राष्ट्रध्वज समिति की अनुशंसा केसरिया रंग के राष्ट्रध्वज की


राष्ट्रध्वज समिति की अनुशंसा केसरिया रंग के राष्ट्रध्वज की थी 

ध्वज किसी भी राष्ट्र के चिंतन, ध्येय और प्रेरणा का प्रतीक होता है। यह आक्रमण के समय पराक्रम का, संघर्ष के समय धैर्य का, और शांति के समय उद्यम की प्रेरणा का स्रोत होता है। इतिहास गवाह है कि ध्वज सदैव मानव समाज का गौरव रहा है। भारत के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो ‘भगवा’ रंग की ध्वजा हमारी प्राचीन सांस्कृतिक पहचान रही है। आज भी विश्व में यह रंग भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है।

राजनीतिक स्तर पर भारत की पहचान ‘तिरंगे’ से है, जिसे संविधान द्वारा 22 जुलाई 1947 को राष्ट्रध्वज के रूप में अंगीकृत किया गया। परंतु इससे पहले भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान भगवा रंग से ही जुड़ी रही।

कुछ विचार समूहों को भगवा रंग से आपत्ति है, परंतु यह देश की प्राचीन सांस्कृतिक चेतना को नकारने जैसा है। स्वाधीनता संग्राम के दौरान विभिन्न ध्वजों का उपयोग हुआ। 1906 से 1929 तक कई विचारकों, नेताओं और संगठनों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से राष्ट्रध्वज के डिजाइन प्रस्तुत किए। इन्हीं प्रयासों के बीच वर्तमान तिरंगे का विकास हुआ।

ध्वज समिति का गठन और कार्य

2 अप्रैल 1931 को कराची में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में एक सात-सदस्यीय समिति गठित की गई। सदस्य थे:
सरदार वल्लभभाई पटेल, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. पट्टाभि सीतारमैया, डॉ. न.सु. हर्डीकर, आचार्य काका कालेलकर, मास्टर तारा सिंह, और मौलाना आज़ाद।

प्रारंभ में पिंगली वेंकैया द्वारा प्रस्तुत ध्वज में केवल लाल और हरे रंग थे, जिन्हें कुछ लोगों ने हिंदू और मुस्लिम समुदाय का प्रतीक मान लिया। जबकि वेंकैया की मंशा थी – हरा रंग समृद्धि का और लाल रंग बलिदान का प्रतीक हो। बाद में शांति और अहिंसा के प्रतीक के रूप में सफेद पट्टी जोड़ने का सुझाव आया।

कुछ नेताओं ने इन रंगों को धर्म-आधारित प्रतीकों की तरह देखा। सिख समुदाय ने पीले रंग की मांग की। ऐसे में एक सर्वस्वीकृत ध्वज की आवश्यकता अनुभव की गई।

प्रश्नावली और सुझावों का संग्रहण

ध्वज समिति ने देशभर से सुझाव प्राप्त करने हेतु प्रश्नावली जारी की, जिसमें तीन मुख्य प्रश्न थे:

1. क्या आपके प्रांत में किसी समुदाय विशेष की कोई भावना है जिसे समिति ध्यान में रखे?

2. ध्वज को अधिक लोकप्रिय बनाने हेतु कोई विशेष सुझाव?

3. वर्तमान ध्वज के डिजाइन में कोई दोष या समस्या?


देशभर की कांग्रेस समितियों से मिले सुझावों पर विचार के बाद समिति ने सर्वसम्मति से कहा:

> “हमारा मत है कि राष्ट्रीय ध्वज एक ही रंग का होना चाहिए और वह रंग केवल केसरिया हो सकता है। यह रंग स्वतंत्र स्वरूप का तथा भारत की प्राचीन परंपरा के अनुकूल है।”

समिति का प्रस्ताव:
राष्ट्रीय ध्वज एक रंग का हो, उसका रंग केसरिया (भगवा) हो, और उसमें ध्वजदंड की ओर नीले रंग में चरखा अंकित हो।

प्रस्ताव की अस्वीकृति और तिरंगे की स्वीकृति

हालांकि समिति का यह प्रस्ताव राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से महत्वपूर्ण था, लेकिन बंबई अधिवेशन में कांग्रेस कार्यसमिति ने इसे स्वीकार नहीं किया। इसके बजाय वेंकैया द्वारा प्रस्तावित तिरंगे को आंशिक संशोधन के साथ अंगीकार किया गया—गहरे लाल की जगह ऊपर केसरिया, बीच में सफेद, और नीचे हरा रंग। बीच में चरखा बना रहा।

डॉ. हेडगेवार का प्रयास

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, जो पूर्व में नागपुर कांग्रेस के प्रमुख नेता रहे थे, ने भगवा ध्वज के समर्थन में प्रयास किए। उन्होंने लोकनायक बापूजी अणे से आग्रह किया कि वे कांग्रेस अधिवेशन में भगवा ध्वज के पक्ष में निर्भयतापूर्वक अपनी बात रखें।

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि केसरिया और भगवा रंग में मूलभूत अंतर नहीं है – दोनों ही लाल और पीले के मिश्रण से बनते हैं, केवल अनुपात अलग होता है। परंतु गांधीजी के आग्रह के कारण अधिकांश नेता मौन रहे और समिति का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया गया।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में भगवा ध्वज

‘भगवा’ ध्वज भारत की सांस्कृतिक आत्मा से गहराई से जुड़ा है।

महाभारत में अर्जुन के रथ पर भगवा ध्वज था।

छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, महाराजा रंजीत सिंह, आदि वीरों का विजय ध्वज भगवा था।

यह रंग उगते सूरज, यज्ञ अग्नि, त्याग, शौर्य और तप का प्रतीक है।

स्वामी रामतीर्थ ने कहा था – “यह रंग एक ओर मृत्यु का और दूसरी ओर नवजीवन का प्रतीक है।”

निष्कर्ष
भगवा ध्वज का इतिहास सतयुग से प्रारंभ होकर कलियुग तक चलता है। यह केवल रंग नहीं, बल्कि एक आदर्श जीवन पद्धति का प्रतीक है। हिंदू संस्कृति, धर्म, समाज और जीवन दर्शन में भगवा ध्वज अटूट रूप से जुड़ा है।
त्याग, सेवा, पराक्रम, वैराग्य और राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा यदि किसी रंग में समाहित है, तो वह भगवा ही है।
---
अनुरोध:

जो लोग भगवा ध्वज पर आपत्ति करते हैं, उन्हें इसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को समझते हुए अपनी दृष्टि का विस्तार करना चाहिए। समिति की अनुशंसा और नेताओं की सहमति इसके औचित्य को सिद्ध करती है।
---

टिप्पणियाँ

इन्हे भी पढे़....

चित्तौड़ का पहला जौहर, महारानी पद्मिनी : 26 अगस्त,1303

तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहे।

सेंगर राजपूतों का इतिहास एवं विकास

छत्रपति शिवाजी : सिसोदिया राजपूत वंश

गणपति गजानंद भगवान ganpti gjanand bhagvan

कण कण सूं गूंजे, जय जय राजस्थान

God exists and He is everything - Arvind Sisodia

श्री गणेश जी का संदेशा message from shri ganesh ji

खींची राजवंश : गागरोण दुर्ग

भारत अखंड और हिंदू राष्ट्र है - परमपूज्य डॉ. मोहन भागवत जी