ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती सनातन हिंदू संस्कृति - अरविन्द सिसोदिया

ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती सनातन हिंदू संस्कृति
भूमिका:-

भारतीय संस्कृति, जिसे हम 'सनातन संस्कृति' कहते हैं, विश्व की प्राचीनतम और सर्वाधिक समृद्ध जीवनशैली है। यह केवल पूजा-पाठ या रीति-रिवाजों तक सीमित नहीं, बल्कि एक ऐसा मार्ग है जो मनुष्य को अध्यात्म, प्रकृति और समाज से जोड़ता है। इस संस्कृति की सबसे विशिष्ट विशेषता है – ईश्वर और सृष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव। सनातन धर्म मानता है कि ईश्वर की कृपा के बिना कुछ भी संभव नहीं है। यही कारण है कि जीवन के हर क्षेत्र में, हर कार्य के आरंभ और समापन में ईश्वर के प्रति आभार व्यक्त करने की सनातन हिंदू परंपरा का प्रचलित होना ।
सनातन हिंदू संस्कृति एक ऐसी प्राचीन परंपरा है, जो न केवल जीवन के हर पक्ष को ईश्वर से जोड़ती है, बल्कि हर श्वास, हर कर्म में कृतज्ञता का भाव भी समाहित करती है। यह संस्कृति केवल धार्मिक क्रियाकलापों तक सीमित नहीं है, बल्कि जीवन पद्धति, आचार-विचार, आहार-विहार, ऋतुचक्र, प्रकृति और सृष्टि के हर रूप के प्रति आभार व्यक्त करने की एक दिव्य प्रणाली है।

कृतज्ञता का मूल तत्व – "ईश्वर अर्पण बुद्धि"

सनातन धर्म में यह मान्यता है कि जो कुछ भी हमें प्राप्त होता है, वह ईश्वर की कृपा का ही परिणाम है। इसीलिए हर कार्य से पहले और बाद में "ईश्वरार्पण" की भावना व्यक्त की जाती है। भोजन से पूर्व "ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविः" जैसे मंत्र, यह संकेत करते हैं कि हम जो कुछ भी ग्रहण कर रहे हैं, वह ईश्वर को अर्पित है – यह सर्वोच्च कृतज्ञता की अभिव्यक्ति है।

मुख्य विषय-वस्तु:-

सनातन संस्कृति में यह भाव गहराई से रचा-बसा है कि "जो कुछ भी है, वह ईश्वर का ही अंश है"। इसीलिए हर दिन का आरंभ प्रार्थना से होता है – चाहे वह "कराग्रे वसते लक्ष्मी..." जैसी प्रातः प्रार्थना हो, या फिर सूर्योदय के समय सूर्य नमस्कार। इन सबके मूल में एक ही भावना होती है – ईश्वर और उसकी श्रेष्ठतम रचना प्रकृति के प्रति कृतज्ञता।

प्राकृतिक शक्तियों के प्रति आभार :-
सनातन संस्कृति केवल परमेश्वर के प्रति ही नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रत्येक रूप के प्रति आभार प्रकट करने की परंपरा को निभाती है। सूर्य, चंद्रमा, ग्रह - नक्षत्र, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी को देवता का स्वरूप मानकर उनकी पूजा की जाती है। उदाहरणस्वरूप, मकर संक्रांति पर सूर्य देव का आभार प्रकट किया जाता है, गंगा दशहरा पर गंगा मैया को पूजते हैं, और गोवर्धन पूजा में प्रकृति और गोवंश के प्रति श्रद्धा व्यक्त की जाती है। यह सब केवल धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि जीवनदाता शक्तियों के प्रति आभार की अभिव्यक्ति हैं। इस जितना सूक्ष्म से जानेंगे उतनी विविधता का स्वरूप हमें मिलता है। 

सनातन संस्कृति में प्रकृति को भी ईश्वर का ही स्वरूप माना गया है। संपूर्ण सृष्टि को आकाश, अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी – इन पंचमहाभूतों के अंतर्गत मानना और इनकी पूजा कर उनके प्रति धन्यवाद प्रकट किया जाता है।

वृक्षों, विशेष रूप से पीपल, तुलसी, वटवृक्ष आदि की पूजा कर उनसे प्राप्त जीवनदायिनी ऊर्जा के लिए धन्यवाद ज्ञापित किया जाता है।

त्योहारों में छिपी कृतज्ञता :-
सनातन संस्कृति के प्रत्येक पर्व में किसी न किसी रूप में कृतज्ञता का भाव समाहित होता है। दीपावली पर माँ लक्ष्मी और भगवान गणेश को धन्यवाद दिया जाता है कि उन्होंने घर में समृद्धि और विवेक प्रदान किया। रक्षा बंधन पर भाई-बहन एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों के लिए आभार व्यक्त करते हैं। पितृ पक्ष में पूर्वजों को श्रद्धा के साथ स्मरण कर उनके योगदान को स्वीकारा जाता है। ये सभी पर्व जीवन में संतुलन, श्रद्धा और कृतज्ञता के भाव को गहराई से स्थापित करते हैं।

दैनिक जीवन में कृतज्ञता के संस्कार :-

सनातन धर्म में छोटे-छोटे कार्यों को भी अध्यात्म से जोड़ दिया गया है। भोजन करते समय अन्न को देवता मानकर प्रार्थना की जाती है। जल पीते समय, विश्राम करते समय, पढ़ाई शुरू करते समय – हर अवसर पर एक छोटा सा मंत्र या प्रार्थना के माध्यम से यह स्वीकार किया जाता है कि "जो कुछ है, वह ईश्वर की देन है।" यहाँ तक कि जब हम धरती पर पैर रखते हैं, तब भी "समुद्रवसने देवि..." मंत्र द्वारा पृथ्वी माता से क्षमा माँगते हैं। ये सभी छोटे-छोटे कार्य जीवन में विनम्रता और आभार की भावना भरते हैं।

गायत्री मंत्र और वेदों में निहित भाव :-
गायत्री मंत्र, जो वेदों का सार माना जाता है, केवल ज्ञान की प्रार्थना नहीं, अपितु उस प्रकाश स्वरूप ईश्वर के प्रति धन्यवाद की भावना भी है। "धियो यो नः प्रचोदयात्" का अर्थ है – हे प्रभु, हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें। वेदों के अधिकतर मंत्र किसी न किसी देवता के प्रति आभार, स्तुति और प्रार्थना के रूप में हैं।

जिनसे ज्ञान मिला, गुरु के प्रति श्रद्धा रखें। जिनका श्रम हमारे लिए उपयोगी है, उनके प्रति आदर रखें (जैसे कृषक, गोपालक, स्वच्छता कर्मी आदि)।

संन्यास और त्याग में भी आभार का भाव

संन्यास लेने वाले व्यक्ति भी जब घर छोड़ते हैं, तो माता-पिता, गुरु, अग्नि, सूर्य और संपूर्ण जगत के प्रति कृतज्ञता प्रकट कर जीवन का एक नया अध्याय आरंभ करते हैं। यह दिखाता है कि सनातन संस्कृति में त्याग का मार्ग भी आभार से शुरू होता है।


निष्कर्ष:-
कृतज्ञता एक ऐसा गुण है, जो मनुष्य को उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति तक पहुँचाने में सहायक है। सनातन हिंदू संस्कृति इस गुण को केवल उपदेश के रूप में नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक पहलू में व्यावहारिक रूप से लागू करती है। ईश्वर, प्रकृति, गुरु, माता-पिता, अन्न, जल – सबके प्रति आभार व्यक्त करने की यह परंपरा न केवल व्यक्ति को विनम्र बनाती है, बल्कि उसे पूर्ण और संतुलित जीवन की ओर अग्रसर करती है। यही कारण है कि सनातन संस्कृति को एक दिव्य और शाश्वत संस्कृति कहा जाता है – जो हमें सिखाती है कि जीवन केवल भोग के लिए नहीं, बल्कि अनुशासन, संयम,आभार और सेवा के लिए है।

सनातन हिंदू संस्कृति केवल ईश्वर की पूजा नहीं करती, बल्कि हर जीव, हर वस्तु, हर परिस्थिति में ईश्वर का अंश देखकर उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट करती है। यह संस्कृति हमें यह सिखाती है कि जो कुछ हमारे पास है, वह किसी न किसी रूप में दिव्य अनुकंपा है  और उस अनुकंपा के प्रति हमारी विनम्र कृतज्ञता ही सच्चा धर्म है।

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