मेरा शासन भाग 001 my Gov 001

मेरा शासन -  001

विचार - किसी भी देश को "अक्षय" अर्थात् दीर्घकालिक, समृद्ध, सुरक्षित और सशक्त बनाए रखने के लिए सर्वोच्च चीज उस देश के नागरिकों की राष्ट्रीय चेतना, एकता और सांस्कृतिक मूल्यों की स्थिरता का समुच्य होता है। इसके साथ ही, एक सक्षम शासन, सशक्त आर्थिक ढांचा, वैज्ञानिक प्रगति और आत्मनिर्भरता भी सहायक कारक होते हैं। भारत के संदर्भ में इसका विश्लेषण निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर किया जा सकता है:

🔶 1. राष्ट्र के प्रति नागरिकों की निष्ठा और राष्ट्रीय चेतना (Supreme Value: National Spirit)

भारत जैसे विविधताओं वाले देश के लिए सबसे आवश्यक है कि सभी नागरिक यह समझें कि वे पहले भारतीय हैं, फिर किसी जाति, पंथ, प्रान्त , भाषा या वर्ग के हों... सर्वोच्च उनमें उस राष्ट्र के प्रति अगाध प्रेम और उसके प्रति मर मिटने की भावना होनी चाहिए।

भारत के लिए क्या आवश्यक है ?
भारत विविधता की बाहुल्यता वाला देश है, इसमें हजारों तरह की बोलियां,सेंकड़ो प्रमुख भाषा यें , कई तरह की मान्यताओं के पंथ हैँ , हजारों जातियां हैँ , खानपान और रहन-सहन की अत्यधिक विविधता है। येशा बड़े और प्राचीन देशों में होता भी है, किन्तु इससे राष्ट्रीय एकता की भावना कमजोर नहीं पढ़नी चाहिए। इन्हे कोई भी कमजोर करने की कोशिश करे उसे कठोरतम दंड देकर रोकना चाहिए। क्योंकि इस तरह के विभाजन से देश के टुकड़े-टुकड़े हो सकते हैं। भारत नें विभाजन देखा है।

इसके अतिरिक्त भारत के इतिहास में विदेशी आक्रमणकारियों की सफलता का  आपसी फुट ही सबसे बड़ा कारण भी है, आपसी फूट डालने की सभी कोशिशौं को कठोरता से बंद करवाना चाहिए इससे देश कमजोर होता है ।

उदाहरण:-
1947 का भारत विभाजन धार्मिक आधार पर हुआ था। अगर नागरिकों में पहले राष्ट्र की भावना सर्वोच्च होती, तो संभवतः यह टाला जा सकता था।
इसके लिए राजनैतिक वातावरण में एकता क़ायम रखने के लिए संकल्प शक्ति होना चाहिए और उस पर अमल होना चाहिए।

🔶 2. राष्ट्रहितकारी संविधान और वास्तविक लोकतंत्र में आस्था

संविधान एक देश की आत्मा होता है। किन्तु संविधान वास्तविक राष्ट्रहित को समर्पित होना चाहिए। भारत को अक्षय बनाए रखने के लिए नागरिकों, नेताओं और संस्थानों को संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकारना और उसका पालन करना अनिवार्य है।

लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता (जैसे न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग) देश की स्थायित्वता की रीढ़ हैं।

🔶 3. शिक्षा और चेतनाशील समाज
भारत को अक्षय बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि उसका समाज बौद्धिक रूप से जागरूक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला और नैतिक मूल्यों से युक्त हो।

क्यों?
अशिक्षित और अंधविश्वासी समाज को बहकाना आसान होता है, जिससे आंतरिक विद्रोह, आतंकवाद, भ्रष्टाचार और दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है।

🔶 4. आत्मनिर्भरता (Self-Reliance) – आर्थिक और तकनीकी रूप से
भारत के लिए क्यों आवश्यक?
विदेशी निर्भरता भारत को दबाव में डाल सकती है। जैसे रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान ऊर्जा निर्भरता ने कई देशों की स्थिति अस्थिर कर दी।
उदाहरण:
"आत्मनिर्भर भारत" अभियान इसी दिशा में एक प्रयास है, जो भारत को दीर्घकालिक रूप से सक्षम बनाएगा।
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🔶 5. सशस्त्र बलों की शक्ति और आंतरिक सुरक्षा
कोई भी देश तभी अक्षय रह सकता है जब वह बाहरी आक्रमणों और आंतरिक विद्रोहों से अपनी रक्षा कर सके। भारत जैसे देश के लिए जहां सीमाएँ संवेदनशील हैं (जैसे चीन, पाकिस्तान), यह और भी जरूरी है।
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🔶 6. संस्कृति और आध्यात्मिक मूल्यों की सुरक्षा

भारत की संस्कृति उसकी आत्मा है। अगर हम अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कट जाएंगे, तो हमारी पहचान मिट सकती है।

ग्लोबलाइजेशन के युग में भारत को अपनी भाषा, योग, आयुर्वेद, सहिष्णुता और आध्यात्मिक परंपराओं को संजोकर रखना होगा।
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📌 निष्कर्ष:
> भारत को अक्षय बनाए रखने के लिए सर्वोच्च चीज है — “राष्ट्रीय एकता और चेतनाशील नागरिकता”, जो संविधान, संस्कृति और आत्मनिर्भरता की रक्षा करते हुए देश की अखंडता को बनाए रखे।
अगर नागरिक अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों को भी समझें, और राष्ट्र सर्वोपरि रहे — तो भारत न केवल अक्षय रहेगा, बल्कि दुनिया में अग्रणी भी बन सकता है।
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भारत की अखंडता को नुकसान पहुँचाने वाली ब्रिटिश नीति और स्वतंत्र भारत में उसकी छाया: एक विश्लेषणात्मक आलेख


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प्रस्तावना:

भारत की अखंडता (एकता और सम्प्रभुता) को कमजोर करने के प्रयासों की जड़ें ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन की नीतियों में थीं। "फूट डालो और राज करो" (Divide and Rule) ब्रिटिश शासन की सबसे घातक नीति रही, जिसने भारतीय समाज, राजनीति, धर्म और जाति को बाँटकर राष्ट्र को लंबे समय तक गुलाम बनाए रखा। दुर्भाग्यवश, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी अनेक राजनीतिक दलों, विशेषकर कांग्रेस शासन ने भी इसी विभाजनकारी सोच का लाभ उठाया और कई बार उसे जारी रखा।


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ब्रिटिश काल की विभाजनकारी नीतियाँ:

1. फूट डालो और राज करो:

अंग्रेजों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए योजनाबद्ध तरीके से मतभेद पैदा किए।

1909 का मिंटो-मॉर्ले सुधार और 1919 का मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचनी व्यवस्था लाए, जिससे सांप्रदायिकता को संस्थागत रूप मिला।



2. जातिगत जनगणना और आरक्षण की नींव:

1871 से शुरू जातिगत जनगणनाओं ने भारतीय समाज में जातिगत पहचान को अधिक मजबूती दी।

दलितों और पिछड़ों को आरक्षण की व्यवस्था के पीछे भी एक उद्देश्य था – समाज को बांटना और उसे एकजुट न होने देना।



3. राज्यों की पृथकता और राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को बढ़ावा:

भारत को 562 देसी रियासतों में विभाजित किया गया, जिससे केंद्र की सत्ता कमजोर रहे।

नेहरू-लियाकत समझौते जैसे प्रयासों के बावजूद विभाजन के घाव गहरे रह गए।





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स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस सरकार की नीति:

1. धार्मिक तुष्टीकरण:

मुस्लिम लीग द्वारा शुरू की गई धार्मिक राजनीति को कांग्रेस ने "धर्मनिरपेक्षता" के नाम पर जारी रखा।

अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार और सुविधाएँ देकर बहुसंख्यकों में असंतोष फैलाया गया।



2. जाति आधारित राजनीति:

मंडल आयोग (1979, लागू 1990) के बाद जातिगत आरक्षण और राजनीति का विस्तार हुआ।

वोटबैंक की राजनीति में दलित, पिछड़ा, मुस्लिम, महिला जैसे वर्गों को अलग-अलग पहचान देकर राष्ट्र की एकता पर आँच लाई गई।



3. धारा 370 और अनुच्छेद 35A का संरक्षण:

कश्मीर को विशेष दर्जा देकर उसे मुख्यधारा से अलग रखा गया, जो पाकिस्तान समर्थित अलगाववाद को बल देने वाला रहा।



4. भाषाई राज्यों का पुनर्गठन:

1956 के राज्य पुनर्गठन आयोग के आधार पर भाषाई आधार पर राज्यों का निर्माण हुआ, जिससे क्षेत्रीयतावाद को बढ़ावा मिला।





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इन नीतियों के दुष्परिणाम:

अलगाववाद: पंजाब (खालिस्तान), कश्मीर (इस्लामी आतंकवाद), उत्तर-पूर्व (नागालैंड, मणिपुर) जैसे क्षेत्रों में अलगाववादी आंदोलन फले-फूले।

जातिगत संघर्ष: आरक्षण विरोध-समर्थन में हिंसक आंदोलन हुए (उदाहरण: 1990 का मंडल विरोध आंदोलन)।

धार्मिक ध्रुवीकरण: हिन्दू-मुस्लिम दंगों की राजनीति ने सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया।



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क्या होना चाहिए – समाधान और वर्तमान संदर्भ:

1. वास्तविक धर्मनिरपेक्षता लागू हो:

सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण अपनाया जाए। विशेषाधिकार समाप्त हों।



2. जाति आधारित राजनीति बंद हो:

शिक्षा और आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण पर विचार किया जाए, जिससे सामाजिक समरसता बढ़े।



3. राष्ट्रीय एकता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाए:

राष्ट्रहित को सभी नीतियों के केंद्र में रखा जाए, न कि केवल चुनावी लाभ।



4. संवैधानिक संशोधन के द्वारा विभाजनकारी प्रावधानों की समीक्षा हो:

जैसे कि अनुच्छेद 370 को हटाना एक सकारात्मक कदम था, वैसे ही अन्य विषम प्रावधानों पर भी पुनर्विचार हो।





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निष्कर्ष:

भारत की अखंडता को तोड़ने वाली ब्रिटिश नीति केवल एक इतिहास नहीं है, बल्कि आज भी उसका प्रभाव अनेक रूपों में समाज और राजनीति में दिखता है। स्वतंत्र भारत में, विशेषकर लंबे समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी ने अनेक बार वोटबैंक की राजनीति के लिए उन्हीं विभाजनकारी नीतियों का सहारा लिया। आज आवश्यकता है कि भारत को अखंड, सशक्त और समरस राष्ट्र बनाने के लिए उन सभी नीतियों का त्याग किया जाए जो हमें बाँटती हैं। एक भारत, श्रेष्ठ भारत की संकल्पना केवल तभी साकार होगी जब ‘विभाजन नहीं, विकास’ राजनीति का मूलमंत्र बने।
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