिथिनांप्रवरायस्माद्ब्रह्मणासमुदाहृता,
प्रतिपद्यापदेपूर्वे प्रतिपत्तेन सोच्यते॥
प्रारम्भ में प्रतिपदा लेने का यह प्रयोजन है कि ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि का आरम्भ किया, उस समय इसको प्रवराअथवा सर्वोत्तम तिथि सूचित किया था। सचमुच यह प्रवराहै भी। इसमें धार्मिक, सामाजिक, व्यावहारिक और राजनीतिक आदि बहुत से महत्व के काम आरम्भ किए जाते हैं। इसमें संवत्सर का पूजन, नवरात्रघट स्थापन, ध्वजारोपण, वर्षेशआदि का फल-पाठ अनेक लोक प्रसिद्ध और पवित्र कार्य होते हैं।
इसी दिन मत्स्यावतार हुआ था,
कृते चप्रभवेचैत्रेप्रतिपच्छुभफलपक्षगा।
मत्स्य रुपेणकुमार्याचअवतीर्णोहरि: स्वयम्॥
कुछ लोगों की धारणा है कि इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने दक्षिण प्रदेश को बालि के अत्याचारों से मुक्त किया था। इससे इसे स्वतंत्रता का दिन माना जाता है। ध्वजारोहण की प्रथा इसी का प्रतीक है। संवत्सर की प्रथम तिथि को पर्व रूप में मनाने की प्रथा बहुत प्राचीन है। अथर्ववेदमें कहा गया है,
संवत्सरस्यप्रतिमांयांत्वांरा˜युपास्महे।
सा न आयुष्मतीप्रजा रायस्पोषेणसंसृज॥
अर्थात् संवत्सर की प्रतिमा स्वरूप हम जिस प्रभु की उपासना करते हैं, वह हमें दीर्घायुवालीप्रजा और धन से युक्त करें। शतपथब्राह्मण तथा विविध पुराणों में भी इसका उल्लेख है। तदनुसार इस संवत्सर के प्रारम्भ काल से ही भारतीय जनता प्राय: सर्वत्र ही संवत्सर का महोत्सव मना रही है। उत्सव चन्द्रिका नामक ग्रन्थ में लिखा है
प्राप्ते नूतन वत्सरेप्रति गृहंकुर्याद्ध्वजारोपणं।
स्नान मंगलमाचरेत्द्विजवरै:साकंसुपूजोत्सवै:॥
देवानांगुरू योषितांव विभवालंकारवस्त्रादिभि:।
संपूज्योगणक: फलंचश्रृणुयात्तस्माच्चलाभप्रदम्॥
अर्थात् नूतन वर्ष आने पर प्रत्येक घर में ध्वजारोपण करना चाहिए। स्नान, मंगल, पूजन, उत्सव आदि करना चाहिए। देवताओं का पूजन और बडे लोगों का सत्कार होना चाहिए। ज्योतिषियों की पूजा करके उनसे संवत्सर का फल जानना चाहिए। पूजन के पश्चात् प्रार्थना करनी चाहिए।
भगवंस्त्वत्प्रसादेनवर्षक्षेममिहास्तुमे।
संवत्सरोपसर्गामेविलयंयान्त्वशेषत:॥
हे भगवान्! आपकी कृपा से मेरा वर्ष कल्याणमयहो और सभी विघ्न बाधाएं विनष्ट हो जाएं। शास्त्रीय विधि के अनुसार वर्ष के आरम्भ की यह मंगलदायिनीतिथि समूचे वर्ष के सुख की प्रतीक मानी जाती है। नूतन संवत्सर की पूजा करनी चाहिए तथा अपने घर को तोरण वन्दनवारसे सजाकर पूजा का मंगल कार्य सम्पन्न करना चाहिए। कलश- स्थापन का भी विधान है। नव वर्ष वासंतिक नवरात्रका भी पहला दिन है। अत:दुर्गा जी के लिए भी कलश-स्थापन आदि किया जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए नीम की पत्तियों के साथ मिश्री मिलाकर उसके भक्षण का भी विधान है। आयुर्वेद के अनुसार वसन्त ऋतु में होने वाली व्याधियोंके शम के लिए दोनों वस्तुएं बहुत गुणकारी हैं। ग्रीष्म के रक्तजविकारों की शांति के लिए तो ये बहुमूल्य औषधियां हैं।






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