‘राष्ट्र चिन्तन पर्व’ : 25 से 27 दिसम्बर



  ‘राष्ट्र चिन्तन पर्व’ 

स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्र-ध्यान 25 से 27 दिसम्बर 1892

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25 दिसम्बर 1892, स्वामी विवेकानन्द ने श्रीपाद शिला पर अपना ध्यान प्रारम्भ किया। मान्यता है कि उसी शिलापर देवी कन्याकुमारी ने स्वयं तपस्या की थी। तप तो हर जन्म की भाँति ही शिवजी को प्राप्त करने के लिये था। किन्तु इस अवतार में देवी का जीवनध्येय कुछ और था। बाणासुर के वध के लिये देवी का कुवांरी रहना आवश्यक था। नारदजी ने शिवजी के विवाह में विघ्न ड़ाला और शिवजी 8 मिल दूर सुचिन्द्रम् में रुक गये। माँ पार्वती को अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हुआ। शिला पर माँ का पदचिह्न है। एक ही पाँव का है क्योकि कहते है माँ ने वृक्षासन में 7 साल तक तप किया था। इस पदचिह्न के कारण शिला को ‘श्रीपाद शिला’ के नाम से जाना जाता है।

युवा स्वामी, केवल 29 वर्ष की आयु थी इस समय स्वामीजी की, 6 वर्षोंसे भारत का भ्रमण कर रहा है। कुछ खोज रहा है। अपने गुरु के सान्निध्य में योग की सर्वोच्च अनुभूति, निर्विकल्प समाधि को प्राप्त कर चुका है। उन्ही की कृपा से काली माता के साक्षात साकार दर्शन भी कर लिये। कण कण में ईश्वर के अस्तीत्व व जन जन में उपस्थित दिव्यत्व को भी पूर्णता से अनुभ्सव कर लिया। फिर भी कुछ अधुरा, धुंधलासा लगता रहा। अपने जीवन के व्रत को ठीक से स्पष्ट नहीं देख पा रहे थे। उसी खोज में सारे देश का भ्रमण किया और कन्याकुमारी पहुँचे।

माता कन्याकुमारी के दर्शन किये और बाहर आकर समुद्र के मध्य ‘श्रीपाद शिला’ ने आकर्षित किया। सोचा कि इस शिला पर मन को शांति भी मिलेगी और जहाँ माँ कन्याकुमारी को जीवन का लक्ष्य मिला वहाँ अपनी भी कार्ययोजना स्पष्ट हो जायेगी। जब मछुआरों से शिला तक ले जाने के लिये कहा तो उन्होंने 3 पैसे मांगे। सच्चे परिव्राजक सन्यासी के पास तीन तो क्या एक भी पैसा नहीं था। पर साहस की कोई कमी नहीं थी। छलांग लगाई और तैरकर 600 गज की दूरी को पार कर लिया। कुछ युवाओं ने इस साहसी छलांग को देखा। वे अपनी नौका से स्वामीजी के पास पहुँचे। स्वामीजी ने उन्हें अपना ध्यान का संकल्प बताया और लौटा दिया। युवाओं ने कुछ केले और दूध वहाँ रखे। जो तिन दिन बाद भी वैसे ही रखे रहे| वे रोज स्वामीजी को देखने जाते थे। तीन दिन और तीन रात स्वामीजी वैसे ही ध्यानमग्न बैठे थे। चौथी सुबह इन युवाओं के साथ कट्टमारन, नारीयल के पेड के तने से बनी नौका, पर बैठकर किनारे वापिस आये। ध्यान के बारे में स्वामीजी ने अधिक विस्तार से तो कुछ नहीं कहा किन्तु इतना बताया कि ‘जो खोजने आया था वो पा गया।’

बादमें अपने गुरुभाई शशी महाराज, स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखे पत्र में स्वामीजी ने बताया कि इस ध्यान में उन्हें अपने जीवन की योजना प्राप्त हुई। एक और स्थान पर इस ध्यान का उल्लेख करते हुए स्वामीजी ने कहा है कि भारत का गौरवशाली अतीत, भयावह वर्तमान व पूर्व से भी अधिक स्वर्णीम भविष्य किसी चलचित्र के भाँति मेरी आँखों के सम्मूख प्रवाहित हुआ। स्वामीजी की बोधिस्थली पर आज भव्य विवेकानन्द शिलास्मारक खड़ा है। स्मारक के प्रणेता एकनाथ रानडे ने केवल प्रस्तर स्मारक ही नहीं बनाया स्वामीजी की कार्ययोजना को कार्यरुप देने वैचारिक आंदोलन विवेकानन्द केन्द्र की भी स्थापना की। केन्द्र के कन्याकुमारी स्थित मुख्यालय विवेकानन्दपुरम् में स्वामीजी के ध्यान के समय उनके विचारों पर आधरित प्रदर्शनी ‘विवेकानन्द चित्र प्रदर्शनी – उत्तिष्ठत! जाग्रत!!’ लगाई गई है। इसमें माननीय एकनाथजी ने स्वामीजी द्वारा देखे भारत के इतिहास वर्तमान व भविष्य को चित्रों में प्रगट करवाया है। वे इसे स्वामीजी का बौद्धिक स्मारक कहा करते थे। प्रत्येक भारतीय को एक बार अवश्य कन्याकुमारी जाना चाहिये। क्या पता जहाँ माँ कन्याकुमारी व स्वामीजी को अपने जीवन का ध्येय मिला हमें भी मिल जाये। कई लोगों को मिलता है। लेखक का भी ऐसा ही कुछ स्वानुभव है।

स्वामीजी के ध्यान की स्मृति में 25 से 27 दिसम्बर को हम  ‘राष्ट्र चिन्तन पर्व’ कह सकते है। यह  इससे बड़े 12 जनवरी तक चलनेवाले ‘समर्थ भारत पर्व’ का शुभारम्भ है। आइये इस चिंतन पर्व में हम भी स्वामीजी के मानस को समझने का प्रयत्न करें। भारत के गौरवशाली अतीत, वर्तमान अवस्था के कारण तथा इसे पुनः परमवैभव पर आसीन करने की कार्ययोजना को समझने का अपनी ओर से यत्न करें। आज प्रथम चरण को देखते है। कल अगले दोनों चरण देखेंगे।

स्वामीजी ने भारत को करीब से देखा था। उसकी आत्मा के दर्शन आध्यात्मिक स्तर पर तो किये ही थे, साथ ही भ्रमण काल में देश की जनता के संग निकट से उनके जीवन में इस प्राण को ओतप्रोत देखा था। कन्याकुमारी में उन्हे भारत का समग्र दर्शन हुआ। उसके अखण्ड प्राणवान् स्वरुप को उन्होने चिन्मय प्रत्यक्ष देखा। जैसा कि योगी अरविन्द कहते है उन्होंने अपने जीवन व संदेश से भारत की चिति का भारत से परिचय कराया। यह परिचय पूर्ण एकात्मता के साथ उन्हें कन्याकुमारी में हुआ था। इसीलिये उन्होंने कहा था – भारत का प्राण धर्म है। धर्म से ही भारत प्राणवान् है। भारत का पतन-उत्थान धर्म के पालन अथवा अवहेलना पर निर्भर करता है। स्वामीजी का स्पष्ट कथन था की भारत का पतन हिन्दूत्व के कारण नहीं अपितु इसको छोड़ देने के कारण हुआ था। भारत ने जीवन के हर क्षेत्र में धर्म के द्वारा ही सर्वोच्च उँचाई को प्राप्त किया।
भारत के गौरवशाली अतीत की बात करते ही हमारे सम्मूख केवल आध्यात्मिक गौरव की बात आती है। भारत आध्यात्म की तो जननी है ही। स्वामीजी कहा करते थे, जगत की प्रत्येक जीवात्मा को अन्ततः अपनी मुक्ति हेतु इसी पूण्यभूमि में जन्म लेना होगा। यह देवतात्मा भारत जिसमें जन्म लेने के लिये देवता भी लालायित रहते है मानवता की आध्यात्मिक पाठशाला है।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने सर्वोत्कृष्ठ की साधना की थी। चाहे विज्ञान तथा तकनिकी हो भारत ने अद्वितीय खोजें दुनिया को दी है। गणित में भारत का योगदान सर्वमान्य है। आज ही के दिन भारत के चमत्कारी गणिती रामानुजम् की 125 वी जयन्ति है। रामानुजम् आर्यभट्ट, भास्कराचार्य वराहमिहिर व लीलावति की अखण्ड श्रृंखला की ही एक कड़ी है। हमारा दुर्भाग्य है कि स्वतन्त्रता के बाद भी हमें हमारे विस्मृत इतिहास से अवगत नहीं कराया जाता। साम्राज्यवादियों की शिक्षा नीति को पता नहीं किन राजनयिक स्वार्थों के चलते आज भी चलाया जा रहा है। अनेक अनुसंधानकर्ताओं ने व्यक्तिगत परिश्रम से 18 वी शती तक भारत के वैज्ञानिक समृद्धि को खोज निकाला है।

शिक्षा के क्षेत्र में हम विश्व के अग्रणी थे। 19 शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत पूर्ण शिक्षित था। सभी जातियों के बालकों को निःशुल्क प्रार्थमिक शिक्षा उपलब्ध थी। भारत की शिक्षा का गौरवशाली अतीत केवल नालन्दा, तक्षशिला व विक्रमशिला के प्राचीन विश्वविद्यालयों तक सीमित नहीं है। इस देश में हजारों नहीं लाखों उच्च शिक्षा संस्थान 1823 तक कार्यरत थे। अंगरेजी कलेक्टरों द्वारा एकत्रित शिक्षा सर्वेक्षण में ये जानकारी जब ब्रिटिश संसद में रखी गई तब सब अचंभित रह गये। तब इस शिक्षा के वटवृक्ष को तहस नहस करने एक वकील को भारत भेजा गया। लोर्ड मेकाले शिक्षाविद् नहीं थे वे तो इस्ट इण्डिया कम्पनी के विधि सलाहकार थे। इस विषय पर पूरी जानकारी गांधी के शिष्य डॉ धरमपाल ने लिखी है। उन्होंने ब्रिटीश अभिलेखों से इस शिक्षा सर्वे के साथ ही भारत में विज्ञान के बारे में भी अनेक आश्चर्यजनक जानकारियाँ प्राप्त की। हिन्दी में उनके समग्र साहित्य को अहमदाबाद की पुनरुत्थान ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है। किन्तु उनके द्वारा एकत्रित सामग्री पर पूरा अनुसंधान अभी बाकि ही है।

इससे यह भी स्पष्ट होता है कि विश्व की सबसे वैज्ञानिक सामाजिक व्यवस्था भारत में स्थापित थी। जातिव्यवस्था के अन्यायकारी होने का आरोप हिन्दू समाज पर लगाया जाता है वह भी ऐतिहासिक रुप से जाँचा जाना चाहिये। जब 1823 तक जिन्हे आज अनुसुचित कहा जाता है, गांधी जिन्हें हरिजन कहते थे और अंगरेजों के सर्वेक्षण में जिन्हें शुद्र के रुप में अंकित किया है उन जातियों के लोग न केवल छात्रों में 27 से 70 प्रतिशत, अपितु शिक्षकों में भी 7 से लेकर 27 प्रतिशत तक का प्रतिनिधित्व बिना किसी आरक्षण के पाते थे। केवल 50 वर्षों में किस प्रकार शिक्षा से वंचित कर समाज के इस बड़े वर्ग को दलित बनाया गया इस पर निष्पक्ष अनुसंधान होना चाहिये। यही इस विषय पर निर्मित खाई को पाटने का एकमात्र तरिका है। केवल सही ज्ञान ही इस वेदना का उपचार कर सकता है।

भारत की भूमि भी 19 वी शताब्दी के प्रारम्भ तक कितनी बड़ी थी यह भी आज हमें नहीं बताया जाता। सांस्कृतिक एकात्मता से बंधे भारत की राष्ट्रीय परिसीमायें वर्तमान के 24 देशों को अपने में समेटे हुए थी। मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों से हुए मतांतरण व बाद में अंगरेजों की फूटनीति के अन्तर्गत हुए प्रशासनिक विभाजनों से देश बँटता गया। पर सांस्कृतिक एकत्व की धरा आज भी देखी जा सकती है। घोर कटुता से विभाजित पाकिस्तान में भी कला व परम्पराओं में भारत की प्राचीन संस्कृति आज भी झलकती है। पंथ भिन्न होने के बाद भी अपने गहन आंतरिक संस्कार को भूलाना सम्भव नहीं होता। वह सांस्कृतिक एकत्व ही आज भी राजनयिक बाधाओं को पार कर लोगों को जोड़ सकता है। किन्तु इस्लाम के अपने नेतृत्व को महजब की कट्टरता को ठीक करना होगा। इस्लाम में मजहबी सुधार भारत से ही प्रारम्भ हो सकते है। यह कठीन अवश्य है किन्तु असम्भव नहीं। तब तक अपने पूर्वजों के एक खून को याद करना जुड़ने का माध्यम बन सकता है।

भारता का गौरव आर्थिक क्षेत्र में भी अद्वितीय रहा है। विश्व के माने हुए अर्थशास्त्री एग्नस मेडिसन ने अपने अनुसंधान द्वारा सिद्ध किया है कि 18 शताब्दी तक भारत विश्व के सकल उत्पादन का सबसे बड़ा भागीदार था। विश्व उत्पादन का 33 प्रतिशत भारत में होता था। भारत का व्यापार सारे विश्व से था। इसके बाद भी यहाँ का उत्पादन पर्यावरण के अनुरुप होता था। वर्तमान समय में विश्व जिस संकट से गुजर रहा है, हिन्दू अर्थव्यवस्था पर वैज्ञानिक अनुसंधान ही उस में से मार्ग दिखाने में सक्षम है।

स्वामीजी कहा करते थे प्रत्येक राष्ट्र की नियति है, जिसे पाना ही है, एक संदेश है जो उसे विश्व को देना है और एक विशिष्ठ जीवनव्रत है जो उसे पूर्ण करना है। कन्याकुमारी में स्वामीजी ने भारत की नियति, संदेश व व्रत का साक्षात्कार किया। उन्होंने अपने जीवन भर इस सन्देश को लोगों तक पहुँचाया। आध्यात्म भारत का संदेश, मानवता को जीवन का विज्ञान सिखाना उसका जीवनव्रत तथा जगत्गुरु बनना भारत की नियति है। इसे जीवन में साकार करना हम सब भारतीयों का कर्तव्य है !

वर्तमान में हम अपने आत्मगौरव, प्राणधर्म के साथ ही हमारे राष्ट्रीय ध्येय को भूल गये है। इस पतन के कारण निदान व उपचार के बारे में स्वामीजी के राष्ट्र-चिन्तन को कल देखेंगे।

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