संघ के सरसंघचालक परमपूज्य मोहन जी भागवत

जन्मदिन 


विश्व के सबसे बड़े संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक प.पु. माननीय मोहन मधुकर भागवत  जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं बधाइयां, परमपिता परमात्मा आपको शतायु बनावे एवं सदैव स्वस्थ रखें ऐसी शुभकामनाओं के साथ।

तीन पीढ़ी का नाता
मोहन मधुकरराव भागवत के परिवार का संघ से तीन पीढ़ी का नाता था. उनके दादा नारायण भागवत सतारा के रहने वाले थे. कानून की पढ़ाई करने के बाद नारायण वकालत करने के लिए सतारा छोड़कर चंद्रपुर आए थे. नागपुर की 'नील सिटी स्कूल' में नारायण और केशव बलिराम हेडगेवार सहपाठी हुआ करते थे. दोनों लोगों को स्कूल में 'वन्देमातरम' गाने की वजह से स्कूल बदर कर दिया गया था. चन्द्रपुर आने के बाद नारायण ने कांग्रेस ज्वॉइन कर ली. हेडगेवार भी संघ की स्थापना से पहले कांग्रेस के 'चौवनिया सदस्य' हुआ करते थे. 1925 में संघ की स्थापना के बाद नारायण भागवत ने सक्रिय तौर पर संघ का काम शुरू किया और उन्हें नया नाम मिला, "नाना साहेब भागवत."

मधुकरराव भागवत

नाना साहेब भागवत के बेटे मधुकर भागवत का बचपन शाखा में लाठी भांजते हुए बीता. जवान होते-होते वो संघ के प्रचारक बन चुके थे. प्रचारक मतलब संघ का पूर्णकालिक कार्यकर्ता. उन्हें 1940 में संघ के काम विस्तार देने के लिए गुजरात भेजा गया. गुजरात में कुछ साल प्रचारक के तौर पर काम करने के बाद मधुकर घर लौटे. उनकी शादी मालतीबाई से करवा दी गई. शादी के कुछ समय बाद मालती गर्भवती हुईं. रवायत के मुताबिक वो पहली जच्चगी के लिए अपने पीहर सांगली गई. 11 सितम्बर 1950 के दिन वो एक बेटे की मां बनी. इस लड़के का नाम रखा गया मोहन.

मोहन भागवत के पैदा होने के बाद उनके पिता मधुकर भागवत ने कानून की पढ़ाई शुरू की. पढ़ाई पूरी करने के बाद वो चन्द्रपुर लौटे और अपने पिता की तरह वकालत करने लगे. थोड़े समय बाद वो अपने पिता की जगह चंद्रपुर जिले के संघकार्यवाह बने. जिला कार्यवाह आरएसएस का जिला स्तर का सबसे बड़ा पदाधिकारी होता है.

मोहन भागवत

मोहन भागवत का बचपन भी अपने पिता की तरह शाखा में बीता. 12वीं तक चंद्रपुर में पढ़ाई की. इसके बाद भागवत ने अकोला के डॉ. पंजाबराव देशमुख वेटनरी कॉलेज में दाखिला ले लिया. संघ का काम यहां भी जारी रहा. कॉलेज में भागवत को संगीत और थियेटर का शौक लग गया. अंग्रेजी पत्रिका कारवां को दिए इंटरव्यू में मोहन भागवत के छोटे भाई रविंद्र भागवत बताते हैं कि जब मोहन अकोला से अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके घर लौटे तो अपने साथ एक बोरा भरकर इनाम लाए थे. ये इनाम उन्होंने गायन और थियेटर प्रतियोगिताओं में जीते थे. मोहन भागवत की जीती हुई ट्रॉफ़ियां और मेडल अब भी भागवत परिवार के पुश्तैनी मकान की सजावट में काम आ रहे हैं.

सरकारी नौकरी से संघ के प्रचारक तक 

पढ़ाई पूरी करने के बाद मोहन भागवत ने हर नौजवान की तरह अपना रुख नौकरी की तरफ किया. उन्होंने चंद्रपुर में ही एनिमल हसबेंडरी विभाग में बतौर वेटनरी ऑफिसर नौकरी शुरू कर दी. कुछ महीने भागवत चंद्रपुर में रहे. इसके बाद उनका ट्रांसफर चंद्रपुर से 90 किलोमीटर दूर चमोर्शी कर दिया गया.

1974 में भागवत अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए अकोला चले गए. #आपातकाल के कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और संघ के प्रचारक बन गए. #आपातकाल के दौरान भागवत के माता-पिता को जेल में डाल दिया गया. उनकी मां मालतीबाई उस समय चंद्रपुर में जनसंघ की महिला मोर्चा की अध्यक्ष हुआ करती थीं. भागवत के पास अंडरग्राउंड होने के अलावा कोई चारा नहीं था. आपातकाल के दौरान वो अज्ञातवास में रहे. आपातकाल हटने बाद उन्होंने संघ में तेजी सी तरक्की की.

डॉ. पंजाबराव देशमुख कृषि विद्यापीठ अकोला
1990 के बाद का दौर आजाद भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण है. न सिर्फ राम मंदिर आंदोलन की वजह से बल्कि यह कश्मीर घाटी में भयंकर हिंसा का दौर था. इसी समय संघ की शाखाओं में नया खेल शुरू हुआ. खेल का नाम था 'कश्मीर हमारा है'. इस खेल में कुछ स्वयंसेवक गोल घेरे के बीच खड़े होते. दूसरे स्वयंसेवक घेरे में खड़े स्वयंसेवकों को बाहर धकेलते और नारा लगता, 'कश्मीर हमारा है.' आरएसएस अपने स्वयंसेवकों में कश्मीर समस्या के प्रति खेल के जरिए जागरूकता ला रहा था. यह वही दौर था जब शाखाओं में नारे लगाए जाते, "कश्मीर हिन्दुस्तान का, नहीं किसी के बाप का." खेल के साथ राजनीतिक विचारधारा को नत्थी करने के पीछे जिस शख्स का दिमाग काम रहा था उसका नाम था, मोहन भागवत. भागवत उस समय 'अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख' हुआ करते थे. वो 1999 तक इस पद पर रहे. 2000 में एच. वी. शेषाद्री के हटने के बाद उन्हें सरकार्यवाह बनाया गया.

सरसंघचालक के तौर पर

2009 में जब मोहन भागवत ने सरसंघचालक का पद संभाला तो आम चुनाव में महज दो महीने बाकी थे. इस चुनाव में बीजेपी की हार हुई और आडवाणी पीएम इन वेटिंग बने रह गए. इसके बाद संघ ने पार्टी पर अपनी पकड़ फिर से मजबूत करनी शुरू की. चुनाव में हार के बाद अगस्त में बीजेपी के नए अध्यक्ष का ऐलान हुआ. अध्यक्ष ऐसे आदमी को बनाया गया जो राष्ट्रीय राजनीति में उस समय तक बहुत प्रासंगिकता नहीं रखता था. नितिन गडकरी नागपुर के रहने वाले थे. ब्राह्मण परिवार से आने वाले गडकरी का बचपन भी संघ की शाखा में बीता था. इससे पहले वो महाराष्ट्र में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे थे. दौड़ में दूसरा नाम मनोहर पर्रिकर का था. पर्रिकर भी गडकरी की तरह संघ की शाखा से निकले स्वयंसेवक थे. अध्यक्ष पद के चुनाव ने साफ़ कर दिया कि संघ ने एक फिर से बीजेपी की कमान अपने हाथ में ले ली है.

मोहन भागवत और नितिन गडकरी
2013 में अगस्त की पहले हफ्ते में कोलकाता में आरएसएस ने सेमिनार रखा. सेमीनार का विषय था 'इस्लामिक फंडामेंटलिज्म'. इस सेमिनार में देश भर से 220 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. सेमिनार के बाद मोहन भागवत ने पत्रकारों से औपचारिक बातचीत के दौरान कहा-

"मोदी अकेले ऐसे राजनेता हैं जो संघ की विचारधारा के साथ अब तक जुड़े हुए हैं."

13 सितम्बर 2013, मोहन भागवत से पत्रकारों की बातचीत के करीब एक महीने बाद नरेंद्र मोदी को आधिकारिक तौर पर बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. नरेंद्र मोदी के लिए संघ का समर्थन हासिल करना आसान नहीं था. गुजरात में गोवर्धन जड़ाफिया और संजय जोशी रैडिकल हिन्दू लाइन वाले नेता माने जाते थे. नरेंद्र मोदी ने बड़ी सफाई के साथ उन्हें बीजेपी में किनारे लगा दिया. इस वजह से संघ और मोदी के बीच रिश्ते बहुत सहज नहीं थे. आखिर में मोहन भागवत ने नरेंद्र मोदी के नाम पर अपनी सहमति जताई. इस समय तर्क दिया गया कि अगर नरेंद्र मोदी संघ के एजेंडा से इतर काम करते हैं तो 2019 में उनसे हिसाब बराबर कर लिया जाएगा.

मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी

मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ की कार्यशैली में बड़े बदलाव देखने को मिले हैं. संघ की बीजेपी पर जो पकड़ अब भी है वो इतिहास में कभी नहीं रही. इसके अलावा संघ के अनुषांगिक संगठनों की संख्या और सदस्यता में भी बड़ा इजाफा हुआ है. आज संघ के मुख्य 36 मुख्य अनुषांगिक संगठन काम कर रहे हैं. देश भर में करीब डेढ़ लाख प्रोजेक्ट्स पर काम चल रहा है. शुरुआती दौर में मोहन भागवत संघ के अबतक के सबसे कमजोर सरसंघचालक कहे जाते थे. 2014 के बाद स्थितियां बदल गई हैं. आज सरसंघचालक के चारों तरफ Z प्लस सुरक्षा का घेरा चलता है. यह जान के खतरे की बजाय उनके सियासी हैसियत की गवाही देता है. संघ के ताजा उभार को इतने से समझा जा सकता है कि मंत्रिमंडल विस्तार से ठीक दो दिन पहले बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष संघ की बैठक में सामान्य कार्यकर्ता की तरह पिछली सीट पर बैठा देखा जाता है.

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