आदि शंकराचार्य adi shankaracharya
एक समय भारत में इस तरह का आ गया था जब समाज में आराजकता और व्याभिचार चरम पर था और धर्म के नाम पर सनातन को समाप्त किया जा रहा था, मन चाहे धर्म पंथ खडे किये जा रहे थे। तब ईश्वरीय प्रेरणा एवं व्यवस्था आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ और उन्होनें पुनः सनातन को स्थापित किया और सनातन की रक्षार्थ और उसके विकास के लिए चार मठों को स्थापित किया । में विनम्रतापूर्वक क्षमा मांगते हुये आग्रह करता हूं कि आज जो शंकराचार्य गण हैं उन्हे आत्म निरिक्षण भी करना होगा कि उन्होनें इस पद पर रहते हुए सनातन के हित के लिए क्या - क्या किया ? पद धारण करने से कुछ नहीं होता....पद के दायित्वों के निर्वहन हेतु में कितना कर्त्तव्यनिष्ठ उतरा इस तथ्य पर पद की गरिमा निर्भर करती है। आदि शंकराचार्य के पूर्व शास्त्रों में शंकराचार्य पद की कोई व्यवस्था नहीं है। इस पद को आदि शंकराचार्य ने सृजित किया है। वर्तमान में जो भी अपने आपको शंकराचार्य पद के योग्य समझते हैं। उन्हे इस पद की गरिमा के अनुरूप अपने आपको सिद्ध भी करना चाहिये। आदि शंकर ने समाप्त हो रहे सनातन को पुनः प्रतिस्थापित कर दिखाया....हमनें क्या किया इसका जबाब तो ईश्वर चाहता ही है। श्रीराम जन्मभूमि सहित लाखों हिन्दू स्मारकों मंदिरों देवालयों का घ्वंश हुआ उनकी रक्षा और उनके पुर्न उद्धार के लिए संत समाज नें लाखों बलिदान दिये है। समाज के अन्यान्य क्षेत्रों से भी बडा संघर्ष हुआ है। मगर शंकराचार्य पद से जो संघर्ष होना चाहिये था वह उतना नहीं हुआ जितने की आवश्यकता थी।
मेरा किसी भी व्यक्ति या पद की गरिमा को ठेस पहुचानें का उद्देश्य नहीं है। मगर भारत के चारों शंकराचार्य पदो पर विराजमान महानविभूतियों के रहते हुये भी सोमनाथ, अयोध्या, वाराणसी, मथुरा सहित लाखों मंदिरो का विध्वंश हुआ, आपकी शक्ति इन मंदिरों की रक्षा करनें में विफल रही, हिन्दू सनातनी व्यक्तियों को जबरिया धर्मानतरित करवा लिया गया, आप कुछ नहीं कर सके। अभी भी हजारों भग्न मंदिरों पर विधर्मियों के कब्जे हैं,कुछ कर सकते हैं ? जो सनातन के लिए कुछ कर रहे हैं उन्के रास्ते में अडंगा न बनें। शंकराचार्य का पद आदि शंकराचार्य नें चारों मठों की स्थापना कर सृजित किये थे। यह पद शास्त्रोंक्त नहीं बल्कि सनातन के उत्थान एवं रक्षार्थ तबकी परिस्थितीयों के कारण सृजित किये गये थे। भारत की चारो दिशाओं चार धर्म रक्षक के तौर पर यह नियुत्यिं हुइ्रं थीं। इनका मुख्य कर्त्तव्य ही सनातन की रक्षा एवं विकास करना था। आदि शंकराचार्य के जीवन से रत्ती भर शिक्षा और दीक्षा भी आलोचना करने वाले शंकराचायो्रं नें ली होती तो यह शब्द कम से कम शंकराचार्यों के मुंह से नहीं निकलते ।
आदि शंकरा चार्य का जन्म
- आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जयंती वैशाख माह, शुक्ल पक्ष, पंचमी तिथि
कृते विश्वगुरुर्ब्रह्मा त्रेतायामृषिसत्तमः ।
द्वापरे व्यास एव स्यात् कलावत्र भवाम्यहम् ।।
सतयुग के श्री ब्रह्मा जी जगद्गुरु हैं , त्रेता के महर्षि वशिष्ठ , द्वापर के महर्षि वेदव्यास तथा कलियुग के श्री आद्य शंकराचार्य जगद्गुरु हैं ।
1- सनातन धाम / 3 अप्रैल 2020
आदि शंकराचार्य जी का जन्म कब हुआ और भ्रांतियां :
आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म कब हुआ था? इस संबंध में भ्रम फैला हुआ है। इतिहासकार मानते हैं कि उनका जन्म 7वीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ था। आओ जानते हैं कि अन्ततः सत्य क्या है ?
आदि शंकराचार्य का जन्म- महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि आदि शंकराचार्यजी का काल लगभग 2200 वर्ष पूर्व का है। दयानंद सरस्वती जी 138 साल पहले हुए थे। आज के इतिहासकार कहते हैं कि आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईस्वी में हुआ और उनकी मृत्यु 820 ईस्वी में। मतलब वह 32 वर्ष रहे । परंतु सत्य कुछ और है और वामपंथी इतिहासकारों ने भ्रम फैला दिया है ।
इस समय 2020 ईसाई वर्ष चल रहा है। विक्रम संवत इससे 58 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था। वर्तमान में विक्रम संवत 2077 चल रहा है। इस समय कलि संवत 5121 चल रहा है। युधिष्ठिर संवत कलि संवत से 39 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था। मतलब इस समय युधिष्ठिर संवत 5159 चल रहा है।
आदि शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की थी। उत्तर दिशा में उन्होंने बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ की स्थापना की थी। यह स्थापना उन्होंने 2641 से 2645 युधिष्ठिर संवत के बीच की थी। इसके पश्चात पश्चिम दिशा में द्वारिका में शारदामठ की स्थापना की थी। इसकी स्थापना 2648 युधिष्ठिर संवत में की थी। इसके बाद उन्होंने दक्षिण में श्रंगेरी मठ की स्थापना भी 2648 युधिष्ठिर संवत में की थी। इसके बाद उन्होंने पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में 2655 युधिष्ठिर संवत में गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। आप इन मठों में जाएंगे तो वहां इनकी स्थापना के बारे में लिखा जान लेंगे।
मठों में आदि शंकराचार्य से अब तक के जितने भी गुरु और उनके शिष्य हुए हैं उनकी गुरु-शिष्य परंपरा का इतिहास संवरक्षित है। जो भी गुरु या गुरु का शिष्य समाधि लेता था उनकी तिथि वहां के इतिहास में उल्लेख होता था। फिर जो गुरु शंकराचार्य की पदवी ग्रहण करता और समाधि लेता था उसकी भी तिथि आदि का उल्लेख होता रहा है। उक्त तिथियों को श्लोकों में लिखे जाने की परंपरा रही है। जिसे गुरु-शिष्य की परंपरा के अनुसार कंठस्थ किए जाने का प्रचलन रहा है। शंकराचार्य ने पश्चिम दिशा में 2648 में जो शारदामठ बनाया गया था उसके इतिहास की पुस्तकों में एक श्लोक लिखा है।
युधिष्ठिरशके 2631 वैशाखशुक्लापंचमी श्री मच्छशंकरावतार:। (तदुन 2663)
कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां....श्रीमच्छंशंकराभगवत्।
पूज्यपाद....निजदेहेनैव......निजधाम प्रविशन्निति।
अर्थात 2631 युधिष्ठिर संवत में आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था। आज 5159 युधिष्ठिर संवत चल रहा है। अब यदि 2631 को 5159 से घटाकर उनकी जन्म तिथि निकालते हैं तो 2528 वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ था। इसको यदि हम अंग्रेजी या ईसाई संवत से निकालते हैं तो 2528 में से हम 2020 घटा दे तो आदि शंकराचार्य का जन्म 509 ईसा पूर्व हुआ था। इसी तरह मृत्यु का सन् निकालें तो 475 ईसा पूर्व उनकी मृत्यु हुई थी।
आदि शंकराचार्य के समय जैन राजा सुधनवा थे। उनके शासन काल में उन्होंने वैदिक धर्म का प्रचार किया। उन्होंने उस काल में जैन आचार्यों को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। राजा सुधनवा ने बाद में वैदिक धर्म अपना लिया था। राजा सुधनवा का ताम्रपत्र आज उपलब्ध है। यह ताम्रपत्र आदि शंकराचार्य की मृत्यु के एक महीने पहले लिख गया था। शंकराचार्य के सहपाठी चित्तसुखाचार्या थे। उन्होंने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम है बृहतशंकर विजय। हालांकि वह पुस्तक आज उसके मूल रूप में उपलब्ध नहीं हैं लेकिन उसके दो श्लोक है। उस श्लोक में आदि शंकराचार्य के जन्म का उल्लेख मिलता है जिसमें उन्होंने 2631 युधिष्ठिर संवत में आदि शंकराचार्य के जन्म की बात कही है। गुरुरत्न मालिका में उनके देह त्याग का उल्लेख मिलता है।
भ्रम क्यों उत्पन्न हुआ- प्रत्युत, 788 ईस्वी में एक अभिनव शंकर हुए जिनकी वेशभूषा और उनका जीवन भी लगभग शंकराचार्य की तरह ही था। वे भी मठ के ही आचार्य थे। उन्होंने चिदंबरमवासी श्रीविश्वजी के घर जन्म लिया था। उनको इतिहाकारों ने आदि शंकराचार्य समझ लिया। ये अभिनव शंकराचार्यजी कैलाश में एक गुफा में चले गए थे। ये शंकराचार्य 45 वर्ष तक जीए थे। लेकिन आदि शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण शिवगुरु एवं आर्याम्बा के यहां हुआ था और वे 32 वर्ष तक ही जीवित रहे थे।
शंकराचार्य ने ही दसनामी सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यह दस संप्रदाय निम्न हैं:- 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
इस कलियुग में सनातन धर्म की रक्षार्थ हेतु शिव ने आदि शंकराचार्य के रूप में अवतार लिया और अद्वैत सिद्धांत की स्थापना की और पाखंड का विरोध किया ।
( अगले लेख में शंकर दिग्विजय पथ अवस्य पढ़ें )
सनातन धाम / 3 अप्रैल 2020
2- शंकर दिग्विजय पथ - भाग - १
भारतवर्ष में भी वेदों से पूर्व भी विभिन्न प्रकार के मत थे और इन मतों को एकरूप देने का कार्य वेदों द्वारा किया गया । वेदों को वैश्विक जगत में प्राचीन ग्रंथ माना जाता है । वेदों का वैश्विक प्रचार न होने के कारण ये भारत के धर्म का मुख्य आधार बनकर रह गए । वेदों द्वारा सृष्टि की रचना एवं उसकी क्रिया प्रणाली का वैज्ञानिक विवेचन किया गया है, कर्म एवं उपासना द्वारा ईश्वर प्राप्ति के मार्गों का पूर्ण वर्णन हैं ।
कलियुग के प्रारंभ होने के पश्चात कई ऋषि मुनियों ने वेदों की व्याख्या अपनी अपनी बौद्धिक ज्ञान के कारण की और विभिन्न विभिन्न व्याख्या के कारण सनातन धर्म में एकरूपता में बाधा उत्पन्न हुई और राष्ट्र विभिन्न मतों एवं विवादो में पड़कर एक दूसरे दूर होने लगा । सभी अपने अपने मतों की ही सत्यता को सिद्ध करने लगे और भारतवर्ष के जनमानस भ्रमित होने लगा और परस्पर द्वेष करने लगे । कपिल का सांख्य दर्शन, गौतम का न्याय दर्शन, कणाद का वैशेषिक दर्शन, जैमिनी का मीमांसा दर्शन तथा पतंजलि का योग दर्शन अपने अपने भिन्न मत प्रकट करते रहे । अन्य आचार्य भी अपने अपने मत प्रकट करते रहे जिनमे अभिनव गुप्त, आन्नद गिरी, कुमारिल भट्ट, मण्डन मिश्र चार्वाक आदि थे । इसके विपरीत कापालिक, वाममार्गी, तांत्रिक, जैन और बौद्ध आदि भी अपना प्रभाव बढ़ा रहे थे । जैन और बौद्ध वेद विरुद्ध प्रचार कर अपने अपने मतों को श्रेष्ठ बताकर वेदों से लोगों का ध्यान हटाकर अपने मत में दीक्षित कर रहे थे, ऐसी स्थिति में भारत की धार्मिक एकता खंडित हो रही थी और तब पुनः एकत्व की आवश्यकता थी । इस एकत्व का सूत्र तो मात्र वेदान्त दर्शन में ही है । वेदान्त दर्शन भारत ही नही अपितु समस्त विश्व मे एकता स्थापित करने का दर्शन है । द्वैतवाद ही सभी दुखों का कारण है और उसका निराकरण वेदान्त दर्शन द्वारा दिया गया अद्वैत दर्शन है । अद्वैत दर्शन सम्पूर्ण सृष्टि की अखंडता को स्वीकार करता है, अद्वैत दर्शन मनुष्य मनुष्य में भेद नही करता अपितु एक ही आत्मा के विभिन्न रूप मानता है । यह दर्शन जीव जंतु, पशु पक्षी, कीट, वनस्पति आदि को भी ईश्वर का रूप मानता है । सृष्टी का मूलतत्त्व एक ही ब्रह्म है तथा सृष्टि उसकी कृति नही अपितु उसी ब्रह्म की अभिव्यक्ति है जो उससे भिन्न नही परन्तु उसी का विभिन्न रूपमात्र है । यह दर्शन जीव और ब्रह्म के एकत्व को स्वीकार करता है ।
संसार मे विभिन्न प्रकार के मत, मजहब या रिलीजन अब आ चुके हैं लेकिन उनका कोई आधार नही है और न ही कोई दर्शन है । किसी भी भवन के निर्माण में नींव रखी जाती है और बिना नींव का भवन कुछ समय पश्चात गिर जाता है और ऐसे मत जिनका कोई ठोस आधार नही है और न ही कोई प्रामाणिक दर्शन है वे भी एक दिन गिर जाएंगे । सनातन धर्म ही स्थायी रहेगा क्योंकि उसकी नींव अद्वैत दर्शन या वेदांत दर्शन है ।
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा धर्म की पुनर्स्थापना की गई और उन्होंने विधर्मियों को शस्त्र द्वारा नही अपितु शाश्त्र द्वारा पराजित कर विधर्मियों को सनातन धर्म में दीक्षित कर अद्वैत दर्शन को स्वीकार करवाया । आदि शंकराचार्य का यह अभियान अहिंसात्मक था, उन्होंने ज्ञान, प्रतिभा, तर्कशक्ति, शास्त्र प्रमाण, उदाहरण, दृष्टान्त आदि से पाखंडी मतों का खंडन कर भारत मे धार्मिक एकता की स्थापना की । शिव अवतारी आदि गुरुजी ने सम्पूर्ण भारत की चार बार पैदल यात्राएं करके विरोधी मतों को परास्त किया और हम आज इनके ऋणी है और हम सनातन धर्म को मानने वाले भारतीय गर्व करते हैं और हम इसी के कारण इन्हें जगद्गुरु कहते हैं ।
( शेष अगले अंकों में )
डॉ संतोष राय
सनातन धाम / 5 अप्रैल 2020
3- शंकराचार्य दिग्विजय पथ - भाग २
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने धर्म की पुनर्स्थापना की और उन्होंने कई भाष्य लिखे लेकिन उनके द्वारा लिखे ग्रंथों और भाष्यों का आधार वेद और उपनिषद ही थे । उनके द्वारा लिखे हुए प्रमुख ग्रंथ हैं :
१. विवेक चूड़ामणि
२. तत्व बोध
३. आत्म बोध
४. अपरोक्षानुभूति
५. सर्ववेदांत सिद्धान्त सार संग्रह
६. ब्रह्मसूत्र(शांकरभाष्य)
७. श्रीमद्भागवत गीता(शांकरभाष्य)
८. सौंदर्य लहरी
९. अन्य कई ग्रंथ आदि
आदि गुरु से पूर्व भारत में वैदिक धर्म के अनुयायियों मैं विकृति आ चुकी थी और इसका कारण यह कि जब धर्म का ज्ञान समझ से बाहर हो जाता है तो निम्न स्तर के मत, मजहब और रिलिजन उत्पन्न होने लगते हैं और लोग इस अधार्मिक मत को जी धर्म बनाकर प्रचार करते हैं । उस समय वेद विरुद्ध मत उत्पन्न हो चुके थे और वाममार्ग का प्रचलन बहुत हो चुका था, ये वाममत वाले लोग नरबलि, जीव-पशु बलि की प्रथा को बढ़ा चुके थे । इस वाममत में पंचमकार खूब प्रचलित हुआ ( पंचमकार में पांच प्रकार के "म" से प्रारम्भ होने वाले सिद्धान्त है : मांस, मीन, मद्य, मुद्रा एवं मैथुन ) । इस मत से समाज का पतन हो चुका था और भारतवर्ष में दुराचार, भ्रष्टाचार, अनाचार, व्याभिचार अपनी जड़ें जमा चुका था और उस समय के राजा-महाराजा भी इनके अधीन हो चुके थे ।
इसी परिस्थिति में छठी शताब्दी(ईसा पूर्व) में कपिलवस्तु में राजा शुद्धोदन के यहां भगवान बुद्ध ने पुत्र के रुप मे जन्म लिया और इनकी माता का नाम मायादेवी था । जन्म लेते ही इनकी माता का देहान्त हो गया और इनका पालन-पोषण गौतमी देवी ने किया जिसके कारण इनका नाम गौतम रख दिया तथा पिता ने इनका नाम सिद्धार्थ रखा । सिद्धार्थ बहुत मेघावी, चिंतनशील और परदुःखकातर स्वभाव के थे । इनका विवाह यशोधरा से हुआ और इनसे पुत्र ने जन्म लिया जिनका नाम राहुल था और एक दिवस सिद्धार्थ २९ वर्ष की आयु में अपनी पत्नी यशोधरा एवं पुत्र राहुल को छोड़कर अपने गृह का त्याग कर दिया और मुक्ति के मार्ग की ओर चल दिये । सिद्धार्थ ने कठिन तप किया और उन्हें बुद्धितत्व का बोध हुआ और उस क्षणिक बुद्धितत्व को ही आत्मा मानकर संतुष्ट हो गये और वे गौतम बुद्ध कहलाये जाने लगे । इसके पश्चात धर्म के नाम पर हो रही हिंसा और अत्याचारों के विरुद्ध वे अहिंसा व करुणा का संदेश देने लगे । राजा एवं प्रजा इनकी अनुयायी होने लगी और बुद्ध के नाम पर अनेक मठ-मंदिर स्थापित होने लगे और सर्वत्र बौद्ध धर्म का प्रचार होने लगा ।
भगवान बौद्ध ने अहिंसा और करुणा का उपदेश देकर महान कार्य किया परन्तु उनका कार्य वैदिक धर्म में आई विकृति को दूर कर अहिंसात्मक समाज की रचना करना था किंतु वे वेदों की अप्रामाणिकता तथा अविश्वास प्रकट कर यज्ञ का विरोध करने लगे । महात्मा बुद्ध ने वेदान्त धर्म का बहिष्कार कर सभी को बौद्ध धर्म में दिक्षित कर भिक्षु बनाना प्रारंभ किया । गौतम बुद्ध ने ८० वर्ष की आयु में कुशीनगर में अपनी बोधलीला समाप्त की जिसे बौद्ध अनुयायी महानिर्वाण कहते हैं ।
महात्मा बुद्ध के महानिर्वाण के पश्चात भारत में बौद्ध धर्म का प्रचार उनके शिष्यों ने किया । गुप्त और वर्धन काल को तत्वज्ञान का संघर्ष युग कहा जाता है जिसमे वैदिक, बौद्ध एवं जैन तत्त्व ज्ञानियों में संघर्ष था । इसी काल में बुद्ध अनुयायी भी वाममार्गियों की भांति पापाचार में डूब गए थे और वे वाममार्गियों का नाम लेकर वैदिक धर्म पर प्रहार करने लगे । ये लोग हिंसा भी करने लगे थे । इन लोगों ने वेदों, पुराणों, दर्शनों और अन्य शास्त्रों को मानने से ही इनकार कर दिया था । इसी काल में गुप्त नरेशों ने फिर से वैदिक धर्म को पुनर्जीवित किया । भारत पुनः वैदिक धर्म के अद्वैतमत से एकसूत्र में बंध गया था परन्तु इन विभिन्न मतों के कारण फिर खण्ड खण्ड होने लगा । एक ही धर्म की अवधारणा खंडित हो गई और अब ऐसे महापुरुष की आवश्यकता थी जो इन टूटी कड़ियों कल फिर से जोड़ सके ।
(अगले भाग में आदि जगद्गुरु का अवतरण)
डॉ संतोष राय
सनातन धाम / 7 अप्रैल 2020
4- शंकर दिग्विजय पथ - भाग ३
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है :
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे" ।।4.8।
सत्मार्गमें स्थित साधुओं का परित्राण अर्थात् ( उनकी ) रक्षा करनेके के लिये पापकर्म करनेवाले दुष्टोंका नाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी प्रकार स्थापना करनेके लिये मैं युगयुगमें अर्थात् प्रत्येक युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।
आदि शंकर ने श्रीमद्भागवत के भाष्य में कहा है :
परित्राणाय परिरक्षणाय साधूनां सन्मार्गस्थानाम् विनाशाय च दुष्कृतां पापकारिणाम् किञ्च धर्मसंस्थापनार्थाय धर्मस्य सम्यक् स्थापनं तदर्थं संभवामि युगे युगे प्रतियुगम् ।।
साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ ।।
भारत मे ऐसे 24 अवतारों से अधिक अवतारों का उल्लेख मिलता है और ईश्वर समय समय पर अवतरित होकर धर्म की पुनर्स्थापित करते हैं ।
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के अवतरण पर भी ऐसा ही है । भारत में धर्म की दुर्दशा देखकर माँ भगवती, ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं ने कैलाश शिखर पर भगवान शिव की स्तुति की तब भगवान शिव प्रकट हुए और सभी ने शिवदर्शन कर उन्हें प्रणाम किया और भारतवर्ष में घटित घटनाओं से अवगत कराया, तभी भगवान शिव बोले में सभी घटनाओं से भली भांति परिचित हूँ और कहा :
"में मनुष्य रूप में अवतरित हो धर्म की पुनर्स्थापना करूँगा, में वेदान्त दर्शन के आधार पर निर्णायक भाष्य की रचना कर अज्ञान को दूर करूँगा और इस कार्य हेतु में पृथ्वी पर शंकर के नाम से प्रकट हूँगा । साथ ही साथ आप सभी लोग भी मेरे साथ मनुष्य शरीर को धारण करें ।
भगवान शिव ने कार्तिकेय से कहा हे वत्स कर्म, उपासना और ज्ञान भेद से वेदों के तीन भाग हैं और उसके उद्धार होने पर ही द्विजों का उद्धार है, हे कार्तिकेय अतः आप पृथ्वी पर "कुमारिल भट्ट" के रूप में अवतरित होकर वेद के कर्मकाण्ड के विरोधियों का आप उद्धार करें । इसी प्रकार भगवान शिव ने देवराज इंद्र को "राजा सुधन्वा" के रूप में, भगवान ब्रह्मा को "मण्डन मिश्र" के रूप में अवतार लेने को कहकर भगवान शिव शंकर अन्तर्ध्यान हो गए ।
इसी प्रकार देव कार्तिकेय "कुमारिल भट्ट" के रूप में, देवराज इंद्र "राजा सुधन्वा" के रूप में, भगवान ब्रह्मा "मण्डन मिश्र" के रूप में और तदनुसार भगवान शिव स्वयं "शंकराचार्य" के रूप में अवतरित होकर धर्म की पुनर्स्थापना की (यह वृतान्त माधवीय शंकर दिग्विजय में दिया गया है)।
(शेष अगले अंकों में)
डॉ संतोष राय
सनातन धाम / 9 अप्रैल 2020
5- शंकर दिग्विजय पथ - भाग ४
भगवान आदि शंकराचार्य जी का अवतरण :
2631 युधिष्ठिर संवत वैशाख माह की पंचमी तिथि को भगवानआदि शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहां हुआ था और वे 32 वर्ष तक ही इस पृथ्वी पर रहे ।
इस समय 5158 युधिष्ठिर संवत चल रहा है। अब यदि 2631 को 5158 से घटाकर उनकी जन्म तिथि निकालते हैं तो 2527 वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ था। इसको यदि हम अंग्रेजी या ईसाई संवत से निकालते हैं तो 2527 में से हम 2020 घटा दे तो आदि शंकराचार्य का जन्म 507 ईसा पूर्व हुआ था। इसी तरह आदि शंकराचार्य का महानिर्वाण का सन् निकालें तो 475 ईसा पूर्व उनका महानिर्वाण हुआ था ।
आदि गुरु शंकराचार्य का जन्म पर इतिहासकारों ने इस संबंध में भ्रम फैला रखा है । इतिहासकार मानते हैं कि उनका जन्म 788 ईसवी सदी के उत्तरार्ध में हुआ था। आओ जानते हैं कि अन्ततः सत्य क्या है ?
आदि शंकराचार्य का जन्म- महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि आदि शंकराचार्यजी का काल लगभग 2200 वर्ष पूर्व का है। दयानंद सरस्वती जी 138 साल पहले हुए थे। आज के इतिहासकार कहते हैं कि आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईस्वी में हुआ और उनकी मृत्यु 820 ईस्वी में। मतलब वह 32 वर्ष रहे । परंतु सत्य कुछ और है और वामपंथी इतिहासकारों ने भ्रम फैला दिया है ।
इस समय 2020 ईसाई वर्ष चल रहा है। विक्रम संवत इससे 57 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था। वर्तमान में विक्रम संवत 2077 चल रहा है। इस समय कलि संवत 5121 चल रहा है। युधिष्ठिर संवत कलि संवत से 37 वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ था, अर्थात इस समय युधिष्ठिर संवत 5158 चल रहा है।
आदि शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना की थी। उत्तर दिशा में उन्होंने बद्रिकाश्रम में ज्योर्तिमठ की स्थापना की थी। यह स्थापना उन्होंने 2641 से 2645 युधिष्ठिर संवत के बीच की थी। इसके पश्चात पश्चिम दिशा में द्वारिका में शारदामठ की स्थापना की थी। इसकी स्थापना 2648 युधिष्ठिर संवत में की थी। इसके बाद उन्होंने दक्षिण में श्रंगेरी मठ की स्थापना भी 2648 युधिष्ठिर संवत में की थी। इसके बाद उन्होंने पूर्व दिशा में जगन्नाथ पुरी में 2655 युधिष्ठिर संवत में गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। आप इन मठों में जाएंगे तो वहां इनकी स्थापना के बारे में लिखा जान लेंगे।
भ्रम क्यों उत्पन्न हुआ- प्रत्युत, 788 ईस्वी में एक अभिनव शंकर हुए जिनकी वेशभूषा और उनका जीवन भी लगभग शंकराचार्य की तरह ही था। वे भी मठ के ही आचार्य थे। उन्होंने चिदंबरमवासी श्रीविश्वजी के घर जन्म लिया था। उनको इतिहाकारों ने आदि शंकराचार्य समझ लिया। ये अभिनव शंकराचार्यजी कैलाश में एक गुफा में चले गए थे। ये शंकराचार्य 45 वर्ष तक जीए थे।
भगवान शिव के अवतरित होने की भविष्यवाणी स्कन्द पुराण, वायु पुराण, भविष्य पुराण, सौर पुराण आदि में मिलती है जिससे यह सिद्ध होता है की आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ही साक्षात शिव के अवतार थे । भगवान शिव ने माँ भगवती से कहा हे देवी :-
कलियुग में मेरे अंश से उत्पन्न शंकर नामक द्विजोत्तम केरल देश मे कालड़ी ग्राम में अवतरित होगा और वह परिव्राजक हो वेद निंदक कुमतमार्गी मिश्रों को शास्त्रार्थ में जीतेगा । उसके हाथ में दण्ड व कमण्डल होगा, काषाय वस्त्र को धारण करने वाला, मल-दोषरहित, अत्यंत निर्मल होगा । मष्तिक पर दिव्य भस्म का त्रिपुण्ड होगा और कण्ठ में सुंदर रुद्राक्ष को धारण करने वाला होगा । अतः आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ही साक्षात शिव अवतारी थे ।
( शेष अगले अंको में )
डॉ संतोष राय
6- सनातन धाम /11 अप्रैल 2020 ·
शंकर दिग्विजय पथ - भाग ५
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य शिव के अवतार थे और अपनी आयु के प्रथम वर्ष में ही सभी अक्षरों को सीख लिया था और मातृ भाषा मलयालम को सीख लिया । आदि गुरु ने द्वितीय वर्ष की आयु में अक्षरों का ज्ञान ले लिया और तृतीय वर्ष की आयु में काव्य और पुराणों को श्रवणमात्र से समझ लिया । इनका तृतीय वर्ष में ही चूड़ामणि संस्कार हो गया । अध्ययन काल मे ही इन्होंने समस्त वेदों को भी पड़ डाला और तर्कशास्त्र में निपुणता प्राप्त कर ली । इनके पिता इनका उपनयन संस्कार करना चाहते थे किंतु बालक की तृतीय वर्ष की आयु में ही पिता का स्वर्गवास हो गया । पंचम वर्ष की आयु में इनकी माता आर्यम्बा ने ही आदि गुरु का उपनयन संस्कार करवाया । आदि गुर शंकर जी ने आचार्य के पास रहकर चारों वेदों का अंगों सहित अध्ययन कर लिया ।
एक बार शंकर भिक्षाटन करते हुए किसी धनहीन ब्राह्मण के घर पँहुचे और ब्राह्मण पत्नी ने उनका आदर किया किन्तु घर में कुछ भी नही था और घर में मात्र एक आँवला था तो उसे ही भिक्षा में दे दिया । आदि शंकर ने इस परिवार की दरिद्रता देखकर माँ लक्ष्मी की कनकधारा स्त्रोत्र से स्तुति कर प्रार्थना की जिससे उसका घर स्वर्ण के आँवलों से भर गया । ऐसा चमत्कार देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए और आदि जगद्गुरु शंकराचार्य का यश चहुँ ओर फैल गया ।
आदि शंकर को जिन लोगों का सहयोग प्राप्त हुआ उनके नाम हैं : - कुमारिलभट्ट, राजा सुधन्वा, पद्मपाद, हस्तामलक, तोटक, उदकं, सुरेश्वर, आनंदगिरि, चिन्मुख, मण्डन मिश्र और उभयभारती । इस प्रकार शंकराचार्य के कार्यों में इन सभी का सहयोग प्राप्त हुआ और वेद विरोधी मतों का खण्डन कर वेदान्त के अद्वैतमत को पुनः स्थापित किया ।
( शेष अगले अंकों में )
डॉ संतोष राय
7- सनातन धाम/14 अप्रैल 2020 ·
ब्रह्म मतं शाश्वत धर्मं सनातनम् ।
अब्रह्म मतं अधर्मं विनाशकारणम् ।।
"ब्रह्म मत में शास्वत धर्म तो सनातन धर्म है और जो अब्रह्मिक मत है वह अधर्म है और विनाश का कारण है"
"जीव या आत्मा को परमात्मा का अंश के सिद्धांत को मानने वाला मत है जो की शास्वत है और सनातन है और वही धर्म है" ।
8- सनातन धाम/ 23 अप्रैल 2020 ·
शंकरदिग्विजय पथ - भाग ६
आदि जगद्गुरु शंकर ने सात वर्ष की आयु में ही समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर वे सर्वज्ञ हो गए थे। अध्ययन के उपरांत वो अपनी माता की भी सेवा करते। एक बार गुरु शंकर की माता पूर्णानदी में स्नान करने गई तो सूर्य की अधिक तपिश के कारण वहीं मुर्क्षित हो गई, और अपनी माता की यह दशा देख शंकर ने पूर्णानदी से ग्राम के पास बहने की प्रार्थना की और शंकर की प्रार्थना सुनकर दूसरे दिन नदी ग्राम के पास से बहने लगी। यह देख ग्रामवासी अचंभित हो गए और बालक शंकर का यश सुनकर केरल नरेश राजशेखर ने उनके दर्शन की अभिलाषा से अपने प्रधानमंत्री को उनके पास भेजा। प्रधानमंत्री ने वहाँ जाकर उन्हें हाथी, स्वर्ण आदि भेंट कर राजमहल में पधारने का आग्रह किया। आचार्य शंकर ने प्रधानमंत्री से कहा हे वत्स नित्यकर्म करते भिक्षा से अन्न प्राप्त करके जीवन भली भांति निर्वाह हो रहा है और अपने वर्णाश्रम के अनुशार अपने कर्म को छोड़कर हाथी और स्वर्ण से मेरा क्या प्रयोजन अतः ये सब वापस ले जाओ। प्रधानमंत्री ने यह घटना अपने राजा को अवगत करा दी और राजा स्वयं आदि जगद्गुरु के दर्शन हेतु आया और अनेकों बार प्रणाम किया और उन्हें दस सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएं अर्पित की जिसे आदि गुरु ने वापस कर दिया। राजा ने अपने पुत्र प्राप्ति की कामना की जिसे शंकर ने तथास्तु कहकर आशीर्वाद दिया और बाद में राजा के यहाँ पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई ।
एक बार बालक शंकर के दर्शन हेतु ऋषिगणों में उपमन्यु, दधीचि, गौतम, त्रिकल, अगस्त आदि प्रकट हुए और बालक शंकर ने उनको प्रणाम किया और विधिवत उन ऋषियों का पूजन कर आसन पर बिठाया। शंकर की माता ने ऋषियों से उस बालक के पूर्वजन्म का वृतांत जानने की इच्छा की तब ऋषि अगस्त बोले तुम्हारे पति ने शिव की आराधना की थी तथा पुत्र प्राप्ति की कामना की थी तब शिव ने प्रसन्न होकर पूछा कि तुम्हें सौ वर्ष आयु वाला अल्पज्ञानी पुत्र चाहिए या अल्पआयु वाला सर्वज्ञ पुत्र। तब आपके पति ने कहा की उन्हें सर्वज्ञ पुत्र चाहिए और स्वयं भगवान शिव ने तुम्हारे घर पुत्ररूप में जन्म लिया है, जब शंकर की माता ने उसकी आयु पूछी तो ऋषि अगस्त ने कहा शंकर की आयु 32 वर्ष होगी। यह सब सुनकर माता दुखी हो गई तो शंकर ने अपनी माता से कहा कितने ही पुत्रों का लालन पालन नही होता, कितनी रमणियों ने रमण नहीं किया, वे पुत्र कहाँ? वे रमणियाँ कहाँ? और हम कहाँ? यह संसार एक दूसरे का समागम यानी मिलने जुलने के समान है। इस भव-मार्ग के भ्रम से मनुष्यों को सुख प्राप्त नहीं होता। अतः में सन्यास ग्रहण कर भवबंधन से मुक्त होने का प्रयास करूँगा।
यह सब सुनकर माता बोली पुत्र तुम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर्म पुत्र उपन्न करो और यज्ञादि भी करो और इसके उपरांत सन्यास ग्रहण करना। इस प्रकार माता ने बालक शंकर को समझाया परंतु बालक शंकर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा टैब बालक शंकर 8 वर्ष के थे ।
(शेष अगले अंकों)
डॉ संतोष राय
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संघर्ष में शंकराचार्य प्रगट नहीं हुए
*हमारे चारों ही शंकराचार्य बहुत प्रबुद्ध है, त्यागी भी है़, और हिंदू धर्म के मूर्तिमान स्वरूप भी हैं , अध्यात्म का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान उनके पास है इसमे कोई शंका नही है ! ! लेकिन उनके हिंदू विरोधी कारनामों से कुछ प्रश्न मन में उठ रहे है।*
*भगवान श्रीराम जन्मभूमि का आंदोलन किसी शंकराचार्य ने नही चलाया ! आदोलन चलाया बीजेपी, और विश्व हिन्दू परिषद ने !*
*हिन्दूओं को श्रीराम जन्मभूमि के आंदोलन के लिए जागृत करने के लिए पूरे देश में शिलापूजन के लिए ईंट पूजन का कार्यक्रम किसी शंकराचार्य नही चलाया ! यह कार्य भी किया बीजेपी और विश्व हिन्दू परिषद ने !*
*हिन्दूओ को संगठित करने के पूरे देश में श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा किसी शंकराचार्य ने नही निकाला ! निकाला बीजेपी ने और साथ दिया विश्व हिन्दू परिषद ने और यात्रा की सुरक्षा किया बजरंग दल ने !*
*विवादित बाबरी मस्जिद का जब ढाचा तोड़ा गया तो आंदोलन का नेतृत्व किसी शंकराचार्य ने नही किया ! किया बीजेपी के नेताओं ने जिसके लिये अपने उपर मुकदमें, लाठियां और गोलियां झेले और कानूनी कार्यवाईयों का अनेकानेक वर्षो तक सामना किया !*
*मंदिर निर्माण के आंदोलन के लिए किसी शंकराचार्य नें अपना ना तो पद गवाया और ना ही पद से त्यागपत्र दिया ! लेकिन बीजेपी नें मंदिर निर्माण आंदोलन के चक्कर में और बाबरी ढांचा तोड़ने के परिणाम स्वरूप पांच पांच राज्यों की सरकार गवा दिया !*
*भगवान श्रीरामलला विराजमान कोर्ट केस का पक्षकार कभी कोई शंकराचार्य नही बना और ना ही कभी कोर्ट का चक्कर लगाया ! इसके लिए लड़ा विश्व हिन्दूपरिषद और बीजेपी ने !*
*श्रीराम लला विराजमान के मुकदमें में दस हजार से अधिक पेजों के सारे दस्तावेजों का उर्दू और फारसी से इंग्लिस में ट्रासंलेशन किसी शंकराचार्य ने नही करवाया ! करवाकर दिया बीजेपी के यूपी की योगी सरकार नें ताकि जल्दी से जल्दी जजमेन्ट हो सके !*
*श्रीराम लला विराजमान केस में जब साक्ष्य प्रस्तुत करने की बारी आयी तो कभी कोई शकराचार्य नही गया ! साक्ष्य देने पहुँचते थे बीजेपी के नेता, इतिहासकार और चित्रकूट धाम के प्रात: स्मरणीय महाविद्वान प्रज्ञा चक्षु जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य नें !*
*हाल ही की एक घटना मुझे याद आ रहा कि जब मोदी जी काशी कारीडोर बनवाने और काशी विश्वनाथ मंदिर के पुनरुद्वार तथा भव्य बनाने के लिए भूमि अधिग्रहण कर रहे थे तब आज के ज्योतिषपीठ के वर्तमान कांग्रेसी शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद और उनके गुरु तत्कालीन कांग्रेसी शंकराचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती उसके विरोध में आन्दोलन कर रहे थे ! यदि मोदी जी उनके दबाव में आ जाते तो आज जो भव्य मंदिर और कारीडोर बना है वो कभी नही बन पाता और पहले वाली ही संकरी और बदबूदार गलियां ही रहती !*
*अब जबकि बीजेपी और विश्व हिन्दूपरिषद नें ही सारा काम किया, आन्दोलन किया, लाठियां और गोलियां खाई, मुकदमें झेले, धन-समय और बल लगाया तो मंदिर निर्माण का श्रेय वो ले रहे हैं तो इसमें गलत क्या है ? और अब कुछ शंकराचार्य फूफा जी की तरह मूंह फुला रहे हैं कि हम प्राण प्रतिष्ठा में नही आयेंगे ! अरे भाई आपके निष्क्रियता के बावजूद भी यदि आपको निमंत्रण भेजा गया यही आपके लिए बड़े सम्मान की बात है, लेकिन आप फूफा जी के रोल में आकर अपनी रही-सही बची-खुची ईज्जत भी गवां रहे है ! भगवान श्री राम सभी लोगों को सत्बुद्धि प्रदान करें !!*
*राम राम*
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