पैसा जहां से आता है... लूटतंत्र वहीं जाता है

विचार - " पैसा जहां से आता है " उसके इर्द गिर्द घूम रही है पूरी व्यवस्था... न लोकतंत्र है, न न्याय है और नहीं मानवता है... है तो महा भ्रष्टाचार है.....। "

यह कथन — "पैसा जहां से आता है उसके इर्द-गिर्द घूम रही है पूरी व्यवस्था... न लोकतंत्र है, न न्याय है और नहीं मानवता है... है तो महा भ्रष्टाचार है..." — भारतीय सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था पर एक कठोर लेकिन यथार्थपरक टिप्पणी है। इस आधार पर भारतीय व्यवस्था का विश्लेषण निम्न बिंदुओं में किया जा सकता है:
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1. लोकतंत्र की वास्तविकता बनाम दिखावा

संविधान में भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य कहा गया है। लेकिन व्यवहार में लोकतंत्र अक्सर केवल चुनावों तक सिमट कर रह गया है।

चुनावी राजनीति में धनबल और बाहुबल का वर्चस्व है। "पैसा जहां से आता है", वही तय करता है कि कौन नेता बनेगा, कौन नीति बनेगी और किसकी बात सुनी जाएगी।

राजनैतिक दलों को मिलने वाला चंदा कॉरपोरेट्स, उद्योगपतियों और ब्यूरोक्रेसी के गठजोड़ से आता है, जिससे नीति निर्माण जनहित के बजाय पूंजीहित पर केंद्रित होता है।
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2. न्याय व्यवस्था में पैसों का प्रभाव

"न्याय सबके लिए बराबर है" – यह आदर्श स्थिति है, लेकिन व्यवहार में न्याय की पहुंच उन्हीं तक है जिनके पास पैसा, पहुंच और वकील हैं।

लंबित मामलों की भारी संख्या (4.5 करोड़ से अधिक) आम आदमी को न्याय से वंचित रखती है।

बड़े पूंजीपतियों और नेताओं के लिए तेजी से सुनवाई, जमानत और राहत उपलब्ध होती है, जबकि गरीब नागरिक सालों तक जेल में सड़ते रहते हैं।
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3. मानवता का ह्रास और सामाजिक संवेदना की कमी

स्वास्थ्य, शिक्षा, जल, भोजन जैसी बुनियादी सेवाओं तक पैसे वालों की प्राथमिक पहुंच है। गरीबों के लिए ये सुविधाएं या तो अभाव में हैं या अपमानजनक स्थिति में।

सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। पैसा नीचे से ऊपर तक जाता है, और मानवता बीच में दम तोड़ देती है।
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4. महा भ्रष्टाचार: एक संस्थागत रूप

भ्रष्टाचार अब अपवाद नहीं, बल्कि व्यवस्था का हिस्सा बन गया है। ट्रैफिक चालान से लेकर रक्षा सौदों तक – हर स्तर पर लाभ लेने और देने की संस्कृति विकसित हो गई है।

"ईमानदार" व्यक्ति को अव्यवहारिक, मूर्ख या असहयोगी मान लिया जाता है।
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5. सुधार की संभावनाएं

हालांकि स्थिति गंभीर है, फिर भी परिवर्तन असंभव नहीं है:

RTI (सूचना का अधिकार), लोकपाल, डिजिटलीकरण, और नागरिक जागरूकता ने कुछ हद तक पारदर्शिता को बढ़ाया है।

नागरिक समाज, मीडिया और न्यायपालिका कभी-कभी साहसिक भूमिका निभाते हैं, लेकिन इन पर भी पैसे और सत्ता का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है।

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निष्कर्ष:

भारतीय व्यवस्था में लोकतंत्र, न्याय और मानवता का ढांचा तो है, लेकिन उसका संचालन अब पूंजी केंद्रित हो गया है। जब तक "पैसा कहां से आता है" यह प्राथमिक प्रश्न रहेगा, तब तक व्यवस्था महा भ्रष्टाचार के दलदल में ही फंसी रहेगी।
इस व्यवस्था में आम नागरिक की भूमिका केवल वोट डालने तक सीमित है, जब तक वह सशक्त, संगठित और सजग न हो।
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"पैसा केंद्रित व्यवस्था का सच"

आज भारतीय व्यवस्था का संचालन लोकतंत्र या न्याय नहीं, बल्कि पैसे के प्रभाव से हो रहा है। राजनीति में जीत, नीति निर्माण, न्याय की गति – सब कुछ उस स्रोत के इर्द-गिर्द घूमता है जहां से पैसा आता है। गरीब न्याय से वंचित है, जबकि प्रभावशाली तुरंत राहत पा जाते हैं। 

मानवता पीछे छूट गई है – शिक्षा, स्वास्थ्य और राशन जैसी बुनियादी सुविधाएं भी अब लूट रूपी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रही हैं। महा भ्रष्टाचार एक सामान्य व्यवस्था बन चुका है।

जब तक जनता सजग नहीं होगी और जनशक्ति को धनशक्ति से ऊपर नहीं रखेगी, तब तक यह पैसा आधारित व्यवस्था लोकतंत्र और मानवता दोनों को खोखला करती रहेगी।
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पैसा जहां से आता है....

भूमिका:-

भारतीय संविधान ने देश को लोकतांत्रिक, न्यायपूर्ण और मानवीय राष्ट्र के रूप में परिभाषित किया है। परंतु आज का कटु यथार्थ यह है कि हमारी व्यवस्था का केंद्रबिंदु "पैसा" बन चुका है। चाहे वह राजनीति हो, न्यायपालिका हो, प्रशासन हो या समाज की विविध सेवाएं हों....!  सभी क्षेत्रों में नीति और नैतिकता का स्थान अब पूंजी और प्रभाव ने ले लिया है।  हम यह विश्लेषण करेंगे कि किस प्रकार "पैसा जहां से आता है, उसके इर्द-गिर्द पूरी व्यवस्था घूमती है", और इसके दुष्परिणाम भारतीय लोकतंत्र, न्याय व्यवस्था और मानवता पर कैसे पड़ते हैं।

1. लोकतंत्र का पतन: जन से ज्यादा धन का प्रभाव

भारतीय लोकतंत्र अब ‘जन की सत्ता’ नहीं, बल्कि ‘धन की सत्ता’ बनता जा रहा है। चुनावों में उम्मीदवारों की जीत अब उनके विचारों से नहीं, उनके प्रचार और प्रचारकों के बजट से तय होती है। राजनीतिक दलों को मिलने वाला चुनावी चंदा अक्सर बड़े उद्योगपतियों और कॉर्पोरेट घरानों से आता है, जिससे उनकी प्राथमिक निष्ठा जनता के बजाय पूंजीपतियों के हितों की ओर झुक जाती है। उनके मुनाफे का ज्यादा ध्यान रखना होता है। यह भारत में ब्रिटिश राज से ही है। तब वोट का अधिकार भी सम्पन्नता पर आधारित था। 

नीति निर्माण भी इस प्रभाव से अछूता नहीं है। भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण नियमों में ढील, टैक्स में छूट – ये सब निर्णय उसी "पैसे के स्रोत" के इर्द-गिर्द लिए जाते हैं जिसने सत्ता तक पहुंचने में मदद की है ।

2. न्याय नहीं, न्याय की खरीद

भारतीय न्याय व्यवस्था की विशेषता इसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता मानी जाती है, लेकिन व्यवहार में न्याय भी अब एक "मूल्य आधारित सेवा" बन गया है। वकील की मंहगी फीस, केस की पैरवी, सुनवाई की गति और अब तो सुप्रीम कोर्ट के जज के घर में नोटों का भंडार तक मिल गया। सब कुछ अब व्यक्ति की आर्थिक हैसियत पर निर्भर करता है।  एक सिविल केस लगाने में पैसा चाहिए, लड़ने में पैसा चाहिए। गरीब को न्याय पाने में वर्षों लग जाते हैं, वहीं बड़े अपराधों में लिप्त शक्तिशाली लोग जमानत और  सुनवाई तक से बच निकलते हैं।

न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या करोड़ों में है। आम नागरिक के लिए न्याय सिर्फ "संविधान की किताबों" में ही उपलब्ध है, व्यावहारिक जीवन में नहीं है। वहीं कुछ वकील घंटे भर में सुप्रीम सुनवाई तय करा लेते हैँ। 

3. मानवता का ह्रास और सामाजिक संवेदना का क्षरण

जब व्यवस्था में हर चीज की कीमत तय होने लगती है, तो मानवता स्वतः ही हाशिए पर चली जाती है। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर नहीं, स्कूलों में शिक्षक नहीं, और राशन वितरण में घोटाले!  यह सब इस बात का प्रमाण हैं कि मानवीय संवेदनाएं अब पैसे के तराजू में तोली जाती हैं। लाशों को पैसे के लिए बंधक बना लिया जाता है।

किसी गरीब की पीड़ा, मजदूर की व्यथा, किसान की आत्महत्या, ये सब समाचार चैनलों और अखबारों की ‘TRP’ और ‘विज्ञापन’ की संभावना से जुड़ी होती हैं। अगर कहानी बिकाऊ नहीं है, तो वह दिखाई नहीं जाती।

4. महा भ्रष्टाचार: एक व्यवस्थित तंत्र

भ्रष्टाचार अब एक छुपी हुई बुराई नहीं, बल्कि एक संस्थागत व्यवस्था बन चुका है। सरकारी दफ्तरों में फाइल सरकाने से लेकर बड़े ठेकों के आवंटन तक, सबमें "कट" का प्रतिशत तय है। रिश्वत, कमीशन, और ‘सुविधा शुल्क’ अब सामान्य शब्द बन चुके हैं।
जो ईमानदार होता है, वह या तो हाशिए पर डाल दिया जाता है या प्रताड़ित किया जाता है।

5. क्या कोई राह है?

स्थिति गंभीर अवश्य है, लेकिन अटल नहीं। RTI (सूचना का अधिकार), सोशल मीडिया के माध्यम से नागरिक जागरूकता, न्यायपालिका की सक्रियता, और कुछ ईमानदार अधिकारियों व संस्थाओं ने व्यवस्था में पारदर्शिता लाने का प्रयास किया है।
लेकिन जब तक आम जनता न केवल मतदान में, बल्कि दैनिक प्रशासनिक प्रक्रियाओं में भी सजग भागीदारी नहीं निभाएगी, तब तक "पैसा कहां से आता है", यही हमारी नीतियों का आधार बना रहेगा।

भारतीय व्यवस्था का मूलभूत ढांचा मजबूत है, लेकिन उसका संचालन अब पूंजी और प्रभाव से संचालित हो रहा है। लोकतंत्र, न्याय और मानवता! ये तीनों स्तंभ इस महा भ्रष्टाचार के भार तले दबे जा रहे हैं। अगर हमें सच्चे लोकतंत्र और समावेशी समाज की ओर बढ़ना है, तो "पैसे की शक्ति" को "जनशक्ति" से बदलना होगा। नहीं तो हम एक ऐसी व्यवस्था की ओर बढ़ेंगे, जहां संविधान की आत्मा खो जाएगी और केवल ढांचा शेष रहेगा। सब कुछ लूट तंत्र में बदल जायेगा।
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