कविता - 'संविधान और लोकतंत्र की बातचीत " snvidhan or loktantr

कविता - 'संविधान और लोकतंत्र की बातचीत "
- अरविन्द सिसोदिया 9414180151
* लोकतंत्र नें पूछा संविधान से,
कहां हो भाई, दिखाई नहीं पड़ते ?

* संविधान नें कहा लोकतंत्र से, भाई में तो हस्तनापुर से बँधा हूं, राजतंत्र की इच्छा पूरी करने में तत्पर रहता हूं।

      राजा के पास लाखों कर्मचारी है करोड़ों समर्थक है, उनकी ही सेवा करता रहता हूं। इनसे फुरसत मिलती ही नहीं, कि अपना काम कभी देखूँ ! क्योंकि राजा का कुनवा मुझ पर राज्य करता है और में हाजिरी भरता हूँ। 

* संविधान नें उलट कर पूछ लिया भाई लोकतंत्र जी तुम भी तो लोक में दिखाई नहीं दिखाई देते ? राजा तो बना देते हो, पर जनता को न्याय नहीं देते! क्या तुम भी राजा के रनिवास से बाहर नहीं निकलते ?

* लोकतंत्र नें उदास मन से कहा, जब जन्म हुआ था तब सोचा था देश सेवा करूंगा! मगर ज्यों ज्यों बड़ा हुआ तो पता चला कि मुझे तो सिर्फ सत्ता की सेवा करनी है! इनके मनमुताबिक सामन्तशाही करनी है और उससे भी आगे जाकर, सिर्फ हाँ जी और हजूरी करनी है!

    भाई देश स्वतंत्र नहीं स्वछंद हुआ है, अपनी अपनी सोच पर संविधान लीखा हुआ है। दिखाते किताब हैँ उसमें खाली पन्नो को जिल्द किया हुआ है।

* दोनों ही कुछ देर चुप रहे और ठंडी आह छोड़कर बोले... हमारा कोई अर्थ नहीं। जो विपक्ष में आता है वह हमारा नाम जाप करता है। हम लेबील बन कर रह गये सामान कुछ और होता है।

   सच तो यह है कि हम भी सत्ता के गुलाम हैँ या मानों गुमनाम हैँ। लोग हमारा बैनर लगा कर करते अपना अपना काम करते हैँ।

* फिर दोनों नें ही कहा.... चलो कभी तो वह दिन आएगा, जो हमें पुलिस और पटवारी से मुक्त करवाएगा। बाबू जी ही हमारी नियति हैँ और नेताजी हमारी दुर्गति हैँ। 

* यह मान कर हम जी रहे हैँ। जब कोई व्यवस्था जमीन से जुड़ जायेगी , तब वह हमें मुक्त करवाएगी , तब वह हमें मुक्त करवाएगी ।

* संविधान और लोकतंत्र को अपनी बातें करते - करते नींद आगई.....! तुम भी क्यों जाग रहे हो, तुम भी सो जाओ!!

इंतजार करो कुदरत का वह ही कुछ कर पायेगी।
आशा यही है कि रात भले ही हो, सुबह जरूर आएगी। सुबह जरूर आएगी।

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