हिंदुत्व का सर्वोच्च अनुसंधान, पूर्णपरब्रह्म ही सत्य है - अरविन्द सिसोदिया Par brahm parmeshwar
हिंदुत्व का सर्वोच्च अनुसंधान, पूर्णपरब्रह्म ही सत्य है - अरविन्द सिसोदिया
भारतीय मानव सभ्यता करोड़ों अरबों वर्ष प्राचीन पूर्ण विकसित मानव सभ्यता है, इसलिए इसके पास ज्ञान का समृद्ध भंडार है, जिसने ईश्वर से लेकर मनुष्य तक, प्रकृति से लेकर सृष्टि तक, आरंभ से लेकर अनंत तक का अनुसंधान किया है। उस ज्ञान से जो पाया, समझा कि जो कुछ भी विद्वमान है, मौजूद है वह अपने आपमें पूर्ण है। मनुष्य है तो पूर्ण है, पशु पक्षी पेड़ पौधे प्रत्येक अपने आप में पूर्ण हैँ और किसी वृहद व्यवस्था जो अपने आप में भी पूर्ण सत्ता है का अंश है या अंग है। यह भी समझा कि सृष्टि में स्वरूप परिवर्तन होता है, समाप्त कुछ भी नहीं होता। परमशक्ति के जीवन की सनातनता में प्राणी सत्ता जन्मदिन जीवन मृत्यु और फिरसे जन्म जीवन और मृत्यु की श्रंखला में चलती रहती है। यह आदि से अनंत की यात्रा है।
सनातन हिंदू संस्कृति के इस महान और संजोकर रखने योग्य ज्ञान को भारत सरकार के संरक्षण में भी रखा जाना चाहिए, क्योंकि यह महान अनुसंधान, आने वाले समय में मानव सभ्यता को दिशा देनें के काम आएगा।
विराट विश्व में व्याप्त विज्ञान ही सृष्टि संचालन है, विज्ञान ईश्वरीय नियमावली है, जिसकी प्रभुसत्ता पर ही सब कुछ चलता है। जो इसे जितना समझ पाया वह इस विषय में उतना लिख देता है या मान्यता का स्वरूप दे देता है।
पृथ्वी पर जो प्रकृति है, वह सभी ग्रहों नक्षत्रों पर हो यह अज्ञात है। किन्तु पृथ्वी जैसी प्रकृति सत्ता बहुत सारे अन्य पिंडों पर हो यह संभव है। अन्य स्वरूपों में हो यह भी संभव है।
प्रकृति का गहरा अर्थ शरीर सत्ता है पेड़ पौधे, जीव जन्तु, पशु पक्षी कीट पतंगे सभी शरीर सत्ता के विविध रूप हैँ। यूँ साधारण भाषा में भिन्न भिन्न प्रकार की ईश्वरीय मशीनें हैँ।
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इंटरनेट और कम्प्यूटर सिस्टम में जो कुछ भी है.... वह सब ईश्वर के पास हमेशा रहा है, हम सिर्फ उसकी व्यवस्था को पड़ते हैँ और उपयोग करते हैँ।
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परब्रह्म को समझना
हिंदू दर्शन में परब्रह्म परम वास्तविकता का प्रतिनिधित्व करता है, जो सभी वर्णनों और अवधारणाओं से परे है। यह परम ब्रह्म है, जो आकार और निराकार से परे है तथा ब्रह्मांड की हर चीज में व्याप्त है।
परब्रह्म की अवधारणा को विभिन्न हिंदू परंपराओं में अलग-अलग तरीके से समझा जाता है। अद्वैत वेदांत में, इसे निर्गुण ब्रह्म, अर्थात गुण-रहित परम तत्व का पर्याय माना गया है। इसके विपरीत, द्वैत वेदांत और विशिष्टाद्वैत वेदांत में, परा ब्रह्म को सगुण ब्रह्म, गुणों के साथ निरपेक्ष के रूप में परिभाषित किया गया है। वैष्णव, शैव और शक्तिवाद में क्रमशः विष्णु, शिव और आदि शक्ति को परब्रह्म माना जाता है।
विभिन्न परम्पराओं में परा ब्रह्म
परम सत्य की तीन विशेषताएं
अद्वैत वेदांत:- परब्रह्म को निर्गुण ब्रह्म के रूप में परिभाषित किया गया है, जो स्वयं के बारे में पूर्ण ज्ञान की अवस्था है, जो पारलौकिक ब्रह्म के समान है। यह मानसिक-आध्यात्मिक ज्ञानोदय (ज्ञान योग) की अवस्था है। यह सगुण ब्रह्म से भिन्न है, जो प्रेमपूर्ण जागरूकता (भक्ति योग) की अवस्था है।
वैष्णव धर्म:- विष्णु को, विशेषकर महाविष्णु के रूप को, परब्रह्म मानता है। महाभारत और भागवत पुराण भी विष्णु को परब्रह्म के रूप में पहचानते हैं।
शैव धर्म:- शिव को, विशेष रूप से परशिव के रूप में, पर ब्रह्म मानता है। शिव पुराण के अनुसार शिव में निर्गुण और सगुण दोनों गुण विद्यमान हैं।
शाक्तवाद:- आदि पराशक्ति को परब्रह्म के रूप में देखा जाता है, गुणों सहित और गुणों के बिना, तथा ऊर्जावान अवस्था में ब्रह्म के रूप में।महाकाली का विशेषण ब्रह्ममयी है, जिसका अर्थ है "वह जिसका सार ब्रह्म है।"
परम सत्य की प्राप्ति तीन रूपों में वर्णित है: ब्रह्म, परमात्मा और भगवान। ब्रह्म अवैयक्तिक अनुभूति है, जो सूर्य के प्रकाश के समान है। परमात्मा स्थानीय पहलू है, जैसे सूर्य गोलक। भगवान व्यक्तिगत पहलू है, जैसे सूर्य देवता।
सबसे प्रासंगिक उत्तर भाग है: - परब्रह्म सर्वोच्च ब्रह्म है, सभी विवरणों और अवधारणाओं से परे अंतिम वास्तविकता है, और विभिन्न हिंदू परंपराओं, जैसे अद्वैत वेदांत, वैष्णववाद, शैववाद और शाक्तवाद में इसे अलग-अलग तरीके से समझा जाता है।
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पूर्णमिदम्" (Purnam idam) एक संस्कृत वाक्यांश है
जिसका अर्थ है "यह पूर्ण है" या "यह संपूर्ण है"।
यह "पूर्णमदः पूर्णमिदं" मंत्र का हिस्सा है, जो वेदों और उपनिषदों में पाया जाता है. यह मंत्र अक्सर शांति और पूर्णता के विचार को व्यक्त करने के लिए उपयोग किया जाता है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं मंत्र का अर्थ:
पूर्णमदः (Purnamadah)
वह (परब्रह्म या परम सत्य) पूर्ण है।
पूर्णमिदं (Purnamidam):
यह (जगत या अभिव्यक्ति) भी पूर्ण है।
पूर्णात् पूर्णमुदच्यते (Purnat purnam udachyate):
पूर्ण से पूर्ण प्रकट होता है।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते (Purnasya purnamadaya purnamevavashishyate):
पूर्ण में से पूर्ण लेने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः
(Om Shanti Shanti Shanti)
ॐ, शांति, शांति, शांति.
मंत्र का भावार्थ :-
यह मंत्र बताता है कि परम सत्य (ब्रह्म) और अभिव्यक्ति (जगत) दोनों ही पूर्ण हैं. यह भी दर्शाता है कि पूर्णता से पूर्णता का उदय होता है और पूर्ण में से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही शेष रहता है, क्योंकि पूर्णता अपरिमित और अविभाज्य है।
यह मंत्र अद्वैत (द्वैतहीनता) के सिद्धांत को भी व्यक्त करता है, जो बताता है कि सभी चीजें एक ही पूर्ण वास्तविकता से आई हैं और अंततः उसी में विलीन हो जाती हैं।
उपयोग :-
यह मंत्र अक्सर शांति, समृद्धि और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए जप किया जाता है। इसका उपयोग ध्यान, प्रार्थना और अन्य आध्यात्मिक प्रथाओं में भी किया जाता है।
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