आत्मा का विभिन्न शरीरों में भ्रमण
चौरासी_लाख_योनियों के चक्र का शास्त्रों में वर्णन-
३० लाख बार वृक्ष योनि में जन्म होता है ।
इस योनि में सर्वाधिक कष्ट होता है ।
धूप ताप,आँधी, वर्षा आदि में बहुत शाखा तक टूट जाती हैं ।
शीतकाल में पतझड में सारे पत्ता पत्ता तक झड़ जाता है।लोग कुल्हाड़ी से काटते हैं ।
उसके बाद जलचर प्राणियों के रूप में ९ लाख बार जन्म होता है ।
हाथ और पैरों से रहित देह और मस्तक। सड़ा गला मांस ही खाने को मिलता है ।
एक दूसरे का मास खाकर जीवन रक्षा करते हैं ।
उसके बाद कृमि योनि में १० लाख बार जन्म होता है ।
और फिर ११ लाख बार पक्षी योनि में जन्म होता है।
वृक्ष ही आश्रय स्थान होते हैं ।
जोंक, कीड़-मकोड़े, सड़ा गला जो कुछ भी मिल जाय, वही खाकर उदरपूर्ति करना।
स्वयं भूखे रह कर संतान को खिलाते हैं और जब संतान उडना सीख जाती है तब पीछे मुडकर भी नहीं देखती । काक और शकुनि का जन्म दीर्घायु होता है ।
उसके बाद २० लाख बार पशु योनि,वहाँ भी अनेक प्रकार के कष्ट मिलते हैं ।
अपने से बडे हिंसक और बलवान् पशु सदा ही पीडा पहुँचाते रहते हैं ।
भय के कारण पर्वत कन्दराओं में छुपकर रहना।
एक दूसरे को मारकर खा जाना । कोई केवल घास खाकर ही जीते हैं ।
किन्ही को हल खीचना, गाडी खीचना आदि कष्ट साध्य कार्य करने पडते हैं ।
रोग शोक आदि होने पर कुछ बता भी नहीं सकते।सदा मल मूत्रादि में ही रहना पडता है ।
गौ का शरीर समस्त पशु योनियों में श्रेष्ठ एवं अंतिम माना गया है ।
तत्पश्चात् ४ लाख बार मानव योनि में जन्म होता है ।
इनमे सर्वप्रथम घोर अज्ञान से आच्छादित ,पशुतुल्य आहार -विहार,वनवासी वनमानुष का जन्म मिलता है।
उसके बाद पहाडी जनजाति के रूप में नागा,कूकी,संथाल आदि में ।
उसके बाद वैदिक धर्मशून्य अधम कुल में ,पाप कर्म करना एवं मदिरा आदि निकृष्ट और निषिद्ध वस्तुओं का सेवन ही सर्वोपरि ।
उसके बाद शूद्र कुल में जन्म होता है ।
उसके बाद वैश्य कुल में ।
फिर क्षत्रिय और अंत में ब्राह्मणकुल में जन्म मिलता है ।
और सबसे अंत में ब्राह्मणकुल में जन्म मिलता है ।
यह जन्म एक ही बार मिलता है ।
जो ब्रह्मज्ञान सम्पन्न है वही ब्राह्मण है।
अपने उद्धार के लिए वह आत्मज्ञान से परिपूर्ण हो जाता है ।
यदि,,, इस दुर्लभ जन्म में भी ज्ञान नहीं प्राप्त कर लेता तो पुनः चौरासी लाख योनियों में घूमता रहता है।
भगवच्छरणागति के अलावा कोई और सरल उपाय नहीं है ।
यह मानव जीवन बहुत ही दुर्लभ है।
बहुत लम्बा सफर तय करके ही यहाँ तक पहुँचे हैं ।
अतः अपने मानव जीवन को सार्थक बनाइये, हरि जस गाइये।🙏🙏🙏
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भवसागर से पार होने के लिये मनुष्य शरीर रूपी सुन्दर नौका मिल गई है।
सतर्क रहो कहीं ऐसा न हो कि वासना की भँवर में पड़कर नौका डूब जाय।
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अपने अन्तःकरण में परोपकार की पवित्र भावना उत्पन्न करने के लिए गाय का दूध पीए, मक्खन, घृत , ऋतु फल खाये, सूखे मेवे, शहद, गन्ना एवं जेविक खाद से उत्पन्न अन्न ( सत्व गुण युक्त )खाये जिससे आपका मन देविक विचार उत्पन्न करे l आप भाग्यशाली है कि ये ज्ञान ( पवित्र गीता अध्याय १४ वर्णित " सृष्टि त्रिगुणात्मक == सत्व, रज, तामस ) केवल सनातन धर्म के पवित्र ग्रंथो में लिपिबद्ध है l दुनिया के और किसी धर्म के पास नहीं है l अतः अपने आप को गौरवांवित महसूस करें l
इस प्रकार आप नरक जाने से बच सकते हैं l
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स्वयं कमाओ, स्वयं खाओ यह प्रकृति है । (रजो गुण)
दूसरा कमाए, तुम छीन कर खाओ यह विकृती है।(तमो गुण )
स्वयं कमाओ सबको खिलाओ, यह देविक संस्कृति हैं ! (सतो गुण )
** देविक प्रवृतियों को धारण करे तभी आप देवलोक पाने के अधिकारी बनेंगे **
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*अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषया,*
*वियोगे को भे दस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून्।*
*व्रजन्त: स्वातंत्र्यादतुलपरितापाय मनस:*
*स्वयं त्यक्ता ह्ये शमसुखमनन्तं विदधति ।।*
*भावार्थ -* सांसारिक विषय एक दिन हमारा साथ छोड़ देंगे, यह एकदम सत्य है। उन्होंने हमको छोड़ा या हमने उन्हें छोड़ा, इसमें क्या भेद है ? दोनों एक बराबर हैं। अतएव सज्जन पुरुष स्वयं उनको त्याग देते हैं। स्वयं छोड़ने में ही सच्चा सुख है, बड़ी शान्ति प्राप्त होती है।
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हमेशा ध्यान में रखिये ---
" आप एक शुद्ध चेतना है यानि स्व ऊर्जा से प्रकाशित आत्मा ! माया (अज्ञान ) ने आपकी आत्मा के शुद्ध स्वरुप को छीन रखा है ! अतः माया ( अज्ञान ) से पीछा छुडाइये और शुद्ध चेतना को प्राप्त कर परमानन्द का सुख भोगिए !
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( मनुष्य पद की गरिमा को क्यों खोता है और उसके क्या परिणाम होते है ?
उत्तर -- मनुष्य पद की गरिमा को तामसिक प्रवृतियों ( वासना , लालच एवं अहंकार ) के आधीन होने के कारण खोता है ! पवित्र गीता के अनुसार ये प्रवृतिया नरक का द्वार है ! हमारे मत में ये प्रवृतिया हमारे जीवन में तामस के उदय का आरम्भ है और यही तामस मानवो के जीवन में अज्ञानता , जड़ता एवं मूढ़ता के उदय का कारण है जो हमें नरक लोक ले जाने में सक्षम है ! अतः भ्रष्टाचार से बचो यानि पद की गरिमा को मत खोओ ! कोई भी पद या सम्मान (गरिमा ) इस जन्म में (पूर्व में संचित ) पुण्य कर्मो की देन है !पुण्य कर्मो के ह्यास के साथ ही गरिमा भी समाप्त हो जाती है और मानव को फिर अनेक योनियों में भटकना पड़ता है )
नोट,,,,, यदि आपके मन में आसुरी/तामसिक विचारों का उत्पादन अधिक हो रहा है और आप अनुचित एवं अनेतिक कर्म में प्रवृत्त होते जा रहे हो तो इस सत्य को स्वीकार कीजिए की आप पापों के वेग को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हो ऎसे में आप सारे कार्य बंद कर के तीर्थयात्रा पर चले जाय l इसे से आप उस स्थान को कुछ समय के लिए छोड़ दोगे जहां पाप कर रहे हैं l 2. आप अपने देवता की श्रद्धा भक्ति में ध्यान लगा सकते हो l 3. आप को कुछ समय के लिए अपने जीवन के बारे में सोचने का समय मिलेगा l
धर्मशील व्यक्ति ,,,,,,,
जिमि सरिता सागर महँ जाहीं l
जद्यपि ताहि कामना नाहीं ll
तिमि सुख सम्पति बिनहिं बुलाये l
धर्मशील पहँ जाइ सुहाये ll
जैसे सरिता (नदी ) उबड-खाबड़, पथरीले स्थानों को पार करते हुए पूर्ण रूपेण निष्काम भाव से समुद्र में जा मिलती है, उसी प्रकार धर्म-रथ पर आसीन मनुष्य के पास उसके न चाहते हुए भी समस्त सुख-सम्पत्ति, रिद्धियाँ-सिद्धियाँ स्वत: आ जाती हैं, सत्य तो यह है कि वे उसकी दासिता ग्रहण करने के लिए लालायित रहती है !
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,,,,सच्चे संतो की वाणी से अमृत बरसता है , आवश्यकता है ,,,उसे आचरण में उतारने की ....
जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! अतः ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त " दिव्यदृष्टि " या दूरदृष्टि का अधिकारी नहीं बन सकता एवं अनेको दिव्य सिद्धियों एवं निधियों को प्राप्त नहीं कर पाता या खो देता है !
किसी भी गौशाला में दान देकर गौवंश को बचाये और देवताओं का आशीर्वाद एवं कृपा प्राप्त करे ! साथ ही अपने प्रारब्ध ( भाग्य ) में पुण्य संचित करे ! यह एक ऐसा पुण्य है जिससे इहलोक में देवताओ से सुख समृद्धि मिलती है एवं परलोक में स्वर्ग ! == 🙏👏🌹🌲🌿🌹
" जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !"
"सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।। "
"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर ,,,,,,,
शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करें 💐🙏🏻
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