भारत का अंतरिक्ष विज्ञान विदेशी निशाने पर - सुरेश चिपलूकर
सुरेश चिपलूकर की कलम से
Suresh Chiplunkar
Monday, December 16, 2013
बहुत वर्ष पहले एक फिल्म आई थी, ““एक डॉक्टर की मौत””. इस फिल्म में पंकज कपूर का बेहतरीन अभिनय
तो था ही, प्रमुखतः फिल्म की कहानी बेहतरीन थी. इस फिल्म में दर्शाया गया था कि
किस तरह एक प्रतिभाशाली डॉक्टर, भारत की नौकरशाही और लाल-फीते के चक्कर में उलझता
है, प्रशासन का कोई भी नुमाइंदा उस डॉक्टर से सहानुभूति नहीं रखता और अंततः वह
डॉक्टर आत्महत्या कर लेता है. एक और फिल्म आई थी गोविन्द निहलानी की, नाम था ““द्रोहकाल””, फिल्म में बताया गया था कि किस तरह भारत के शीर्ष
प्रशासनिक पदों तथा सेना के वरिष्ठ स्तर तक भ्रष्टाचार और देश के दुश्मनों से
मिलीभगत फ़ैली हुई है. दुर्भाग्य से दोनों ही फिल्मों की अधिक चर्चा नहीं हुई,
दोनों फ़िल्में हिट नहीं हुईं.
भारत के कितने लोग सचिन
तेंडुलकर को जानते हैं, लगभग सभी. लेकिन देश के कितने नागरिकों ने प्रसिद्ध
वैज्ञानिक एस नम्बी नारायण का नाम सुना है? शायद कुछेक हजार लोगों ने ही सुना
होगा. जबकि नारायण साहब भारत की रॉकेट तकनीक में तरल ईंधन तकनीक को बढ़ावा देने तथा
क्रायोजेनिक इंजन का भारतीयकरण करने वाले अग्रणी वैज्ञानिक हैं. ऊपर जिन दो
फिल्मों का ज़िक्र किया गया है, वह नम्बी नारायण के साथ हुए अन्याय (बल्कि अत्याचार
कहना उचित होगा) एवं भारत की प्रशासनिक मशीनरी द्वारा उनके साथ जो खिलवाड़ किया गया
है, का साक्षात प्रतिबिम्ब है. उन दोनों फिल्मों का मिलाजुला स्वरूप हैं प्रोफ़ेसर
एस नम्बी नारायण...
आईये पहले जान लें कि श्री नम्बी नारायण कौन
हैं तथा इनकी क्या और कितनी बौद्धिक हस्ती है. 1970 में सबसे पहले भारत में तरल ईंधन रॉकेट तकनीक लाने
वाले वैज्ञानिक नम्बी नारायण हैं, जबकि उस समय तक एपीजे अब्दुल कलाम की टीम ठोस
ईंधन पर ही काम कर रही थी. नम्बी नारायण ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और दूरदृष्टि से
समझ लिया था कि आने वाले वक्त में इसरो को तरल ईंधन तकनीक पर जाना ही पड़ेगा.
नारायण को तत्कालीन इसरो चेयरमैन सतीश धवन और यूआर राव ने प्रोत्साहित किया और
इन्होने लिक्विड प्रोपेलेंट मोटर तैयार कर दी, जिसे 1970 में ही छोटे रॉकेटों पर सफलतापूर्वक परीक्षण कर लिया
गया.
1992 में भारत ने रूस के साथ क्रायोजेनिक
इंजन तकनीक हस्तांतरण का समझौता किया. उस समय यह सौदा मात्र 235 करोड़ में किया गया, जबकि यही तकनीक
देने के लिए अमेरिका और फ्रांस हमसे 950 करोड़ रूपए मांग रहे थे. भारत की रॉकेट तकनीक में संभावित उछाल
और रूस के साथ होने वाले अन्य समझौतों को देखते हुए, यहीं से अमेरिका की आँख टेढ़ी
होना शुरू हुई. रूसी दस्तावेजों के मुताबिक़ जॉर्ज बुश ने इस समझौते पर आपत्ति
उठाते हुए तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन को धमकी दी, कि यदि यह तकनीक
भारत को दी गई तो वे रूस को जी-फाइव देशों के क्लब से ब्लैक-लिस्टेड कर देंगे.
येल्तसिन इस दबाव के आगे हार मान गए और उन्होंने भारत को क्रायोजेनिक इंजन तकनीक
देने से मना कर दिया.
अमेरिका-रूस के इस एकाधिकार को खत्म करने के
लिए भारत ने क्रायोजेनिक इंजन भारत में ही डिजाइन करने के लिए वैश्विक टेंडर
मंगाए. समिति की छानबीन के बाद भारत की ही एक कंपनी केरल हाईटेक इंडस्ट्रीज़
लिमिटेड द्वारा सबसे कम दरों पर इस इंजन का निर्माण करवाना तय किया गया. लेकिन क्रायोजेनिक इंजन का यह प्रोजेक्ट कभी शुरू न हो
सका, क्योंकि “अचानक” महान
वैज्ञानिक नंबी नारायण को जासूसी और सैक्स स्कैंडल के आरोपों में फँसा दिया गया. नम्बी नारायणन की दो
दशक की मेहनत बाद में रंग लाई, जब उनकी ही टीम ने “विकास” नाम का रॉकेट इंजन निर्मित किया, जिसका उपयोग इसरो
ने PSLV को अंतरिक्ष में
पहुंचाने के लिए किया. इसी “विकास”इंजन का उपयोग भारत के चन्द्र मिशन में GSLV के दुसरे चरण में भी किया गया, जो बेहद सफल रहा.
1994 में वैज्ञानिक नंबी नारायण पर झूठे आरोप लगाए गए, कि
उन्होंने भारत की संवेदनशील रक्षा जानकारियाँ मालदीव की दो महिला जासूसों मरियम
रशीदा और फौजिया हसन को दी हैं. रक्षा सूत्रों के मुताबिक़ यह डाटा सैटेलाईट और
रॉकेट की लॉन्चिंग से सम्बंधित था. नारायण पर आरोप था कि उन्होंने इसरो की गुप्त
सूचनाएँ करोड़ों रूपए में बेचीं. हालांकि न तो उनके घर से कोई बड़ी राशि बरामद हुई
और ना ही उनकी या उनके परिवार की जीवनशैली बहुत खर्चीली थी. डॉक्टर नंबी नारायण को
पचास दिन जेल में गुज़ारने पड़े. अपने शपथ-पत्र में उन्होंने कहा है कि आईबी के
अधिकारियों ने उनके साथ बहुत बुरा सलूक किया और उन्हें मानसिक रूप से तोड़ने की
पूरी कोशिश की, विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया गया. अंततः वे हवालात में ही गिर
पड़े और बेहोश हो गए व् उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. शपथ पत्र में उनकी
प्रमुख शिकायत यह भी थी कि तत्कालीन इसरो प्रमुख कस्तूरीरंगन ने उनका बिलकुल साथ
नहीं दिया.
मई 1996 में उन पर लगाए गए सभी आरोप झूठ पाए गए. सीबीआई जांच में कुछ भी नहीं
मिला और सुप्रीम कोर्ट ने भी उन्हें
अप्रैल 1998 में पूर्णरूप से आरोप मुक्त कर
दिया. लेकिन क्रायोजेनिक इंजन प्रोजेक्ट और चंद्रयान मिशन को जो नुक्सान होना था,
वह तो हो चुका था. सितम्बर 1999 में राष्ट्रीय
मानवाधिकार आयोग ने केरल की सरकार के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करते हुए उनका चमकदार
कैरियर खराब करने का दोषी ठहराते हुए एक करोड़ रूपए का मुआवजा देने का निर्देश
दिया, लेकिन केरल सरकार और प्रशासन के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी, एक पैसा भी
नहीं दिया गया. इस बीच वैज्ञानिक नारायण का परिवार तमाम मुश्किलें झेलता रहा. इन सभी
आरोपों और झमेले के कारण वैज्ञानिक ससिकुमार और नारायणन को त्रिवेंद्रम से बाहर
तबादला करके उन्हें“डेस्क जॉब” सौंप दिया गया.
अर्थात प्रतिभाशाली और उत्तम वैज्ञानिकों को “बाबू” बनाकर रख दिया गया. 2001 में नंबी नारायणन रिटायर हुए. हमारे देश की प्रशासनिक
मशीनरी इतनी असंवेदनशील और मोटी चमड़ी वाली है कि गत वर्ष सितम्बर 2012 में नंबी नारायण की अपील पर केरल हाईकोर्ट ने उन्हें
हर्जाने के बतौर दस लाख रूपए की राशि देने का जो आदेश दिया था, अभी तक उस पर भी
अमल नहीं हो पाया है.
इसरो वैज्ञानिक नम्बी नारायण ने केरल
हाईकोर्ट में शपथ-पत्र दाखिल करके कहा है कि जिन पुलिस अधिकारियों ने उन्हें
जासूसी और सैक्स स्कैंडल के झूठे आरोपों में फंसाया, वास्तव में ये पुलिस अधिकारी
किसी विदेशी शक्ति के हाथ में खिलौने हैं और देश में उपस्थिति बड़े षड्यंत्रकारियों
के हाथ की कठपुतली हैं. इन पुलिस अधिकारियों ने मुझे इसलिए बदनाम किया ताकि इसरो में
क्रायोजेनिक इंजन तकनीक पर जो काम चल रहा था, उसे हतोत्साहित किया जा सके, भारत को
इस विशिष्ट तकनीक के विकास से रोका जा सके.
नम्बी नारायण ने आगे लिखा है कि यदि डीजीपी
सीबी मैथ्यू द्वारा उस समय मेरी अन्यायपूर्ण गिरफ्तारी नहीं हुई होती, तो सन 2000 में ही भारत क्रायोजेनिक इंजन का विकास कर लेता. श्री
नारायण ने कहा, “तथ्य यह है कि आज तेरह साल बाद भी भारत
क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण नहीं कर पाया है. केरल पुलिस की केस डायरी से
स्पष्ट है कि “संयोगवश” जो भारतीय और रशियन वैज्ञानिक इस महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट से जुड़े थे उन सभी
को पुलिस ने आरोपी बनाया”. 30 नवम्बर 1994 को बिना किसी सबूत अथवा सर्च वारंट के श्री नम्बी
नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया. नम्बी नारायण ने कहा कि पहले उन्हें
सिर्फ शक था कि इसके पीछे अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए है, लेकिन उन्होंने यह
आरोप नहीं लगाया था. लेकिन जब आईबी के अतिरिक्त महानिदेशक रतन सहगल को आईबी के ही
अरुण भगत ने सीआईए के लिए काम करते रंगे हाथों पकड लिया और सरकार ने उन्हें
नवम्बर 1996 में सेवा से निकाल
दिया, तब
उन्होंने अपने शपथ-पत्र में इसका स्पष्ट आरोप लगाया कि देश के उच्च संस्थानों में
विदेशी ताकतों की तगड़ी घुसपैठ बन चुकी है, जो न सिर्फ नीतियों को प्रभावित करते
हैं, बल्कि वैज्ञानिक व रक्षा शोधों में अड़ंगे लगाने के षडयंत्र रचते हैं. इतने
गंभीर आरोपों के बावजूद देश की मीडिया और सत्ता गलियारों में सन्नाटा है, हैरतनाक
नहीं लगता ये सब?
नम्बी नारायणन के ज़ख्मों पर नमक मलने का एक
और काम केरल सरकार ने किया. अक्टूबर 2012 में इन्हें षडयंत्रपूर्वक फँसाने के मामले में आरोपी सभी पुलिस वालों के
खिलाफ केस वापस लेने का फैसला कर लिया. इस मामले के सर्वोच्च अधिकारी सिबी मैथ्यू
वर्तमान में केरल के मुख्य सूचना आयुक्त हैं. पिछले कुछ समय से, जबसे भारत का
चंद्रयान अपनी कक्षा में चक्कर लगा रहा है, इस प्रोजेक्ट से जुड़े प्रत्येक
छोटे-बड़े वैज्ञानिक को पुरस्कार मिले, सम्मान हुआ, इंटरव्यू हुए... लेकिन जो
वैज्ञानिक इस चंद्रयान की “लिक्विड प्रोपल्शन तकनीक” की नींव का पत्थर था, अर्थात
नंबी नारायणन, वे इस प्रसिद्धि और चमक से दूर रखे गए थे, यह देश का दुर्भाग्य नहीं
तो और क्या था?इतना होने के बावजूद बड़ा दिल
रखते हुए नम्बी कहते हैं कि “...चंद्रयान
की सफलता मेरे लिए बहुत खुशी की बात है, दर्द सिर्फ इतना है कि वरिष्ठ इसरो अफसरों
और वैज्ञानिकों ने इस अवसर पर मेरा नाम लेना तक मुनासिब नहीं समझा...”. इसरो के अधिकारी
स्वीकार करते हैं कि यदि नारायणन को केरल पुलिस ने गलत तरीके से से नहीं फँसाया
होता और जासूसी व् सैक्स स्कैंडल का मामला लंबा नहीं खिंचता, तो निश्चित ही नम्बी
नारायणन को चंद्रयान का प्रणेता कहा जाता.
आज की तारीख में नम्बी नारायण को गिरफ्तार
करने, उन्हें परेशान करने तथा षडयंत्र करने वाले छः वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों में
प्रमुख, सीबी मैथ्यू केरल के मुख्य सूचना आयुक्त हैं, जबकि आर श्रीकुमार गुजरात
में उच्च पदस्थ रहे. ये आर श्रीकुमार साहब वही “सज्जन” हैं जो तीस्ता सीतलवाद के साथ मिलकर नरेंद्र
मोदी के खिलाफ बयानबाजी और पुलिसिया कार्रवाई करने में जुटे हैं, और सुप्रीम कोर्ट
से लताड़ खा चुके हैं.
अमेरिकी लॉबी के हाथ कितने मजबूत हैं, यह इस
बात से भी समझा जा सकता है कि स्वयं सीबीआई ने प्रधानमंत्री कार्यालय से उन
सभी SIT अफसरों के खिलाफ
कार्रवाई करने की अनुशंसा की थी, जो नारायणन को फँसाने में शामिल थे. जबकि हुआ
क्या है कि पिछले साल केरल में सत्ता संभालने के सिर्फ 43 दिनों बाद उम्मन चाँडी ने इन अफसरों के खिलाफ पिछले
कई साल से धूल खा रही फाईल को बंद कर दिया, केस वापस ले लिए गए. इस बीच कांग्रेस
और वामपंथी दोनों प्रकार की सरकारें आईं और गईं, लेकिन नम्बी नारायणन की हालत भी
वैसी ही रही और संदिग्ध पुलिस अफसर भी मजे लूटते रहे.
जैसा कि पहले बताया गया सीबी मैथ्यू, वर्तमान
में केरल के मुख्य सूचना आयुक्त हैं, आरबी श्रीकुमार को कई पदोन्नतियाँ मिलीं और
वे गुजरात में मोदी के खिलाफ एक हथियार बनकर भी उभरे. इसके अलावा इंस्पेक्टर
विजयन, केके जोशुआ जैसे पुलिस अधिकारियों का बाल भी बाँका न हुआ. अप्रैल 1996 में में हाईकोर्ट ने और 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने इन संदिग्ध अधिकारियों
के खिलाफ कार्रवाई करने हेतु निर्देश दी थे... आज तक कुछ नहीं हुआ. यह फाईलें
तत्कालीन वामपंथी मुख्यमंत्री ईके नयनार के सामने भी आईं थीं, उनकी भी हिम्मत नहीं
हुई कि एक बेक़सूर वैज्ञानिक को न्याय दिलवा सकें.
किसी भी देश के वैज्ञानिक, इंजीनियर,
आर्किटेक्ट, लेखक इत्यादि उस देश की बौद्धिक संपत्ति होते हैं. यदि कोई देश
इस “बेशकीमती संपत्ति” की रक्षा नहीं कर पाए तो उसका पिछड़ना
स्वाभाविक है. पिछले वर्ष जब ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जुड़े दो वैज्ञानिकों की
रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हुई थी, तब ईरान ने समूचे विश्व में तहलका मचा दिया
था. सारे पश्चिमी और अरब जगत के समाचार पत्र इन वैज्ञानिकों की संदेहास्पद मृत्यु
की ख़बरों से रंग गए थे. इधर भारत का हाल देखिये... अक्टूबर 2013 में
ही विशाखापत्तनम के बंदरगाह पर भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के दो युवा वैज्ञानिक
एके जोश और अभीष शिवम रेल की पटरियों पर मृत पाए गए थे. ग्रामीणों द्वारा संयोगवश
देख लिए जाने की वजह से उनके शव ट्रेन से कटने से बच गए. पोस्टमार्टम रिपोर्ट से
पता चला कि दोनों वैज्ञानिकों को ज़हर दिया गया था. उक्त दोनों युवा वैज्ञानिक भारत की
परमाणु पनडुब्बी “अरिहंत” प्रोजेक्ट से जुड़े
हुए थे. 23 फरवरी 2010 को BARC से ही जुड़े एक प्रमुख इंजीनियर एम अय्यर की मौत भी ऐसी ही संदिग्ध
परिस्थितियों में हुई. हत्यारे ने उनके बंगले की डुप्लीकेट चाबी से रात को दरवाजा
खोला और उन्हें मार दिया. स्थानीय पुलिस ने तत्काल से “आत्महत्या” का मामला बताकर फाईल बंद कर दी.
सामाजिक संगठनों की तरफ से पड़ने वाले दबाव के बाद अंततः मुम्बई पुलिस ने हत्या का
मामला दर्ज किया, लेकिन परमाणु कार्यक्रमों से जुड़े इंजीनियर की मौत की जाँच भी
भारत की पुलिसिया रफ़्तार से ही चल रही है, जबकि अय्यर के केस में डुप्लीकेट चाभी
और फिंगरप्रिंट का उपलब्ध न होना एक उच्च स्तरीय “पेशेवर हत्या” की तरफ इशारा करता है. इसी
प्रकार 29 अप्रैल 2011 को भाभा परमाणु केन्द्र की वैज्ञानिक उमा राव की
आत्महत्या को उनके परिजन अभी भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. उनका मानना है कि
उमा ऐसा कर ही नहीं सकती, जरूर कुछ गडबड है.
यह बात कोई बच्चा भी बता सकता है कि, एक
वैज्ञानिक को रास्ते से हटा देने पर ही किसी प्रोजेक्ट को कई वर्ष पीछे धकेला जा
सकता है, भारत के क्रायोजेनिक इंजन, चंद्रयान, मिसाईल कार्यक्रम, परमाणु ऊर्जा और
मंगल अभियान इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं. जो कार्य हमारे वैज्ञानिक और इंजीनियर
सन 2000 में ही कर लेते, वह
अब भी लडखडाते हुए ही चल रहा है. भारत सरकार ने खुद माना है कि पिछले दो वर्ष के
अंदर भाभा केन्द्र और “कैगा” परमाणु केन्द्र के नौ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की
मृत्यु को“स्वाभाविक मौत नहीं माना
जा सकता, लेकिन जहाँ तक पुख्ता जाँच अथवा जिम्मेदारों को पकड़ने की बात है, सभी
मामलों में “शून्य” ही हाथ में है. दिक्कत की बात यह है कि
भारत सरकार के शीर्ष लोग यह मानने को ही तैयार नहीं हैं कि इन हत्याओं (संदिग्ध
हत्याओं और आत्महत्याओं) के पीछे कोई विदेशी हाथ हो सकता है. जबकि 1994 से ही, अर्थात जब से क्रायोजेनिक इंजन के बारे में
भारत-रूस की सहमति बनी थी, तभी से इस प्रकार के मामले लगातार सामने आए हैं. ईरान
ने अपने दुश्मनों के कारनामों से सबक लेकर अपने सभी वैज्ञानिकों की सुरक्षा पुख्ता
कर दी है, उनकी छोटी से छोटी शिकायतों पर भी तत्काल ध्यान दिया जाता है, उनके
निवास और दफ्तर के आसपास मोबाईल जैमर लगाए गए हैं... दूसरी तरफ भारत सरकार “नम्बी नारायण” जैसे घटिया उदाहरण पेश कर रही
है. किसी और देश में यदि इस प्रकार की
संदिग्ध मौतों के मामले आते, तो मीडिया और प्रबुद्ध जगत में ख़ासा हंगामा हो जाता.
लेकिन जब भारत की सरकार को उक्त मौतें “सामान्य
दुर्घटना” या “आत्महत्या” ही
नज़र आ रही हों तो कोई क्या करे?जबकि देखा जाए तो यदि वैज्ञानिकों ने आत्महत्या की है तो
उसकी भी तह में जाना चाहिए, कि इसके पीछे क्या कारण रहे, परन्तु भारत की सुस्त और
मक्कार प्रशासनिक मशीनरी और वैज्ञानिक ज्ञान शून्य राजनैतिक बिरादरी को इससे कोई
मतलब ही नहीं है. पश्चिमी देशों ने आर्थिक प्रलोभन देकर अक्सर भारतीय प्रतिभाओं का
दोहन ही किया है. जब वे इसमें कामयाब नहीं हो पाते, तब उनके पास नम्बी नारायणन के
खिलाफ उपयोग किए गए हथकंडे भी होते हैं.
हाल ही में भारत रत्न से सम्मानित वैज्ञानिक
प्रोफ़ेसर राव ने भारत के नेताओं को“बेशर्म और मूर्ख” कहा था, वास्तव में प्रोफेसर साहब हकीकत के काफी करीब
हैं. देश में विज्ञान, वैज्ञानिक सोच, शोध की स्थितियाँ तो काफी पहले से बदतर हैं
ही, लेकिन जो वैज्ञानिक अपनी प्रतिभा, मेहनत और असाधारण बुद्धि के बल पर देश के
लिए कुछ करते हैं, तो उन्हें विदेशी ताकतें इस प्रकार से निपटा देती हैं. यह कहना
जल्दबाजी होगी कि देश के शीर्ष राजनैतिक नेतृत्व में विदेशी हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया
है, लेकिन यह बात तो पक्की है कि शीर्ष प्रशासनिक स्तर और नेताओं की एक पंक्ति
निश्चित रूप से इस देश का भला नहीं चाहती. पूरे मामले की सघन जाँच किए बिना, अपने
एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक पर भरोसा करने की बजाय, उन्हें सीधे जेल में डालना छोटे
स्तर पर नहीं हो सकता. खासकर जब उस वैज्ञानिक की उपलब्धियाँ और क्रायोजेनिक इंजन
पर चल रहे कार्य को ध्यान में रखा जाए. जनरल वीके सिंह पहले ही हथियार
लॉबी को बेनकाब कर चुके हैं, इसीलिए शक होता है कि कहीं जानबूझकर तो देश के
वैज्ञानिकों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जा रहा? हथियार और जासूसी लॉबी इस देश को
पिछड़ा ही बनाए रखने के लिए कुछ भी कर सकती हैं, कर रही हैं. अब समय आ गया
है कि इन“षडयंत्रकारी शक्तियों” को बेनकाब किया जाए, अन्यथा भारत की
वैज्ञानिक सफलता इसी प्रकार लडखडाते हुए आगे बढेगी. जो काम हमें 1990 में ही कर लेना चाहिए था, उसके लिए 2013 तक इंतज़ार करना क्या एक “राष्ट्रीय अपराध” नहीं है? क्या इस मामले की
गंभीर जाँच करके सीआईए के गुर्गों की सफाई का वक्त नहीं आ गया है??
Posted by Suresh
Chiplunkar at 12:05 PM 0 comments
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