स्वामी विवेकानंद सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पितामह - रामधारी सिंह 'दिनकर'



स्वामी विवेकानंद सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पितामह 
-रामधारी सिंह 'दिनकर'
उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिन्दू अपने धर्म के कुपरिणामों को समझने लगे थे। इसका एक यह भी कारण था कि धर्म पर से उनकी श्रद्धा हटने लगी थी। अतएव, जब स्वामी विवेकानंद का आविर्भाव हुआ, उन्हें अपने सामने कई प्रकार के उद्देश्य दिखाई पड़े। सब से बड़ा कार्य धर्म की पुन:स्थापना का कार्य था। बुद्धिवादी मनुष्यों की श्रद्धा धर्म पर से केवल भारत में ही नहीं, सभी देशों में हिलती जा रही थी। अतएव, यह आवश्यक था कि धर्म की ऐसी व्याख्या की जाए जो अभिनव मनुष्य को ग्राह्य हो, जो उसकी इहलौकिक विजय के मार्ग में बाधा नहीं डाले। दूसरा काम हिन्दू धर्म पर, कम से कम, हिन्दुओं की श्रद्धा जमाये रखना था। किंतु, हिन्दू यूरोप के प्रभाव में आ चुके थे तथा अपने धर्म और इतिहास पर भी वे तब तक विश्वास करने को तैयार न थे, जब तक कि यूरोप के लोग उनकी प्रशंसा नहीं करें। और तीसरा काम भारतवासियों में आत्म गौरव की भावना को प्रेरित करना था, उन्हें अपनी संस्कृति, इतिहास और आध्यात्मिक परंपराओं के योग्य उत्तराधिकारी बनाना था।

स्वामी विवेकानंद का देहांत केवल 39 वर्ष की आयु में हो गया, किंतु इस छोटी सी अवधि में ही उन्होंने उपर्युक्त तीनों कार्य सम्पन्न कर दिये। राममोहन राय के समय से भारतीय संस्कृति और समाज में जो आंदोलन चल रहे थे, वे विवेकानंद में आकर अपनी चरम सीमा पर पहुंचे। अभिनव भारत को जो कुछ कहना था, वह विवेकानंद के मुख से उद्गीर्ण हुआ। अभिनव भारत को जिस दिशा की ओर जाना था, उसका स्पष्ट संकेत विवेकानंद ने दिया। विवेकानंद वह सेतु हैं, जिस पर प्राचीन और नवीन भारत परस्पर आलिंगन करते हैं। विवेकानंद वह समुद्र हैं, जिसमें धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता तथा उपनिषद् और विज्ञान, सबके सब समाहित होते हैं। रवीन्द्रनाथ ने कहा है, 'यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकानंद को पढ़ना चाहिए।' अरविंद का वचन है कि 'पश्चिमी जगत में विवेकानंद को जो सफलता मिली, वही इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल मृत्यु से बचने को नहीं जगा है, वरन वह विश्व विजय करके दम लेगा।'

ये सारी प्रशंसाएं सही हैं। इनमें कोई भी अत्युक्ति नहीं है। स्वामी जी धर्म और संस्कृति के नेता थे। राजनीति से उनका कोई सरोकार नहीं था। किंतु राजनीति तो स्वयं संस्कृति की चेरी है, उसका लघु अंग मात्र है। स्वामी जी ने अपनी वाणी और कर्तृत्व से भारतवासियों में यह अभिमान जगाया कि हम अत्यंत प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथ संसार में सबसे उन्नत और हमारा इतिहास सबसे महान है, हमारी संस्कृत भाषा विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है और हमारा साहित्य सबसे उन्नत साहित्य है। यही नहीं प्रत्युत हमारा धर्म ऐसा है जो विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरता है और जो विश्व के सभी मत-पंथों का सार होता हुआ भी उन सबसे अधिक है। स्वामी जी की वाणी से हिन्दुओं में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि उन्हें किसी के भी सामने मस्तक झुकाने अथवा लज्जित होने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता पहले उत्पन्न हुई, राजनीतिक राष्ट्रीयता बाद को जन्मी है और इस सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के पिता स्वामी विवेकानंद थे।

शिकागो-सम्मेलन

सन् 1893 ई. में शिकागो, अमरीका में निखिल विश्व के मत-पंथों का एक महासम्मेलन हुआ था। स्वामी विवेकानंद के हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि वे इस सम्मेलन में अवश्य जाएंगे और अनेक प्रचंड बाधाओं के होते हुए भी वे इस सम्मेलन में सम्मिलित हुए। हिन्दुत्व एवं भारतवर्ष के लिए यह अच्छा हुआ कि स्वामी जी इस सम्मेलन में जा सके। क्योंकि इस सम्मेलन में हिन्दुत्व के पक्ष में ऐसा ऊंचा प्रचार हुआ, जैसा न तो कभी पहले हुआ था, न उसके बाद से लेकर आज तक हो पाया है।

स्वामी जी के विदेश गमन के कई उद्देश्य थे। एक तो वे भारतवासियों के इस अंधविश्वास को तोड़ना चाहते थे कि समुद्र यात्रा पाप है तथा विदेशियों के हाथ का अन्न और जल ग्रहण करने से जाति चली जाती है। दूसरे भारत के अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को वे यह भी दिखलाना चाहते थे कि भारतवासी अपना आदर आप भले ही न करें, किंतु उनके सांस्कृतिक गुरु पश्चिम के लोग भारत से प्रभावित हो सकते हैं। उनका यह अटल विश्वास था कि भारत के आध्यात्मिक विचारों और आदर्शों का प्रचार यदि पश्चिम के उन्नत देशों में किया जाए तो इससे वहां के लोग अवश्य प्रभावित होंगे तथा पृथ्वी पर एक नयी कल्पना, एक नये जीवन का सूत्रपात होगा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने साधनापूर्वक यह जान लिया था कि विश्व के सभी मत-पंथ एक ही धर्म के विभिन्न अंग हैं एवं संपूर्ण विश्व में एक प्रकार की धार्मिक एकता का भाव जगना ही चाहिए। अजब नहीं कि स्वामी जी इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए भी शिकागो के धार्मिक सम्मेलन में जाने को आतुर हो उठे हों।

शिकागो सम्मेलन में स्वामी जी ने जिस ज्ञान, जिस उदारता, जिस विवेक और जिस वाग्मिता का परिचय दिया, उससे वहां के सभी लोग मंत्रमुग्ध और, पहले ही दिन से, उनके भक्त हो गये। प्रथम दिन तो स्वामी जी को सबसे अंत में बोलने का अवसर इसलिए दिया गया था कि उनका कोई समर्थक नहीं था, उन्हें कोई जानता या पहचानता नहीं था। किंतु, उसके बाद सम्मेलन में जो उनके दस-बारह भाषण हुए, वे भाषण भी उन्होंने प्रतिदिन सभा के अंत में ही दिये, क्योंकि सारी जनता उन्हीं का भाषण सुनने को अंत तक बैठी रहती थी। उनके भाषणों पर टिप्पणी करते हुए 'द न्यूयार्क हेराल्ड' ने लिखा था कि ʅमत-पंथों की पार्लियामेंट में सबसे महान व्यक्ति विवेकानंद हैं। उनका भाषण सुन लेने पर, अनायास, यह प्रश्न उठ खड़ा होता है कि ऐसे ज्ञानी देश को सुधारने के लिए मत प्रचारक भेजने की बात कितनी बेवकूफी की बात है।'

शिकागो सम्मेलन से उत्साहित होकर स्वामी जी अमरीका और इंग्लैंड में तीन साल तक रह गये और इस अवधि में भाषणों, वार्तालापों, लेखों, कविताओं, विवादों और वक्तव्यों के द्वारा उन्होंने हिन्दू धर्म के सार को सारे यूरोप में फैला दिया है। प्राय: डेढ़ सौ वर्ष से ईसाई मत प्रचारक संसार में हिन्दुत्व की जो निंदा फैला रहे थे, उस पर अकेले स्वामी जी के कर्तृत्व ने रोक लगा दी और जब भारतवासियों ने यह सुना कि सारा पश्चिम जगत स्वामी जी के मुख से हिन्दुत्व का आख्यान सुनकर गद्गद् हो रहा है, तब हिन्दू भी अपने धर्म और संस्कृति के गौरव का अनुभव कुछ तीव्रता से करने लगे।

अंग्रेजी पढ़कर बहके हुए हिन्दू बुद्धिजीवियों को समझाना बहुत कठिन कार्य था। किंतु जब उन्होंने देखा कि स्वयं यूरोप और अमरीका के नर-नारी स्वामी जी के शिष्य बनकर हिन्दुत्व की सेवा में लगते जा रहे हैं, तब उनके भीतर भी ग्लानि की भावना जगी और बकवास छोड़कर वे भी स्थिर होने लगे। इस प्रकार, हिन्दुत्व को लीलने के लिए अंग्रेजी भाषा, ईसाई मत और यूरोपीय बुद्धिवाद के रूप में जो तूफान उठा था, वह स्वामी विवेकानंद के हिमालय जैसे विशाल वक्ष से टकराकर लौट गया।

यूरोप और अमरीका को निवृत्ति की शिक्षा

स्वामी जी की व्यावहारिकता यह थी कि यूरोप तथा अमरीका को उन्होंने संयम और त्याग का महत्व समझाया, किंतु भारतवासियों का ध्यान उन्होंने भारतीय समाज की आर्थिक दुरावस्था की ओर आकृष्ट किया एवं धर्म को उनके सामने ऐसा बनाकर रखा, जिससे मनुष्य की अधिभौतिक उन्नति में कोई बाधा नहीं पड़े। यूरोपीय सभ्यता के जो दोष हैं, वे उनकी आंखों से ओझल नहीं रहे। बोस्टन में दिये गये अपने एक भाषण में स्वामी जी ने इन दोषों का ऐसा पर्दाफाश किया कि वहां की जनता उनसे रुष्ट हो गयी। फिर भी, स्वामी जी ने अमरीकी और यूरोपीय लोगों को उनकी सभ्यता का दोष दिखाना बंद नहीं किया। यूरोप और अमरीका में जो जातीय अहंकार है, स्वार्थ साधन और विलासिता के लिए जो पारस्परिक होड़ है, धर्म और संस्कृति के मामले में वहां जो भयानक असहिष्णुता है, गरीबों के आर्थिक शोषण का जो विकराल भाव तथा राजनीतिक चालबाजियां और हिंसा के जो उद्वेग हैं, उन्हें स्वामी जी यूरोपीय सभ्यता के पाप कहते थे और पश्चिमी देशों के श्रोताओं के सामने वे इनका खुलकर उल्लेख करते थे। व्यक्ति और समाज, दोनों की रक्षा और शांति के लिए स्वामी जी धर्म को आवश्यक मानते थे, अतएव यूरोप को धर्म से विमुख होते देखकर उन्हें चिंता हुई। उनका विचार था कि धर्महीन सभ्यता निरी पशुता का उज्ज्वल रूप है तथा उसका विनाश उसी प्रकार अवश्यंभावी है, जैसे अतीत के अनेक साम्राज्य विनष्ट हुए हैं। उन्होंने कई बार यह चेतावनी दी कि आध्यात्मिकता को अनादृत करके यूरोप उस ज्वालामुखी के मुख पर बैठ गया है जो किसी भी क्षण विस्फोट कर सकता है।

रूढ़ियों, आडम्बरों और बाह्याचारों से ऊपर उठकर स्वामी जी ने धर्म की विलक्षण व्याख्या प्रस्तुत की। 
- धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है।
- धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धान्तों में। वह केवल अनुभूति में निवास करता है।
- धर्म अन्ध-विश्वास नहीं है, धर्म अलौकिकता में नहीं है, वह जीवन का अत्यंत स्वाभाविक तत्व है।
- मनुष्य में पूर्णता की इच्छा है, अनंत जीवन की कामना है, ज्ञान और आनंद प्राप्त करने की चाह है। पूर्णता, ज्ञान और आनंद, ये निचले स्तर पर नहीं हैं, उनकी खोज जीवन के उच्च स्तर पर की जानी चाहिए। जहां ऊंचा स्तर आता है, वहीं धर्म का आरंभ होता है। 

जीवन का स्तर जहां हीन है, इंद्रियों का आनंद वहीं अत्यंत प्रखर होता है। खाने में जो उत्साह भेड़िये और कुत्ते दिखाते हैं, वह उत्साह भोजन के समय मनुष्य में नहीं दिखायी देता। कुत्तों और भेड़ियों का सारा आनंद उनकी इन्द्रियों में केन्द्रित होता है। इसी प्रकार, सभी देशों के निचले स्तर के मनुष्य इंद्रियों के आनंद में अत्यंत उत्साह दिखाते हैं। किंतु, जो सच्चे अर्थों में शिक्षित और सुसंस्कृत व्यक्ति हैं, उनके आनंद का आधार विचार और कला होती है, दर्शन और विज्ञान होता है। किंतु, आध्यात्मिकता तो और भी ऊंचे स्तर की चीज है, अतएव इस स्तर का आनंद भी अत्यंत सूक्ष्म और प्रचुर होता है। अतएव, मनुष्य को चाहिए कि पहले वह पवित्रता, भक्ति, विनयशीलता, सच्चाई, नि:स्वार्थता और प्रेम का विकास करे तथा बाद को अन्य गुणों का।

(साभार:संस्कृति के चार अध्याय)

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