महर्षि दधीचि Maharshi Dadhich

महर्षि दधीचि

वेद व्याख्या के अनुसार निरंकार शिव ने सृष्टि संरचना में विष्णु को प्रकट किया व क्रम में विष्णु ने नाभिकमल से ब्रह्मा को प्रकट किया था। अथर्ववेद के निर्माता महर्षि अथर्व ब्रह्माजी के ज्येष्ठ पुत्र हुए व इसी क्रम में महर्षि अथर्व के पुत्र व ब्रह्मा पौत्र व विष्णु के पड़पौत्र दधीचि हुए। पौराणिक मान्यतानुसार कालांतर में क्षत्रियों व ब्राह्मणों के बीच युद्ध में राजा क्षुव ने दधीचि का शरीर विच्छिन्न कर दिया। दधीचि के गुरु शुक्राचार्य ने मृत संजीवनी मंत्र के प्रयोग से इन्हें जीवित किया। दधीचि ने शुक्राचार्य से मृत संजीवनी विद्या लेकर अश्विनी कुमारों को ब्राह्म विद्या का ज्ञान दिया। इंद्र के मना करने पर भी दधीचि ने अश्वमुख से इन्हें ज्ञान दिया जिससे वे अश्वशिरा कहलाए। क्रोधित इंद्र द्वारा इनके शिरोच्छेदन उपरांत भी यह जीवित हो उठे। महर्षि दधीचि ने नारायण कवच प्राप्त किया था।
सनातन संस्कृति में परम शिव भक्त महर्षि दधीचि को सम्पूर्ण वेद ज्ञाता, परम तपस्वी, महादानी के रूप में जाना जाता है। निरुक्त नामक वेदांग के रचयिता महर्षि यास्क के अनुसार महर्षि दधीचि के पिता ऋषि अथवा माता देवी चित्ति थी। इनका पैतृक नाम दध्यंच था तथा उनकी पत्नी का नाम गभस्तिनी था। शिव भक्त महर्षि दधीचि के तपोबल पर ही स्वयं शिव शंकर ने पुत्र रूप में अपने अवतार ऋषि पिप्पलाद बनकर जन्म लिया था। अहंकार रहित महर्षि दधीचि के परोपकार से तपोवन के सभी जीवों का उत्थान हुआ था।

शास्त्रानुसार महर्षि दधीचि का तपोवन गंगा तट पर नैमिषारण्य मिश्रिख तीर्थ सीतापुर, उत्तर प्रदेश के घने जंगलों के मध्य था। महर्षि दधीचि ने अपने तपोवन में जहां देह त्याग किया, वहीं स्वर्ग गऊ कामधेनु ने अपनी दुग्ध धारा छोड़ी। अत: उस तीर्थ क्षेत्र को दुग्धेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है तथा इसी स्थान पर ऋषि पिप्पलाद ने तपस्या करके शिव तत्व प्राप्त किया था। अत: इसी तीर्थक्षेत्र को पिप्पलाद तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है। 
दधीचि ऋषि ने देश के हित में अपनी हड्डियों का दान कर दिया था। उनकी हड्डियों से 3 धनुष बने- 1. गांडीव, 2. पिनाक और 3. सारंग। इसके अलावा उनकी छाती की हड्डियों से इंद्र का वज्र बनाया गया। इन्द्र ने यह वज्र कर्ण को दे दिया था। 
पिनाक शिव के पास था जिसे रावण ने ले लिया था। रावण से यह परशुराम के पास चला गया। परशुराम ने इसे राजा जनक को दे दिया था। राजा जनक की सभा में श्रीराम ने इसे तोड़ दिया था। सारंग विष्णु के पास था। विष्णु से यह राम के पास गया और बाद में श्रीकृष्ण के पास आ गया था। गांडीव अग्निदेव के पास था जिसे अर्जुन ने ले लिया था।
 
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक ऐसा धनुष, तीर और तरकश है जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। यह तीर चलाने के बाद पुन: व्यक्ति के पास लौट आता है और तरकश में कभी तीर या बाण समाप्त नहीं होते। सबसे पहले ऐसा ही एक तीर राजा बलि के पास था।

टिप्पणियाँ

इन्हे भी पढे़....

हमारा देश “भारतवर्ष” : जम्बू दीपे भरत खण्डे

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

Veer Bal Diwas वीर बाल दिवस और बलिदानी सप्ताह

चुनाव में अराजकतावाद स्वीकार नहीं किया जा सकता Aarajktavad

‘फ्रीडम टु पब्लिश’ : सत्य पथ के बलिदानी महाशय राजपाल

महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभा में भाजपा नेतृत्व की ही सरकार बनेगी - अरविन्द सिसोदिया

भारत को बांटने वालों को, वोट की चोट से सबक सिखाएं - अरविन्द सिसोदिया

शनि की साढ़े साती के बारे में संपूर्ण

ईश्वर की परमशक्ति पर हिंदुत्व का महाज्ञान - अरविन्द सिसोदिया Hinduism's great wisdom on divine supreme power

देव उठनी एकादशी Dev Uthani Ekadashi