मेरा शासन 002 न्यायपालिका में हो नई व्यवस्था

भारत में न्यायपालिका का पुनर्गठन एक गंभीर और जटिल कार्य होगा, लेकिन अगर कल्पना करें कि हमें बिल्कुल नये सिरे से न्यायपालिका को गठित करने का अवसर मिले — बिना किसी वर्तमान संरचना के बोझ के — तो हम निम्नलिखित सिद्धांतों और ढांचे पर एक प्रभावशाली, पारदर्शी और जन-हितैषी न्यायपालिका बना सकते हैं।
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🔷 1. संवैधानिक आधार और शक्तियों का सीमांकन

संवैधानिक आधार एवं शक्तियों का सीमांकन

भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद 'शक्तियों के पृथक्करण' (Separation of Powers) के सिद्धांत पर टिकी है, जिसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिकाएं स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं। न्यायपालिका का मूल कार्य संसद द्वारा पारित कानूनों की व्याख्या करना तथा न्याय सुनिश्चित करना है — न कि वह ‘सुपर संसद’ की भूमिका में आए और अन्य अंगों के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करे।

1. सुप्रीम कोर्ट की सीमित लेकिन सशक्त भूमिका:

सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिक जिम्मेदारी केवल संविधानिक व्याख्या तथा राष्ट्रीय महत्व के मामलों तक सीमित होनी चाहिए। किसी भी अधिनियम या उसके विशेष प्रावधान की संवैधानिक वैधता पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्ण पीठ (Constitution Bench) गठित की जाए, जिसमें न्यूनतम 21 या उससे अधिक न्यायाधीश शामिल हों। इसके गठन में 50 प्रतिशत की संख्या हाईकोर्टस के मुख्यन्याधीशो से पूरा किया जाना चाहिए। इस तरह की पीठ पूरे एक हफ्ते बैठ कर कार्य को सम्पन्न करे।

2. न्यायिक बोझ का विकेंद्रीकरण:

सामान्य एवं क्षेत्रीय महत्व के अधिकांश मामलों का अंतिम निपटान उच्च न्यायालय स्तर पर ही हो। सुप्रीम कोर्ट को हर छोटे-बड़े मामले से व्यस्त रखना न्यायिक संसाधनों का दुरुपयोग है। इससे न केवल न्याय प्रक्रिया धीमी होती है, बल्कि अन्य महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई भी बाधित होती है।

3. न्यायिक भाषा और पारदर्शिता:

उच्च न्यायालयों में निर्णय संबंधित राज्य की स्थानीय भाषा में ही दिए जाएं, जिससे आम नागरिक भी न्याय प्रक्रिया को समझ सकें। यह उनका अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णय हिंदी में दिए जाएं और आवश्यकता अनुसार उनका अनुवाद अंग्रेज़ी और अन्य भारतीय भाषाओं में भी किया जाए। यह न्यायिक पारदर्शिता और भाषिक समावेशन की दिशा में एक निर्णायक कदम होगा।

4. त्वरित एवं प्रभावी सुनवाई प्रक्रिया:

न्याय प्रक्रिया को शीघ्र एवं प्रभावी बनाने के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि किसी भी याचिका के दायर होते ही प्रारंभिक तथ्यात्मक बयान एवं दस्तावेजी सबूत साथ में दर्ज किया जाए। इससे मुकदमे के मूल बिंदुओं की स्पष्टता बनेगी और सुनवाई शीघ्र संपन्न हो सकेगी।

यह प्रस्ताव न केवल न्यायपालिका की भूमिका को संविधान के अनुरूप सीमित और स्पष्ट करता है, बल्कि समग्र न्यायिक प्रणाली को अधिक सशक्त, पारदर्शी और जनोन्मुखी बनाने की दिशा में एक ठोस पहल भी है।

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🔷 2. चार -स्तरीय न्यायिक व्यवस्था का पुनर्रचना

📍 (1)  स्थानीय न्यायालय (People’s Justice Courts)

स्थापना:
देशभर में प्रत्येक तहसील स्तर पर स्थानीय न्यायालय स्थापित किए जाएंगे। इनकी न्यायिक सीमा किसी भी स्थिति में एक विधानसभा क्षेत्र से अधिक नहीं होगी।

भाषा:
प्रकरणों की सुनवाई संबंधित राज्य की राजकीय भाषा में की जाएगी।

अधिकार क्षेत्र:

  • ये न्यायालय असंज्ञेय अपराधों एवं छोटे नागरिक विवादों की सुनवाई करेंगे।
  • ये लोक अदालत के रूप में भी कार्य कर सकेंगे।
  • गंभीर या जटिल मामलों को यह न्यायालय स्वतः उच्चतर न्यायालयों को संदर्भित कर सकेंगे।
  • प्रत्येक प्रकरण का न्यायिक निष्पादन अधिकतम एक वर्ष की अवधि में किया जाएगा।
  • जमानत लेना, पाबंद करना, स्टे देना आदी भी ये कर सकेंगे।

न्यायिक संरचना:

  • निर्णय केवल विधि विशेषज्ञों (कानून में प्रशिक्षित व्यक्तियों) द्वारा दिए जाएंगे।
  • पंचायतें अथवा जनप्रतिनिधि संस्थाएं न्याय प्रक्रिया में सम्मिलित नहीं होंगी।

वैकल्पिक समाधान:

  • यदि अभियुक्त अपराध स्वीकार करता है, तो अर्थदण्ड (मौद्रिक दंड) के माध्यम से प्रकरण का समाधान संभव होगा।

स्वतः संज्ञान और निगरानी अधिकार:

  • इन न्यायालयों को स्वतः संज्ञान (suo moto) लेने का अधिकार प्राप्त होगा।
  • ये कानून व्यवस्था से संबंधित मामलों की निगरानी (monitoring) भी कर सकेंगे।
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📍 (2) जिला एवं अतिरिक्त जिला न्यायालयों की व्यवस्था – मुख्य बिंदु
  1. स्थापना

    • प्रत्येक जिले में जिला न्यायालय तथा प्रत्येक उपखण्ड (सब-डिविजन) स्तर पर अतिरिक्त जिला न्यायालय स्थापित किए जाएंगे।
  2. कार्यक्षेत्र

    • समस्त दीवानी, दाण्डिक एवं अन्य प्रकरणों की प्रथम सुनवाई इन्हीं न्यायालयों में होगी।
    • इन न्यायालयों से पारित निर्णयों के विरुद्ध अपील, पुनर्विचार या पुनर्निरीक्षण केवल उच्च न्यायालय में किया जा सकेगा।
  3. भाषा

    • न्यायालय की कार्य भाषा राज्य की राजकीय/स्थानीय भाषा होगी, जिससे न्यायिक प्रक्रिया आमजन के लिए सुलभ होगी।
  4. निर्णय की समय सीमा

    • प्रत्येक प्रकरण का अंतिम निर्णय तीन वर्ष की अधिकतम समयावधि के भीतर अनिवार्य रूप से किया जाएगा।
  5. तकनीकी सक्षमता

    • सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology) का पूर्ण उपयोग किया जाएगा।
    • आवश्यकतानुसार पक्षकारों, गवाहों एवं अधिवक्ताओं की वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से उपस्थिति को मान्यता दी जाएगी।
  6. अधिकार एवं शक्तियाँ

    • इन न्यायालयों को वे सभी विधिक अधिकार प्राप्त होंगे जो वर्तमान में स्थानीय न्यायालयों को प्रदान किए गए हैं।
  7. लाभ

    • जनता को त्वरित, पारदर्शी और स्थानीय भाषा में न्याय उपलब्ध होगा।
    • लंबित मामलों में कमी आएगी और न्याय प्रणाली अधिक जनोन्मुखी एवं सशक्त बनेगी।
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📍 (3) यहाँ आपके सुझाव को प्रभावशाली, प्वाइंट-वाइज और नीतिगत भाषा में पुनः प्रस्तुत किया गया है:

प्रांतीय उच्च न्यायालयों की स्थापना हेतु प्रस्तावित व्यवस्था

  1. प्रादेशिक न्यायिक क्षेत्रों का गठन:

    • देश की जनसंख्या एवं क्षेत्रफल को ध्यान में रखते हुए पूरे भारत को लगभग 10 प्रादेशिक न्यायिक क्षेत्रों में विभाजित किया जाए।
    • प्रत्येक क्षेत्र में एक प्रांतीय उच्च न्यायालय की स्थापना की जाए।
    • छोटे राज्यों को उनकी भौगोलिक निकटता, भाषाई समानता और परिवहन की सुविधा के आधार पर एकीकृत किया जा सकता है।
  2. स्थान का चयन:

    • प्रत्येक प्रांतीय उच्च न्यायालय की स्थापना राजधानी या उस क्षेत्र के सुगम परिवहन केंद्र पर की जाए, जिससे न्यायिक पहुँच सरल, त्वरित और सुलभ हो सके।
  3. न्यायिक अधिकार क्षेत्र:

    • ये उच्च न्यायालय सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई हेतु सक्षम होंगे, जैसे:
      • आपराधिक
      • दीवानी
      • विविध (रेवेन्यू, फैमिली, सेवा आदि)
      • अपीलीय अधिकार (Appeals from subordinate courts)
  4. डिजिटल और तकनीकी अनिवार्यता:

    • सभी न्यायालयों में ई-कोर्ट प्रणाली, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुनवाई, तथा डिजिटल दस्तावेज़ों की अनिवार्यता लागू की जाए।
    • इससे न्याय प्रक्रिया में पारदर्शिता, गति और लागत में कमी आएगी।
  5. भाषाई व्यवस्था:

    • न्यायालय की कार्यवाही हिंदी अथवा उस क्षेत्र में व्यापक रूप से समझी और बोली जाने वाली प्रमुख भाषा में की जाए, जिससे आम जनता की समझ और सहभागिता सुनिश्चित हो।
  6. मोबाइल कोर्ट प्रणाली:

    • प्रत्येक प्रांतीय उच्च न्यायालय के अधीन आने वाले प्रत्येक संभागीय केंद्र हेतु दो न्यायाधीशों की मोबाइल कोर्ट की स्थापना की जाए।
    • ये मोबाइल कोर्ट प्रत्येक माह एक चयनित सप्ताह में चार दिवस संबंधित संभाग में शिविर (Camp) लगाकर मामलों की सुनवाई व निर्णय करें।
    • इससे न्यायपालिका ग्रामीण और दूरस्थ क्षेत्रों तक सक्रिय रूप से पहुँचेगी।
  7. प्रभाव और लाभ:

    • न्याय तक पहुँच का विकेंद्रीकरण और सशक्तिकरण।
    • मुकदमों के लंबित मामलों में कमी।
    • क्षेत्रीय न्यायिक संतुलन और भाषाई समावेशन।
    • डिजिटल और तकनीकी नवाचार द्वारा न्याय प्रणाली का आधुनिकीकरण।
    • न्यायिक लागत में कमी एवं समय की बचत
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📍 (4 ) संविधानिक सर्वोच्च न्यायालय (Constitutional Supreme Court)

  नवीन सुप्रीम कोर्ट सेटअप (संरचना और कार्यप्रणाली)

1. न्यायाधीशों की संख्या और वर्गीकरण

  • कुल न्यायाधीश: 51
  • स्थायी न्यायाधीश: 31
  • मोबाइल (परिव्राजक) न्यायाधीश: 20

2. स्थायी न्यायाधीशों की भूमिका

  • स्थान: देश की राजधानी
  • कार्यक्षेत्र:
    • संवैधानिक विवादों की सुनवाई
    • मूल अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े प्रकरण
    • राष्ट्रीय महत्व के प्रकरण
  • केवल गहन और दीर्घकालिक प्रभाव वाले मुद्दों की सुनवाई करेंगे

3. मोबाइल न्यायाधीशों की संरचना और कार्यप्रणाली

  • न्यायाधीश 2-2 की पीठ में कार्य करेंगे
  • स्थान: देशभर के उच्च न्यायालयों में अस्थायी पीठें
  • कार्यदिवस:
    • 3 दिन: प्रकरणों की सुनवाई
    • 3 दिन: अध्ययन, विश्लेषण और निर्णय-पूर्व विचार
  • केवल वे मामले स्वीकार किए जाएंगे:
    • जिनका एक ही बैठक में निर्णय संभव हो
    • जो संविधान की व्याख्या से संबंधित न हों

4. न्यायाधीशों की विशेषज्ञता

  • 31 स्थाई न्यायाधीशों में से कम से कम 50% होंगे:
    • गैर-न्यायिक क्षेत्र से विशेषज्ञ, जैसे:
      • तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्र
      • मानवाधिकार
      • संविधान सभा व संसद की बहसों के विशेषज्ञ
      • प्रशासनिक सेवा के जानकर आदि

5. न्यायालय के अधिकार-सीमाएं

  • सुप्रीम कोर्ट में विचार नहीं किया जाएगा:
    • जमानत याचिकाएं
    • पुलिस या संस्थागत कार्यवाही रोकने के मामले
    • ₹50 करोड़ से कम की सिविल अपीलें

6. प्रकरण दायर करने की प्रक्रिया

  • अधिवक्ता को शपथपत्र देना अनिवार्य:
    • उसने प्रकरण का गहन अध्ययन किया है
    • साक्ष्यों से संतुष्ट है
  • अधिवक्ता को एक गोपनीय नोट (बंद लिफाफे में) देना होगा:
    • केवल न्यायाधीश द्वारा पढ़ा जाएगा
    • लिफाफा पुनः बंद कर रखा जाएगा
    • निर्णय के पश्चात स्थायी रूप से नष्ट कर दिया जाएगा
    • कोई प्रति/नकल उपलब्ध नहीं होगी

7. मुख्य उद्देश्य

  • न्यायालय के कीमती समय का संरक्षण
  • केवल गंभीर, अध्ययनयुक्त और प्रभावकारी प्रकरणों की सुनवाई
  • त्वरित, पारदर्शी और व्यावसायिक न्यायिक प्रक्रिया की स्थापना
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सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी जाने वाली रूलिंग्स (निर्णयों) का प्रभाव

न्यायपालिका का दायित्व है कि वह राष्ट्रहित की रक्षा करे और विदेशी हस्तक्षेप या षड्यंत्रों को निष्प्रभावी बनाए।

1. रूलिंग्स की कानूनी बाध्यता (Legal Binding Nature)

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार देश के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं।

इन रूलिंग्स का अनुपालन सरकारी विभागों, एजेंसियों और लोक सेवकों के लिए भी अनिवार्य होता है।

यह आवश्यक है कि सुप्रीम कोर्ट की प्रत्येक रूलिंग की सूचना संबंधित शासन सचिव, केंद्रीय कानून मंत्री, तथा अन्य आवश्यक सरकारी संस्थाओं को औपचारिक रूप से प्रदान की जाए। इस हेतु केंद्रीय विधि मंत्रालय बहुअयामी सेटअप तैयार करें।
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2. विधिक और प्रशासकीय संप्रेषण की आवश्यकता (Need for Legal-Administrative Communication)

सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग्स को नीतियों, अधिसूचनाओं व अधिनियमों से समन्वित करना अनिवार्य होना चाहिए।

सरकार को चाहिए कि वह इन व्याख्याओं को विधायी रूप से सम्मिलित करें या संसद के माध्यम से आवश्यकता अनुसार संशोधन/निरस्तीकरण करे।

वर्तमान में अनेक महत्वपूर्ण रूलिंग्स को प्रशासनिक तंत्र नहीं अपनाता, क्योंकि उनके पास प्रभावी सूचना तंत्र का अभाव है।


3. संविधान की अंतिम व्याख्या (Final Interpreter of the Constitution)

सुप्रीम कोर्ट संविधान की अंतिम व्याख्याकार है।

किसी भी क़ानून, शासनादेश या नीतिगत दिशा-निर्देश की वैधता पर प्रश्न उठने पर सुप्रीम कोर्ट निर्णय करती है कि वह संवैधानिक है या नहीं।

4. नीतिगत प्रभाव (Policy Impact)

सुप्रीम कोर्ट के अनेक फैसले सरकारी नीतियों को प्रत्यक्ष/परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं।

राष्ट्रहित से जुड़े मामलों में, कोर्ट गोपनीय दस्तावेज आमंत्रित कर सूक्ष्म मूल्यांकन कर सकती है।


5. जनजीवन पर प्रभाव (Impact on Society)

सामाजिक सुधार, लैंगिक समानता, पर्यावरण संरक्षण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे क्षेत्रों में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक और जनहितकारी निर्णय दिए हैं। ये फैसले सामाजिक चेतना को दिशा देते हैं और नवीन सामाजिक मूल्य स्थापित करते हैं।

6. मौलिक अधिकारों की रक्षा (Protection of Fundamental Rights)

जब भी किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, सुप्रीम कोर्ट उसका संरक्षक बनकर सामने आता है।

वह सरकार या किसी भी प्राधिकरण के विरुद्ध आदेश पारित कर सकता है और न्यायिक संरक्षण प्रदान कर सकता है।

7. न्यायिक मिसालें (Judicial Precedents)

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय न्यायिक मिसाल (precedents) बनते हैं।

निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों को, भावी मामलों में इन निर्णयों का अनुसरण करना आवश्यक होता है।

इससे न्यायिक स्थिरता, न्याय में एकरूपता और कानूनी स्पष्टता सुनिश्चित होती है।

निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग्स केवल निर्णय नहीं, कानून के व्याख्यात्मक स्रोत होते हैं। इनका व्यापक प्रचार, प्रभावी संप्रेषण, और प्रशासनिक अनुपालन राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है। यह न केवल शासन की जवाबदेही सुनिश्चित करता है, अपितु लोकतंत्र की आत्मा — नागरिकों के अधिकारों की रक्षा — को भी बल प्रदान करता है।

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🔷 3. न्यायाधीशों की नियुक्ति व जवाबदेही

 नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता:-

एक न्यायिक चयन आयोग (Judicial Appointments Commission) जिसमें हो:

यहाँ “भारतीय न्यायिक सेवाएं चयन आयोग” के प्रस्ताव को प्रभावी, स्पष्ट और बिंदुवार भाषा में ड्राफ्ट किया गया है:


भारतीय न्यायिक सेवाएं चयन आयोग (Indian Judicial Services Selection Commission – IJSSC)

1. आयोग की संरचना

  • अध्यक्ष सहित कुल 13 सदस्य।
  • नियुक्ति प्रक्रिया: महामहिम राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
  • चयन समिति: प्रधानमंत्री, विधि एवं न्याय मंत्री, और भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अध्यक्ष एवं सदस्यों का चयन किया जाएगा।

सदस्यों का वर्गीकरण:

  1. न्यायिक सदस्य (3): उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों द्वारा संयुक्त रूप से चयनित।
  2. केंद्र सरकार के प्रतिनिधि (3): केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत।
  3. राज्य सरकारों के प्रतिनिधि (3): समस्त राज्यों के मुख्यमंत्रीगण द्वारा संयुक्त रूप से चयनित।
  4. विधिक संगठनों के प्रतिनिधि (3): अधिवक्ताओं के संगठनों द्वारा चयनित।

2. कार्य और दायित्व

  • प्राथमिक कार्य: उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायपालिका (जैसे जिला व सत्र न्यायालय, सिविल जज, मजिस्ट्रेट आदि) के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति करना।
  • चयन प्रक्रिया:
    • सार्वजनिक साक्षात्कार (Public Interview)।
    • व्यावसायिक ट्रैक रिकॉर्ड पर आधारित मूल्यांकन।

3. चयन हेतु पात्रता मापदंड

  • न्यूनतम 5 वर्ष की सक्रिय वकालत अनिवार्य।
  • प्राथमिक योग्यता मानदंड:
    • मुकदमों में सफलता का रिकॉर्ड।
    • विधिक ज्ञान की गहराई।
    • न्यायिक सोच और संवेदनशीलता।
    • उम्र और अनुभव का समुचित संतुलन।

नोट: कोई भी व्यक्ति सीधे न्यायाधीश नियुक्त नहीं होगा। नियुक्ति हेतु प्रतियोगी परीक्षा या साक्षात्कार में भाग लेने से पूर्व न्यूनतम पाँच वर्ष की अधिवक्ता के रूप में सेवा आवश्यक होगी।


4. कार्यकाल और सेवानिवृत्ति

  • उच्च न्यायालय न्यायाधीश:

    • अधिकतम कार्यकाल: 15 वर्ष (नवाचार हेतु)।
  • सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश:

    • 10 वर्ष का कार्यकाल या 65 वर्ष की आयु, जो पहले हो।

5. सेवानिवृत्ति के पश्चात प्रतिबंध

  • कोई भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश:
    • 5 वर्षों तक किसी भी राजनैतिक, सामाजिक या प्रशासनिक पद पर नियुक्त नहीं होगा।
    • इसके पश्चात वह सामान्य नागरिक के सभी अधिकारों का उपयोग कर सकेगा।
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तकनीक आधारित न्यायपालिका (E-Judiciary) की समग्र रूपरेखा 

तकनीक आधारित न्यायपालिका (E-Judiciary): एक समावेशी एवं प्रभावी न्याय प्रणाली की दिशा में

तकनीक का उपयोग करके न्याय प्रणाली को अधिक पारदर्शी, सुलभ और दक्ष बनाना समय की आवश्यकता है। डिजिटल युग में एक आधुनिक ई-न्यायपालिका (E-Judiciary) निम्नलिखित स्तंभों पर आधारित हो सकती है:

1. AI-सहायता प्राप्त केस फ़िल्टरिंग प्रणाली

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) की सहायता से मामलों की प्रारंभिक जांच।

निराधार या बार-बार दायर की जाने वाली याचिकाओं की पहचान।

न्यायालयों पर अनावश्यक भार को कम करना और महत्वपूर्ण मामलों को प्राथमिकता देना।

2. सभी न्यायालयों में ई-फाइलिंग और ई-सुनवाई

सभी स्तरों की अदालतों में डिजिटल माध्यम से केस फाइलिंग की सुविधा।

वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से वर्चुअल सुनवाई।

दस्तावेजों का डिजिटल सत्यापन एवं डिजिटल साक्ष्य की स्वीकृति।

3. केस टाइमलाइन ट्रैकिंग और अलर्ट सिस्टम

प्रत्येक मामले की स्पष्ट टाइमलाइन: फाइलिंग से लेकर अंतिम निर्णय तक।

पक्षकारों को SMS/ईमेल/पोर्टल के माध्यम से स्वतः सूचना और रिमाइंडर मिलना।

लंबित मामलों की नियमित निगरानी।

4. आम जनता हेतु 'जन-न्याय पोर्टल'
एक केंद्रीय पोर्टल जहां नागरिक अपना केस नंबर डालकर:
केस की वर्तमान स्थिति,
आगामी सुनवाई की तिथि,
निर्णय का सारांश सरल भाषा में देख सकें।
पोर्टल बहुभाषी हो, जिससे क्षेत्रीय भाषाओं में जानकारी उपलब्ध हो सके।

5. निर्णय के पश्चात 'अपील मार्गदर्शन सुविधा'

न्यायालय का निर्णय मिलने के बाद:

उपयोगकर्ता को स्वतः यह जानकारी मिले कि यदि असंतुष्ट हैं तो अगली अपील कहां और कितने समय में कर सकते हैं।

आवश्यक प्रारूप और प्रक्रिया की जानकारी भी डिजिटल रूप में मिले।

निष्कर्ष:

तकनीक आधारित न्यायपालिका न केवल मामलों के निष्पादन की गति बढ़ा सकती है, बल्कि आम नागरिकों को न्याय प्रणाली के करीब ला सकती है। पारदर्शिता, समयबद्धता और समावेशिता — इन तीन मूल्यों को केंद्र में रखकर यह पहल न्याय को सुलभ और प्रभावी बनाने में मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है।
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🔷 4.  न्यायिक शिक्षा और लोक साक्षरता: न्याय को जन-सुलभ बनाने की दिशा में एक निर्णायक कदम

1. न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों का सुदृढ़ीकरण
न्यायपालिका के सदस्यों को समयानुकूल और प्रासंगिक बनाए रखने हेतु, न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों में लगातार अपडेट होते केस लॉ, संवैधानिक विकास एवं समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। यह उन्हें सामाजिक यथार्थ से जोड़ते हुए, न्यायिक निर्णयों को अधिक संवेदनशील और प्रासंगिक बनाने में सहायक होगा।

2. विद्यालयों में कानूनी साक्षरता का समावेश
"कानूनी साक्षरता" को स्कूली शिक्षा के प्रारंभिक स्तर से ही पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। इससे छात्र प्रारंभ से ही अपने अधिकारों, कर्तव्यों और विधिक प्रक्रियाओं के प्रति जागरूक होंगे, जो एक उत्तरदायी और सशक्त नागरिक समाज की नींव रखेगा।

3. न्यायिक निर्णयों की भाषा को जनसामान्य के अनुकूल बनाना
सभी न्यायिक निर्णयों को सरल, स्पष्ट एवं जन-सुलभ भाषा में अनुवाद सहित सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराया जाए। इससे न्याय केवल कुछ सीमित वर्गों तक नहीं, बल्कि आम नागरिक तक भी पहुंचेगा और 'न्याय सुलभता' का वास्तविक अर्थ साकार हो सकेगा।
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🔷 6. यहाँ “वैकल्पिक विवाद निपटान (ADR) का सशक्त ढांचा” विषय पर एक प्वाइंट वाइज ड्राफ्ट प्रस्तुत है।

वैकल्पिक विवाद निपटान (ADR) का सशक्त ढांचा

1. ADR की परिभाषा और महत्व

ADR का तात्पर्य न्यायालय के बाहर विवादों के समाधान की विधियों से है।

यह प्रक्रिया न्यायिक बोझ को कम करती है और न्याय सुलभ बनाती है।

2. ADR के प्रमुख प्रकार

मध्यस्थता (Arbitration): तटस्थ मध्यस्थ द्वारा निर्णय।

सुलह (Conciliation): पक्षों के बीच आपसी समझौते द्वारा समाधान।

मध्यस्थता (Mediation): एक मध्यस्थ के मार्गदर्शन में संवाद के ज़रिए समाधान।

लोक अदालतें : न्यायालयों द्वारा मान्यता प्राप्त त्वरित समाधान मंच।

3. ADR को कानूनी वैधता देना

विधायी समर्थन: मध्यस्थता एवं सुलह अधिनियम, 1996; पंचायत अधिनियम इत्यादि।

न्यायालयों की स्वीकृति: उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों द्वारा ADR को बढ़ावा।

न्यायालयों में पूर्व-A.D.R. प्रयासों को अनिवार्य बनाने की पहल।

4. ADR की विशेषताएँ
कम लागत: पारंपरिक मुकदमों की तुलना में कम खर्चीली प्रक्रिया।
तेज प्रक्रिया : वर्षों तक चलने वाले मुकदमों की तुलना में त्वरित निपटान।
गोपनीयता: निजी स्तर पर समाधान सुनिश्चित करता है।
समाज-सुलभ: आमजन, ग्रामीण, गरीब वर्ग के लिए सरल और सुलभ माध्यम।

5. "जनप्रतिनिधि वोट आधारित प्रणाली से चुने जाते हैं और वे प्रायः निष्पक्ष न्याय नहीं कर पाते। इसलिए न्याय से संबंधित मामलों को जनप्रतिनिधियों या पंचायत आधारित व्यवस्था से अलग रखा जाएगा।

6. सुधार की आवश्यकता

ADR में प्रशिक्षित पेशेवरों की संख्या बढ़ाना।

जन-जागरूकता अभियान चलाना।

तकनीक आधारित ई-ADR प्लेटफॉर्म विकसित करना।

7. निष्कर्ष

ADR का सशक्त ढांचा न्यायिक प्रणाली का पूरक बन सकता है।

इससे न्यायिक प्रक्रिया अधिक सुलभ, त्वरित व प्रभावशाली बन सकती है।

समावेशी न्याय के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु ADR को बढ़ावा देना आवश्यक है।
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🔷 7. न्याय में समानता और पहुंच

आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए पूर्णतः निःशुल्क न्याय।

ग्रामीण, आदिवासी और महिला केंद्रित न्याय कक्ष।

लोक अदालतों को नई तकनीक और वैधानिक शक्ति से सुसज्जित करना।

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🌟 निष्कर्ष:

एक प्रभावशाली न्यायपालिका वही है जो तेज, निष्पक्ष, सुलभ और पारदर्शी हो। भारत जैसे विविधता भरे लोकतंत्र में यदि न्यायपालिका को नई सोच और तकनीक से निर्मित किया जाए, तो यह न केवल न्याय देगा, बल्कि जन-विश्वास का स्तंभ भी बनेगा।

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भारत में गरीबों व वरिष्ठ नागरिकों के लिए सस्ता, त्वरित व सुलभ न्याय सुनिश्चित करने हेतु एक नया विशेष राहत क़ानून (गरीब एवं वरिष्ठजन न्याय राहत अधिनियम) प्रस्तावित किया जा सकता है। 

गरीब एवं वरिष्ठजन न्याय राहत अधिनियम लाया जायेगा 

1. अधिनियम का उद्देश्य

गरीबों और वरिष्ठ नागरिकों को त्वरित, सस्ता, सरल एवं भ्रष्टाचार मुक्त न्याय प्रदान करना।

2. परिभाषाएं

गरीब व्यक्ति: ऐसा नागरिक जिसकी मासिक आय ₹ 10,000 से कम हो या जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करता हो।

वरिष्ठ नागरिक: भारत का ऐसा नागरिक जिसकी आयु 60 वर्ष या उससे अधिक हो।

अधिवक्ता-मित्र: राज्य द्वारा नियुक्त या पंजीकृत अधिवक्ता जो  बिना शुल्क पर सेवा प्रदान करें। जिसे राज्य सरकार तय शुल्क प्रदान करें।

राहत अदालत: विशेष रूप से  गरीब व वरिष्ठजन हेतु गठित त्वरित व विशेष अदालतें।

3. विशेष अदालतों की स्थापना

हर ज़िले में " राहत न्यायालय" की स्थापना।

ये अदालतें विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों व गरीब व्यक्तियों के दीवानी व छोटे आपराधिक मामलों की सुनवाई करेंगी।

सप्ताह में कम-से-कम दो दिन केवल इन मामलों की सुनवाई हेतु आरक्षित।

4. अधिवक्ता-मित्र योजना
प्रत्येक राहत न्यायालय में राज्य द्वारा पंजीकृत अधिवक्ता-मित्रों की नियुक्ति होगी।
ये अधिवक्ता इस तरह के आवेदक को, वादी/प्रतिवादी को  नाममात्र शुल्क पर सहायता देंगे, जिसका वहन राज्य सरकार करेगी।
इन अधिवक्ताओं को राज्य सरकार उचित मानदेय देगी।

5. न्याय अनुसंधान केंद्र (Legal Aid & Research Cell)

हर जिला न्यायालय परिसर में एक अनुसंधान केंद्र स्थापित किया जाए।

वादियों को केस संबंधित सहायता, दस्तावेज़ों की सूची, प्रारूप, व कानून की जानकारी मुफ्त या न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध हो। 
क़ानून व रूलिंग्स की जानकारी देना।

कानून के छात्रों को इंटर्नशिप हेतु इसमें जोड़ा जा सकता है।

6. न्यूनतम शुल्क आधारित लोक अदालतें
प्रत्येक स्तर पर राहत अदालतें होंगी, इनकी संख्या आवश्यकतानुसार होगी।
केस शुल्क ₹1000 रूपये अथवा 0.5 प्रतिशत वाद संपत्ति के वर्तमान मूल्य पर अथवा न्यायलय स्वयं भी तय कर सकता है कि इस वाद को किस शुल्क पर चलाया जा सकता है एवं फैसले में राशि वसूली की जा सकती है। 
सुलह, मध्यस्थता व त्वरित निर्णय को बढ़ावा।

राहत अदालत के पात्र वादी की जाँच सख्ती से होगी ताकी वास्तविक गरीब व वरिष्ठजन को लाभ मिले।

7. दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी

वादी व प्रतिवादी एवं अन्य कोई संबंधित को दस्तावेज प्रस्तुत करने की प्राथमिक जिम्मेदारी स्वयं की होगी।

परंतु यदि कोई दस्तावेज़ सरकारी विभाग/एजेंसी के पास हो, तो न्यायालय की मांग पर वह एजेंसी अनिवार्य रूप से दस्तावेज उपलब्ध कराएगी, अन्यथा उस पर जुर्माना लगेगा।

8. प्रक्रिया की सरलता

मुकदमा दायर करने के लिए सरल फॉर्मेटेड आवेदन पत्र लागू हों।
ई-मित्र/सीएससी केंद्रों के माध्यम से इन राहत न्यायालयों में आवेदन की सुविधा। डिजिटल दस्तावेजों की मान्यता। एवं तकनीकी सरलता से बिना उपस्थिति के भी कार्यवाही का संचालन की व्यवस्था होगी।

9. राज्य सरकार की भूमिका - 

इन राहत अदालतों  के संचालन हेतु आवश्यक बजट का प्रावधान।
प्रत्येक वर्ष एक स्वतंत्र "न्याय सुलभता रिपोर्ट" का प्रकाशन।
लोक शिकायतों की समीक्षा हेतु एक न्यायिक निगरानी प्रकोष्ठ की स्थापना।

10. दंडात्मक प्रावधान
जानबूझकर गलत सूचना देने, सरकारी दस्तावेज रोकने या कोर्ट को गुमराह करने पर दंड का प्रावधान। भ्रष्टाचार की शिकायतों की सुनवाई हेतु इसी व्यवस्था में अलग से प्रकोष्ठ होगा ।

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